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शब्द इस शताब्दी का

शेषेन्द्र शर्मा

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1991
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1272
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है एक उत्कृष्ट काव्य संकलन...

Shabd is shatabdi ka

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अनेक शताब्दियाँ मिलकर एक शब्द बना सकती हैं या नहीं, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, किन्तु इतना तो विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि एक शब्द-केवल एक शब्द अनेक शताब्दियों को जन्म दे सकता है। शब्द-शिल्प और भावयोग दोनों के सामरस्य से अपनी सारस्वत साधना को सार्थक और सशक्त बनाने वाले युगचेता कवि शेषेन्द्र इसी मनोभूमि पर पहुँचकर कहते है :

‘‘अरण्यों के गर्भों से मैने जो भाषा सीखी है,
अब शताब्दियाँ उसी भाषा में बोलेगीं।’’

शताब्दियों की इस काल-विजयिनी भाषा के मर्मज्ञ होने के कारण ही यह कवि काल को कागज़ बनाकर उस पर अपने सपने लिख देता है, और उसके नीचे अपनी साँस से हस्ताक्षर कर देता है।
शेषेन्द्र की कविता ज्योत्सना की भाँति विलक्षण है जो विभिन्न रुचियों के लोगों को एक-साथ मनोहर लगती है। सहृदय कवियों और समालोचकों को उसमें नैसर्गिक सुषमा दिखाई देती है तो मानवता के प्रेमियों को उसमें इन्सानी मुहब्बत की खुशबू भी अपनी ओर खींच लेती है।

मात्र एक शब्द


अनेक शताब्दियाँ मिलकर एक शब्द को बना सकती है या नहीं, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता; किन्तु इतना तो विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि एक शब्द-केवल एक शब्द- अनेक शताब्दियों को जन्म दे सकता है क्योंकि शब्द आकाश का लक्षण है, परम व्योम का प्रकाश है, विश्व की विराट् चेतना का विश्वास है जीवजगत् की वाणी का आधार-सूत्र है। शब्द की इसी उपजीव्यता को पहचान कर शब्दजीवी भाष्यकार पतंजलि ने ठीक ही कहा था कि सम्यक् ज्ञान और सम्यक् प्रयोग द्वारा संसाधित और संसेवित एक शब्द-केवल एक शब्द-पर्याप्त है, लोक और परलोक को सभी प्रकार की सुख-समृद्धि से सम्पन्न बनाने के लिए। यह वाक्य अक्षरशः सही हैं क्योंकि आज भी यत्, तत्, सत्, शम्, ओम् आदि आर्ष शब्द भारतीय जनजीवन के अभिन्न अंग बन गए हैं। सत्य, धर्म, प्रेम, शांति आदि लौकिक शब्द अपना एक विशिष्ट पर्यावरण लेकर मानवीय मूल्यों के प्रतिष्ठापक बन गए हैं। संसार की सभी भाषाओं में इस प्रकार के जीवन्त, उज्ज्वल और उर्वर शब्द मिलते हैं जो केवल शताब्दियों के ही नहीं, बल्कि युगों के निर्माता बन गए हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में भावयोगी कवि की शब्द-साधना को समझना है जो अपनी सार्थकता, सात्त्विकता और सारगर्भिता के बल पर जीवन को चरितार्थ बना देती है।

शब्द-शिल्प और भावयोग- दोनों के सामरस्य से अपनी सारस्वत साधना को सार्थक और सशक्त बनानेवाले युगचेतना कवि शेषेन्द्र इसी मनोभूमिका पर पहुँचकर कहते हैं- ‘‘अरण्यों से गर्भों से मैंने जो भाषा सीखी है, अब शताब्दियाँ उसी भाषा में बोलेंगी।’’ शताब्दियों की इस कालविजयिनी भाषा के मर्मज्ञ होने के कारण ही यह कालज्ञ कवि काल को कागज़ बनाकर उस पर अपने सपने लिख देता है और उसके नीचे अपनी सांस से हस्ताक्षर कर देता है। वह अपने चतुर्भुज छंदों के माध्यम से अपने देश को अपनी चेतना प्रदान करता है। उसकी समझ में नहीं आता कि कल का वसंत कहाँ चला गया था, दरिया की तरह वह किधर बह गया था। न मालूम चलते चलते वह कहाँ सो गया, किस खेत में खो गया। पर
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‘‘एक : शब्द: सुज्ञातः सुप्रयुक्त: स्वर्गे लोके च कामधुग् भवति।’’

