कहानी संग्रह >> यह दाग दाग उजाला यह दाग दाग उजालाकुर्रतुल ऐन हैदर
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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
क़ुर्रतुलऐन हैदर की कहानियाँ अपनी विषय-वस्तु, चरित्र-चित्रण, तकनीक,
भाषा और शैली हर तरह से उर्दू कहानी साहित्य में उल्लेखनीय
‘इज़ाफा’ मानी जा सकती हैं। इन्सान और इन्सानियत पर गहरा
विश्वास उनकी कहानी-कला और चिन्तन में केन्द्र-बिन्दु की हैसियत रखता है।
उनकी किसी भी कहानी को भारत की विशेष गौरवशाली संस्कृति, उसकी
चिन्तन-परम्परा, उसके इतिहास, उसके भूगोल या एक शब्द में कहना चाहिए कि
उसके जीवन से पृथक करके सही तौर पर नहीं समझा जा सकता। यद्यपि उनकी रुचि
उपन्यास-लेखन में अधिक है...फिर भी पिछले दशकों में उन्होंने कहानी-कला को
जो नयी दिशाएँ, नये आयाम और गति प्रदान की है वह उर्दू कहानी के माध्यम से
भारतीय कहानी-लेखन परम्परा में उनका अमूल्य योगदान है।
ऐसे सशक्त कथाकार की प्रतिनिधि कहानियों का नया संस्करण हिन्दी पाठकों को समर्पित है।
ऐसे सशक्त कथाकार की प्रतिनिधि कहानियों का नया संस्करण हिन्दी पाठकों को समर्पित है।
भूमिका
प्रथम संस्करण से
उर्दू की प्रथम मौलिक कहानी का ज़िक्र छिड़ते ही अकसर लोगों की जिह्य पर
इंशा अल्लाह खाँ इंशा (1756-1818) का नाम आ जाता है। इंशा अल्लाह कृत रानी
केतकी की कहानी (1800) और ‘सिल्के गुहर’ को उर्दू
कहानी के
आरम्भिक चिन्ह मानने वाले को यह नहीं भूलना चाहिए कि उर्दू में
‘दास्तान’ और ‘कहानी’ दो पृथक
विधाएँ हैं। फिर
दास्तान और अफ़साने में भाषा और मिज़ाज का फ़र्क़ होता है। इस बुनियादी
फ़र्क़ को दृष्टि में रखकर इंशा अल्लाह खाँ की इन रचनाओं को संक्षिप्त
दास्तानें तो निस्संकोच माना जा सकता है किन्तु प्रथम मौलिक कहानियाँ
स्वीकार कर इंशा को उर्दू के आद्य कथाकार का दर्जा नहीं दिया जा सकता।
हमें यह तथ्य भी विस्मृत नहीं करना चाहिए कि स्वयं इंशा अल्लाह खाँ ने
अपनी इस कृति को ‘दास्तान रानी केतकी और कुँवर उदयभान
की’
शीर्षक दिया था। स्पष्ट है इसके बाद भी उसे ‘दास्तान’
के
स्थान पर ‘कहानी’ मानना युक्तिसंगत नहीं होगा।
ऊर्दू भाषा में एक पृथक गद्य-विधा के रूप में कहानी के प्रथम चिन्ह उन्नीसवीं शताब्दी के पहले दशक में फ़ोर्ट विलियम कालेज से सम्बन्द्ध लेखकों द्वारा तैयार की गयी पुस्तकों में मिलते हैं। प्रोफ़ेसर इबादत बरेवली ने हैदर बख़्श हैदर की 174 कहानियों का संकलन पेश करते हुए उसकी भूमिका में लिखा है कि इन कहानियों को पढ़ने के बाद वे इस निष्कर्ष तक पहुँचे हैं कि ये कहानियाँ न केवल ऊर्दू के साहित्यिक गद्य का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती हैं वरन् कहानी परम्परा के निर्माण में भी बड़ा महत्त्व रखती हैं क्योंकि इनमें लघुकथा अथवा शार्ट-स्टोरी की कलात्मक झलकियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। सारी कहानियां किसी