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कहानीकार प्रेमचन्द : रचना दृष्टि और शिल्प

शिवकुमार मिश्र

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13164
आईएसबीएन :9788180310795

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प्रस्तुत पुस्तक लगभग एक दशक की चिंतन-यात्रा की पगडण्डी है जिसमें कथा-समीक्षा की एक पद्धति निकालने की कोशिश की गयी है

19 वीं सदी का उत्तरार्द्ध हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का प्रस्थान-बिन्दु है। पं. रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इस आधुनिक काल को 'गद्य काल' की संज्ञा दी है। आधुनिक काल की दूसरी अनेक विशेषताओं के अलावा उसकी एक महत्वपूर्ण विशेषता आधुनिक काल में खड़ी बोली गद्य, गद्य-भाषा ओर गद्य-विधाओं का उदय और विकास है। प्रस्तुत पुस्तक लगभग एक दशक की चिंतन-यात्रा की पगडण्डी है जिसमें कथा-समीक्षा की एक पद्धति निकालने की कोशिश की गयी है ! इस कहानी में आलोचना की वही विश्लेषणात्मक पद्धति अपनाई गई है जो पिछले कुछ दशकों से छोटी कविताओं के विश्लेषण में सफल पाई गई थी ! इस निबंध से, मेरे निकट, उन लोगों के लिए भी उत्तर प्रस्तुत था जिनका यह आरोप था कि मैं कहानी-समीक्षा में काव्य-समीक्षा की पद्धति का बलात उपयोग करके भूल कर रहा हूँ ! हिंदी आलोचना जो अभी तक मुख्यतः काव्य-समीक्षा रही है, कविता से कथा-नाटक आदि साहित्य-रूपों का विधिवत विश्लेषण करके ही अपने को सुसंगत एवं समृद्ध बना सकती है ! कहानी-समीक्षा सम्बन्धी ये निबंध इसी दिशा में विनम्र प्रयास हैं ! इसीलिए इनका महत्त केवल कहानियों की समीक्षा तक सीमित न होकर एक व्यापक समीक्षा-पद्धति के निर्माण की दिशा में है !वीं सदी के उत्तरार्द्ध में विज्ञान के विकास तथा औद्योगिक प्रगति के साथ जब छापेखाने का आविष्कार हुआ, हिन्दी में समाचार-पत्रों तथा पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ 1 इन पत्र-पत्रिकाओं में ही सबसे पहले गद्य की कहानी, आलोचना, निबन्ध तथा रेखाचित्र जैसी विधाओं ने रूप पाया। अतएव कहा जा सकता है कि गद्य की दूसरी तमाम विधाओं के साथ, आज जिसे हम कहानी या लघु-कहानी के नाम से जानते है, वह अपने वर्तमान रूप में 1 वीं सदी के उत्तरार्द्ध की ही देन है।
कहानी एक संक्षिप्त, कसावपूर्ण, कल्पना-विवरण है जिसमें एक प्रधान घटना अहोती है,र और एक प्रमुखपात्र होता है। इसमें एक कथावस्तु होती हे जिसका विवरण इतना सूक्ष्म तथा निरूपण इतना संगठित होता है कि वह पाठकों पर एक निश्चित प्रभाव छोड़ता है।
कहानी की प्राचीन परंपरा को महत्व देने के बावजूद आधुनिक कहानी के बारे में प्रेमचन्द का सुस्पष्ट मत हे कि उपन्यासों की तरह आख्यायिका की कला भी हमने पश्चिम से ली है, कम से कम इसका आज का विकसित रूप तो पश्चिम का है ही।
' 'सबसे उत्तम कहानी वह होती है जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो।.. .बुरा आदमी भी बिकुल बुरा नहीं होता। उसमें कहीं देवता अवश्य छिपा होता है, यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। उस देवता को खोलकर दिखा देना सफल आख्यायिका लेखक का काम है। प्रेमचन्द अपनी कहानी-चर्चा को आगे बढ़ाते हुए उसमें समस्या प्रवेश को जरूरी मानते हैं। किसी समस्या का समावेश कहानी को आकर्षक बनाने का सबसे उत्तम साधन है।

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