भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास हिन्दी साहित्य का आधा इतिहाससुमन राजे
|
6 पाठकों को प्रिय 77 पाठक हैं |
हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास महिला-लेखन के बने-बनाये पूर्वाग्रहों को तोड़ता है, साँचों को नकारता है, मिथकों को बदलता है और एक नये रचना-कर्म का आविष्कार करता है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह पहली बार है कि लोकगीतों को महिला लेखन का साक्ष्य मानते हुए उसे
इतिहास में दर्ज किया गया है, उसमें इतिहास तलाशा गया है और जन-इतिहास की
खोज की गयी है। और यह भी पहली बार है कि महिला-लेखन का एक समूचा साँस लेता
हुआ सौन्दर्यशास्त्र भी हमें हासिल हुआ है। हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास
महिला-लेखन के बने-बनाये पूर्वाग्रहों को तोड़ता है, साँचों को नकारता है,
मिथकों को बदलता है और एक नये रचना-कर्म का आविष्कार करता है।
समर्पण
निवेदित है यह कृति
विश्वारा, अपाला, ममता, श्रद्धा, वाक् आदि ऋषिकाओं को, चॉपा, अम्बपाली, उव्विरी आदि थेरियों को;
विज्जका, शीलाभट्टारिका, शशिप्रभा, रेवा, रोहा आदि संस्कृत-प्राकृत की कवयित्रियों को;
मीरा, आण्डाल, अक्कमहादेवी, लल्लद्येद, महदम्बा, मोल्लि आदि विद्रोहिणी साधिकाओं को;
महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, बुन्देलवाला, उषा देवीमित्रा आदि चेतना के ‘मुहरावल दस्ते’ को;
अनादिकाल से गा-गाकर रोती-हँसती उन स्त्रियों को जो साहित्य में भीतरी नदी की तरह बहती आयी हैं,
चन्द्रावली, मधुरावली लाची, भगवती आदि उन लोकनायिकाओं को जो कण्ठ से कण्ठ में जीवित रही हैं;
रामनरेश त्रिपाठी, देवेन्द्र, सत्यार्थी डॉ. सत्येन्द्र पारखी, रसज्ञ, संग्राहकों को;
राजशेखर, राहुल सांकृत्यायन, ज्योतिप्रसाद निर्मल, चतुरसेन शास्त्री जैसे संवेदनशील विद्वानों को जिन्होंने सम्भावनाओं को पहचाना; नानी, दादी और माँ को जो घुट्टी की जगह गीत पिलाती रहीं; और
उन नामवर आलोचकों को जो इस पूरी परम्परा से तटस्थ, उदासीन विमुख, और पूर्वाग्रही रहे, इस कथन के साथ कि, हम अपना खून तुम्हें माफ करते हैं, पर वे नहीं करेंगी जो आगे आएँगी।’
विश्वारा, अपाला, ममता, श्रद्धा, वाक् आदि ऋषिकाओं को, चॉपा, अम्बपाली, उव्विरी आदि थेरियों को;
विज्जका, शीलाभट्टारिका, शशिप्रभा, रेवा, रोहा आदि संस्कृत-प्राकृत की कवयित्रियों को;
मीरा, आण्डाल, अक्कमहादेवी, लल्लद्येद, महदम्बा, मोल्लि आदि विद्रोहिणी साधिकाओं को;
महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, बुन्देलवाला, उषा देवीमित्रा आदि चेतना के ‘मुहरावल दस्ते’ को;
अनादिकाल से गा-गाकर रोती-हँसती उन स्त्रियों को जो साहित्य में भीतरी नदी की तरह बहती आयी हैं,
चन्द्रावली, मधुरावली लाची, भगवती आदि उन लोकनायिकाओं को जो कण्ठ से कण्ठ में जीवित रही हैं;
रामनरेश त्रिपाठी, देवेन्द्र, सत्यार्थी डॉ. सत्येन्द्र पारखी, रसज्ञ, संग्राहकों को;
