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पूर्णावतार

प्रमथनाथ बिशी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :324
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1279
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है बांग्ला उपन्यास का हिन्दी रूपान्तर...

Poornavatar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पूर्णावतार वासुदेव श्रीकृष्ण जो साक्षात् ब्रह्म है, इस उपन्यास के नायक है, कथा में वे आद्योपान्त अदृश्य रहते हैं, किन्तु पग-पग पर उनका सानिध्य मिलता रहता हैं अगोचर फिर भी अनुभूति में व्याप्त। उपन्यास का सर्वाधिक करुण पात्र है व्याध-जरा जिसके भ्रमित शर से कृष्ण का देहावसान होता है। जरा और उसकी पत्नी जरती के व्याकुल संसार का सृजन उपन्यास वह नवीन आयाम है जिसकी कल्पना और जिसका मार्मिक चित्रण प्रथम बाबू जैसी कृती और सुधी साहित्यकार ही सफलता से कर सकते थे।

प्रमथनाथ बिशी : संक्षिप्त परिचय

प्रमथनाथ बिशी का जन्म 11 जून, 1901 को राजशाही (अब बांग्ला देश) में हुआ। उनकी माता का नाम था सरोजवासिनी और पिता का नाम नलिनीनाथ। अपने बारह भाई-बहनों में प्रमथनाथ तीसरी सन्तान थे। उनका बचपन देवघर (बिहार) में बीता और उनकी आरम्भिक पढ़ाई-लिखाई, शान्तिनिकेतन (विश्वभारती) में हुई। वे यहाँ लगभग सत्रह वर्ष (1910-27) तक रहे। यही कारण था कि सर्जनात्मक तौर पर रवीन्द्रनाथ के भाव-बोध और उनकी रचना में व्याप्त विश्वचेतना को समझने का उन्हें अवसर प्राप्त हुआ। ‘शिशु’ और ‘बुधवार’ जैसी बाल-पत्रिकाओं का उन्होंने प्रकाशन किया।
श्री बिशी ने आरम्भ में छोटी बड़ी कविताओं से अपना लेखन-कार्य आरम्भ किया। इसमें से कुछ चतुर्दश पदियाँ (सानेट्स) थीं। इनका प्रकाशन तत्कालीन लोक प्रिय पत्रिका ‘बंगश्री’ में हुआ था। बाद में इनका संकलन उनकी तीन परवर्ती काव्य-कृतियाँ यथा—‘प्राचीन आसामी हइते’ (1934), ‘विद्या सुन्दर’ (1934) और ‘प्राचीन गीतिका हइते’ (1937) में हुआ। ‘प्राचीन आसामी हइते’ सबसे पहले विश्वभारती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। वे 1928 में आरम्भ होने वाली महत्त्वपूर्ण पत्रिका की सम्पादक मण्डली में थे। उनकी पढ़ाई का क्रम टूट-टूटकर जारी रहा। शान्तिनिकेतन कलकत्ता, और राजशाही से उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। 1932 में बांग्ला में एम.ए. की परीक्षा में वे प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। 1936 में वे कोलकता के रिपन कॉलेज (सम्प्रति सुरेन्द्रनाथ बनर्जी कॉलेज) में अध्यापक नियुक्त हुए। इसके साथ ही वे आनन्द बाज़ार प्रकाशन समूह के सह-सम्पादक पद पर भी कार्य करते रहे। उन्होंने कमलाकान्त शर्मा के छद्मनाम से भी पत्र-पत्रिकाओं में लिखा। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें रवीन्द्र-अध्यापक पद पर नियुक्त कर सम्मानित किया था। वे टैगोर रिसर्च इन्स्टीट्यूट के संस्थापक अध्यक्ष तथा रवीन्द्र चर्चा भवन के आजीवन अध्यक्ष रहे।