ख़ास विचार-बिन्दु पर आधारित हैं। इनमें सांस्कृतिक, मानसिक और भावात्मक सच्चाईयाँ प्रतिबिम्बित होकर कला के साँचे में ढल गयी हैं। प्रोफ़ेसर इबादत बरेलवी के इस दावे के बावजूद हैदर बख़्श हैदरी की उक्त रचनाओं को उस कहानी के सम्मुख नहीं रखा जा सकता जिसके लिए शार्ट-स्टोरी टर्म का प्रयोग किया जाता हैं। हैदरी की रचनाओं को ऊर्दू में कहानी विधा के आरम्भिक चिन्ह अवश्य कहा जा सकता है।
सही मानों में ऊर्दू कहानी का आरम्भ सैयद अहमद ख़ाँ (1817-1898) कृत कहानी ‘गुजरा हुआ ज़माना’ के प्रकाशन (1874) के साथ होता है। यह कहानी आज भी आलोचकों द्वारा बनाई गयी कड़ी-से-कड़ी कसौटी पर खरी उतरती है। ‘गुजरा हुआ जमाना’ के अतिरिक्त सैयद अहमद ख़ाँ की कुछ और कहानियाँ भी मिलती हैं जिनमें ‘जाहिद और फ़्लासफ़र की कहानी’, ‘ख्वाब था जो कुछ कि देखा’, ‘एक नादान खुदा-परस्त और दाना दुनियादार’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। यह सारी कहानियाँ उनकी सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘तहज़ीबुलअख़्लाक़, के विभिन्न अंगों में प्रकाशित हुई हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी ही में प्रकाशित होनेवाली, अन्य लेखकों की मौलिक कहानियों में ‘एक ख़त’ (पंडित रतनलाल) ‘ख़्वाब-परेशाँ’ (मौलवी इनायतउल्लाह) ‘ऐ बसा आरजू की ख़ाकशुदा’ (सैयद मोहम्मद अली शकील) ‘एक पुरानी दीवार’ (अली महमूद) ‘एक हिकायत’ (मौलवी नजीर अहमद) ‘इस मज़मून को पढ़कर.....’ (मुंशी सज्जाद हुसैन) आदि ख़ास तौर से उल्लेखनीय हैं। इस दौर की कहानियों में आपबीती, स्वप्न संवाद फ्लैश-बैक, वगैरह तकनीक के प्रयोग भी मिलते हैं।
अब तक शोधकर्ता के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी के अष्टम दशक में उर्दू की प्रथम मौलिक कहानियाँ प्रकाशित हुईं।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ के साथ ही पहले सज्जाद हैदर यल्दरम और फिर मुंशी प्रेमचंद्र द्वारा ऊर्दू कहानी के नए दौर की शुरूआत हुई। इस दौर के अन्य कहानीकारों में सुल्तान हैदर जोश, राशिदुल खैरी, दुदर्शन नियाज़ फ़तेहपुरी, मजनूं गोरखपुरी, हकी अहमद शुजाअ वगैरह तथा दो महिला कथाकार नज्र सज्जाद हैदर और हिसाब इस्माईल (विवाह उपरान्त हिजाब इम्तियाज़ अली नाम से प्रसिद्ध हुई) के नाम विशेषताः उल्लेखनीय हैं।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक तीन दशकों में ऊर्दू कहानी साहित्य में पृथक–पृथक और कभी एक-दूसरे में सम्मानित दिखाई देती हैं।
यल्दरम की तेहरीरों द्वारा ऊर्दू में ‘अदबे-लतीफ़’ (Prose Fancy) का आरम्भ हुआ। रूमानी रूझान के सभी लेखकों पर उनका प्रभाव रहा हैं। साथ ही उनकी कई महत्त्वपूर्ण कहानियाँ भी प्रकाशित हुईं जिनके लिए पहली बार ‘किस्से’ के बदले ‘अफसाना’ शब्द प्रयोग किया गया। जीवन के नवीतम मूल्यों को स्वीकारने तथा प्रचलित सामाजिक कुरीतियों और नैतिक नियमो को बदलने की प्रबल इच्छा उनकी कहानियों में कलात्मक अभिव्यक्ति मिली है।
