कविता संग्रह >> भारतीय कविताएँ 1989-90-91 भारतीय कविताएँ 1989-90-91र श केलकर
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प्रस्तुत है चौदह भारतीय भाषाओं की प्रतिनिधि कविताएँ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रति वर्ष स्फुट रूप से स्थायी महत्त्व की कई रचनाएँ प्रकाशित होती हैं
और सामान्य रचानाओं की भीड़ में खो जाती हैं। यदा-कदा चर्चित होती हैं,
रेखांकित भी होती हैं, किन्तु एक स्थान पर सहेजी नहीं जातीं। अन्य भाषाओं
की उपलब्धियों से साक्षात्कार तो दुर्लभ ही है, हम अपनी ही भाषा की
सर्वोत्त्म रचनाओं से अपरिचित रह जाते हैं। परिचय होता भी है तो बस क्षण
मात्र के लिए। ये हम सभी न्यूनाधिक यह अनुभव और स्वीकार करते हैं कि
भारतीय साहित्य विभिन्न भाषाओं में रचे जाने पर भी कहीं-न-कहीं,
किसी-न-किसी रूप में एक मुख्य धारा से सम्पृक्त है। भाषा विशेष साहित्य के
सही मूल्यांकन एवं सच्चे आस्वाद के लिए उसे समग्र भारतीय साहित्य के
परिदृश्य में रख कर देखा जाना नितान्त आवश्यक एवं वांछनीय है।
‘भारतीय कविताएँ : 1989-90-91’ सभी भाषाओं की तीन वर्षों की, प्रत्येक वर्ष की तीन-तीन कविताओं की महत्त्वपूर्ण चयनिका है। वर्ष के क्रम से संकलन लाने हम एक बार फिर पिछड़ गए हैं, अतः इस अन्तराल को पूरा करने के लिए हमें उक्त तीन वर्षों की कविताओं का चयन एक ही संकलन में करना पड़ा। चुनाव केवल उन्हीं रचनाओं से किया गया है जो लिखी कभी भी गयी हों, पुस्तक, पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि के माध्यम से पहली बार इस कालखण्ड में आयीं।
‘भारतीय कविताएँ : 1993’ के प्रकाशन से इस श्रृंखला का आरम्भ हुआ था और तब से 1988 तक की पाँच चयनिकाएँ हम पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं। हमें पूरा विश्वास है कि उक्त चयनिकाओं के समान ही इसे भी आप समकालीन भारतीय कविता को समझने और परखने की दृष्टि से उपयोगी पाएँगे।
‘भारतीय कविताएँ : 1989-90-91’ सभी भाषाओं की तीन वर्षों की, प्रत्येक वर्ष की तीन-तीन कविताओं की महत्त्वपूर्ण चयनिका है। वर्ष के क्रम से संकलन लाने हम एक बार फिर पिछड़ गए हैं, अतः इस अन्तराल को पूरा करने के लिए हमें उक्त तीन वर्षों की कविताओं का चयन एक ही संकलन में करना पड़ा। चुनाव केवल उन्हीं रचनाओं से किया गया है जो लिखी कभी भी गयी हों, पुस्तक, पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि के माध्यम से पहली बार इस कालखण्ड में आयीं।
‘भारतीय कविताएँ : 1993’ के प्रकाशन से इस श्रृंखला का आरम्भ हुआ था और तब से 1988 तक की पाँच चयनिकाएँ हम पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं। हमें पूरा विश्वास है कि उक्त चयनिकाओं के समान ही इसे भी आप समकालीन भारतीय कविता को समझने और परखने की दृष्टि से उपयोगी पाएँगे।
प्रयास
अपने स्थापना-काल से ही भारतीय ज्ञानपीठ का लक्ष्य भारतीय साहित्य के सतत