बिशी की परवर्ती रचनाएँ उनके प्रौढ़ व्यक्तित्व, नयी ओज और नयी आस्था से अनुप्राणित हैं। इनमें एक प्रकार की गहरी छानबीन और आधुनिक मानव मन की बिडम्बना का निर्लिप्त चित्रण है लेकिन ये कविताएँ उन्हें अपने समकालीन कवियों से इसलिए अलग करती हैं कि इनमें अनावश्यक भावुकता या गीतिपरकता का सहारा नहीं लिया गया है। और इसलिए ये अपने स्वर में अपनी सफलता और विफलता दोनों से दीप्ति-मुखर हैं। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण संकलनों के नाम हैं—‘अकुन्तला’ (1946), ‘जुक्तवेणी’ (1948), ‘हंसमिथुन’ (1951) ‘किंशुकवह्नि’ (1951), और ‘उत्तर मेघ’ (1953)।
प्रमथनाथ की प्रथम काव्य-कृति का नाम था ‘देयालि’—जिसका नामकरण स्वयं रवीन्द्रनाथ ने किया था। ‘वसन्त सेना’ उनका दूसरा काव्य-संकलन था। उनकी रोमानी वृत्ति इन कविताओं में मुखर है। प्रेयसी नायिका या नारी आकर्षण के विभिन्न उपादानों और आयामों—उसके रूप, रस, स्पर्श और सौरभ से वह अपने मनःप्राण और जीवन को सार्थक और जीवन्त बनाने का आग्रही है।

कविता के क्षेत्र में अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति बनाए रखते हुए श्री बिशी ने गद्य-लेखन, विशेषकर कथा-साहित्य के क्षेत्र में भरपूर योगदान किया। उन्होंने अपने आस-पास के समाज और जीवन को केन्द्र में रखकर कुछ ऐसे उपन्यास लिखे जो इतिवृत्तात्मक तो थे लेकिन पीढ़ियों के भटकाव और बिखराव का इनमें बड़ा ही अन्तरंग चित्र मिलता है। ये चित्र बंगाल के नवाबी शासन, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अन्तर्गत इसके विकास और विस्तार तथा महानगर कोलकाता के जीवन के इर्द-गिर्द उकेरे गये हैं । उनके आरम्भिक उपन्यास ‘पद्मा’ और ‘कोपवती’ जैसे कवि की लेखनी से फूटे हैं। ‘पद्मा’ राजशाही अंचल के मनोरम माधुर्य से सिक्त कृति है। अपनी अगली महत्त्वपूर्ण औपन्यासिक रचना ‘जोड़ा दीघिर उदयास्त’ उत्तरबंग की बृहत्तर पृष्ठभूमि में वहाँ के जमींदारों, साहूकारों, किसानों, खेतिहर मज़दूरों, कामगारों और कलाकारों की गाथा है। इसी क्रम में उन्होंने ‘अश्तत्थरे अभिशाप’ और ‘चलन बिल’ जैसी कृतियों का प्रणयन किया जो भाव, कथ्य और शैली की दृष्टि से सर्वथा अलग थीं। इन तीनों उपन्यासों से रचनाकार के अपने परिवेश, समय, समाज और सरोकार का—आत्मीय और अन्तरंग परिचय मिलता है। उनके अन्य दो उपन्यासों ‘केरी साहबेर मुंशी’ और ‘लाल केल्ला’ (केरी साहब का मुंशी और लाल क़िला) ने उन्हें बांग्ला का अप्रतिम काव्य-शिल्पी बना दिया। ये उपन्यास मात्र ऐतिहासिक रोमांस के आख्यान के नहीं बल्कि दुर्दम्य जीवन की गतिशील अनिवार्यता के प्रतिमान हैं। इनमें भारतीय नवजागरण के पैरों की आहट सुनी जा सकती है। इसी तरह ‘लाल क़िला’ अपने कथ्य में ऐतिहासिक और राजनीतिक होता हुआ भी आम आदमी की भूमिका, विशेषकर मध्यवर्ग की आशा-आकांक्षाओं, को व्यंजित करता है। प्रमथनाथ बिशी की विशेषता यह है कि बांग्ला में लिखते हुए भी उनके विषय बृहत्तर भारत के पाठकों की अपेक्षा को स्वर देते रहे। किसी ऐतिहासिक निर्णय या सामाजिक उथल-पुथल के कारण साधारण मनुष्य के सुख-दुख, ताप-अनुताप, आशा-अकांक्षा और जातिगत संकल्प-विकल्प की तरह आहत या प्रभावित होते हैं—यही उनके लेखन की मूल प्रेरणा रही है। अपने परवर्ती उपन्यासों—‘पूर्णावतार’ (1934), बंगभंग (1939) और ‘पनरोई आगस्ट’ (पन्द्रह अगस्त, 1954) में भी वे व्यक्ति-परिवार-समाज और देश के अविच्छिन्न ताने-बाने से अपने सरोकार को रेखांकित करते हैं। कहना न होगा, उनके निधन के बाद बांग्ला में सामाजिक और राजनीतिक कथा-परिक्रमा के इतने बड़े परिपथ को पूरा करने वाला दूसरा कथा-साहित्यकार नहीं हुआ।

