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कविता संग्रह >> तैयार रहो मेरी आत्मा

तैयार रहो मेरी आत्मा

रमाकान्त रथ

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1285
आईएसबीएन :81-263-0195-3

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यह संग्रह रमाकान्त रथ की अब तक की काव्य-यात्रा का एक जीवंत दस्तावेज है, काल और परिवेश के संदर्भ में आज की कविता के सरोकार को भी यह पूरी शक्ति और आत्मीयता के साथ रेखांकित करता है।

Taiyar Raho Meri Aatma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह संग्रह जहाँ उनकी अब तक की काव्य-यात्रा का एक जीवंत दस्तावेज है,वहीं काल और परिवेश के संदर्भ में आज की कविता के सरोकार को भी यह पूरी शक्ति और आत्मीयता के साथ रेखांकित करता है। उन्होंने अपनी कविताओं के जरिये रचना और संवेदना को एक विराट फलक पर यथार्थ से जोड़ने की सार्थक कोशिश की है।

लालटेन


किरासन, कुछ धुआँ, बाती और कुछ कीट
ये सभी एकाकार हैं इस धात्विक परिधि में
इस कलई छूटे टीन की पेंदी में आग का समुद्र
हिचकोले लेता जल रहा है भयंकर काली रात में।

आग जलती है बात मान, मान इस टिन की परिधि
सर्कस के बाघ की तरह यह दुर्दांत आग राजा भैया है
जैसे कि इस काले-काले टिन से कोई परिचय नहीं
जैसे कि वह नहीं जानती कैसे गर्म हुई यह लालटेन।

तुम तो मौसमी आलस को पलकों तले रौंद
पुतलियाँ घुमाने की जी-जान से मेहनत करती हो
और भर रखे हैं बालों में चंपा के फूल।

तुम कहाँ देख सकती हो प्रज्वलित अस्तित्व मेरा ?
अनुमान लगा सकती हो,
मैं जल रहा हूँ और जल रहा हूँ तीव्र वेदना से
मामूली धोती और इस्तरी की हुई आधी कमीज में।

चाँदनी रात


तमाम मैदान मिलकर बना है
एक सफेद चादर बिस्तर का
जिसका ओर कहाँ छोर कहाँ,
ठीक मेरी देह-सा।
आकाश भी लगभग तुम-जैसा है।
कभी-कभी लगता है मैं आकाश हूँ,
पसरा हुआ पर खाली,
और देखता हूँ जैसी पृथ्वी है
तुमने भी ठीक उसी तरह पसार रखे हैं हाथ,
जहाँ भी उतरूँ वहीं है तुम्हारा आलिंगन।

होता है भ्रम जमीन और आसमान के
मिलने का कहीं दूर।
काश, तुम्हीं उड़ आओ प्रवास से
ओ मेरे विहंग,
मैं यहाँ से हट नहीं पाऊँगा
कि कहीं चाँद न डूब जाय।
कि कहीं मेरे लौटते समय
रास्ता न दिखे सूरज के प्रकाश में।

ग्रीष्म ऋतु में रेल-यात्रा


पोंछ लू अब आँसू
नहीं आ रही थी रुलाई मुझे
घर लौटते ही
पत्नी को तसल्ली
और बच्चों से बतियाने के लिए
भर लीं मैंने आँखें आँसुओं से
और दबा लिए होंठ दाँतों से।
पति और पिता होकर
हर वक्त दूर-दूर रहना शोभा नहीं देता।
कभी-कभी यों ही ताकना
खिड़की की रेलिंग पकड़ आकाश की ओर
और कभी हालात की गंभीरता की दृष्टि से
रो पड़ना भी उचित है होंठ दबाए
जिस तरह आज मैं रो रहा था।