नियाज़ फ़तेहपुरी, मजनूँ गोरखपुरी और हिजाब इस्माईल आदि के नाम भी रूमानी दौर के कहानीकारों में विशेष महत्त्व रखते हैं। इन सभी की रचनाओं में कल्पना प्रधानता और आध्यात्मिक रूझान नज़र आता है जिसके कारण विषय गौण हो जाता है। प्रकृति और सुन्दरता के प्रति समर्पित यह कहानीकार मानवप्रेम, विश्वबन्धुता, आजादी और स्वतन्त्र विचारधारा के प्रवर्तक और समर्थक हैं और धार्मिक तथा नैतिक मान्यताओं के प्रभुत्व को अस्वीकार करते हैं।
प्रेमचन्द की आरम्भिक कहानियों पर रूमानियत और आदर्शवाद का पुट स्पष्ट नज़र आता है। उन्होंने अतीत को न केवल उसके स्वस्थ और मनोरम पहलुओं के साथ आदर्श बनाकर रूमानी ढंग से प्रस्तुत किया अपितु बदलते समय की चुनौतियाँ स्वीकार कर अपने लिए एक पृथक मार्ग निर्माण करने का भरकस प्रयत्न किया। यथार्थवाद का यह मार्ग उनके लिए अत्यन्त उपयुक्त और अनुकूल सिद्ध हुआ।
प्रेमचन्द 1917 से हिन्दी में भी लिखने लगे थे किन्तु इसके साथ-साथ अपने अन्तिम समय तक वे ऊर्दू में भी लिखते रहे क्योंकि खड़ी बोली के यह दोनों रूप उनकी दृष्टि में एक-दूसरे के पूरक हैं। इसी प्रकार अपनी कहानियों में वे आदर्शवाद और सुधारवाद प्रवृत्ति से भी आजीवन जुड़े रहे। उर्दू कहानी में यथार्थवाद की सशक्त परम्परा स्थापित करने वालों में वे अग्रगण्य हैं।
हिन्दी साहित्य की तरह ऊर्दू कथा साहित्य ही नहीं वरन समूचे ऊर्दू साहित्य का इतिहास अपूर्ण समझा जाएगा।
सन् 1932 में ‘अंगारे’ शीर्षक एक कहानी संकलन के प्रकाशन के साथ ऊर्दू कहानी में एक नया मोड़ आया। यहाँ से कहानी विधा पुनः नयी सम्भावनाओं और नये आयामों से परिचित हुई। ’अंगारे’ के नौजवान लेखकों ने अपनी इन कहानियों में समसायिकता जीवन की समस्याओं को अभिव्यक्त देने के मामले में जितनी निर्भीकता से काम लिया था उतनी निर्भीकता ‘अंगारे’ से पूर्व लिखी गयी कहानियों में कहीं नज़र नहीं आती। धर्म और समाज की असंगतियों पर उन्होंने सीधा प्रहार किया था जिसे पढ़कर धर्म और समाज के ठेकेदार भड़क उठे थे और उन्होंने ‘अंगारे’ के विरोध में ज़बरदस्त प्रचार-अभियान चलाकर अन्ततः सरकार द्वारा उसे ज़ब्त करा दिया। ‘अंगारे’ की ज़ब्ती तो सम्भव थी सो हो गई किन्तु उसके द्वारा फैलनेवाली स्वतन्त्र-निडर अभिव्यंजना की लहर पर प्रतिबन्ध लगाना मुमकिन न था। अतः यहाँ से उर्दू कहानी की एक नयी परम्परा ने जन्म लिया जिसमें आगे चलकर ‘कफन’ और ‘आखिरी कोशिश’ जैसी कहानियाँ लिखी गई और फिर इसी परम्परा को सआदत हसन मण्टों और इस्मत चुग़ताई आदि ने अपनाया।
आज यदि हम ‘अंगारे’ की कहानियों का अध्ययन करें तो वह हमें उतनी उत्तेजक महसूस न होंगी बल्कि फ़ीकी और साधारण-सी प्रतीत होंगी। अब इसका महत्त्व केवल ऐतिहासिक होकर रह गया हैं, किन्तु जब कभी उर्दू कहानी की नयी परम्परा और यथार्थ की बेबाक अभिव्यक्ति की बात होगी, ‘अंगारे का ज़िक्र ज़रूर किया जाएगा।