राजशेखर, राहुल सांकृत्यायन, ज्योतिप्रसाद निर्मल, चतुरसेन शास्त्री जैसे संवेदनशील विद्वानों को जिन्होंने सम्भावनाओं को पहचाना; नानी, दादी और माँ को जो घुट्टी की जगह गीत पिलाती रहीं; और
उन नामवर आलोचकों को जो इस पूरी परम्परा से तटस्थ, उदासीन विमुख, और पूर्वाग्रही रहे, इस कथन के साथ कि, हम अपना खून तुम्हें माफ करते हैं, पर वे नहीं करेंगी जो आगे आएँगी।’
प्रस्थान
इतिहास के परिप्रेक्ष्य में जब हम स्वयं को देखते हैं, तो हमारा
‘स्वयं’ अत्यन्त ‘लघु’ हो जाता
है। विराट् इतिहास
में हमारा अस्तित्व ठीक-ठीक एक बिन्दु के बराबर भी तो नहीं। अपने को
‘बड़ा’ करके देखने का एक सीधा और सरल तरीका यह
‘ईजाद’ किया गया कि हम इतिहास को ही छोड़ दें। हिन्दी
साहित्येतिहास के क्षेत्र में छाया हुआ सन्नाटा शायद इसीलिए है।
हिन्दी साहित्येतिहास लेखन के प्रारम्भिक प्रयास विदेशियों द्वारा किये गये थे। उनका उद्देश्य भारतीय साहित्य और संस्कृति को अपनी तरह से खँगालना था। भारतीय भाषाओं खासतौर पर हिन्दी के ज्ञाता एवं आख्याता होते हुए भी ग्रियर्सन जैसे विद्वान का उपनिवेशवादी दृष्टिकोण नहीं छिपता। उसे छिपाने की कोशिश भी की गयी हो, ऐसा भी नहीं है, अन्यथा वे कालविभाजन के लिए कम्पनी के अन्दर हिन्दुस्तान (1800-1857), विक्टोरिया की छत्र-छाया में हिन्दुस्तान (1857-1887) जैसे नामों का प्रयोग न करते। ‘मिश्रबन्धु-विनोद’ को भले उसके लेखकों ने ‘इतिहास’ न माना हो परन्तु उसके प्रकाशन में एक व्यापक और सामूहिक तैयारी की गयी थी, जिसके पीछे राष्ट्रीय नवजागरण की एक प्रच्छन्न भावना काम कर रही थी। वे लिखते हैं, ‘‘हमारे विचार में प्रायः सभी मुख्य एवं अमुख्य कवियों के नाम तथा उनके ग्रन्थों के कथन से एक तो इतिहास में पूर्णता आती है, दूसरे हिन्दी भण्डार का गौरव प्रकट होता है।’’ जाहिर है यहाँ साहित्येतिहास वही काम कर रहा था जो उस समय का अधिकांश रचनात्मक साहित्य कर रहा था। बीसवीं शताब्दी का दूसरा और तीसरा दशक इस दृष्टि से बहुत उत्साहपूर्ण था जिसमें साहित्येतिहास अपने को खोज रहा था। इस समय तरह-तरह के इतिहास लिखे गये और महिला लेखन के पृथक् से संकलन भी प्रस्तुत किये गये। इन्हें ठीक-ठीक इतिहास चाहे न कहा जा सके, लेकिन ये एक सार्थक शुरुआत तो हैं ही।
आजादी के बाद मोहभंग का कुछ ऐसा दौर आया जिसका शिकार साहित्य तो हुआ ही, साहित्येतिहास भी हुआ। ये तो चर्चाएँ हुईं कि साहित्येतिहास क्या होना चाहिए क्या नहीं होना चाहिए। चर्चा-परिचर्चा ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी, इतिहास-लेखन का हौसला कम होता गया और सवाल यह भी उछाला गया कि क्या ऐसा साहित्येतिहास हो सकता है जो साहित्य भी हो और इतिहास भी ? इसीलिए ‘विशेषीकरण’ की प्रवृत्ति का विकास हुआ और ‘बहुलेखकवाद’ अस्तित्व में आया जिसके चलते साहित्येतिहास निरन्तर विखण्डित होता चला गया। हम भूल गये कि सिद्धान्त से इतिहास नहीं निकलता, इतिहास से सिद्धान्त निकलते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि दूसरी बात जो अधिक चिन्ताजनक है वह यह कि साहित्य का दायरा निरन्तर छोटा होता चला गया। कुछ रचनाकार ‘धर्म’ के नाम पर काट दिये गये, कुछ ‘सम्प्रदाय’ के नाम पर, कुछ ‘प्रामाणिकता’ के नाम पर और कुछ ‘कलात्मक’ कसौटी पर पूरा न उतरने के कारण। इसका सबसे अधिक खामियाजा महिला लेखन को भुगतना पड़ा। जो कार्य आजादी के पहले इस दिशा में किया भी गया था उसे सिरे से ही अनदेखा कर दिया गया।
महिला-लेखन को पृथक् से देखने की बात जब भी चली, उसके बरक्स कई तर्क खड़े कर दिये गये। ‘अनुभूति तो एक होती है, अतः साहित्य भी एक होता है, यह और ऐसे ही कितने तर्क। लेकिन, साहित्येतिहास तो बहुत पहले से बाँटकर देखा, सोचा और लिखा जाता रहा है। युगों, धाराओं और विधाओं के इतिहास तो सर्वमान्य हैं, साहित्येतिहास तो सम्प्रदायों के आधार पर लिखे, गये, (जैसे निर्गुण काव्यधारा, पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, जम्भोजी और विश्नोई सम्प्रदाय, हीरालाल माहेश्वरी, वल्लभसम्प्रदाय- डॉ. दीनदयालु गुप्त, राधावल्लभ-सम्प्रदाय सिद्धान्त और साहित्य, डॉ. विजयेन्द्र स्नातक, श्री हितहरिवंश गोस्वामी सम्प्रदाय और साहित्य-ललित शरण गोस्वामी, चैतन्यमत और ब्रजसाहित्य-प्रभुदयाल मीतल आदि–आदि) विभिन्न भूखण्डों और उनकी बोलियों के आधार पर लिखे गये (जैसे कि, बुन्देलखण्ड के कवियों का विवरण-गौरीशंकर द्विवेदी राजस्थान साहित्य की रूपरेखा—मोतीलाल मेनारिया, राजस्थानी भाषा और साहित्य, हीरालाल माहेश्वरी, पंजाब प्रान्तीय हिन्दी साहित्य का इतिहास—चन्द्रकान्त बाली हिन्दी साहित्य और बिहार-शिवपूजन सहाय, कानपुर का हिन्दी साहित्य नरेशचन्द्र चतुर्वेदी आदि-आदि), विशिष्ट राजदरबारों के आधार पर लिखे गये, जैसे कि अकबरी दरबार के हिन्दी कवि डॉ. सरयूप्रसाद अग्रवाल, भगवन्त राम खींची और उनके मण्डल के कवि डॉ. महेन्द्र प्रताप सिंह, भोंसला राजदरबार के हिन्दी कवि डॉ. कृष्ण दिवाकर आदि) यहाँ तक कि जातिगत आधार पर लिखे गये (जैसे कि, सुकवि सरोज—सनाढ्य ब्राह्मणों का इतिहास, गौरीशंकर द्विवेदी, ब्रह्मभट्ट कवि सरोज—ब्रह्मभट्ट कवियों की विवेचना आदि) परन्तु महिला लेखन के आधार पर इतिहास का विभाजन कहीं नहीं है। अतः हमारी शताब्दी का साहित्येतिहास आधा-इतिहास ही है।
आधा-इतिहास लेखन इसलिए और जरूरी हो जाता है कि उपलब्ध सामग्री ऐसी-ऐसी दिशाओं की ओर संकेत करती है जहाँ साहित्येतिहासकार का ध्यान अभी तक गया ही नहीं था। अन्ततः बात तो दृष्टि की ही है न। दृष्टि के बदल जाने से ही साहित्येतिहास का यत्न से बनाया गया पूरा ढाँचा चरमराने लगता है। और हम बजाय दृष्टि को विकसित करने के अतिरिक्त सन्दर्भों, सूत्रों, वृत्तान्तों को काटने-छाँटने लगते हैं या इधर-उधर खोंसने लगते हैं। अब वक्त आ गया है कि हम अपनी परम्पराएँ शुद्ध कर लें। साहित्येतिहास से यह आशा करना कि वह नयी सामाजिक और साहित्यिक आवश्यकताओं के अनुरूप पुनर्गठित किया जाए, उसके साथ एक प्रकार का बलात्कार ही है। साहित्येतिहास लेखन की प्रक्रिया इतिहास बनाते हुए उसे खोजने की है।