अनुसन्धान और उन्नयन में योगदान रहा है। साहित्य प्रकाशन का आरम्भ हुआ था
मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला की संयोजना से, जिसके अन्तर्गत ज्ञानपीठ संस्कृत,
प्राकृत, अपभ्रंश कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भारतीय भाषाओं की अप्राप्य एवं
दुर्लभ सामग्री का अनुसंधान कर हिन्दी एवं अन्य आधुनिक भाषाओं में अनुवाद
के माध्यम से अब तक 150 से अधिक ग्रन्थ सुधी पाठकों और अध्येताओं को
समर्पित कर चुका है। बाद में लोकोदय एवं राष्ट्रभारती ग्रन्थमालाओं के
आधीन क्रमशः हिन्दी की मौलिक रचनाओं और हिन्दी अनुवाद (जब कभी अन्य भारतीय
भाषाओं में अनुवाद) के माध्यम से विभिन्न भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ
साहित्यिक कृतियाँ सहृदय पाठकों तक पहुँचाता रहा है (लोकोदय/राष्ट्रभारती
ग्रन्थमाला के अन्तर्गत अब तक 556 ग्रन्थ प्रकाशित किए जा चुके हैं)। इसी
उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए भारतीय ज्ञानपीठ में (ज्ञानपीठ
पुरस्कार’ और ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ का
प्रवर्तन किया,
जिसके माध्यम से उनके आधुनिक भारतीय साहित्य को समर्पित अग्रणी रचनाकारों
की शिखर उपलब्धियों को न केवल रेखांकित एवं पुरस्कृत ही किया, उनके अनुवाद
के माध्यम से विपुल-पाठक जगत को परिचित भी कराया।
इसी प्रकार संस्कृति की संवाहक भारतीय भाषाओं के साहित्य में पारस्परिक निकटता लाने के उद्देश्य से, आज से ठीक दस वर्ष पहले भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रति वर्ष विभिन्न भारतीय भाषाओं में कविता और कहानी विधा की प्रतिनिधि रचनाओं के अलग-अलग संकलन ‘भारतीय कविताएँ’ और ‘भारतीय कहानियाँ’ प्रकाशित करने की योजना बनायी थी। इस श्रृंखला का प्रारम्भ 1983 में प्रकाशित कविताओं और कहानियों की चयनिकाओं से हुआ। साहित्य के क्षेत्र में इनका जोरदार स्वागत हुआ, जिससे प्रोत्साहित होकर हम तभी से प्रतिवर्ष दोनों चयनिकाएँ प्रकाशित करते आ रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक कविता-श्रृंखला की छठी चयनिका है। इन चयनिकाओं के प्रकाशन में आरम्भ से चली आ रही विलम्बित कालावधि को पाटने के लिए गत वर्ष हमने 1987-88 की तथा इस वर्ष 1989-90-91 की सम्मिलित चयनिकाएँ प्रकाशित की हैं।
प्रस्तुत चयनिका ‘भारतीय कविताएँ 1989-90-91’ में विभिन्न भारतीय भाषाओं की, प्रत्येक वर्ष की तीन-तीन प्रतिनिधि कविताओं की संकलन किया गया है। इस प्रकार प्रत्येक भाषा की नौ-नौ कविताएँ इस चयनिका में स्थान पा सकी हैं। प्रयास करने पर भी हमें तमिल की कविताएँ समय रहते प्राप्त नहीं हो सकीं अतः भारतीय संविधान की आठवीं सूची में तब तक उल्लिखित शेष चौदह भाषाओं की कविताओं का संचयन कर हमें संतोष करना पड़ रहा है। भविष्य में सम्भव हुआ तो विगत दोनों संविधान में सम्मिलित की गई अन्य तीन भारतीय भाषाओं—कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली को भी टटोलने का प्रयास करेंगे।
