आलोचना >> कबीर की कविता कबीर की कवितायोगेन्द्र प्रताप सिंह
|
0 |
हिन्दी के गणमान्य आलोचकों की चिन्ता को ध्यान में रखकर इस कृति के माध्यम से कबीर के कवितात्व पर पड़े आवरणों को हटाकर उनके सृजन सन्दर्भ को स्पष्ट करना यहाँ मुख्य मन्तव्य है
इक्कीसवीं शती के प्रथम शतक में हिन्दी साहित्य के मध्यकाल के आलोचकों की यह विशेष चिन्ता दिखाई पड़ती है कि कबीर के सृजन सन्दर्भ का मूल्यांकन किया जाए। वे कबीर के सृजन सन्दर्भ के ऊपर पर्त - दर-पर्त पड़े हुये उन आवरणों को साफ करके उनके कवि व्यक्तित्व का दीप्त तथा निर्मल स्वरूप देखने के लिए चिन्तित हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आज अनेक आवरणों के बीच छिपे कबीर के दीप्त कवि के व्यक्तित्व को स्पष्ट करने की आवश्यकता है। कबीर के कवि व्यक्तित्व के सन्दर्भ में यह स्मरण दिलाना पुन: आवश्यक है कि उनका सम्बन्ध भारत की उस आध्यात्मिक कविता से है जो यहाँ हजारों-हजारों वर्षो से चली आ रही है। आध्यात्मिक कविता की धारा संस्कृत के ललित साहित्य की धारा, कालिदास एवं दण्डिन की परम्परा से भिन्न एवं प्राचीन रही है। आध्यात्मिक कविता- धारा आज तक अक्षुण्ण है। यही कविता भारतीय अस्मिता की कविता है। यही कविता अक्षरित भारतीय संस्कृति की कविता है। यह कविता निखिल मानव जाति को भौतिक संतापों की विषमता तथा उसके द्वारा मिथ्या कल्पित देह, गेह, वर्ण, जाति, लिप्सा, अहम् आदि से मुक्ति दिलाने की कविता है। कबीर की समूची आध्यात्मिक कविता इसी मर्म से जुड़ी है।
हिन्दी के गणमान्य आलोचकों की चिन्ता को ध्यान में रखकर इस कृति के माध्यम से कबीर के कवितात्व पर पड़े आवरणों को हटाकर उनके सृजन सन्दर्भ को स्पष्ट करना यहाँ मुख्य मन्तव्य है।
इस सन्दर्भ में यहाँ चेष्टा की गई है कि आध्यात्मिक कविता के अक्षरित सत्य के आस्वाद से पाठकों का साक्षात्कार कराया जाए क्योंकि इस कविता में प्रतिबद्ध कविता की भांति) अक्षरित सत्य तथा कवितात्व दोनों अद्वैतभाव से निरन्तर जुड़े मिलते हैं।
|