प्रेमचन्द्र और ‘अंगारे’ के लेखकों में नयी उर्दू कहानी को जिस मंजिल तक पहुँचा दिया था, वहाँ से प्रगतिशील आन्दोलन के साथ एक पूरी-की-पूरी नस्ल ने कहानी विधा को अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया। वास्तव में यह प्रगतिशील लेखकों का अग्रगामी दल था जिसके मानसिक प्रशिक्षण में पश्चिम जगत के आधुनिक आन्दोलनों के साथ मार्क्सवादी की क्रान्तिकारी विचारधारा का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है जो उस युग के साहित्यकार को नयी गति और आयाम दे रही थी।
प्रगतिशील कहानीकारों ने स्वयं को समय की धारा से अलग करने की चेष्ठा नहीं की अपितु क्षण-प्रतिक्षण बदलती हुई प्रकृति और समय के परिवेश में उन कारणों और प्रतिक्रियाओं को समझने का प्रयत्न किया जिनमें मानव-जीवन घिरा हुआ था। यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने नयी शैलियाँ तलाश कीं और समसामयिक जीवन को अपनी कला में सरोकार उर्दू कहानी की एक नयी परम्परा को जन्म दिया जिसमें रूमानी लेखकों की आकांक्षाएं, मानव-प्रेम का आदर्शवाद, सुधारवाद, सहानुभूति यथार्थ चित्रण की एक विशेष पद्धति और उनकी कला-चेतना शामिल थी। प्रगतिशील कहानीकारों का अपना स्पष्ट दृष्टिकोण और सैद्धान्तिक बुनियादें भी थीं।
ऊर्दू की प्रगतिवादी कहानियों में विशेषतः तीन रुझान नजर आते हैं। पहला सामाजिक यथार्थ की अभिव्यजंना का रुझान है जिसका प्रतिनिधित्व (प्रेमचन्द सहित) हयातुल्लाह अंसारी, उपेन्द्रनाथ अश्क, अली अब्बास हुसैनी, रशीद जहाँ, अहमद अली, राजेन्द्र सिंह बेदी, अख़्तर अंसारी, अख़्तर औरैनवी, सुहैल अजीमाबादी, हाज़रा मस्रूर, बलवन्त सिंह, प्रकाश पण्डित, हंशराज रहबर और शौकत सिद्धीकी इत्यादि
हयातुल्लाह अंसारी की कहानियों में सामाजिक यथार्थ के रूप से ज्यादा उसकी कुरूपता मुखरित हुई है। उनमें सर्वहारा वर्ग के दबे-कुचले इंसान अपने वास्तविक माहौल और परिवेश में साँस लेते प्रतीत होते हैं। ‘आखि़री कोशिश’ ‘सहारे की तलाश’ ‘ढाई सेर आटा’ ‘कमजोर पौदा’ ‘भरे बाज़ार में’ और मोज़ों का कारखाना’ वगैरह जैसी कहानियाँ उनकी कला-कौशल के उत्कृष्ट प्रतिमान है। ‘ढाई सेर आटा’ उर्दू की पहली मार्क्सिस्ट कहानी मानी जाती है लेकिन ‘आख़िर कोशिश’ में हयातुल्लाह अंसारी की लेखनी यथार्थ चित्रण के उस शिखर पर पहुँचकर गयी हैं, जहाँ तक प्रेमचन्द की पहुँच भी नहीं हो सकी है। ‘कफन’ उर्दू की सम्पूर्ण और शाहाकार कहानी कहलाने के बावजूद यथार्थ चित्रण के मामले में ‘आखिरी कोशिश’ से बहुत पीछे है।
