भाषा एवं साहित्य >> भाषा साहित्य और देश भाषा साहित्य और देशहजारी प्रसाद द्विवेदी
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भारतवर्ष का जो कुछ श्रेष्ठ है, जो कुछ उत्तम है, जो कुछ रक्षणीय है वह संस्कृत भाषा के भण्डार से संचित किया गया है।...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारतीय संस्कृति और साहित्य की लोकोन्मुख क्रान्तिकारी परम्परा के प्रतीक
इन निबन्धों में भाषा,साहित्य,संस्कृति समाज और जीवन से जुड़ी एक बहुआयामी
खनक और जीवन्त वैचारिक लय है। इनमें अतीत और वर्तमान के बीच प्रवहमान एक
ऐसा सघन आत्मीय संवाद और लालित्य से भरपूर सी गतिशील चिन्तनधारा है जो
साहित्य के समकालीन परिदृश्य में सर्वथा प्रासंगिक है।
भाषा साहित्य और देश
आप जानते हैं कि वर्तमान काल कितना संकटमय
है। सारी पृथ्वी
मानो ब्रह्माण्ड-कटाह के अदृश्य तप्त रस में खौल रही है। प्रतिक्षण दुनिया
का बाहरी और भीतरी नक्शा बदल रहा है। कल तक जो ध्रुव सत्य था, आज वह
अस्थिर और डाँवाडोल साबित हो रहा है। हजारों वर्ष के इस पुरातन देश की
एकता को खण्डित और छिन्न-भिन्न करने के अनेक प्रयत्न हो रहे हैं। जबकि सब
कुछ डाँवाडोल है, जबकि सब कुछ हिल चुका है, जबकि भविष्यकालीन कल को सब कुछ
सम्भव दीख रहा है तब आप दृढ़-संकल्प और विशाल मनोबल को लेकर इस महान् देश
की एकता अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अग्रसर हुए हैं। यही कारण है कि मैं
आपके बीच उपस्थित हो सकने को अपना सौभाग्य मानता हूँ। आप भारतवर्ष के
उज्ज्वल और महान भविष्य का निर्माण कर रहे हैं। मुझे कोई संदेह नहीं है कि
आपका प्रयत्न सफल होगा। भावी भारतवर्ष आपकी तपस्या से स्वास्थ और बलशाली
होगा। विपत्ति की रात बीत जाएगी और समृद्धि का सुप्रभात होगा।
नाना कारणों से इस देश में और बाहर यह बार-बार विज्ञापित किया जाता है कि इस महादेश में सैकड़ों भाषाएँ प्रचलित हैं और इसीलिए इसमें अखण्डता या एकता की कल्पना नहीं की जा सकती। मैंने विदेशी भाषाओं के जानकारों और विदेश के नाना देशों में भ्रमण कर चुकने वाले कई विद्वानों से सुना है कि तथाकथित एक-राष्ट्र व स्वाधीन देशों में भी दर्जनों भाषाएँ हैं और भारत वर्ष की भाषा समस्या उनकी तुलना में नगण्य है। परन्तु अन्य देशों में यह अवस्था हो या नहीं, इससे हमारी समस्या का समाधान नहीं हो जाता । दूसरों की आँख में खराबी सिद्ध कर देने से हमारी आँख में दृष्टि-शक्ति नहीं आ जाएगी। फिर भी मैं आपको स्मरण कराना चाहता हूँ कि हमारे इस देश ने हजारों वर्ष पहले से भाषा की समस्या हल कर ली थी। हिमालय से सेतुबन्ध तक सारे भारतवर्ष के धर्म, दर्शन, विज्ञान, चिकित्सा आदि विषयों की भाषा कुछ सौ वर्ष पहले तक एक ही रही है। यह भाषा संस्कृत थी। भारतवर्ष का जो कुछ श्रेष्ठ है, जो कुछ उत्तम है, जो कुछ रक्षणीय है वह इस भाषा के भण्डार से संचित किया गया है। जितनी दूरी तक इतिहास, हमें ठेलकर पीछे ले जा सकता है उतनी दूर तक इस भाषा के सिवा हमारा और कोई सहारा नहीं है।
