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हँसली बाँक की उपकथा

ताराशंकर वन्द्योपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1282
आईएसबीएन :81-263-0184-8

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प्रस्तुत उपन्यास का बाँग्ला से हिन्दी रूपान्तर....

Hansali Bank Ki Upkatha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इसमें वीरभूम के राढ़ अंचल की लालमाटी से रँगी गाथा है, जिसके भी कई रंग और रूप हैं। वहाँ अब तक जो कुछ होता आया है, वह सब दैव-प्रेरित ही है। दैव के कोप या दैव की दया में ही उसकी नियति और गति है। ताराशंकर बाबू इस अभिशाप के साक्षी रहे थे और उन्होंने बहुत निकट से इस अंध आस्था के प्रति सारे लोक को समर्पित या असहाय होते देखा था। यहाँ के लोग अपने को इस निर्मम साँचे में ढालकर जैसे आस्वस्थ हैं, और सदियों से एक तरह से यह मानकर बैठे हैं कि जो होना है वह तो होना ही था।

इस आदिकालीन मनोवृत्ति को उसी अंचल की बुढ़िया सुचाँद के द्वारा इस उपन्यास में स्थापित किया गया है। इसी तरह कहारों का प्रधान बनवारी प्राचीन रीति-रिवाजों का समर्थक है और सामन्ती मूल्यों के प्रति नतमस्तक है। लेकिन वक़्त के साथ स्थितियाँ बदलती हैं और बाँसबादी के कहारों के जीवन-वृत्त को केन्द्र में रखकर इस अंचल की विशेष परम्पराओं, रूढ़ियों, आशा-आकांक्षाओं और अनिवार्य परिवर्तनों का आकलन भी इस उपन्यास में किया गया है।
इस महत्त्वपूर्ण उपन्यास को ‘गणदेवता’ की अगली कथा-श्रृंखला के रूप में देखा जाना चाहिए।


हँसली बाँक की उपकथा

एक

हँसली बाँक के घने जंगल में आधी रात को कोई सीटी बजाता है। देवता है कि यक्ष, समझ में नहीं आता। सभी भयभीत हो उठे हैं। खास करके कहार लोग।
कोपाई नदी के प्रायः बीचोंबीच पड़नेवाली जगह में जिस मशहूर बाँक का नाम हँसली बाँक है-यानी जहाँ पर नदी बहुत ही थोड़ी परिधि में मोड़ घूमी है, वहां पर नदी की शक्ल हू-ब-हू औरतों के गले की हँसली की तरह हो गयी है। बरसात के दिनों सब्ज़ माटी को घेरे गेरू माटी-घुले पानीवाली पहाड़ी नदी कोपाई की इस बाँक को देखने से लगता है, सांवली स्त्री के गले में सोने की हँसली पड़ी है; कातिक-अगहन के महीनों में पानी जब साफ़ निर्मल हो जाता है, तो लगता है रूपा का हँसली है। इसलिए बाँक का नाम है हँसली बाँक। नदी के उस घेरे के बीच हँसली बाँक में घने बाँस-वन से घिरा कुल ढाई सौ बीघे रक़बे का मौज़ा बाँस-बाँदी है- लाट जाँगल में पड़ता है। बाँस-बाँदी से उत्तर थोड़ी ही धनखती की बैहार के बाद है जंगल गाँव। बाँस-बांदी छोटी सी बस्ती है। दो पोखरों के चारों तरफ़ तीसेक घर कहारों की आबादी। जंगल गाँव में भले लोगों का समाज है-कुमार-सद्गोप, चाषी-सद्गोप, गन्धवणिक बसते हैं- इनके सिवा एक घर नाई भी है दो घर ताँती। जंगल का क्षेत्रफल बड़ा है। खेती की ज़मीन ही कोई तीन हजार बीघा है, परती भी काफ़ी है- निलहे साहबों के साहबडाँगा की परती ही लगभग तीन सौ बीघा है।

फ़िलहाल जाँगल गाँव की सद्जाति के बाबू लोग खासे डर गये हैं। महज़ ढाई सौ बीघे के रक़बे की बस्ती बाँस–बाँदी यानी हँसली बाँक कहार लोग कहते हैं- बाबू लोगों को तरास यानी त्रास हुआ है। होने की बात ही है। रात को कोई जैसे सीटी बजाता है। कई दिनों तक तो वह सीटी जाँगल और बाँस-बाँदी के ठीक बीचोंबीच हँसली बाँक के पीछे पच्छिम की तरफ़ की पहली बाँकी से जगी थी-जो बेल के गाछों और सिहोड़ की धनी झाड़ियों से भरी है और लोगों के लिए जो महा-आशँका की जगह है- उस ब्रह्मदैत्यथान  से। उसके बाद कई दिनों तक जाँगल के पूरब को पाई के किनारे झरबेरी के जंगल में बजी। फिर कई दिनों तक वह सीटी और कुछ दूर हँसली बांक की ओर हटकर बजती रही। अब सीटी बाँस-बादी के बाँस-वन में कहीं से बजती है।