ऊर्दू भाषा में एक पृथक गद्य-विधा के रूप में कहानी के प्रथम चिन्ह उन्नीसवीं शताब्दी के पहले दशक में फ़ोर्ट विलियम कालेज से सम्बन्द्ध लेखकों द्वारा तैयार की गयी पुस्तकों में मिलते हैं। प्रोफ़ेसर इबादत बरेवली ने हैदर बख़्श हैदर की 174 कहानियों का संकलन पेश करते हुए उसकी भूमिका में लिखा है कि इन कहानियों को पढ़ने के बाद वे इस निष्कर्ष तक पहुँचे हैं कि ये कहानियाँ न केवल ऊर्दू के साहित्यिक गद्य का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती हैं वरन् कहानी परम्परा के निर्माण में भी बड़ा महत्त्व रखती हैं क्योंकि इनमें लघुकथा अथवा शार्ट-स्टोरी की कलात्मक झलकियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। सारी कहानियां किसी ख़ास विचार-बिन्दु पर आधारित हैं। इनमें सांस्कृतिक, मानसिक और भावात्मक सच्चाईयाँ प्रतिबिम्बित होकर कला के साँचे में ढल गयी हैं। प्रोफ़ेसर इबादत बरेलवी के इस दावे के बावजूद हैदर बख़्श हैदरी की उक्त रचनाओं को उस कहानी के सम्मुख नहीं रखा जा सकता जिसके लिए शार्ट-स्टोरी टर्म का प्रयोग किया जाता हैं। हैदरी की रचनाओं को ऊर्दू में कहानी विधा के आरम्भिक चिन्ह अवश्य कहा जा सकता है।
सही मानों में ऊर्दू कहानी का आरम्भ सैयद अहमद ख़ाँ (1817-1898) कृत कहानी ‘गुजरा हुआ ज़माना’ के प्रकाशन (1874) के साथ होता है। यह कहानी आज भी आलोचकों द्वारा बनाई गयी कड़ी-से-कड़ी कसौटी पर खरी उतरती है। ‘गुजरा हुआ जमाना’ के अतिरिक्त सैयद अहमद ख़ाँ की कुछ और कहानियाँ भी मिलती हैं जिनमें ‘जाहिद और फ़्लासफ़र की कहानी’, ‘ख्वाब था जो कुछ कि देखा’, ‘एक नादान खुदा-परस्त और दाना दुनियादार’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। यह सारी कहानियाँ उनकी सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘तहज़ीबुलअख़्लाक़, के विभिन्न अंगों में प्रकाशित हुई हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी ही में प्रकाशित होनेवाली, अन्य लेखकों की मौलिक कहानियों में ‘एक ख़त’ (पंडित रतनलाल) ‘ख़्वाब-परेशाँ’ (मौलवी इनायतउल्लाह) ‘ऐ बसा आरजू की ख़ाकशुदा’ (सैयद मोहम्मद अली शकील) ‘एक पुरानी दीवार’ (अली महमूद) ‘एक हिकायत’ (मौलवी नजीर अहमद) ‘इस मज़मून को पढ़कर.....’ (मुंशी सज्जाद हुसैन) आदि ख़ास तौर से उल्लेखनीय हैं। इस दौर की कहानियों में आपबीती, स्वप्न संवाद फ्लैश-बैक, वगैरह तकनीक के प्रयोग भी मिलते हैं।
अब तक शोधकर्ता के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी के अष्टम दशक में उर्दू की प्रथम मौलिक कहानियाँ प्रकाशित हुईं।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ के साथ ही पहले सज्जाद हैदर यल्दरम और फिर मुंशी प्रेमचंद्र द्वारा ऊर्दू कहानी के नए दौर की शुरूआत हुई। इस दौर के अन्य कहानीकारों में सुल्तान हैदर जोश, राशिदुल खैरी, दुदर्शन नियाज़ फ़तेहपुरी, मजनूं गोरखपुरी, हकी अहमद शुजाअ वगैरह तथा दो महिला कथाकार नज्र सज्जाद हैदर और हिसाब इस्माईल (विवाह उपरान्त हिजाब इम्तियाज़ अली नाम से प्रसिद्ध हुई) के नाम विशेषताः उल्लेखनीय हैं।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक तीन दशकों में ऊर्दू कहानी साहित्य में पृथक–पृथक और कभी एक-दूसरे में सम्मानित दिखाई देती हैं।