इस भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरन्तर होती आ रही है। इसके लक्षाधिक ग्रन्थों के पठन-पाठन और चिन्तन में भारतवर्ष के हजारों पुश्त तक के करोड़ों सर्वोत्तम मस्तिष्क दिन-रात लगे रहे हैं और आज भी लगे हुए हैं। मैं नहीं जानता कि संसार के किसी देश में इतने काल तक, इतनी दूरी तक व्याप्त, इतने उत्तम मस्तिष्क में विचरण करने वाली कोई भाषा है या नहीं। शायद नहीं है।
फिर भी भाषा की समस्या इस देश में कभी उठी ही नहीं हो, सो बात नहीं है। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने संस्कृत के एकाधिपत्य को स्वीकार किया था, उन्होंने लोकभाषा को आश्रय करके अपने उपदेश प्रचार किये थे। ऐसा जान पड़ता है कि संस्कृत भाषा को इस युग में पहली बार एक प्रतिद्वन्द्वी भाषा का सामना करना पड़ा था। जहाँ तक बौद्ध धर्म का सम्बन्ध है यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि उस युग की लोकभाषा कही जानेवाली पालि सचमुच ही बुद्धदेव के मुख्य से उच्चारित भाषा थी या नहीं। प्रियदर्शी महाराज अशोक ने दृणता के साथ लोकभाषा को प्रचारित करना चाहा था। इसका सबूत हमारे पास है और सीलोन तथा बर्मा आदि में प्राप्त पालि भाषा का बौद्ध साहित्य भी हमें बताता है कि बुद्धदेव ने सिर्फ इस लोकभाषा में उपदेश ही नहीं दिया था बल्कि निश्चित रूप से अपनी वाणी को संस्कृत में रूपान्तर करने का निषेध भी किया था। यह साहित्य स्थविरवादियों का है जो कई बौद्ध सम्प्रदायों में से एक है। आधुनिक काल में बौद्ध साहित्य की जब पहले-पहल इस देश मे चर्चा शुरू हुई थी तब इन पालि ग्रंथों को एक मात्र प्रमाण मान लिया गया था, और उस समय जो कुछ कहा गया था वह अब भी संस्कार रूप से बहुत से सुसंस्कृत जनों के मन पर रह गया है । परन्तु सही बात यह है कि स्थविरवादियों का यह साहित्य विशाल बौद्ध साहित्य का एक अत्यन्त अल्प अंशमात्र है। न तो वह एक मात्र बौद्ध साहित्य ही है, और न सर्वाधिक प्रामाणिक साहित्य ही है, न यही जोर देकर कहा जा सकता है कि यह सबसे अधिक पुराना साहित्य है। इस शास्त्र का संकलन कई बड़ी संगतियों में हुआ है। आपको मालूम ही होगा कि बुद्धदेव के निर्वाण के बाद उनके वचनों को ठीक-ठीक संग्रह करने के लिए बौद्ध आचार्यों की बड़ी-बड़ी सभाएँ हुई थीं। इन्हें संगीति कहा जा सकता है।
अशोक संगीति के अवसर पर अठारह बौद्ध सम्प्रदायों की चर्चा मिलती है। इन सबके अलग-अलग पिटक थे और इनमें सिर्फ पाठ का ही भेद नहीं था; विषय, वस्तु और भाषा का भी भेद था। बहुत पुराने काल में हीनयान और महायान दोनों ही प्रधान बौद्ध शाखाओं के ग्रंथ संस्कृत और अर्द्ध-संस्कृत में लिखे जाने लगे थे। आज इनमें का अधिकांश खो गया है। फिर भी आज नेपाल से तो कल तुर्किस्तान और मध्य रशिया से नये-नये ग्रन्थ मिलते रहते हैं और बौद्ध साहित्य की भाषा के सम्बन्ध में किये गये पूर्ववर्ती अनुमानों को धक्का मार जाते हैं।
