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शुतुरमुर्ग

ज्ञानदेव अग्निहोत्री

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :70
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1277
आईएसबीएन :81-263-0809-5

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‘शुतुरमुर्ग़’ नाटक में श्री ज्ञानदेव अग्निहोत्री ने इस प्रतीक को राजनीति के प्रत्येक महानायक पर इतनी सहजता और सूझ-बूझ से आरोपित किया....

Shuturmurg

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘शुतुरमुर्ग़’ विधाता की वैविध्यप्रियता और विनोद-प्रियता का नमूना तो है ही जीवन के कटु सत्यों से पलायन करने तथा आत्म-वंचक निर्भयता से परितुष्ट हो जाने का प्रतीक भी है। ‘शुतुरमुर्ग़’ नाटक में श्री ज्ञानदेव अग्निहोत्री ने इस प्रतीक को राजनीति के प्रत्येक महानायक पर इतनी सहजता और सूझ-बूझ से आरोपित किया कि पूरा नाटक अद्भुत यथार्थपरक अर्थवत्ता से चमक उठा है।
अर्थगर्मी कथ्य, मनोरंजक मंचीय परिकल्पना, अभिनव प्रयोग-अनेक दृष्टियों से ‘शुतुरमुर्ग़’ एक ऐसी कृति है जिसे आप पढ़ना चाहेंगे, मंच पर अभिनीत देखना चाहेंगे।

शुतुरमुर्ग़ की मंच-प्रस्तुति :

प्रतिक्रियाएँ


हिन्दी रंगमंच में ऐसा बहुत कम हो पाता है कि कोई नयी नाट्य कृति पहले मंच की कसौटी पर कसी जाए, नाटककार की प्रस्तुतिकरण का अभिन्न अंग बनाया जाए; मूल रचना को जाँचने-परखने और अपेक्षित परिवर्तन का अवसर मिले और फिर उसे प्रकाशित किया जाए। हर्ष है कि यह सुखद संयोग ‘शुतुरमुर्ग़’ को मिला।
प्रकाशन के पूर्व ही कलकत्ते की प्रसिद्ध संस्था ‘अनामिका’ ने श्यामानन्द जालान के निर्देशन में कलकत्ता और दिल्ली में ‘शुतुरमुर्ग़’ के बारह प्रदर्शन किये। बम्बई की प्रशिद्ध संस्था ‘थियटर यूनिट’ ने सत्यदेव दुबे के निर्देशन में ‘शुतुरमुर्ग़’ के लगभग छह प्रदर्शन किये। अब इन प्रदर्शनों की प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया मेरे सामने है। और उस प्रतिक्रिया ने जिन प्रश्नों को उभारा उनके उत्तरों की खोज मुझे सार्थक लगती है।

सबसे अधिक विवाद ‘शुतुरमुर्ग़’ की मूल परिभाषा को लेकर हुआ। यह कहा और लिखा गया कि नाटक के शीर्षक का नाटक की कथावस्तु से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि मुख्य पात्र ‘राजा’ को ‘शुतुरमुर्ग़’ मान भी ले तो भी नाटक के मानवीय कार्य-व्यापार को देखते हुए बात सटीक बैठती नहीं। बात सटीक बैठ भी नहीं सकती, क्योंकि मेरे नाटक का ‘राजा’ ‘शुतुरव्यवहार’ से पीड़ित नहीं है। वह स्वयं शुतुरमुर्ग़ नहीं है, पर मानव-स्वभाव में दूर तक धँसी शुतुरमुर्ग़ प्रवृत्ति का उसे पूर्ण ज्ञान है। इसी ज्ञान को वह अपने स्वार्थों के लिए मोड़ लेता है। तभी तो वह अपने-आप को सचेतन शुतुरमुर्ग़ कहता है और अपनी शक्ति एवं सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए सोने की ‘शुतुर-प्रतिमा’ के निर्माण और उस पर स्वर्णछत्र की स्थापना के ‘महान्’ कार्य में जुट जाता है।