प्रमथनाथ ने जीवनी साहित्य को भी नया उत्कर्ष प्रदान किया है। उनका ‘माईकेल मधुसुदन’ ग्रन्थ कवि माइकेल के अन्तःबाह्य संघर्षों का मुखर दस्तावेज़ है। इसी के साथ उनके अन्य ग्रन्थ ‘चित्र-चरित्र’ का उल्लेख भी किया जा सकता है-जिसमें उन्होंने उन्नीसवीं सदी के मनीषियों एवं रचनाकारों का संक्षिप्त लेकिन उपयोगी परिचय प्रस्तुत किया है।
बिशी ने उपन्यासों के साथ-साथ कहानी (श्री कान्तेर पंचम पर्व, अशरीरी, गल्पेर मत, डाकिनी, ब्रह्मार हासि) तथा नाटकों (ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्, परमिट, भूतपूर्व स्वामी, मौचाके ढिल, परिहास विजल्पितम्) तथा रवीन्द्र-साहित्य-चर्चा (रवीन्द्र काव्य-प्रवाह, रवीन्द्रनाथ ओ शान्तिनिकेतन, रवीन्द्र काव्य निर्झर, रवीन्द्र-विचित्रा, रवीन्द्र सरणी आदि) तथा ललित साहित्य या रम्य रचना के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया। वे अपनी रचनाओं के द्वारा व्यापक पाठक-वर्ग की उन अपेक्षाओं को भी पूरा करते रहे, जिनकी उन्हें बिशी से विशेष आशा थी या जिस-जिस विधा का अभाव उन्हें दीखा और जिसे केवल वही पूरा कर सकते थे। बिशी अपने जीवन-काल में अपने साहित्यिक योगदान के लिए चर्चित एवं सम्मानित भी हुए। उन्हें सरोजनी बसु स्वर्ण पदक (1961), रवीन्द्र पुरस्कार (1961), विद्यासागर पुरस्कार (1982) तथा जगत्तारिणी पुरस्कार (1983) प्राप्त हुए।
उनका निधन 1985 में हुआ।

पहला खण्ड

आख़िर एक हिरन मिला। चूँकि झाणियों की आड़ में है इसलिए पूरा दीख तो नहीं रहा है, लेकिन देखने से जैसा लग रहा है, हिरन ही है, इसमें कोई शुबहा नहीं। और फिर बच्चा नहीं, ख़ासा बड़ा हिरन। सो रहा है, या आराम कर रहा है ? न, यह सोने का समय नहीं । और फिर हिरन स्वभाव से डरपोक होते हैं, ऐसी खुली जगह में नहीं सोते। हिरन कहाँ सोते हैं, यह कोई नहीं जानता। वे जंगल की ऐसी गहनता में घुस पड़ते हैं जहाँ न तो शिकारी के क़दम बढ़ सकते हैं, न ही प़ड़ सकती है बाघ की निगाह। इसके शिकार से चूकने का नहीं चलने का—एक ही तीर में आर-पार कर देना होगा। उसके बाद इसे लत्तर से ख़ूब कसकर बाँध करके पीठ पर लटकाकर घर ले जाने से जरती की ख़ुशी का क्या कहना ! और कहीं ख़ाली हाथ लौटा तो ! कैसी ख़ौफ़नाक स्थिति जो होगी, सोची भी नहीं जा सकती। कल खाली हाथ लौटने पर जो दुर्भोग भोगना पड़ा, वह कभी भूला जा सकता है भला ! पहले तो जरती की ज़ुबान की कैंची चल पड़ी, उसके बाद उसने बड़ी-सी एक लकड़ी उठाकर दे मारी। ग़नीमत कि वह झट से बैठ गया, खोपड़ी की खैर रही, नहीं तो आज शिकार को निकलने की नौबत नहीं आती। अच्छा ही होता, दईमारी भूखी मरती। हूँ : पति को निशाना बनाकर लकड़ी मारना ! ख़ैर, आज दिखा दूँगा की शिकार की खोज करने वाली पैनी नज़र अभी है और निशाना भी वैसा ही अचूक है।