प्रस्तुत संकलन की कविताएँ शैली, शिल्प और कथ्य की दृष्टि से कितना महत्त्व रखती हैं यह तो सुधी पाठक ही बतायेंगे; हाँ प्रत्येक भाषा की कविताओं के चयनकर्ताओं से हमारी सदा की भाँति अपेक्षा रही है कि वह कविताओं का चयन करते समय उनके शैली-शिल्प और कथ्य के वैशिष्ट्य का बहुत ध्यान रखें। दूसरे शब्दों में, उनसे प्रतिनिधित्व के चुनाव की अपेक्षा की जाती रही है। इस दृष्टि से यह आवश्यक नहीं कि चुनी हुई कविताएँ वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कविताएँ ही हों। देखना यह होगा कि ये कहाँ तक प्रतिनिधित्व का निर्वाह करती हैं। फिर हम यह पहले ही निवेदन कर चुके हैं कि हर भाषा में ऐसी और भी कई कविताएँ होंगी जो इनसे भी श्रेष्ठ और खरी उतर सकती हैं, लेकिन पुस्तक के कलेवर को ध्यान में रखते हुए जब एक वर्ष की मात्र तीन कविताओं की ही चयन अभिप्रेरित हो तब एक चयनकर्ता के सामने स्वाभाविक रूप से समस्या खड़ी हो जाती है और तब उसे समय पर जो सामग्री (उन वर्षों में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएँ या पुस्तकें) उपलब्ध होती हैं उसी में से वह चयन कर पाता है। संक्षेप में, भले ही हम इसे वर्ष की श्रेष्ठतम कविताओं का संकलन न कहें, एक अच्छे स्तर का प्रतिनिध संकलन तो माना ही जा सकता है।
चयनिका में हिन्दी को छोड़ कर शेष सभी भाषाओं की कविताएँ हिन्दी रूपान्तर हैं। उनमें मूल कविता के कथ्य को तो आसानी से समझा जा सकता है लेकिन शैली एवं शिल्प का बोध कहाँ तक करा पाती हैं यह विचारणीय है। यह तो हम सभी मानते हैं कि कविता का सौन्दर्य या रमणीयता कवि की अनुभूति के वाहक मूल काव्य में होती है, अनुवाद में नहीं। ‘सोऽर्थस्तद्व्यक्तिसामर्थ्ययोगी शब्दश्च कश्चन’ के अनुसार प्रतीयमान अर्थ और उसकी अभिव्यक्ति में समर्थ कवि के अपने विशेष शब्द ही होते हैं। अनुवाद तो कविता के मूल भाव तक पहुँचने का, मूल के तात्पर्य को हृदयंगम करने का माध्यम भर है। अतः कविता के सौन्दर्य का सही-सही आकलन तो उसके मूल से ही किया जा सकता है।
अब यदि अनुवाद भी मूल भाषा की कविता के भाव को अभिव्यंजित करने की सामर्थ्य रखता है तो यह अनुवाद की सफलता मानी जाएगी और तब हम उसे कविता का कविता में सही-सही अनुवाद (काव्य-रूपान्तर) कह सकेंगे, अन्यथा तो वह अनुवाद मात्र है, वहाँ काव्यगत रमणीयता या सौन्दर्य को खोजना व्यर्थ होगा। कविता में शैली-शिल्प के सन्दर्भ में भी यही बात लागू होती है। कई बार विचार आया, सुझाव भी मिले कि चयनिका में बायीं ओर देवनागरी में प्रत्येक भाषा की मूल कविता को दिया जा सकता है, इससे उसकी शैली और उसके शिल्पांकन के स्वरूप का भी पाठक को साथ-साथ बोध हो सकेगा। ज्ञानपीठ से प्रकाशित भारतीय भाषाओं के कई काव्य-संग्रह इसके उदाहरण हैं। हम इस बात से पूरी तरह सहमत हैं, लेकिन तब चयनिका का आकार-प्रकार बढ़कर दूना हो जाएगा, और पुस्तक की कीमत भी इतनी की महँगाई के इस जमाने में सामान्य पाठक की जेब सहज स्वीकार नहीं कर पायेगी।