यल्दरम की तेहरीरों द्वारा ऊर्दू में ‘अदबे-लतीफ़’ (Prose Fancy) का आरम्भ हुआ। रूमानी रूझान के सभी लेखकों पर उनका प्रभाव रहा हैं। साथ ही उनकी कई महत्त्वपूर्ण कहानियाँ भी प्रकाशित हुईं जिनके लिए पहली बार ‘किस्से’ के बदले ‘अफसाना’ शब्द प्रयोग किया गया। जीवन के नवीतम मूल्यों को स्वीकारने तथा प्रचलित सामाजिक कुरीतियों और नैतिक नियमो को बदलने की प्रबल इच्छा उनकी कहानियों में कलात्मक अभिव्यक्ति मिली है।
नियाज़ फ़तेहपुरी, मजनूँ गोरखपुरी और हिजाब इस्माईल आदि के नाम भी रूमानी दौर के कहानीकारों में विशेष महत्त्व रखते हैं। इन सभी की रचनाओं में कल्पना प्रधानता और आध्यात्मिक रूझान नज़र आता है जिसके कारण विषय गौण हो जाता है। प्रकृति और सुन्दरता के प्रति समर्पित यह कहानीकार मानवप्रेम, विश्वबन्धुता, आजादी और स्वतन्त्र विचारधारा के प्रवर्तक और समर्थक हैं और धार्मिक तथा नैतिक मान्यताओं के प्रभुत्व को अस्वीकार करते हैं।
प्रेमचन्द की आरम्भिक कहानियों पर रूमानियत और आदर्शवाद का पुट स्पष्ट नज़र आता है। उन्होंने अतीत को न केवल उसके स्वस्थ और मनोरम पहलुओं के साथ आदर्श बनाकर रूमानी ढंग से प्रस्तुत किया अपितु बदलते समय की चुनौतियाँ स्वीकार कर अपने लिए एक पृथक मार्ग निर्माण करने का भरकस प्रयत्न किया। यथार्थवाद का यह मार्ग उनके लिए अत्यन्त उपयुक्त और अनुकूल सिद्ध हुआ।
प्रेमचन्द 1917 से हिन्दी में भी लिखने लगे थे किन्तु इसके साथ-साथ अपने अन्तिम समय तक वे ऊर्दू में भी लिखते रहे क्योंकि खड़ी बोली के यह दोनों रूप उनकी दृष्टि में एक-दूसरे के पूरक हैं। इसी प्रकार अपनी कहानियों में वे आदर्शवाद और सुधारवाद प्रवृत्ति से भी आजीवन जुड़े रहे। उर्दू कहानी में यथार्थवाद की सशक्त परम्परा स्थापित करने वालों में वे अग्रगण्य हैं।
हिन्दी साहित्य की तरह ऊर्दू कथा साहित्य ही नहीं वरन समूचे ऊर्दू साहित्य का इतिहास अपूर्ण समझा जाएगा।
सन् 1932 में ‘अंगारे’ शीर्षक एक कहानी संकलन के प्रकाशन के साथ ऊर्दू कहानी में एक नया मोड़ आया। यहाँ से कहानी विधा पुनः नयी सम्भावनाओं और नये आयामों से परिचित हुई। ’अंगारे’ के नौजवान लेखकों ने अपनी इन कहानियों में समसायिकता जीवन की समस्याओं को अभिव्यक्त देने के मामले में जितनी निर्भीकता से काम लिया था उतनी निर्भीकता ‘अंगारे’ से पूर्व लिखी गयी कहानियों में कहीं नज़र नहीं आती। धर्म और समाज की असंगतियों पर उन्होंने सीधा प्रहार किया था जिसे पढ़कर धर्म और समाज के ठेकेदार भड़क उठे थे और उन्होंने ‘अंगारे’ के विरोध में ज़बरदस्त प्रचार-अभियान चलाकर अन्ततः सरकार द्वारा उसे ज़ब्त करा दिया। ‘अंगारे’ की ज़ब्ती तो सम्भव थी सो हो गई किन्तु उसके द्वारा फैलनेवाली स्वतन्त्र-निडर अभिव्यंजना की लहर पर प्रतिबन्ध लगाना मुमकिन न था। अतः यहाँ से उर्दू कहानी की एक नयी परम्परा ने जन्म लिया जिसमें आगे चलकर ‘कफन’ और ‘आखिरी कोशिश’ जैसी कहानियाँ लिखी गई और फिर इसी परम्परा को सआदत हसन मण्टों और इस्मत चुग़ताई आदि ने अपनाया।