बाबुओं ने बड़ी खोज-पड़ताल की। रात में बन्दूक़ की आवाज़ें कीं, दो-एक रोज लाठी-सोंटा लिये निकले और खूब हो-हल्ला मचाया। लगभग हाथ-भर लम्बी टार्च निकले और खूब ज़ोरदार रोशनी मार-मारकर चारों तरफ़ छान डाला, लेकिन कुछ पता न चला। लेकिन सीटी ही रही है। कोस-भर के फ़ासले पर थाना है। वहाँ भी खबर भेजी गयी। छोटे दरोगा तीन दिन आये भी रात में, मगर उन्हें भी कोई सुराग न लग सका। हाँ, यह ज़रूर है कि आवाज़ नदी किनारे-किनारे घूमती फिर रही है। दरोग़ाजी देख-सुनकर यही अंदाज लगा गए।

दरोग़ाजी पूर्वी बंगाल के आदमी हैं। वे बता गये कि नदी के अंदर कुछ हो रहा है। ‘नदी-किनारे वास, चिन्ता बारो मास।’ कुछ सोचिए, सोच देखिए। पता  चले तो ख़बर दीजिएगा।

‘नदी किनारे वास, चिन्ता बारो मास’–बात बेशक पुरखों की कही हुई है, पुश्त-दर-पुश्त से चली भी आ रही है। वह झूठ हरगिज नहीं हो सकती। लेकिन-देश भेद के वचन का भी भेद होता है, लिहाज़ा वह हँसली बाँक के बाँदी-जाँगल गाँव पर ठीक-ठीक लागू नहीं होता, बल्कि बंगाल के इस इलाक़े पर ही लागू नहीं।

बंगाल का वह इलाक़ा ही और है। जाँगल के घोष कराने का एक लड़का कलकत्ते में व्यवसाय करता है, कोयले की ख़रीद-बेची करता है, पटसन का कारबार करता है। बंगाल के उस इलाक़े में घोष बाबू घूम आये हैं। उनका कहना है, वह देश ही नदी का देश है। माटी और पानी एकाकार। बारहों महीने नदी लबालब बहती है, ज्वार आता है, नदी उमड़ उठती है, किनारों से छलछलाकर हरी-भरी खेती में छिटक-छितरा पड़ती है। ज्वार के बाद आता है भाटा। बैहारों का पानी फिर नदी में जा उतरता है, नदी के डूबे किनारे फिर जग जाते हैं। फिर भी किनारों से बहुत तो दो-ढाई हाथ, इसके ज़्यादा नहीं उतरती। और नदी भी क्या ऐसी-वैसी, कि एक-दो ? वह तो जैसे गंगा-जमुना की धारा हो, लबालब पानी। थम-थम करती रहती है। आप-पार होने में इधर के लोगों का कलेजा काँप उठता है।

और वह धारा भी कुछ एक ही क्या ? कहाँ से कौन धारा आ मिली, कहाँ कौन-सी धारा निकल गयी इसका लेखा नहीं। वह जैसे जल धारा का सात-लड़ी हार हो, हँसली नहीं। और फिर नदी की बाँक का ही क्या अंत है वहाँ ? ‘अट्ठारह बाँकी’ ‘तीस बाँकी’ की बाँक-बाँक में अजीब ही शक्ल है वहाँ नदी की। दोनों तट पर सुपारी और नारियल के पेड़;- पेड़ों की पात नहीं, बगीचा नहीं-घोर जंगल हो जैसे। उनके साथ-साथ और भी कितने तरह के पेड़, कितनी लताएँ, कितने क़िस्म के फूल-जिसने आँखों नहीं देखा, वह उसकी कल्पना नहीं कर सकता। देखकर जी नहीं भरता। नारियल सुपारी के उन घने वनों से बहनेवाली बड़ी नदियों से निकली है। पतली-पतली नहर-नहर और नहर। उनमें चलती हैं छोटी –छोटी नावें। उन वनों की छाँह-तले टिन और चूरे हुए बाँसों से बने छोटे –छोटे घरोंवाली बस्तियाँ छिपी हैं, वे पतली नहरे किसी गाँव के बग़ल से तो किसी गाँव के बीच से होकर दूसरे-दूसरे गाँवों को दूर-दूर चली गयी हैं। उधर की छोटी-छोटी नावें इधर की बैलगाड़ी-सी हैं। नावों से ही फ़सल खेत खलिहान हो जाती है, खलिहान से जाती है हाट-बाजार को, गंज को, बन्दरगाह को। उन नावों से ही इस गाँव के लोग उस गाँव को अपने सम्बन्धियों के यहाँ जाते हैं-बहुरिया ससुराल जाती है, धी- बेटियाँ नैहर जाती हैं- दल बाँधकर यार-दोस्त मेले-ठेले में जाते हैं। खेतिहर बैहार जाते हैं, सो भी नाव पर ही ! हल-हँसिया लिए अकेले ही नाव खेते चले जा रहे हैं। शरत् के छायापथ-सी ओर-छोर ही नदी-उस नदी में केले के मोचे-सी नाव पर बैठे-बायें हाथ और बायीं काँख से पतवार थामे, दायें हाथ और दायें पाँव से डाँड़ खेते हुए चले जा रहे हैं।