इतना सब होते हुए भी ऐसी चयनिकाओं के प्रकाशन का अपना महत्त्व है। प्रस्तुत चयनिका के अवलोकन से सहृदय पाठक पायेंगे कि भाषागत एवं भौगोलिक भेद होते हुए भी राष्ट्र की चिन्तन धारा एक ही दिशा में प्रवाहमान है। वह चाहे पंजाब या कश्मीर की समस्याएँ हो या पूर्वांचल की क्षेत्रीय समस्याएँ या विभन्न क्षेत्रों में फैला हुआ आतंकावाद, मात्र तत्तद् भाषाओं की कविताओं में ही उनकी अभिव्यक्ति नहीं हुई, अन्यान्य भाषाओं की कविताओं में भी वही स्वर आन्दोलित हुआ है। देश का सामान्य नागरिक जिन समस्याओं से पीड़ित और दुःखी है और साधनों के अभाव में उनसे जूझने की सामर्थ्य खो बैठता है, वहीं एक राजनेता उनके उलझाव-सुलझाव में ही लगा रहता है; जबकि रचनाकार ऐसी समस्याओं को राष्ट्र की विडम्बना मानता हुआ उनसे सतत संघर्ष करने का हमें साहस प्रदान करता है। उदाहरण के लिए इसी चयनिका के कतिपय अंश द्रष्टव्य हैं।
कितनी अजीब स्थिति बनी रही जब—
इसी प्रकार संस्कृति की संवाहक भारतीय भाषाओं के साहित्य में पारस्परिक निकटता लाने के उद्देश्य से, आज से ठीक दस वर्ष पहले भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रति वर्ष विभिन्न भारतीय भाषाओं में कविता और कहानी विधा की प्रतिनिधि रचनाओं के अलग-अलग संकलन ‘भारतीय कविताएँ’ और ‘भारतीय कहानियाँ’ प्रकाशित करने की योजना बनायी थी। इस श्रृंखला का प्रारम्भ 1983 में प्रकाशित कविताओं और कहानियों की चयनिकाओं से हुआ। साहित्य के क्षेत्र में इनका जोरदार स्वागत हुआ, जिससे प्रोत्साहित होकर हम तभी से प्रतिवर्ष दोनों चयनिकाएँ प्रकाशित करते आ रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक कविता-श्रृंखला की छठी चयनिका है। इन चयनिकाओं के प्रकाशन में आरम्भ से चली आ रही विलम्बित कालावधि को पाटने के लिए गत वर्ष हमने 1987-88 की तथा इस वर्ष 1989-90-91 की सम्मिलित चयनिकाएँ प्रकाशित की हैं।
प्रस्तुत चयनिका ‘भारतीय कविताएँ 1989-90-91’ में विभिन्न भारतीय भाषाओं की, प्रत्येक वर्ष की तीन-तीन प्रतिनिधि कविताओं की संकलन किया गया है। इस प्रकार प्रत्येक भाषा की नौ-नौ कविताएँ इस चयनिका में स्थान पा सकी हैं। प्रयास करने पर भी हमें तमिल की कविताएँ समय रहते प्राप्त नहीं हो सकीं अतः भारतीय संविधान की आठवीं सूची में तब तक उल्लिखित शेष चौदह भाषाओं की कविताओं का संचयन कर हमें संतोष करना पड़ रहा है। भविष्य में सम्भव हुआ तो विगत दोनों संविधान में सम्मिलित की गई अन्य तीन भारतीय भाषाओं—कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली को भी टटोलने का प्रयास करेंगे।