देश की समस्याओं से राजा पलायन नहीं करता, बल्कि उनका सामना करता है-समाधान ढूँढ़ता है, फिर यह समाधान कुछ भी क्यों न हो। सोने के शुतुरमुर्ग़ का निर्माण और उस पर स्वर्णप्रतिमा की स्थापना उसका सबसे बड़ा शस्त्र है- जिसे वह लगभग सभी समस्याओं के समाधान में लगाता है। यह शस्त्र उसे मानव-स्वभाव में व्याप्त ‘शुतुरमुर्ग़ी’ प्रवृत्तियों से मिला है। इसी महान् शास्त्र से वह अपनी शक्ति और सत्ता को सुरक्षित रखता है। फिर भी अन्त में उसका विघटन होता है, पर उसका यह विघटन त्रासद नहीं है। मेरे नाटक का ‘राजा’ त्रासद नहीं, कमजोर और कुटिल है। अनामिका ने जिस विशेष भाव-भंगिमाओं की शैली में नाटक प्रस्तुत किया उससे सहमत और असहमत हुआ जा सकता है, पर उसके नाटकीय प्रभाव और सरलता से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रदर्शन अत्यन्त सफल थे।

सत्यदेव दुबे व्याख्या के चरमोत्कर्ष में जब राजा (सूत्रधार) यह स्वीकार करता है कि सब कुछ उसे मालूम था, तब प्रेक्षकों में से एक व्यक्ति उठकर पिस्तौल से राजा की हत्या कर देता है (यहाँ तक सहमत हुआ जा सकता है। कभी-कभी जो अनकहा होता है-वही अपेक्षित प्रभाव है। यह निश्चित अन्त का आरम्भ संकेतित करता है) हत्या के पहले चारों मन्त्रियों ने क्रमशः जॉनसन, माओ, स्टालिन और सी.पी.आई. के मुखौटे पहन रखे हैं, और राजा की मृत्यु के साथ ही पृष्ठभूमि से ‘वन्दे-मातरम्’ का समवेत स्वर उभरता है। इस अन्त का नाटक की कथावस्तु से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं। निर्देशक सत्यदेव दुबे इसे स्वीकार भी करते है, पर वे दर्शकों को सुख का भाव देकर घर भेजने के पक्ष में नहीं; अस्तु यह ‘टीज़र’। 1969 में ‘नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा’ के ग्रीष्म नाट्य समारोह में मोहन महर्षि ने ‘शुतुरमुर्ग़’ का प्रदर्शन किया। मूल नाटक के आलेख के साथ अराजक स्वतन्त्रताएँ ली गयीं और ‘चौंका देने वाली शैली’ में नाटक प्रस्तुत किया गया। किसी एक नाटक की इतनी संयोजित हत्या शायद कभी नहीं की गयी।

‘अनामिका’ की ’स्टाइलाइज़्ड’ शैली और ‘थियेटर यूनिट’ की ‘रियलिस्टिक’ शैली ने यह समस्या-सम्भावना उत्पन्न की है कि प्रस्तुतीकरण की कौन-सी शैली ‘शुतुरमुर्ग़’ को अधिक प्रभावोत्पादक, नाटकीय और सशक्त रुचि सम्प्रेषण देती है। पर यह प्रश्न निर्देशकों से सम्बन्धित है जो अपनी-अपनी क्षमताओं के अनुसार नाटक को रंग, रूप और आकार देंगे।
नाट्य आलोचनों के एक वर्ग का कथन था कि ‘शुतुरमुर्ग़’ मात्र एक साहित्यिक नाटक है। एक दूसरे वर्ग के अनुसार वह एक रंगमंचीय नाटक है। पर सच यह है कि नाट्य कृति की श्रेष्ठता का मूल्यांकन रंगमंचीय और साहित्यिक दृष्टि से अलग-अलग नहीं हो सकता और न ये दोंनों एक दूसरे पर आधारित हैं। वास्विकता तो यह है कि एक का अस्तित्व ही दूसरे का कारण है। एक है, इसलिए दूसरा है।