मैं अपनी जगह बैठ
जूते-जुराब खोलने के बाद
दोनों पैर उलझाकर एक पत्रिका ले
पढ़ने की कोशिश करता हूँ
मेरे आधे मन में भय
और बाकी के आधे में तरह-तरह की चिंताएँ
इसलिए सिर्फ तस्वीरें देखना और
छोटे-छोटे अक्षरों में छपी उन तस्वीरों के
बारे में थोड़ा-बहुत समझने के सिवा
और कुछ भी पढ़ा नहीं जा रहा था।
एक तरह से यह ठीक ही है।
उचित होता कि मोटी-मोटी किताबें पढ़ना और
चराचर विश्व से मेरी ये पंचेंद्रियाँ
किस तरह जुड़ी हैं और
धूप-बारिश, सुख-दुःख उलाँघ
क्या ढूँढ़ेगा यह पिंड
जानना चाहिए मुझे ये सब।
पर यह सच है कि
इस समय भीषण गर्मी है
और याद आ रहा है मुझे
अपना ठंडा कमरा,
किंतु मेरे मन में एक असंतोष।
इन सबको त्यागकर चला जाता मैं देशांतर,
ये सब तो काया के सुख हैं।
झीने अंधेरे और विवाहित प्रेमालाप से
मर चुका हूँ मैं लगभग।
जी करता है इन सबको फेंक-फाँककर
चला जाता मैं सुनने शब्द
एक पृथक् भाषा के
नहीं है वह भाषा इस पत्रिका की,
या स्कूल जानेवाले बच्चों की,
या फिर एक खुसुर-फुसुर बातचीत
अपने दांपत्य प्रेम की।

दूरी क्रमशः बढ़ती है
मैं व्याकुल मन से देख रहा हूँ
कितनी हत्याएँ करता चला जा रहा है समय
और एक कतरा खून तक नहीं गिरता
किसी भी हत्या से।
इतने में उड़ जाता है
आकाश की नारंगी धूप में
पक्षियों का एक झुंड भूत-सा
किसी अन्य देश की साँझ की दिशा में।
यही समय है चुप्पी साधने
और मन ही मन मुस्कराने का,
भाषा बखानती है
जो चला गया और
जो गौण है।
नाक सूँघती है वही महक
जो अब नहीं है
और आँखें सदा टिकी रहती हैं
अदृश्य और अतीत चित्र में
जिसका लौट आना असंभव है।
तभी निरी झूठी है भाषा,
बखानती है वह अतीत को
जैसे कि वह हो वर्तमान
और जो वर्तमान है, या जो संभव है
उसकी परछाई तक नहीं छूती भाषा।
घर भेजी चिट्ठी मेरी हो जाएगी झूठी
इस यात्रा की समाप्ति पर
जब पत्नी मेरी
लौटी होगी दुकान
और हस्पताल से
घर में धुली साड़ी पहने, नंगे पैर
रूखे-सूखे केश,
वह मेरी चिट्ठी को अहा सच समझेगी,
उसे चूमेगी भी, मानो वे चुंबन सचमुच
पक्षियों की तरह उड़कर आएँगे
और बैठ जाएँगे
मेरे अचंभित होठों की डाल पर।

छोड़ देने चाहिए ये तमाम झूठ।
धकियाते हुए जाना चाहिए हवा की तरह
जो कुछ भी बाँधने की कोशिश करे।
छोड़ देना चाहिए
धीमी लाइटवाला सजा-धजा कमरा,
संगमरमर-सी चकमक अनावृत देह का विस्तार
कमरों के बीच एक मृत साँप-सा रास्ता,
कॉफी की महक भी।
शुरू-शुरू में यह छोड़ना मुश्किल है,
शुरू में लाँघना जैसे निषिद्ध चौखट।
पर कुछ दूर जाने के बाद
मौत को देखने पर

सिर्फ हँसी आती है
मौत एक चंचल बालक है, जो
लिख रहा है टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में
फिजूल की बातें दीवार पर
बुढ़ापा तो मजाक है दासियों का !
किसी सुदूर शीतल बंदरगाह से
बुलाएगी तुम्हें अभी-अभी दिखी रोशनी।
तब तो जाना होगा
पत्रिका फेंककर बहुत से उजड़े गाँव लाँघकर
बच्चों की कुछ-कुछ सुनाई देती
रुलाई पार कर वहाँ
जहाँ के वर्णन के लिए
नहीं है भाषा मेरे पास,
बस इतना जानता हूँ
नहीं होगा वहाँ
फेरीवालों का गोलमाल।