आज यदि हम ‘अंगारे’ की कहानियों का अध्ययन करें तो वह हमें उतनी उत्तेजक महसूस न होंगी बल्कि फ़ीकी और साधारण-सी प्रतीत होंगी। अब इसका महत्त्व केवल ऐतिहासिक होकर रह गया हैं, किन्तु जब कभी उर्दू कहानी की नयी परम्परा और यथार्थ की बेबाक अभिव्यक्ति की बात होगी, ‘अंगारे का ज़िक्र ज़रूर किया जाएगा।
प्रेमचन्द्र और ‘अंगारे’ के लेखकों में नयी उर्दू कहानी को जिस मंजिल तक पहुँचा दिया था, वहाँ से प्रगतिशील आन्दोलन के साथ एक पूरी-की-पूरी नस्ल ने कहानी विधा को अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया। वास्तव में यह प्रगतिशील लेखकों का अग्रगामी दल था जिसके मानसिक प्रशिक्षण में पश्चिम जगत के आधुनिक आन्दोलनों के साथ मार्क्सवादी की क्रान्तिकारी विचारधारा का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है जो उस युग के साहित्यकार को नयी गति और आयाम दे रही थी।
प्रगतिशील कहानीकारों ने स्वयं को समय की धारा से अलग करने की चेष्ठा नहीं की अपितु क्षण-प्रतिक्षण बदलती हुई प्रकृति और समय के परिवेश में उन कारणों और प्रतिक्रियाओं को समझने का प्रयत्न किया जिनमें मानव-जीवन घिरा हुआ था। यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने नयी शैलियाँ तलाश कीं और समसामयिक जीवन को अपनी कला में सरोकार उर्दू कहानी की एक नयी परम्परा को जन्म दिया जिसमें रूमानी लेखकों की आकांक्षाएं, मानव-प्रेम का आदर्शवाद, सुधारवाद, सहानुभूति यथार्थ चित्रण की एक विशेष पद्धति और उनकी कला-चेतना शामिल थी। प्रगतिशील कहानीकारों का अपना स्पष्ट दृष्टिकोण और सैद्धान्तिक बुनियादें भी थीं।
ऊर्दू की प्रगतिवादी कहानियों में विशेषतः तीन रुझान नजर आते हैं। पहला सामाजिक यथार्थ की अभिव्यजंना का रुझान है जिसका प्रतिनिधित्व (प्रेमचन्द सहित) हयातुल्लाह अंसारी, उपेन्द्रनाथ अश्क, अली अब्बास हुसैनी, रशीद जहाँ, अहमद अली, राजेन्द्र सिंह बेदी, अख़्तर अंसारी, अख़्तर औरैनवी, सुहैल अजीमाबादी, हाज़रा मस्रूर, बलवन्त सिंह, प्रकाश पण्डित, हंशराज रहबर और शौकत सिद्धीकी इत्यादि
हयातुल्लाह अंसारी की कहानियों में सामाजिक यथार्थ के रूप से ज्यादा उसकी कुरूपता मुखरित हुई है। उनमें सर्वहारा वर्ग के दबे-कुचले इंसान अपने वास्तविक माहौल और परिवेश में साँस लेते प्रतीत होते हैं। ‘आखि़री कोशिश’ ‘सहारे की तलाश’ ‘ढाई सेर आटा’ ‘कमजोर पौदा’ ‘भरे बाज़ार में’ और मोज़ों का कारखाना’ वगैरह जैसी कहानियाँ उनकी कला-कौशल के उत्कृष्ट प्रतिमान है। ‘ढाई सेर आटा’ उर्दू की पहली मार्क्सिस्ट कहानी मानी जाती है लेकिन ‘आख़िर कोशिश’ में हयातुल्लाह अंसारी की लेखनी यथार्थ चित्रण के उस शिखर पर पहुँचकर गयी हैं, जहाँ तक प्रेमचन्द की पहुँच भी नहीं हो सकी है। ‘कफन’ उर्दू की सम्पूर्ण और शाहाकार कहानी कहलाने के बावजूद यथार्थ चित्रण के मामले में ‘आखिरी कोशिश’ से बहुत पीछे है।
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