उसे याद आ गया, जरती ने फटकार बतायी थी—हिरन अब मिले भी तो कैसे ? नज़र जंगल की ओर थोड़े ही है, नज़र तो अब सिर्फ़ टोले की छोरियों की तरफ़ है ! काश, ये भी हिरनी होतीं ! सबकी सब सूअर-जैसी : वैसी ही काली, वैसी ही दँतैल ! आज मुँहजली को दिखाकर ही रहूँगा कि मेरी नज़र में हिरन भी आता है। पीठ पर से मरे हुए हिरन को उतारते हुए कहूँगा—अरी ओ भलेमानस की धी, ज़रा देख तो जा, मैं महज सुअरों को ही नहीं, हिरन को भी घायल कर सकता हूँ और वह हिरन तेरे जैसा है। अहा, वैसी ही पतली कमर, वैसी ही आँखें, वैसा ही रंग। बढ़ती में इसके सींग हैं, जो कि तेरे नहीं हैं। ले-ले, जल्दी से छाल उतारकर इसे झुलसा दे, बड़ी भूख लगी है।
मन ही मन वह ज़ोर से हँसा कि तभी याद आ गया हँसने से कहीं हिरन हाथ से निकल गया, तो नसीब में फिर से वही रोना रह जाएगा। आखिर फेंकी हुई लकड़ी का वार रोज़ थोड़े ही ख़ाली जाएगा।

न, क़िस्मत अच्छी है। हिरन ठीक वैसी ही स्थिति में है, खिसक नहीं पड़ा है। अब और आगे बढ़ना ठीक नहीं होगा। पैरों की आहट भाँप लेने में ये उस्ताद होते हैं। पत्तों की मामूली खसखसाहट भी उनके कानों में पड़ जाने से नहीं बच सकती। उसने तीर-धनुष सँभाला। कमज़ोर है, सिर चकरा रहा है, मगर निशाने की चूक करने से नहीं चलेगा। बेचारे शरीर और दिमाग़ का भी क्या दोष ? सवेरे से ही भूखा है, जंगल की ख़ाक छानकर हैरान होना पड़ा है। हिरन और सूअर की बात तो दूर, कोई नेवला, साहिल, सियार तक नज़र नहीं आया। आख़िर ये कमबख़्त चले कहाँ गये ? वही जो तड़के थोड़ा-सा बासी भात खाकर निकला है, तब से फिर तालाब के पानी के सिवा पेट में कुछ पड़ा ही नहीं ! पानी से कहीं भूख की आग बुझती है ! बल्कि और ज़्यादा लहक उठती है। बिल्कुल निराश होकर जब लौट पड़ने को था कि एक ही साथ जरती के हाथ की लकड़ी और यह झाड़ी आँखों में नाच गयी। सोचा, इस झाड़ी को एक बार देख ही क्यों न लूँ ! यहाँ भी हताशा ही हाथ लगे तो माथे पर मोटी-सी पगड़ी बाँधकर घर लौटूँगा। आख़िर जरती की लकड़ी से सिर को तो बचाना ही होगा। तभी झाड़ी की ओट में हिरन दिख गया। और ज़रा-सी ही देर में वह लौटने के लिए ‘जय माँ’ चीख़ने को ही था ! फिर तो हो गया था ! हिरन आवाज़ पाते ही हवा हो जाता।