सातवीं शताब्दी में इन बौद्ध ग्रन्थों का एक विशाल साहित्य था। चीनी यात्री हुएन्त्सांग उन दिनों जब इस देश में आये थे तब वे स्थविरवादी, महासंधिक, महीशास्त्रक काश्यपीय, धर्मगुप्त, सर्वास्तिवादी आदि सम्प्रदायों के 593 ग्रन्थ अपने साथ ले गये थे। ये अधिकांश संस्कृत में थे। इस प्रकार यद्यपि एक सम्प्रदाय की गवाही पर हम पालि को संस्कृत की प्रतिद्वन्द्विनी भाषा के रूप में पाते हैं, तथापि बहुत शीघ्र ही संस्कृत ने उस प्रतिक्रिया पर विजय पा ली थी।
भगवान महावीर के द्वारा पुनरुज्जीवित जैन धर्म के विषय में भी यह एक ही बात कही जा सकती है। सन् ईसवी के बाद के सिद्धान्तोत्तर साहित्य में धीरे-धीरे संस्कृत का प्रवेश होने लगा और जैन आचार्यों ने नाना काव्य और नाटकों की भाषा को समृद्ध ही नहीं बनाया, उसमें नवीन प्राण भी संचारित किये। मैंने जैन-प्रबन्धों की प्राकृतगन्धी संस्कृत देखी है और मैं साहस पूर्वक कह सकता हूँ कि संस्कृत को इतना सरल और प्रांजल बनाना एकदम नवीन और स्फूर्तिदायक प्रयास था। जैन मुनियों ने इसमें प्रांजलता ले आने में कमाल का किया है। जैन धर्म की श्रेष्ठ चिन्ता तो उनके दर्शन-शास्त्र हैं जो अधिकांश में ही हैं। इस साहित्यांग ने संस्कृत के दर्शन-साहित्य को नये सिरे से उत्तेजना दी है। जिन दिनों भारतवर्ष की सांस्कृतिक अवस्था अत्यन्त उतार पर थी उन दिनों भी जैन दर्शन ने थोड़ी-बहुत गर्मी बनाये रखने का आश्चर्यजनक कार्य किया था।
मेरे कहने का तात्पर्य इतना ही है कि यद्यपि कभी इस भाषा में और कभी उस भाषा में धर्मोपदेश और उस काव्य आदि की रचना के प्रमाण पाये जाते हैं, परन्तु सब मिलाकर पिछले कई सहस्राब्दकों तक भारतवर्ष के सर्वोत्तम को, उसके ज्ञान और विज्ञान को, उसके दर्शन और अध्यात्म को, उसके ज्योतिष और चिकित्सा को, उसकी राजनीति और व्यवहार को, उसके कोश और व्यकरण को और उसकी समस्त चिन्ता को इस भाषा का ही सहारा मिला है।
विदेशियों के झुण्ड बराबर इस देश में आते रहे हैं और आकर इन्होंने बड़ी जल्दी सीख लिया है कि संस्कृत ही इस देश में उनके काम की भाषा हो सकती है। यह आश्चर्य की बात कही जाती है कि संस्कृत भाषा का सबसे पुराने शिलालेख जो अब तक पाया गया है वह गिरनार वाला शक महाक्षत्र रूद्रदामा का शिलालेख है जो सन् ईसवी के लगभग डेढ़ सौ वर्ष बाद खुदवाया गया था। इस शिलालेख ने उस भ्रम का निराकरण कर दिया था जो ऐतिहासिक पण्डितों द्वारा प्रचारित किया गया था कि संस्कृत का अभ्युत्थान बहुत शताब्दियों बाद गुप्त सम्राटों के हाथों हुआ है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि गुप्त सम्राटों के युग से संस्कृत भाषा ज्यादा वेग से चल पड़ी थी, परन्तु यह नितान्त गलत बात है कि उससे पहले उसकी (संस्कृत भाषा की) धारा एकदम रूद्ध हो गयी थी।
शुरू-शुरू में मुसलमान बादशाह भी इस भाषा की महिमा हृदयंगम कर सके थे। पठानों के सिक्कों से नागरी अक्षरों का ही नहीं, संस्कृत भाषा का भी अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है। परन्तु बाद में जमाने ने पलटा खाया और अदालतों और राजकार्य की भाषा फारसी हो गयी । इस देश के बड़े समुदाय ने नाना कारणों से मुसलमानी धर्म का वरण किया और फलतः एक बहुत बड़े सम्प्रदाय की धर्मभाषा अरबी हो गयी। यह अवस्था अधिक से