पिछले कई दशकों से हिन्दी साहित्येतिहास से मेरी मुठभेड़ होती रही है, जिसके फलस्वरूप ‘साहित्येतिहास : स्वरूप और संरचना’ एवं ‘साहित्येतिहास : आदिकाल’ प्रकाशित हुईं। उसे आगे बढ़ाने की बजाय एक नयी किन्तु आदिम दृष्टि से हिन्दी साहित्य को देखने की इच्छा पनपने लगी। शायद इसका कारण यह रहा हो कि हिन्दी साहित्येतिहास को परखने का साहस पहली बार किसी स्त्री ने किया था। यह बात न तो दम्भ से कह रही हूँ, न विनम्रता से कहना चाहती हूँ, इसे एक तथ्य की तरह देखा जाना चाहिए। इसीलिए उस समग्र इतिहास को पूरा करने की बजाय आधा इतिहास को खोजने का आकर्षण जिद की सीमा तक-प्रबल हो उठा। लगभग एक दशक इस बनने बनाने की प्रक्रिया में लग गया।
जब इस बीहड़ में पैर रखा तो सोचा था कि प्रत्येक काल की कवयित्रियों पर लिखना पर्याप्त होगा। बस। लेकिन जैसा कि होता है, इतिहास को यदि छू लिया जाए तो वह कन्धों पर सवार हो जाता है, फिर जिधर वह ले जाता है, हम जाते हैं। अन्धकार की यात्राओं का आकर्षण कभी-कभी प्रकाश से अधिक प्रबल हो जाता है। धीरे-धीरे एक पूरी संरचना उभरकर सामने आने लगी। यह संरचना केवल हिन्दी साहित्य की नहीं है, समग्र भारतीय इतिहास की है, जिसका सम्बन्ध नवजागरणों से है। अचानक यह तथ्य कौंधा कि जब-जब इतिहास में नवजागरण घटित हुए हैं, महिला रचनाकारों का एक पूरा समूह उभरकर सतह पर आया है। नवजागरण सांस्कृतिक मन्थन ही तो होते हैं, और इस मन्थन में वे पैर जमाकर खड़ी हैं, कहीं-कहीं धारा के विपरीत भी, पूरी शक्ति और शब्द-संरचना के साथ।
तब साहित्येतिहासकारों द्वारा गढ़े गये कई सिद्धान्त बेमानी हो जाते हैं, कई-कई मिथक टूटते हैं, और नये बनते हैं। उनसे आपकी भेंट पुस्तक में यथास्थान होगी। लेकिन, कुछ चीजें ऐसी हैं, जिसने मेरे इतिहासकार को चिन्ताजनक आश्चर्य में डाल दिया है। जैसे कि यह तथ्य, कि काल और देश के एक ही बिन्दु पर मात्र भाषा बदलने से रचना की मूल-चेतना बदल जाती है। यदि मध्ययुग का उदाहरण लें तो हिन्दी-प्रदेश में महिलाएँ अरबी, फारसी, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी की विभिन्न बोलियों में रचना कर रही थीं। काल में समानान्तर होते हुए भी चेतना के स्तर परवे पृथक-पृथक् रचनाएँ हैं। ऐसी स्थिति में यदि भाषागत आधार मानकर इतिहास लिखें तो सबकी मूलप्रवृत्तियाँ पृथक्-पृथक हो जाएँगी। फिर जिसे शुक्ल जी ‘शिक्षित जनता की चित्तवृत्ति’ कहते हैं, उसे किसके साथ जोड़ा जाएगा। अभी तक हम साहित्येतिहास में खासतौर पर हिन्दी साहित्येतिहास में यही कहते-सुनते चले आये हैं कि राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार साहित्य बदलता है, और कार्यकारण की इस श्रृंखला की खोज ही साहित्येतिहास है तो यह प्रभाव एक काल की सभी भाषाओं पर क्यों नहीं है, और पुरुष-साहित्य तथा स्त्री-साहित्य पर समरूप में प्रतिबिम्बित क्यों नहीं होता ?