मगर, ऐसा सुबोध हिरन भी तो नहीं होता। व्याधगिरी करके तीस साल बीते, कभी किसी हिरन को एक जगह इतनी देर तक स्थिर रहते नहीं देखा। लगता है, जरती से भी ज़्यादा कोई ख़ूँख़ार है ! उसी के चैले के डर से यह यों सिकुड़ा-सिमटा पड़ा है। बस, ज़रा देर और इसी तरह बैठे रहो मेरे यार, चैले का ख़ौफ़ तुम्हारा चिरकाल के लिए ख़त्म किये देता हूँ ! अजी, चैले की रोज़-रोज़ की मार खाने से एक ही मार में मर जाना कहीं बेहतर है ! जरती के वैसे खूँखारे पन से वह ख़ुद भी ऐसा सोचता है, एक ही दिन में काम तमाम हो जाए। इसके बाद वह दईमारी रो-रोकर देती रहे जान। कोई चिमटे से भी नहीं छुएगा, तब समझ में आयेगी कि चैले से पति की खोपड़ी फोड़ने से अपना कपाल भी फूट सकता है ! हाहा ! वैसे में दईमारी को अच्छा सबक़ मिलता !
वह घुटने गाड़कर बैठ गया। धनुष के एक छोर को माटी से भिड़ाकर प्रत्यंचा को खींचकर दायें हाथ को अपने कान तक ले आया। दोनों आँखें तीर की नोक पर एकाग्र हो गयीं। हाँ, तीर की नोक और हिरन का नज़र आता हिस्सा अब ठीक आमने-सामने हो गया। अब क्या था, देवों को सुमरकर साँस रोके उसने तीर को छोड़ दिया। झाड़ी के पत्तों को कँपाता, कुछ पतिंगों को उड़ाता हुआ तीर झाड़ी में धँस गया। व्याध के अनुभव ने बताया, तीर लगा—एकबारगी आर-पार हो गया। निशाना चूकता तो अब तक जन्तु जान लेकर भागता नज़र आता। और तीर इस पार-उस पार नहीं हो गया होता तो वह चीख़ता। एक ही तीर में ख़ात्मा हो गया, मुँह से चूँ तक करने की नौबत नहीं आयी। शाबाश रे हरा, व्याध का बेटा ज़रा। बाप का बेटा है तू ! धनुष को सिर से ऊपर घुमाते हुए मारे ख़ुशी के झाड़ी में घुस पड़ा। और घुसा कि जीता-जागता वह ख़ुशी से बेहाल आदमी बिल्कुल पत्थर की मूरत बन गया ! हाय राम ! मारे अचरज के उसके दोनों होठ ख़ुले के ख़ुले रह गये, आँखें बड़ी-बड़ी हो गयीं, हाथ ढीले पड़ गये, धनुष हाथ से छूटकर गिर पड़ा, शरीर काँपने लगा, कपाल पर पसीनें की बूँदें आ गयीं, दम अटक-सा गया। यह क्या ! कौन है यह ! कौन ? और ज़रा देर में वह पत्थर की मूरत माटी पर गिर पड़ी।

2

यह तो हिरन नहीं, आदमी हैं ! ख़ासा एक आदमी, लम्बा-चौड़ा एक आदमी। घास पर सीधा लेटा पड़ा एक बड़ा-सा आदमी ! साढ़े तीन हाथ का नहीं, यह तो गोया देही देह से भी बाहर तक फैला हुआ है। इस आदमी को पहले तो कभी नहीं देखा, यह भी एहसास न था कि ऐसा भी आदमी हो सकता है ! है कौन यह ? कहाँ से आया ? देवता जैसे ऐसे शरीर में तीर भी बिंध सकता है, यह बात उसके मन में धँसी ही नहीं। लेकिन है आदमी किस क़िस्म का यह ! यह वास्तव में आदमी है कि शापभ्रष्ट कोई देवता है ! उफ, बदन का रंग कैसा ! केले का नया पत्ता जब तने के पेट से निकलता है, उस समय उसका जैसा रंग होता है, वैसा रंग। वह रंग हरा भी नहीं, श्याम भी नहीं; एक तूलिका कम पड़ी होती तो पीला हो सकता था, एक कहीं ज़्यादा पड़ जाती तो हरा हो जा सकता था—इस हरे-पीले के बीच-बीच का उज्ज्वल रंग। पहनावे में पीला वसन, कन्धे पर अस्त-व्यस्त पीला चादर। सोने की बारीक-सी ज़ंजीर में झूलता छाती पर दमकता एक रत्न ! देह की आभा, रत्न की प्रभा और वस्त्र की विभा ने मिलकर एक दिव्य विभूति की सृष्टि की है, जिसे भेदकर आदमी के बदन पर नज़र नहीं पड़ा चाहती। कुछ-कुछ खुली आँखों में जीवन की अन्तिम चन्द्रकला, लाल होठों के सम्पुट में जीवन की अन्तिम व्यंजना, चौड़ी, विशाल छाती की धड़कन में प्रशान्त मानस-सरोवर की स्मृति ! और सुन्दर तथा मज़बूत दो पाँव-अरे ! यह क्या ! पाँवों से लहू क्यों बह रहा है ? यहाँ किसने तीर मारा ? पाँव को छेदता हुआ तीर घुटने तक निकल गया है। हाय रे अभागा ज़रा, यही तेरा हिरन है ! इस स्वर्गीय शरीर में तूने तीर मारा है ? कैसा सत्यानाश ! अचरज से भय हुआ, भय से आतंक। और वह झट भाग चला, जैसे तीर खाकर हिरन भागता हो—तीर, धनुष, तूणीर पड़ा रह गया।