स्मृति के बोझ से झुका हृदय मेरा
कुछ पूछता-सा देखता है इस धूप को, इस हवा को
जो मेरी काँख तले राह ढूँढ़ती है।
क्या अभी और देर है ?
पर देर किस बात की मैं नहीं जानता
क्या उसे ढूँढ़ूँ
और उसके सूनेपन की जगह रख दूँ तमाम उपमाएँ,
या उसे देखकर रास्ता बदल लूँ,
जैसे वह एक ऐसा शहर हो
जहाँ लोग मर रहे हैं किसी भयानक रोग से ?
अभी तक मैं खुद को समझा नहीं पाया वह क्या है
क्योंकि मुझे भाषा मिल नहीं पाई
खुद से बातें करने की।
मैं नहीं जानता
वह अँधेरा है या उजाला
गर्म या शीतल।
सपने की जलवायु-सी है जलवायु उसकी
और वहाँ के सारे लोग हैं बहुत उदास,
मैं कैसे करूँ तुलना उससे
छोड़ आया हूँ जिसे ?
कितना दुःखी है मेरा मन !
मुरझाई धूप
और राह भटकी हवा के लिए।

धूप और हवा अति प्रिय हैं मेरे।
सिर देखो मेरा—बंदर की नुकीले
और बुद्धिमान सिर-सा दिखता है,
हाथ-पैर दिख रहे हैं भालू के पैर-जैसे।
फिर भी मैं चाहता हूँ कभी-कभी
सारा कुछ ठुकरा दूँ क्रोध से,
और चला जाऊँ कहीं दूर
सिर-कटे जानवरों की तरह
कॉफी के कप लुढ़के होते,
बिस्तर का अस्त-व्यस्त चादर पड़ा होता,
जूते पड़े रहते
राहगीरों के छोड़े चूल्हे की ईंटों की तरह।
बैठक में लगी तस्वीर हट जाती है
दरवाजा खोलनेवाले एक अनुगत नौकर-सी।
धीर, सतर्क डग मेरे बढ़ जाते निर्जन राह पर,
सूखी नदी
और यहाँ-वहाँ उगी
बादामी घास के झुरमुटों से चित्रित
मैदान की ओर जंगल की शीतल छाया की ओर
छुट्टी हो जाती मध्याह्न से पहले,
लाल-लाल फूल नाचने लगते
किसी अक्लांत बैताल के अद्भुत गीत से।
शायद मैं कुछ कह नहीं पाऊँगा।
जरूरत भी क्या है कहने की ?
सबसे बड़ा कष्ट मर जाता है चुपचाप,
सिर्फ दाँत भिंच जाते हैं, होंठ काँपते हैं।
मानो यह एक नया खेल हो,
फुटबॉल खेल से अलग
और अलग है
अँधेरे कमरे में खिलखिलाहट भरे खेल से।
भीड़ होगी शायद सिर्फ
एक दूसरे को कुचलती तस्वीरों की
हर तस्वीर कहने आगे बढ़ती है
और फिर लौट जाती है, मुझे छोड़कर
मैं सोचता रहता हूँ
हमदर्दी जताऊँ उसकी दर्दभरी चुप्पी से
या मुबारकबाद दूँ
शब्दों पर उसके अख्तियार पर।

अंतिम कुछ बातें कह डालूँ
धूप पुँछ जाने से पहले।
भाग रहा हूँ मैं जिस दुनिया में
उसके आकाश-सा
यह आकाश अँधेरा बनने से पहले
मैं अज्ञानी हूँ।
भाषा की चतुराई नहीं जानता
बीत गया है समय मेरा
क्षणिक सुखों की तलाश में।
समझता हूँ मैं अपना दुःख औरों के लिए
सही-सही चुने शब्दों से।
मर जाय यदि चींटी पैरों तले कुचलकर
नहीं कर पाते सहन कुछ लोग।
मैंने अपना दुःख रखा है बचाकर
इससे कुछ बड़ी बात के लिए।
तभी तो करते हैं लोग प्रशंसा मेरी
मेरे पुरुषोचित धैर्य और भावुक हुए बिना
कर्तव्य की निष्ठा के लिए।
पर आज इतने दिनों बाद
मिली है छुट्टी मुझे,
और कितनी अद्भुत इच्छा है मेरे मन में !

गर्म रेत पर रखा एक पैर, और दूसरा
कलकल और शीतल नदी के बीच
खड़ा रहूँगा मैं मीनार-सा,
घुँघराले और घने सिर के बालों के जंगल में
उग रहा चाँद खो जाएगा
एक-एक कर बुझ जाएँगी
सारी बत्तियाँ इस शहर की।
असफल पति और गुनहगार पिता मैं
जाऊँगा घुप्प अँधेरे में समुद्र की ओर,
तलाशते हुए अपनी राह,
सीखने नए-नए शब्द,
जो हैं अब तक सीखे
सारे शब्दों से
अधिक सत्य,
अधिक पूर्ण,
अधिक दुःखदायी भी।
 

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