क्या हम एक नये सिरे से एक बहस के लिए अपने को तैयार कर पाएँगे ? दूसरी बात यह कि जो कुछ भी महिला-लेखन आज हम उपलब्ध कर सके हैं वह या तो धर्माश्रय के माध्यम से है या राज्याश्रय के माध्यम से। तीसरा और सबसे सशक्त स्रोत है लोकाश्रय। ये तीन आश्रयमात्र नहीं हैं, तीन वर्गों के प्रतीक हैं, इसलिए यदि स्त्री-साहित्य का इतिहास लिखना है तो बिना लोकसाहित्य का आश्रय लिये, लिखा जा ही नहीं सकता, ऐसा मेरा मानना है।
इसलिए पहली बार केवल लिखे अक्षर को प्रमाणित मानने की परम्परा तोड़कर, लोकसाहित्य की सहायता से इतिहास रचने की कोशिश, या कहिए दुस्साहस यहाँ किया गया है। केवल रचना ही नहीं, महिला-लेखन का एक पूरा ‘सौन्दर्यशास्त्र’ है, जिसे हम लोक-साहित्य से ही प्राप्त कर सकते हैं। पहली बार, ऐसी कोशिश भी यहाँ की गयी है। भाषा अलग-अलग होते हुए भी, काल और भूगोल अलग होते हुए भी, कुछ ऐसा है जो सम्पूर्ण महिला-लेखन को जोड़ता है और यह संवेदन सूत्र उनका स्त्री होना ही है। इस सूत्र के सहारे ही उन तक पहुँचा जा सकता है। यही कोशिश सहयात्री कविताओं के माध्यम के की गयी है। यहाँ कई नये प्रस्थान खुलते हैं, क्योंकि इतिहास सिर्फ समानताओं से नहीं बनते, असमानताएँ कभी-कभी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं क्योंकि सिर्फ वे ही हमें नये मुहानों तक पहुँचा सकती हैं।
हिन्दी साहित्येतिहास लेखन के प्रारम्भिक प्रयास विदेशियों द्वारा किये गये थे। उनका उद्देश्य भारतीय साहित्य और संस्कृति को अपनी तरह से खँगालना था। भारतीय भाषाओं खासतौर पर हिन्दी के ज्ञाता एवं आख्याता होते हुए भी ग्रियर्सन जैसे विद्वान का उपनिवेशवादी दृष्टिकोण नहीं छिपता। उसे छिपाने की कोशिश भी की गयी हो, ऐसा भी नहीं है, अन्यथा वे कालविभाजन के लिए कम्पनी के अन्दर हिन्दुस्तान (1800-1857), विक्टोरिया की छत्र-छाया में हिन्दुस्तान (1857-1887) जैसे नामों का प्रयोग न करते। ‘मिश्रबन्धु-विनोद’ को भले उसके लेखकों ने ‘इतिहास’ न माना हो परन्तु उसके प्रकाशन में एक व्यापक और सामूहिक तैयारी की गयी थी, जिसके पीछे राष्ट्रीय नवजागरण की एक प्रच्छन्न भावना काम कर रही थी। वे लिखते हैं, ‘‘हमारे विचार में प्रायः सभी मुख्य एवं अमुख्य कवियों के नाम तथा उनके ग्रन्थों के कथन से एक तो इतिहास में पूर्णता आती है, दूसरे हिन्दी भण्डार का गौरव प्रकट होता है।’’ जाहिर है यहाँ साहित्येतिहास वही काम कर रहा था जो उस समय का अधिकांश रचनात्मक साहित्य कर रहा था। बीसवीं शताब्दी का दूसरा और तीसरा दशक इस दृष्टि से बहुत उत्साहपूर्ण था जिसमें साहित्येतिहास अपने को खोज रहा था। इस समय तरह-तरह के इतिहास लिखे गये और महिला लेखन के पृथक् से संकलन भी प्रस्तुत किये गये। इन्हें ठीक-ठीक इतिहास चाहे न कहा जा सके, लेकिन ये एक सार्थक शुरुआत तो हैं ही।