वह जानता है कि वह प्रचंड मारुत है, जो शान्ति नहीं, क्रांति अथवा संक्रांति को बाँटने संसार में आया है। पीड़ा के विरुद्ध वह आवाज़ उठाकर अपने देशवासियों से कहता है- ‘‘चलो, मेरे साथ, पर मेरे साथ चलना हो तो तुमको अपनापन खोकर चलना होगा। तुम्हारे गले में जो अपना गीत है उसका स्वर मिटाना होगा। पग-पग पर जन-जन का गीत बिजली की तरह आसमान से टूट पड़े, ऐसा गरजना होगा।’’ कवि को अपनी साधना की सफलता पर इतना विश्वास है कि वह कहता है : ‘‘मैं रहूँ न रहूँ, मेरी यादें आपके साथ रहेंगी। इस देश की हवा में वे चिड़ियाँ बनकर गाएँगी, किरणों में मिल जुलकर खेलेंगी।’’

कवि कि इन रसनिर्भर और सारगर्भित उक्तियों से पता चलता है कि उसने सचमुच जीवनभर की सुदीर्घ तपस्या के बल पर आंतकियों के रेखागणित के साथ नीरवता के समस्त व्याकरण को हस्तगत कर लिया गया है। इसी आत्म प्रत्यय का अवलम्ब लेकर वह कहता है- ‘‘मैं अपनी आँखों में घुसकर आत्मा में कूद पड़ता हूँ।’’ कवि की इस आत्मदर्शन की गहराई से पैठकर सत्काव्य के सच्चे आनंद की आंतरिक अनुभूति से पुलकित होकर अमृतराय का अमृतहृदय कहता है : ‘‘बहुत दिनों बाद ऐसी दुर्दान्त काव्य-ऊर्जा के दर्शन हुए जो कहीं पर अग्नि और कहीं पर आलोक, जहाँ जैसा प्रसंग हो- और अग्नि की निर्धूम, वह धुआँती हुई आग नहीं जो प्रगतिशील कविता के नाम पर बहुधा हमें मिलती रही है। ऐसी एक ताज़गी है इसमें जो मुश्किल से देखने में आती है।’’

शेषेन की कविता मूलतः इसी धरती की है, पर ऊपर के आसमान को भी वह अपने में समेट लेती है। उनका ‘दहकता हुआ सूरज’ ही तो कहता है कि यह मेरी धरती है और ये ‘मेरे लोग’ हैं। उनकी धरती सूरज के तेज़ से तपनेवाली धरती है और अपने लोगों के लिए अन्न उपजानेवाली भी। धरती की सन्तान के लिए धरती से उपजनेवाले अन्न की आनन्दका अक्षय स्रोत्र है। तभी से शेषेन्द्र का अनन्मय कोश कहता है- ‘‘मैं अन्न में नहीं जन्मा हूँ, अन्न में पलता हूँ और अन्त में इसी अन्न में समा जाता हूँ।’’ आर्ष कवि शेषेन्द्र के इस अन्न-सूक्त में आनन्दवल्ली अपना यह औपनिषदिक स्वर मिलाती हुई दिखाई देती है- ‘‘अन्नाद्वै पुरुषः अन्नं ब्रह्म, अन्नमन्नादो भवति, अन्नादध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, अन्नेन जातानि जीवन्ति’’ आदि आदि। भारतवर्ष की आर्ष-परम्परा से परिपुष्ट, पर साथ ही अधुनातन जनमानस की आर्ति से व्याकुल कवि का अन्तःकरण सूर्य की किरणों से श्रमिक के प्रस्विन्न करतल का उत्थान देखकर पुलक उठता है और उसमें रोमांच को शब्द देने का प्रयास करते हुए कहता है : ‘‘उठता है प्रत्यूष से एक हाथ/काल के श्रमिक का हाथ/वह बढ़ता है और जन-जीवन के क्षेत्रों के शोणित और स्वेद में उतरकर फिर उठता है/फिर वह दिगंत तक छिड़कता चला जाता है।’’