प्रस्तुत संकलन की कविताएँ शैली, शिल्प और कथ्य की दृष्टि से कितना महत्त्व रखती हैं यह तो सुधी पाठक ही बतायेंगे; हाँ प्रत्येक भाषा की कविताओं के चयनकर्ताओं से हमारी सदा की भाँति अपेक्षा रही है कि वह कविताओं का चयन करते समय उनके शैली-शिल्प और कथ्य के वैशिष्ट्य का बहुत ध्यान रखें। दूसरे शब्दों में, उनसे प्रतिनिधित्व के चुनाव की अपेक्षा की जाती रही है। इस दृष्टि से यह आवश्यक नहीं कि चुनी हुई कविताएँ वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कविताएँ ही हों। देखना यह होगा कि ये कहाँ तक प्रतिनिधित्व का निर्वाह करती हैं। फिर हम यह पहले ही निवेदन कर चुके हैं कि हर भाषा में ऐसी और भी कई कविताएँ होंगी जो इनसे भी श्रेष्ठ और खरी उतर सकती हैं, लेकिन पुस्तक के कलेवर को ध्यान में रखते हुए जब एक वर्ष की मात्र तीन कविताओं की ही चयन अभिप्रेरित हो तब एक चयनकर्ता के सामने स्वाभाविक रूप से समस्या खड़ी हो जाती है और तब उसे समय पर जो सामग्री (उन वर्षों में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएँ या पुस्तकें) उपलब्ध होती हैं उसी में से वह चयन कर पाता है। संक्षेप में, भले ही हम इसे वर्ष की श्रेष्ठतम कविताओं का संकलन न कहें, एक अच्छे स्तर का प्रतिनिध संकलन तो माना ही जा सकता है।
चयनिका में हिन्दी को छोड़ कर शेष सभी भाषाओं की कविताएँ हिन्दी रूपान्तर हैं। उनमें मूल कविता के कथ्य को तो आसानी से समझा जा सकता है लेकिन शैली एवं शिल्प का बोध कहाँ तक करा पाती हैं यह विचारणीय है। यह तो हम सभी मानते हैं कि कविता का सौन्दर्य या रमणीयता कवि की अनुभूति के वाहक मूल काव्य में होती है, अनुवाद में नहीं। ‘सोऽर्थस्तद्व्यक्तिसामर्थ्ययोगी शब्दश्च कश्चन’ के अनुसार प्रतीयमान अर्थ और उसकी अभिव्यक्ति में समर्थ कवि के अपने विशेष शब्द ही होते हैं। अनुवाद तो कविता के मूल भाव तक पहुँचने का, मूल के तात्पर्य को हृदयंगम करने का माध्यम भर है। अतः कविता के सौन्दर्य का सही-सही आकलन तो उसके मूल से ही किया जा सकता है।
अब यदि अनुवाद भी मूल भाषा की कविता के भाव को अभिव्यंजित करने की सामर्थ्य रखता है तो यह अनुवाद की सफलता मानी जाएगी और तब हम उसे कविता का कविता में सही-सही अनुवाद (काव्य-रूपान्तर) कह सकेंगे, अन्यथा तो वह अनुवाद मात्र है, वहाँ काव्यगत रमणीयता या सौन्दर्य को खोजना व्यर्थ होगा। कविता में शैली-शिल्प के सन्दर्भ में भी यही बात लागू होती है। कई बार विचार आया, सुझाव भी मिले कि चयनिका में बायीं ओर देवनागरी में प्रत्येक भाषा की मूल कविता को दिया जा सकता है, इससे उसकी शैली और उसके शिल्पांकन के स्वरूप का भी पाठक को साथ-साथ बोध हो सकेगा। ज्ञानपीठ से प्रकाशित भारतीय भाषाओं के कई काव्य-संग्रह इसके उदाहरण हैं। हम इस बात से पूरी तरह सहमत हैं, लेकिन तब चयनिका का आकार-प्रकार बढ़कर दूना हो जाएगा, और पुस्तक की कीमत भी इतनी की महँगाई के इस जमाने में सामान्य पाठक की जेब सहज स्वीकार नहीं कर पायेगी।