कुटिया के बाहर बैठी जरती कटारी से लकड़ी चीर रही थी—ज़रा ने दूर से ही देखा। और दिन होता, तो ख़ाली हाथ लौटने पर पहले से ही होशियार हो जाता, शायद हो कि आगे ही नहीं बढ़ता, आज लेकिन वह बात मन में आयी ही नहीं, दौड़ कर वह जरती के पास जा खड़ा हुआ।
पैरों की आहट पाकर जरती ने मुँह उठाकर ताका। बोली-देख रही हूँ, कुछ मिला नहीं। बिलकुल ख़ाली हाथ हो। तो फिर ख़ाली पेट ही रहो आज रात।

ज़रा बिलकुल चुप। ऐसा शायद ही कभी होता है। कोई न कोई बहाना ज़बान पर ज़रूर रहता है। उसकी ऐसी चुप्पी से जरती का माथा ठनका। उसने गौर से उसके चेहरे की ओर देखकर कहा—अरे ! क्या हो गया तुम्हें ? चेहरा सूख गया है, शरीर काँप रहा है ! बात क्या है ! तीर धनुष कहाँ है तुम्हारा ? तूणीर कहाँ गया ? बात क्या है, बताओ।
फिर भी ज़रा के मुँह में कोई जवाब नहीं। अब जरती उठी। हाथ पकड़कर उसे झकझोरती हुई बोली—हुआ क्या है, जल्दी बताओ !
अबकी ज़रा के मुँह से बोली फूटी। बोला—मैंने एक आदमी को मार डाला है री !
जरती कुछ निश्चिन्त-सी होकर बोली—ओ, यह बात है ! तो क्या इससे पहले कभी तुमने आदमी नहीं मारा है ? अभी-अभी उसी दिन तो शराब पीकर तुमने उस टोले के तरणी का ख़ून कर दिया !
-अरे, सो तो शराब के नशे में।
-आज बग़ैर नशे के ही सही।
-नहीं, री, नहीं। तू नहीं समझेगी।
-तो फिर समझाकर ही कहो।

-यह वैसा आदमी नहीं है।
-और कैसा ? आख़िर आदमी कितने प्रकार का होता है ?
-यह बहुत बड़ा आदमी था !
-बहुत बड़ा ! राजा-महाराजा कि लम्बाई-चौड़ाई में बड़ा ?
-कैसे समझाऊँ तुझे !
-समझने की ज़रूरत भी नहीं मुझे मगर मारा कैसे ? वह तुम्हें मारने आया था ?
-वैसा होता, तब तो कोई बात ही नहीं थी। वह आदमी झाड़ी में छिपा हुआ था। दूर से देखकर मैंने हिरन समझा और ऐसा तीर मारा कि आर-पार हो गया।
-तुमने जब आदमी को हिरन समझा, तो हो न हो, नशे में चूर रहे होगे। फिर शायद सूँडी टोले में गये थे ? इधर देखो, यह जो जलावन का चैला पड़ा है, इसी से तुम्हारा पैर तोड़ दूँगी। मैंने मना किया था न !
ऐसा कहने की प्रतिक्रिया क्या होगी, यह जरती की अजानी नहीं थी। उसने आँचल से फेंटा कस लिया। लेकिन जो उम्मीद थी, आज वह प्रतिक्रिया नहीं हुई। बल्कि उसका ठीक उलटा हुआ। ज़रा आँगन में बैठ गया। अब जरती के लिए सचमुच ही चिन्ता की बात हो गयी। वह उसके क़रीब जाकर बैठ गयी। बोली—हुआ क्या है तुम्हें ? किसे मारा है ? राजा के यहाँ का तो कोई नहीं है न !