घोष का बेटा सौ मुँह से उसकी तारीफ़ करके भी ख़त्म नहीं कर पाता। ऐसी नदीं के किनारे बसना-बेशक फ़िक्र की ही बात है। चिन्ता का जिक्र करते हुए घोष के बेटे की आँखों में भय फूट उठता, रह-रहकर रोंगटे खड़े हो जाते। नदी का वह सतलड़ी हार और नीचे जाकर एक हो गया है। वहाँ नदी का आर है न पार। लक्ष्मीजी के गले का हार सतलड़ी हार जैसे  मनसा1 के गले का अजगर हो गया है। नदी वहाँ अजगर जैसा ही फुफकारती है।

 लहरों में फूल-फूल उठती है मानो अपने हज़ार फन फैलाकर झूम रही हो। ऐसे भी कभी दिख आता है आसमान में काले मेघ का एक टुकड़ा, देखते-ही-देखते उस पर कौंध जाती है बिजली का लकीरों की लकीर, गोया कोई आग से बने अपने हाथ की ऊँगली की चोट से काले मेघ के उस ‘विषमढाकी’2 का बाजा बजा देता है। जिस बाजे से उसके माथे की जटाओं के झटके से आकाश-पाताल डोलने लगता है और तब, अजगर अपने हजार फनों से छों मारता हुआ विराट अंग को पटक-पटकर नाचता है, फुफकारता हुआ मत्त हो उठता है। नदी में तूफ़ान मच जाता है। वह तूफ़ान घर-द्वार, बस्ती-गाँव गोला-गंज-बन्दर-आदमी, मवेशी, कीड़े-मकोड़े सबको धो-पोंछकर लिए चला जाता है। फिर तूफान थम गया, आँधी रुक गयी, बाहर से देखने-सुनने में सब शान्त-स्थिर, कहीं कुछ नहीं कि एकाएक नदी–किनारे का आधा गांव कांप उठा, डग-डग करने लगा और देखते ही देखते करवट लेकर अजगर की नाई मुँह धौंसकर नदी के अथाह पेट में गिर पड़ा। आदमी को वहां बारहों महीने एक आंख आसमान पर, काले मेघ के टुकड़े की टोह में रखनी पड़ती है। और एक आंख
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1.    साँपों की देवी
2.    बहुत बड़ा नगाड़ा।

रखनी पड़ती है हरी घास-फ़सल से ढकी चन्दन-जैसी माटी पर कि दरार वहाँ पड़ी है। वहाँ तो बारहों महीनो की चिन्ता ज़रूर है।
छोटे दरोग़ा उसी तरफ़ के हैं, इसलिए उन्होंने यह बात कही। लेकिन हँसली बाँक का इलाक़ा और है  हँसली बाँक का इलाक़ा कड़ी माटी का इलाक़ा है। यहां तो लोगों की नदी के बजाय माटी से ही ज़्यादा मुठभेड़ है। सूखा यानी ग्रीष्म की गरमी प्रचण्ड हो जाती है तो नदी सूखकर मरुभूमि बन जाती है, रेती धू-धू करने लगती है; किसी प्रकार से एक ओर घुटने-भर पानी बहता रह जाता है, माँ-मरी नन्हीं लड़की-जैसा सूखा मुँह दुबला शरीर लिये, किसी क़दर, आहिस्ता-आहिस्ता, धीरे-धीरे। माटी ऐसे में पत्थर हो जाती है; घास जल जाती है-आग-तपे लोहें-सी गरम हो उठती है, फावड़ा या कुदाल से काटे नहीं कटती। चोट मारो कि फावड़ा-कुदाल की ही धार मुड़ जाती है। सब्बल-गैते से थोड़ी बहुत कटती है पर हर चोट पर आग की चिनगी छिटक पड़ती है। तालाब-पोखर, नहर-नाले फटकर चौचीर हो जाते हैं। ऐसे मौक़े पर नदी ही लोगों को जिलाये रखती है; वही पानी देती है। नदी की चिन्ता यहा बारहों महीने की नहीं है।

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