अधिक पाँच सौ वर्ष तक रही है। परन्तु आप भूल न जाएँ कि इस समय भी भारतवर्ष की श्रेष्ठ चिन्ता का स्रोत संस्कृत के ही रास्ते बह रहा था। नाना शास्त्र-ग्रंथों की अतुलनीय टीकाएँ, धर्म शास्त्रीय व्यवस्था के निबन्ध-ग्रंथ, दर्शन और अध्यात्म विषयक अनुवाद और टीका-ग्रन्थ और सबसे अधिक नव्य-न्याय और न्यायानुप्राणिता-व्याकरण शास्त्र इसी काल में लिखे जाते रहे। इस युग में यद्यपि संस्कृत ग्रन्थों में से मौलिक चिन्ता बराबर घटती जा रही थी। फिर भी वह एक दम लुप्त नहीं हो गयी थी। कुछ शताब्दियों तक भारत वर्ष एक विचित्र अवस्था में से गुजरा है। उसके न्याय, राजनीति और व्यवहार की भाषा फारसी रही है, हृदय की भाषा तत्तत् प्रदेशों की प्रान्तीय भाषाएँ रही हैं और मस्तिष्क की भाषा संस्कृत रही है। हृदय की भाषा बराबर किसी न किसी रुप में देशी भाषाएँ रही हैं। यह और बात है कि दूर पड़ जाने से पिछले हजारों वर्षों के देशी भाषा का साहित्य आज हम न पा सकें पर वह वर्तमान जरूर रहा है और उसका सम्मान भी हुआ है। मैं आज इस बात की चर्चा नहीं करूँगा। मैंने अन्यत्र सप्रमाण दिखाया है कि इस देश में देशी भाषाओं में सदा काव्य लिखे जाते रहे हों सिर्फ यही बात नहीं है बल्कि उनका भरपूर सम्मान भी बराबर होता रहा है।
एक बार मेरे इस कथन को संक्षेप में आप अपने सामने रख कर देखें तो हमारी वर्तमान भाषा-समस्या काफी स्पष्ट हो जाएगी। मैंने अब तक जो आपको प्राचीन-काल के खण्डहरों में भटकाया, वह इसी उदेश्य से । संक्षेप में बात इस प्रकार है कि-
1. भारतवर्ष के दर्शन-विज्ञान आदि की भाषा सदा संस्कृत रही है।
2. उसके धर्म-प्रचार की भाषा अधिकांश में संस्कृत रही है, यद्यपि बीच-बीच में साहित्य के रूप में और सदैव बोलचाल के रूप में देशी भाषाएँ भी इस प्रयोजन के लिए काम लायी जाती रही हैं।
3. आज से चार-पाँच सौ वर्ष पहले तक व्यवहार, नयाय और राजनीति की भाषा भी संस्कृत ही रही है। पिछले चार-पाँच सौ वर्षों से विदेशी भाषा ने इस क्षेत्र को दखल किया है।
4. काव्य के लिए सदा से ही कथ्य देशी भाषाएँ काम में लायी गयी हैं और संस्कृत भी सदा इस कार्य के उपयुक्त मानी गयी है।
अब अगर आप ध्यान पूर्वक देखें तो हजारों वर्ष के इतिहास ने हमारी भाषा समस्या को इस प्रकार सुलझाया है कि हमारे उच्चतर विचार, तर्क, दर्शन विज्ञान, राजनीति, व्यवहार और हमारे न्याय की भाषा का सदा एक सामान्य स्टैण्डर्ड रहा है और हमारे इतिहास के एक अत्यन्त सीमित काल में हमारी भाषा के विशाल साहित्य के एक अत्यन्त नगण्य अंश पर विदेशी भाषा का आधिपत्य रहा है। अर्थात हमारे कम से कम छह सात हजार वर्ष के विशाल इतिहास में अधिकसे अधिक पाँच सौ वर्ष ऐसे रहे हैं जिनमें अदालतों की भाषा संस्कृत न होकर एक विदेशी भाषा रही है। दुर्भाग्यवश इस सीमित काल और सीमित अंश में व्यवहृत भाषा का दावा आज हमारी भाषा समस्या का सर्वाधिक जबर्दस्त रोड़ा साबित हो रहा है। पर यह एक सामयिक बात है। आज यह जितनी बड़ी बाधा के रुप में भी क्यों न दीख रही हो, इतिहास की विशाल पट-भूमिका पर इसे रखकर देखिए तो इसमें कुछ तत्व