इतना सब होते हुए भी ऐसी चयनिकाओं के प्रकाशन का अपना महत्त्व है। प्रस्तुत चयनिका के अवलोकन से सहृदय पाठक पायेंगे कि भाषागत एवं भौगोलिक भेद होते हुए भी राष्ट्र की चिन्तन धारा एक ही दिशा में प्रवाहमान है। वह चाहे पंजाब या कश्मीर की समस्याएँ हो या पूर्वांचल की क्षेत्रीय समस्याएँ या विभन्न क्षेत्रों में फैला हुआ आतंकावाद, मात्र तत्तद् भाषाओं की कविताओं में ही उनकी अभिव्यक्ति नहीं हुई, अन्यान्य भाषाओं की कविताओं में भी वही स्वर आन्दोलित हुआ है। देश का सामान्य नागरिक जिन समस्याओं से पीड़ित और दुःखी है और साधनों के अभाव में उनसे जूझने की सामर्थ्य खो बैठता है, वहीं एक राजनेता उनके उलझाव-सुलझाव में ही लगा रहता है; जबकि रचनाकार ऐसी समस्याओं को राष्ट्र की विडम्बना मानता हुआ उनसे सतत संघर्ष करने का हमें साहस प्रदान करता है। उदाहरण के लिए इसी चयनिका के कतिपय अंश द्रष्टव्य हैं।
कितनी अजीब स्थिति बनी रही जब—
‘‘कुरु क्षेत्र ले कुवैत तक
धृतराष्ट्रों की आँखें फूट चुकी थीं
रक्त में जल रहा था अहंकार
घायल किए बिना नहीं लौटता
कोई भी अस्त्र
एक-एक आजातशत्रु आपस में जूझ रहे थे
कोई नहीं लौटता रणभूमि से...’’
धृतराष्ट्रों की आँखें फूट चुकी थीं
रक्त में जल रहा था अहंकार
घायल किए बिना नहीं लौटता
कोई भी अस्त्र
एक-एक आजातशत्रु आपस में जूझ रहे थे
कोई नहीं लौटता रणभूमि से...’’
(‘युद्ध’, उड़िया—शत्रुघ्न पाण्डव)
इसी बात की संपुष्टि करते हुए कन्नड़ के पी.एस. रामानुज का कविहृदय
आश्चर्य व्यक्त करता है
‘‘कितनी बसी है रक्त की बास इस धरती में
कितने लोग मरे, कितने रोये
दुर्दैव है यह, आश्चर्य है यह
तब भी धरती धूमती ही रही..
कितने लोग मरे, कितने रोये
दुर्दैव है यह, आश्चर्य है यह
तब भी धरती धूमती ही रही..
(‘रोकना है न,’ कन्नड़)
पंजाबी कवि का स्वर इसे एक विडम्बना ही मानता है, साथ ही जूझने का साहस भी
देता है—
‘‘हे मेरे पंजाब !
तुम्हारे समाने सिर नहीं झुका सकता मैं
क्योंकि मौसम का मिजाज कुछ ऐसा है
कि शिनाख्ती द्वारा पर इसे
‘‘सोहनसिंह’ भी कहा जा सकता है और ‘सोहनलाल’ भी
तुम्हारी सम्पूर्णतः सलामती की दुआ माँगने
मैं सिर्फ़ हाथ ऊपर उठा सकता हूँ
क्योंकि हाथों का कोई मज़हब नहीं होता।’’
तुम्हारे समाने सिर नहीं झुका सकता मैं
क्योंकि मौसम का मिजाज कुछ ऐसा है
कि शिनाख्ती द्वारा पर इसे
‘‘सोहनसिंह’ भी कहा जा सकता है और ‘सोहनलाल’ भी
तुम्हारी सम्पूर्णतः सलामती की दुआ माँगने
मैं सिर्फ़ हाथ ऊपर उठा सकता हूँ
क्योंकि हाथों का कोई मज़हब नहीं होता।’’
(‘हाथों का मज़हब’, पंजाबी—सोहन ढण्ड)
ऐसे हालातों में कश्मीरी कवि कहीं अधिक बेचैन हैं। वह बिलखकर भी न लिखने
की विवशता प्रकट कर रहा है—
‘‘मेरे घर को आग ने लूटा, उड़ गई है नींद
मेरे घायल हैं जज्बात, मैं कैसे लिखूँ ग़ज़ल !’’