अंतरिक्ष में निरन्तर संचरणशील आदित्य के अभ्युदय में श्रमिक के हाथ की कर्मण्यता और कर्मठता को देखकर उसे काव्यत्व प्रदान करना शेषेन्द्र जैसे तात्त्विक कवि के लिए ही संभव है। तत्त्व और कवित्व के इसी एकीकरण पर श्री नरेश मेहता का ध्यान जाता है तो वह भी अपनी तात्त्विक भाषा में इस काव्य-गन्धर्व के सम्बन्ध में कहते है : ‘‘कविता तब तत्त्व होती है जब कवि और कविता दोनों का ही मनीषी व्यक्तित्व होता है। मनीषी व्यक्तित्व से तात्पर्य है कि जो अपने उत्तम पुरुष ‘मैं’ में भी ‘मैं’ का नहीं, बल्कि समस्त जैविकता और चराचर का प्रतिनिधित्व कर रहा होता है उसे ही मनीषी कहा जा सकता है क्योंकि वह मनुष्य नहीं, मनुष्यत्व होता है, व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व होता है।’’

वास्तव में शेषेन्द्र मूलतः और तत्त्वतः एक कवि हैं। डॉ. विश्वंभकर नाथ उपाध्याय के शब्दों में ‘‘अद्योपान्त (समन्तात्) कवि हैं’’, क्योंकि केवल भारत की नहीं, बल्कि अफ्रीका, चीन, ग्रीस, रूस तथा यूरोप की सभ्यताओं और संस्कृतियों और मनीषी कवि ने मन्थन किया है और उनके उत्कृष्ट तत्त्वों को आत्मसात् कर लिया है। ग्रीस के विख्यात कवि निकिफोरोम वृत्ताकोस को निशा से नीलगगन में प्रकाशित एकान्त नक्षत्र के रूप में अपने हृदय-पटल पर अंकित करने वाले कवि शेषेन उस महाकवि की कुछ पंक्तियों को बार-बार दुहराते-दुहराते अघाते नहीं। पंक्तियाँ है :

सीमा की रक्षा करने के लिए सेना चाहिए
और सेना की रक्षा करने के लिए सीमा
सविता और कविता के शासन को
निष्फल बनाने के लिए चाहिए-
सेना और सीमा

सृजनात्मक सौन्दर्य की गहराइयों में खोए हुए शेषेन का कवि-हृदय विश्व के कोने-कोने में कविता की कान्तिरेखा को संकलित कर लेता है और अपने भीतर सदा-सदा के लिए प्रतिष्ठित कर लेता है। व्यास, वालमीकि, कालिदास, श्रीहर्ष आदि प्राचीन भारतीय कवियों की कमनीय वाग्निभूति को शेषेन्द्र ने इतनी आत्मीयता के साथ आत्मसात् कर लिया है कि वही वाणी शेषेन्द्र की कविता में नव्य नवनीत बनकर रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करती है। आदिकवि वाल्मीकि के आत्मदर्शन को शेषेन्द्र की मनीषा ‘षोडशी’ के रूप में देखती और दर्शाती है। इसी प्रकार श्रीहर्ष के ‘नैषधीयचरितम्’ का कवितारस शेषेन्द्र के मस्तिष्क में ‘स्वर्ण-हंस’ की भांति अपने मंद यान की मधुरिमा को मुखरित कर देता है। कवि की सरसता के साथ आलोचक की चिन्तनशीलता का सहजीवन प्रायः दुर्लभ होता है। किन्तु शेषेन्द्र के काव्य-गठन में कारयित्री और भावयित्री दोनों प्रकार की प्रतिभाओं का मणि-कंचन संयोग देखने को मिलता है। शेषेन्द्र की अंग्रेजी कृति ‘In Defence of People’ पढ़कर डॉ. रमा सिंह अपने प्रशस्तिभाव के साथ प्रणाम करते हुए कहती हैं : ‘भारतीय काव्यशास्त्र के चिन्तक और आधुनिक काव्य-विश्लेषणों के विचारों को आपने खूब मथा है और इस आधार पर आपने जो निष्कर्ष दिए हैं, वे पूर्णतः परिपक्व और संतुलित दृष्टि के परिचायक हैं। इतना गहन अध्ययन इतनी संवेदना के साथ अभिव्यक्त हुआ है कि इस उपलब्धि के लिए मैं किन शब्दों में बधाई दूँ।’’

बधाईके स्थान पर कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए डॉ. विनय कहते हैं : ‘‘शेषेन्द्र का मैं इसलिए विशेष कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने अपनी जाति के पीड़न, दलन और वेदना का पुस्त्वहीन पराजय-गीत नहीं गाया है, ‘मर्सिया’ नहीं पढ़ा है, बल्कि एक निर्माता और विज़नरी की अजस्र निर्भ्रांत आत्मशक्ति का परिचय दिया है।’’

