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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13168
आईएसबीएन :9788192434100

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कंकाल' भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्‌घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़नेवाले धर्माचार्यों, समाज- सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज है

'कंकाल' भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्‌घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़नेवाले धर्माचार्यों, समाज- सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज है।
आकस्मिकता और कौतूहल के साथ-साथ मानव-मन के भीतरी पर्तों पर होनेवाली हलचल इस उपन्यास को गहराई प्रदान करती है।
हदय-परिवर्तन और सेवा-भावना स्वतन्त्रता- कालीन मूल्यों से जुड़कर इस उपन्यास में संघर्ष और अनुकूलन को भी सामाजिक कल्याण की दृष्टि का माध्यम बना देते हैं। उपन्यास अपने समय के नेताओं और स्वयं- सेवकों के चरित्रांकन के माध्यम से एक दोहरे चरित्रवाली जिस संस्कृति का संकेत करता और बनते हुए जिन मानव-सम्बन्धों पर घंटी और मंगल के माध्यम से जो रोशनी फेंकता है वह आधुनिक यथार्थ की पृष्ठभूमि बन जाता है। सर्जनात्मकता की इस सांकेतिक क्षमता के कारण यह उपन्यास यथार्थ के भीतर विद्यमान उन शक्तियों को भी अभिव्यक्त कर सका है जो मनुष्य की जय-यात्रा पर विश्वास दिलाती है।

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