आजादी के बाद मोहभंग का कुछ ऐसा दौर आया जिसका शिकार साहित्य तो हुआ ही, साहित्येतिहास भी हुआ। ये तो चर्चाएँ हुईं कि साहित्येतिहास क्या होना चाहिए क्या नहीं होना चाहिए। चर्चा-परिचर्चा ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी, इतिहास-लेखन का हौसला कम होता गया और सवाल यह भी उछाला गया कि क्या ऐसा साहित्येतिहास हो सकता है जो साहित्य भी हो और इतिहास भी ? इसीलिए ‘विशेषीकरण’ की प्रवृत्ति का विकास हुआ और ‘बहुलेखकवाद’ अस्तित्व में आया जिसके चलते साहित्येतिहास निरन्तर विखण्डित होता चला गया। हम भूल गये कि सिद्धान्त से इतिहास नहीं निकलता, इतिहास से सिद्धान्त निकलते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि दूसरी बात जो अधिक चिन्ताजनक है वह यह कि साहित्य का दायरा निरन्तर छोटा होता चला गया। कुछ रचनाकार ‘धर्म’ के नाम पर काट दिये गये, कुछ ‘सम्प्रदाय’ के नाम पर, कुछ ‘प्रामाणिकता’ के नाम पर और कुछ ‘कलात्मक’ कसौटी पर पूरा न उतरने के कारण। इसका सबसे अधिक खामियाजा महिला लेखन को भुगतना पड़ा। जो कार्य आजादी के पहले इस दिशा में किया भी गया था उसे सिरे से ही अनदेखा कर दिया गया।
महिला-लेखन को पृथक् से देखने की बात जब भी चली, उसके बरक्स कई तर्क खड़े कर दिये गये। ‘अनुभूति तो एक होती है, अतः साहित्य भी एक होता है, यह और ऐसे ही कितने तर्क। लेकिन, साहित्येतिहास तो बहुत पहले से बाँटकर देखा, सोचा और लिखा जाता रहा है। युगों, धाराओं और विधाओं के इतिहास तो सर्वमान्य हैं, साहित्येतिहास तो सम्प्रदायों के आधार पर लिखे, गये, (जैसे निर्गुण काव्यधारा, पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, जम्भोजी और विश्नोई सम्प्रदाय, हीरालाल माहेश्वरी, वल्लभसम्प्रदाय- डॉ. दीनदयालु गुप्त, राधावल्लभ-सम्प्रदाय सिद्धान्त और साहित्य, डॉ. विजयेन्द्र स्नातक, श्री हितहरिवंश गोस्वामी सम्प्रदाय और साहित्य-ललित शरण गोस्वामी, चैतन्यमत और ब्रजसाहित्य-प्रभुदयाल मीतल आदि–आदि) विभिन्न भूखण्डों और उनकी बोलियों के आधार पर लिखे गये (जैसे कि, बुन्देलखण्ड के कवियों का विवरण-गौरीशंकर द्विवेदी राजस्थान साहित्य की रूपरेखा—मोतीलाल मेनारिया, राजस्थानी भाषा और साहित्य, हीरालाल माहेश्वरी, पंजाब प्रान्तीय हिन्दी साहित्य का इतिहास—चन्द्रकान्त बाली हिन्दी साहित्य और बिहार-शिवपूजन सहाय, कानपुर का हिन्दी साहित्य नरेशचन्द्र चतुर्वेदी आदि-आदि), विशिष्ट राजदरबारों के आधार पर लिखे गये, जैसे कि अकबरी दरबार के हिन्दी कवि डॉ. सरयूप्रसाद अग्रवाल, भगवन्त राम खींची और उनके मण्डल के कवि डॉ. महेन्द्र प्रताप सिंह, भोंसला राजदरबार के हिन्दी कवि डॉ. कृष्ण दिवाकर आदि) यहाँ तक कि जातिगत आधार पर लिखे गये (जैसे कि, सुकवि सरोज—सनाढ्य ब्राह्मणों का इतिहास, गौरीशंकर द्विवेदी, ब्रह्मभट्ट कवि सरोज—ब्रह्मभट्ट कवियों की विवेचना आदि) परन्तु महिला लेखन के आधार पर इतिहास का विभाजन कहीं नहीं है। अतः हमारी शताब्दी का साहित्येतिहास आधा-इतिहास ही है।