ज़रा के मुँह से बोली ही नहीं निकली।
-अरे, रो क्यों रहे हो ?
-पता नहीं, आँसू रुक नहीं रहे हैं।
-ख़ैर। बात फिर सुनूँगी। उठो। हाथ-मुँह धोकर खा लो।
-नहीं री, मेरे खाने-पाने का बारह बज गया।
-तीर-धनुष क्या कर दिया ?
-वहीं पड़ा है।
-क्यों ?
-डर के मारे।
-मरे आदमी से इतना डर ! अच्छा , चलो तो सही, देखूँ मैं कि वह आदमी कैसा है। उठो।
उठने के बदले ज़रा लेट गया।
-क्या हो गया ?
-मैं वहाँ नहीं जाऊँगा।

-क्यों ?
-डर लगता है।
-मैं जो साथ चल रही हूँ ?
-तुम अकेली ही जाओ।
-मैं कैसे समझूँगी, कहाँ है। साथ तो चलो।
ज़रा हिलने को नहीं और जरती छोड़ने को नहीं। उसके कौतूहल की मात्रा ज़रा के आतंक से बढ़ गयी। आख़िर ज़रा को साथ जाना ही पड़ा। कौतूहलवाली स्त्री अजेय होती है।
थोड़ी ही देर में दोनों घटनास्थल पर पहुँच गये। तीर बिंधा शरीर वैसा ही पड़ा था। उस शरीर को देखते ही जरती फुक्का फाड़कर रो पड़ी—हाय रे, ज़रा, यह क्या किया है ! सर्वनाश ! यह किसे मारा तूने ?
-और वह मृत के पैरों पर लोटकर माटी पर सिर पटकने लगी।
-हे देवता, हम लोगों ने घोर अन्याय किया है। वह तुम्हारा नादान लड़का है देवता, अनजाने यह महापाप कर बैठा है। हमें माफ़ करो।
ज़रा के आश्चर्य का अन्त नहीं रहा। उसका अन्दाज़ तब तो ग़लत नहीं है। यह कोई मामूली आदमी नहीं, ज़रूर कोई राजा होगा।

जरती माथा पीटती रही ज़रा एकटक उस दिव्य देह को देखता रहा। देह का रंग और भी पीला हो आया था, आँखों की नज़र और भी बुझ आयी थी। जख़्म से निकली हुई खून की धार ने साँप का आकार धारण कर लिया था। फिर भी तन में जान बाकी थी-छाती पर का वह रत्न हलका-हलका हिल रहा था।
जरती की आर्त पुकार शायद दिव्यदेही के हृदय तक पहुँची। उसने एक बार अभय मुद्रा में अपने हाथ को उठाया। उसके बाद सब ख़त्म। जरती मूर्च्छित होकर पैरों पर गिर पड़ी। घबराये हुए ज़रा का चेतना शून्य शरीर सूखे पेड़ के तने-सा खड़ा रह गया।

तब तक आकाश और समुद्र में ज्वार जागा। पूनम की चाँदनी कूल-उपकूल नहीं मान रही थी, चराचर के हर छेद को वह जोत से भरे दे रही थी। नीचे समुद्र भी आज बेसब्र। उसके किनारे-किनारे देश-देश में जितने भी गुहा-गह्वर थे, वह सबको भर देने पर आमादा था। अभी तो फिर भी महज़ साँझ ही थी। आसमान में पपीहा ऊँची तान की डोरी से सपनों के बेड़े को खींचे लिये जा रहा था। और, समुद्र में सिन्धु-शकुनों का झुण्ड उसी की बिसात छीन लेने के लिए कर्कश स्वर में चीख रहा था। चाँदनी ने आसमान के सितारों को ढँक दिया था, जैसे ज्वार से उपकूल के पत्थर ढँक गये थे। किसी और ही पौराणिक जगत् के उपकूल से लगातार एक दीर्घ नि:श्वास छूटता आ रहा था—झाऊ और सरपत के जंगल डोल रहे थे और डोल रहे थे उस पीपल के हज़ारों-लाखों पत्ते, जिसके नीचे वह महादेही योगनिद्रा में सोया हुआ था !

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