मेरे घायल हैं जज्बात, मैं कैसे लिखूँ ग़ज़ल !’’
(ग़ज़ल’, कश्मीरी—मोतीलाल
‘साक़ी’)
कुछ ऐसे ही और दुर्दैव के क्षण आते हैं जब हमारा नेतृत्व सोया नहीं रहता,
देवता बनकर अवतरित होता है। कितना तीखा व्यंग्य हैं इन पंक्तियों
में—
‘‘देवता बरसाते हैं हम पर आशीर्वाद
और बरसाते हैं ड्रायलंच
जिसे हम पानी के साथ बाद में खाते हैं
हालांकि पानी के पीने की कठिनाई तो है ही
क्योंकि सीमेंट जैसा यह पानी
अब पीने योग्य कतई नहीं रहा...’’
और बरसाते हैं ड्रायलंच
जिसे हम पानी के साथ बाद में खाते हैं
हालांकि पानी के पीने की कठिनाई तो है ही
क्योंकि सीमेंट जैसा यह पानी
अब पीने योग्य कतई नहीं रहा...’’
(‘आशीर्वाद’, गुजराती—सितांशु यशश्चन्द्र)
और, जी.एस.शिवरुद्रप्पा तो इन परिस्थितियों में सबके पालनहार उस परमात्मा
से भी रक्षा की प्रार्थना नहीं करना चाहते—
‘‘ओ करुणानिधान, कोई और
करता ऐसा, तो सच ही में मैं
करता तुमसे प्रार्थना
अब जब तुमने ही बींध डाली पीठ
तब करूँ किससे प्रार्थना रक्षा की ?’’
करता ऐसा, तो सच ही में मैं
करता तुमसे प्रार्थना
अब जब तुमने ही बींध डाली पीठ
तब करूँ किससे प्रार्थना रक्षा की ?’’
(‘एक घटना’, कन्नड़)
लेकिन कवि सुभाष मुखोपाध्याय ऐसे अवसर पर चुप रहना नहीं जानते। बहुत ही
स्पष्ट शब्दों में कह उठते हैं—
‘‘अपना यह रथ यहीं रोक लो केशव !
तुमने जो दिया है मुझे तत्त्वज्ञान
बीत गये उसके दिन।
इस नरकीय कुरुक्षेत्र को छोड़कर
हम चाहते हैं
अपने पाँव तले की जमीन।
राज्य का लोभ
हत्या
और मार-काट
अब और नहीं।’’
तुमने जो दिया है मुझे तत्त्वज्ञान
बीत गये उसके दिन।
इस नरकीय कुरुक्षेत्र को छोड़कर
हम चाहते हैं
अपने पाँव तले की जमीन।
राज्य का लोभ
हत्या
और मार-काट
अब और नहीं।’’
(‘हे सखे !’, बांग्ला)
मात्र अन्याय या आतंक की पीड़ा ही नहीं, वर्तमान के सारे सामाजिक संदर्भों
में भी यही राग निष्यन्द हो रहा है। लगता है, आरम्भ में क्रौंचवध के कारण
कवि की मनोव्था से उद्भूत कविता आज भी मानव की उसी व्यथा को, उसी तड़पन को
अपने भीतर दबाये आकार ग्रहण कर रही है—
‘‘वहीं है कविता
जहाँ मनुष्य है, दुःख है’’
जहाँ मनुष्य है, दुःख है’’
(‘कविता’, असमिया— तोषप्रभा कलिता)
ऐसी और भी अनेक ज्वलन्त सामाजिक समस्याएँ हैं जो विभिन्न भाषा-भाषी कवियों
की लेखनी का विषय बनी हैं और जिनकी वैचारिकता प्रायः एक जैसी है। अस्तु।
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