शेषेन्द्र की कविता ज्योत्सना की भाँति विलक्षण है जो भिन्न-भिन्न रुचियों के लेगों को एक साथ मनोहर लगती है। कवियों और समालोचकों को उसमें नैसर्गिक काव्य-सुषमा दिखाई देती है तो मानवता के प्रेमियों को उसमें इन्सानी मुहब्बत की खुशबू भी अपनी ओर खींच लेती है। उर्दू के मशहूर शायर अली सरदार जाफरी शेषेन्द्र की कविता पढ़कर लिखते हैं : ‘‘मेरे लिए एक हैरतनाक मसर्रत है कि तेलुगु ज़बां का यह हसास और ज़मालपरस्त शायर जो इनकलाबी ज़लाल की बुलंदी तक जाता है और जिसका दिल इन्सानी मोहब्बत के नूर से जगमगा रहा है मेरा हमसफर है। शायद यह कहना बेहतर हो कि मैं इसका हमसफर हूँ।’’ संस्कृत के विद्वानों को और उर्दू के शायरों को एक साथ लुभावली भाव-माधुरी की काव्य-साधना की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

अख़्तर हसन को भी शेषेन्द्र ने इसी तरह मन्त्रमुग्ध कर दिया था। पर डॉ. भगवतशरण उपाध्याय को इस पर आश्चर्य नहीं होता है। वह कहते हैं : ‘‘क्या अजब कि ‘मेरी धरती : मेरे लोग’ की लाइनों को पढ़कर अख़्तर हसन झूम उठा हो। हिन्दी के लेखकों-कवियों-पाठकों का हिया निःसन्देह इस काव्य से हुलसेगा। इसके शब्दों का औदार्य, इसकी रचना की सुघराई, इसकी गिरा की गरिमा खाँ दरिया-सी इसके भावों की तीखी सादगी सिद्ध कर देती है कि सिम्पल ईज़ दि कल्मिनेशन ऑफ दि काम्पलैक्स।’’
चमत्कारी कवि शेषेन्द्र एक जगह अपने अपराध-बोध को स्वीकार करते हुए कहते हैं :

मुझे मालूम हैं कि
आप लोग मुझे क्षमा नहीं करेंगे
यदि मैंने प्रतिभा नाम का अपराध किया है-
पर मेरे जन्म लेने से पहले
मुझे किसी ने यह नहीं बताया कि
तुमको निरपराध होकर
जन्म लेना है।

यह सही है कि आजकल प्रतिभाशाली होना अपराध है। यह भी कठोर सत्य है कि सत्यनिष्ठ होना इससे भी बड़ा अपराध है और सत्कवित्व का साधक बनना सबसे बड़ा अपराध है। पर ऐसे अपराध के अधिकारियों की संख्या कम होती जा रही है। यही देश का दुर्भाग्य है और साहित्य जगत् के लिए सबसे बड़ा आघात है। वास्तव में सारस्वत साधना के इन्हीं मनस्वी मनीषियों के माध्यम से ही अक्षर-भारती का आलोक लोक-कल्याण का संसाधक बन जाता है। शब्द को सार्थक और अर्थ को सस्वर बनाने वाले इन्हीं वाङ्मय-तपस्वियों की रससिद्ध वाणी से ही शताब्दियाँ बनती हैं। वर्तमान शताब्दी को शब्द देने वाले सारस्वत रस-शिल्पियों में शेषेन्द्र का नाम आदर के साथ लिया जाएगा, क्योंकि वह युगद्रष्टा हैं, केवल रस-स्रष्टा नहीं। इस युग-द्रष्टा के अवलोकन की परिधि में एक नहीं, अनेक युग समाविष्ट हैं। और हर युग का हार्दिक स्वागत करते हुए साथ-साथ उसे भावभीनी विदाई देते हुए सब कुछ देखने और सुनने में रसलीन सारस्वत-जीवी कहता है :

हर युग एक तीव्र आकांक्षा का भूखा है
हर युग एक मूर्ख सिद्धान्त के शासन को आमन्त्रित करता है,
जबकि ज्ञान-शक्ति
नवयुग के अंडों को सेते हुए, देखते हुए
विवेचनात्मक बनी रहती है।

   

















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