आधा-इतिहास लेखन इसलिए और जरूरी हो जाता है कि उपलब्ध सामग्री ऐसी-ऐसी दिशाओं की ओर संकेत करती है जहाँ साहित्येतिहासकार का ध्यान अभी तक गया ही नहीं था। अन्ततः बात तो दृष्टि की ही है न। दृष्टि के बदल जाने से ही साहित्येतिहास का यत्न से बनाया गया पूरा ढाँचा चरमराने लगता है। और हम बजाय दृष्टि को विकसित करने के अतिरिक्त सन्दर्भों, सूत्रों, वृत्तान्तों को काटने-छाँटने लगते हैं या इधर-उधर खोंसने लगते हैं। अब वक्त आ गया है कि हम अपनी परम्पराएँ शुद्ध कर लें। साहित्येतिहास से यह आशा करना कि वह नयी सामाजिक और साहित्यिक आवश्यकताओं के अनुरूप पुनर्गठित किया जाए, उसके साथ एक प्रकार का बलात्कार ही है। साहित्येतिहास लेखन की प्रक्रिया इतिहास बनाते हुए उसे खोजने की है।
पिछले कई दशकों से हिन्दी साहित्येतिहास से मेरी मुठभेड़ होती रही है, जिसके फलस्वरूप ‘साहित्येतिहास : स्वरूप और संरचना’ एवं ‘साहित्येतिहास : आदिकाल’ प्रकाशित हुईं। उसे आगे बढ़ाने की बजाय एक नयी किन्तु आदिम दृष्टि से हिन्दी साहित्य को देखने की इच्छा पनपने लगी। शायद इसका कारण यह रहा हो कि हिन्दी साहित्येतिहास को परखने का साहस पहली बार किसी स्त्री ने किया था। यह बात न तो दम्भ से कह रही हूँ, न विनम्रता से कहना चाहती हूँ, इसे एक तथ्य की तरह देखा जाना चाहिए। इसीलिए उस समग्र इतिहास को पूरा करने की बजाय आधा इतिहास को खोजने का आकर्षण जिद की सीमा तक-प्रबल हो उठा। लगभग एक दशक इस बनने बनाने की प्रक्रिया में लग गया।
जब इस बीहड़ में पैर रखा तो सोचा था कि प्रत्येक काल की कवयित्रियों पर लिखना पर्याप्त होगा। बस। लेकिन जैसा कि होता है, इतिहास को यदि छू लिया जाए तो वह कन्धों पर सवार हो जाता है, फिर जिधर वह ले जाता है, हम जाते हैं। अन्धकार की यात्राओं का आकर्षण कभी-कभी प्रकाश से अधिक प्रबल हो जाता है। धीरे-धीरे एक पूरी संरचना उभरकर सामने आने लगी। यह संरचना केवल हिन्दी साहित्य की नहीं है, समग्र भारतीय इतिहास की है, जिसका सम्बन्ध नवजागरणों से है। अचानक यह तथ्य कौंधा कि जब-जब इतिहास में नवजागरण घटित हुए हैं, महिला रचनाकारों का एक पूरा समूह उभरकर सतह पर आया है। नवजागरण सांस्कृतिक मन्थन ही तो होते हैं, और इस मन्थन में वे पैर जमाकर खड़ी हैं, कहीं-कहीं धारा के विपरीत भी, पूरी शक्ति और शब्द-संरचना के साथ।