‘शुतुरमुर्ग़’ के शिल्प के बारे में एक मर्जेदार बात और सामने आयी। कुछ आलोचकों ने यह कहा और लिखा कि ‘शुतुरमुर्ग़’ में परम्परागत नाट्य रूढ़ियों से ख्वाहमखाह विद्रोह किया गया है। कुछ ने कहा कि ‘ऊलजलूल’ ‘फ़ार्स’ और यथार्थवादी शैलियों का अजीब मिश्रण किया गया है। और कुछ ने यहाँ तक कहा कि सारा शिल्प नाटक के कथ्य पर आरोपित है। ऐसे विद्वान् आलोचकों से मुझे सिर्फ यही कहना है कि ‘शुतुर्गमुर्ग़’ में जो शिल्प मैंने चुना है उसका उदेश्य अकारण ही वर्तमान और परम्परागत नाट्य रूढ़ियों को तोड़ना नहीं था और न ही उनका अन्धानुसरण था। ‘शुतुरमुर्ग़’ के कथ्य को मैं केवल उसी शिल्प में कह सकता था जिसमें मैंने कहा है। क्योंकि इस नाटक के कथ्य से ही शिल्प का जन्म हुआ है। एक अन्तिम वर्ग आलोचकों का और है जिसके अनुसार ‘शुतुरमुर्ग़’ के शिल्प और कथ्य ने हिन्दी और भारतीय रंगमंच में एक नयी नाट्य परम्परा स्थापित की है और प्रस्तुतीकरण की नयी-नयी शैलियों को संकेतित किया है। यदि इस कथन को सच माना जाय, तो यह मात्र एक संयोग है, अधिक एक सुखद संयोग।

ज्ञानदेव अग्निहोत्री

पात्र


राजा
रानी
रक्षामन्त्री
भाषणमन्त्री
महामन्त्री
विरोधीलाल
मामूलीराम
दासी
मरता हुआ मनुष्य

(रंगशाला की बत्तियां बुझते ही प्रकाश का केन्द्रित वृत्त मुख्य यवनिका के सामने पड़ता है। सूत्रधार मंच पर आता है। वह काले रंग का दुशाला ओढ़े है।)
सूत्रधारः (दर्शकों से) नमस्कार और स्वागत। मेरा नाम सूत्रधार है लेकिन मैं कुछ दूसरे प्रकार का सूत्रधार हूँ। दरअसल मैं अपने ही जीवन का सूत्रधार हूँ। मैंने स्वयं ही अपने जीवन की यवनिका उठायी, स्वयं ही मुख्य पात्र का अभिनय किया और अपने ही कौतुक-सृजन का प्रेक्षक रहा। मैंने स्वयं अपने लिए घटनाओं और स्थितियों का निर्माण किया। वक्त की दीवार पर मैंने अपनी, परछाई टाँगने का प्रयास किया। भावनाओं और संयोगों के ज्वार-भाटे मैंने ही उठाये और उनकी उत्तुगं तरंगों पर खुद ही सवारी की।

मैं स्वयं ही अपना सर्वनियामक, अपना स्त्रष्टा हूँ (क्षणिक विराम) या यों कहिए कि था। लीजिए तो अपने जीवन का नाटक प्रस्तुत करने लगा। तनिक ठहर जाइए, मैं अपना वह परिवेश धारण कर लूँ जिसे मैं अन्तिम बार धारण किये था (काला दुशाला हटाता है, अन्दर से राजसी परिधान चमकने लगते हैं।) और वह सोने का शुतुरमुर्ग़ जो मेरा राज्यचिन्ह था। (पहनता है) शुतुरमुर्ग़ –आह ! कितना प्यारा पक्षी है। जब नग्न सत्य उसे चारों ओर से घेर लेते हैं और वह भाग नहीं पाता तो आंखों-समेत वह अपनी चोंच रेत में डुबों देता है और पलायन की उस सम्पूर्ण अनुभूति में यह कल्पना करता है कि उसे कोई नहीं देख रहा है—उसे कोई नहीं समझ रहा है और वह सुरक्षित है। लेकिन सचेतन शुतुरमुर्ग़ अच्छी तरह जानता है कि उसे सब देख रहे हैं, सब समझ रहे है सब जान रहे हैं।

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Ramesh  Pooniya

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