आलोचना >> आलोचकथा आलोचकथारामस्वरूप चतुर्वेदी
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'आलोचकथा' अकाल्पनिक गद्य को संपूर्ण रूप में बरतती है, जहाँ आत्मकथा-संस्मरण- रेखाचित्र-जर्नल- आलोचना के विविध रूप एक-दूसरे में घुल-मिल गये हैं
हिन्दी में आत्म-वृत्त कम हैं। इधर तो कहना चाहिए, उनका चलन कम ही हुआ है। सामाजिक शिष्टाचार और दबावों के कारण गोपन और संकोच की बढ़ती मनोवृत्ति शायद इसका कारण हो। ऐसे में ' आलोचकथा' का अपेक्षया नया विधान पाठकों का ध्यान सहज ही आकर्षित करेगा। यों तो क्या कहना है-क्या नहीं कहना है, इसकी चिंता लेखक-मात्र को होती है, पर आत्मकथा में यह समस्या कुछ और प्रबल हो उठती है। इस सामान्य लेखकीय समस्या का मूल स्रोत वस्तुत: भाषा की अपनी प्रकृति में ही अंतर्निहित है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह कहती भी है और छिपाती भी है, प्रकट भी करती है, छलती भी है। तब भाषा में ही सक्रिय रहने वाले रचनाकार को यह कला सहज ही आ भी जानी चाहिए। 'आलोचकथा' को तो इसका प्रमाण और दे सकना चाहिए क्योंकि इसके लेखक का मुख्य कार्य- क्षेत्र भाषा और संवेदना की अंतर-क्रिया के प्रदेशों में रहा है। यों, 'आलोचकथा' अकाल्पनिक गद्य को संपूर्ण रूप में बरतती है, जहाँ आत्मकथा-संस्मरण- रेखाचित्र-जर्नल- आलोचना के विविध रूप एक-दूसरे में घुल-मिल गये हैं। तब रचना के इन दोनों स्तरों पर 'आलोचकथा' का वैशिष्ट्य पाठक प्रीतिकर रूप में अनुभव कर सकेगा।
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