तब साहित्येतिहासकारों द्वारा गढ़े गये कई सिद्धान्त बेमानी हो जाते हैं, कई-कई मिथक टूटते हैं, और नये बनते हैं। उनसे आपकी भेंट पुस्तक में यथास्थान होगी। लेकिन, कुछ चीजें ऐसी हैं, जिसने मेरे इतिहासकार को चिन्ताजनक आश्चर्य में डाल दिया है। जैसे कि यह तथ्य, कि काल और देश के एक ही बिन्दु पर मात्र भाषा बदलने से रचना की मूल-चेतना बदल जाती है। यदि मध्ययुग का उदाहरण लें तो हिन्दी-प्रदेश में महिलाएँ अरबी, फारसी, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी की विभिन्न बोलियों में रचना कर रही थीं। काल में समानान्तर होते हुए भी चेतना के स्तर परवे पृथक-पृथक् रचनाएँ हैं। ऐसी स्थिति में यदि भाषागत आधार मानकर इतिहास लिखें तो सबकी मूलप्रवृत्तियाँ पृथक्-पृथक हो जाएँगी। फिर जिसे शुक्ल जी ‘शिक्षित जनता की चित्तवृत्ति’ कहते हैं, उसे किसके साथ जोड़ा जाएगा। अभी तक हम साहित्येतिहास में खासतौर पर हिन्दी साहित्येतिहास में यही कहते-सुनते चले आये हैं कि राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार साहित्य बदलता है, और कार्यकारण की इस श्रृंखला की खोज ही साहित्येतिहास है तो यह प्रभाव एक काल की सभी भाषाओं पर क्यों नहीं है, और पुरुष-साहित्य तथा स्त्री-साहित्य पर समरूप में प्रतिबिम्बित क्यों नहीं होता ?
क्या हम एक नये सिरे से एक बहस के लिए अपने को तैयार कर पाएँगे ? दूसरी बात यह कि जो कुछ भी महिला-लेखन आज हम उपलब्ध कर सके हैं वह या तो धर्माश्रय के माध्यम से है या राज्याश्रय के माध्यम से। तीसरा और सबसे सशक्त स्रोत है लोकाश्रय। ये तीन आश्रयमात्र नहीं हैं, तीन वर्गों के प्रतीक हैं, इसलिए यदि स्त्री-साहित्य का इतिहास लिखना है तो बिना लोकसाहित्य का आश्रय लिये, लिखा जा ही नहीं सकता, ऐसा मेरा मानना है।
इसलिए पहली बार केवल लिखे अक्षर को प्रमाणित मानने की परम्परा तोड़कर, लोकसाहित्य की सहायता से इतिहास रचने की कोशिश, या कहिए दुस्साहस यहाँ किया गया है। केवल रचना ही नहीं, महिला-लेखन का एक पूरा ‘सौन्दर्यशास्त्र’ है, जिसे हम लोक-साहित्य से ही प्राप्त कर सकते हैं। पहली बार, ऐसी कोशिश भी यहाँ की गयी है। भाषा अलग-अलग होते हुए भी, काल और भूगोल अलग होते हुए भी, कुछ ऐसा है जो सम्पूर्ण महिला-लेखन को जोड़ता है और यह संवेदन सूत्र उनका स्त्री होना ही है। इस सूत्र के सहारे ही उन तक पहुँचा जा सकता है। यही कोशिश सहयात्री कविताओं के माध्यम के की गयी है। यहाँ कई नये प्रस्थान खुलते हैं, क्योंकि इतिहास सिर्फ समानताओं से नहीं बनते, असमानताएँ कभी-कभी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं क्योंकि सिर्फ वे ही हमें नये मुहानों तक पहुँचा सकती हैं।
|
लोगों की राय
No reviews for this book