नहीं रह जाएगा। यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी की आपाततः दीख रही है। इस विशाल देशों की भाषा समस्या का हाल आज से सहस्रों वर्षों पूर्व से लेकर अब तक जिस भाषा के जरिये हुआ है उसके सामने कोई भी भाषा न्यायपूर्वक अपना दावा लेकर उपस्थित नहीं रख सकती-फिर वह स्वदेशी हो या विदेशी, इस धर्म के मानने वालों की हो या उस धर्म के। इतिहास साक्षी है कि संस्कृत इस देशों की अद्वितीय महिमाशालिनी भाषा है-अविजित अनाहत और दुर्द्धर्ष।
आज से डेढ़-दो सौ वर्ष पहले तक यही अवस्था रही है। इसके बाद नवीन युग शुरू होता है । जमाने के अनिवार्य तरंगाघात ने हमें एक दूसरे किनारे पर लाकर पटक दिया। दुनिया बदल गयी तथा और भी तेजी से बदलती जा रही है। अँग्रेजी-साम्राज्य ने हमारी परम्परा को तोड़ दिया गया है। इन डेढ़-सौ वर्षों में हम इतने बदल गये हैं, सारी दुनिया ही इतनी बदल गयी है कि पुराने जमाने का को पूर्वज हमें शायद ही पहचान सकेगा। हमारी शिक्षा-दीक्षा से लेकर विचार-वितर्क की भाषा भी विदेशी हो गयी है। हमारे चुने हुए मनीषी अँग्रेजी भाषा में शिक्षा पाये हुए हैं, उसी में बोलतें हैं और उसी में लिखते रहे हैं। अँग्रेजी भाषा ने संस्कृत का सर्वाधिकार छीन लिया है। आज भारतीय विद्याओं की जैसी विवेचना और विचार अँग्रेजी भाषा में है, उसकी आधी चर्चा का भी दावा कोई भारतीय भाषा नहीं कर सकती। यह हमारी सबसे बड़ी पराजय है। राजनीतिक सत्ता के छिन जाने से हम उतने नतमस्तक नहीं हैं जितने कि अपने विचार की, तर्क की, दर्शन की, अध्यात्म की और सर्वस्व की भाषा छिन जाने से अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में हम अपनी ही विद्या को अपनी बोली में न कह सकने के उपहासास्पद अपराधी हैं। यह लज्जा हमारी जातीय है। देश का स्वाभिमानी हृदय इस असहाय अवस्था को अधिक बर्दाश्त नहीं कर सकता।
जब हममें राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ तो हमने देखा कि हम लुट चुके हैं। हमारे नायकों ने कहा, सँभल जाओ। पर क्या सँभलें, कैसे सँभलें ? क्या संस्कृत को अपनाकर ? यह असम्भव है।
क्यों ? जो कल तक सम्भव था, वह आज असम्भव क्यों है ? इसलिए कि दुनिया बदल गयी है। अब शास्त्र या कोई अन्य ग्रन्थ मुक्ति पाने या परलोक बनाने के लिए नहीं लिखे जाते तथा अब विद्या और ज्ञान एक विशेष श्रेणी की सम्पत्ति नहीं माने जाते। आज मनुष्य ने हर क्षेत्र में अपनी प्रधानता बना ली है। जो कुछ है, मनुष्य के लिए-चाहे वह धर्म हो, दर्शन हो, राजनीति हो, कुछ भी हो मनु्ष्य उसके लिए नहीं है।
वह जमाना ही मर गया जब केवल भाषा पर अधिकार करने के लिए वर्षों परिश्रम किया जाता था और जब गर्वपूर्वक कहा जाता था कि ‘द्वादशरभिर्वर्षव्याकरणं श्रूयते’ अर्थात ‘बारह वर्ष में व्याकरण शास्त्र के सुनने की योग्यता होती है’। अब भाषा गौड़ है, विचार मुख्य, और विचार भी ऐसे नहीं जो विचार के लिए लिखे गये हों; विचार भी ऐसे जो मनुष्य के लिए हों और जिनसे निश्चित रूप से मनुष्यता उपकृत होती हो। इसीलिए सबसे सीधा रास्ता यह है कि विचारों की अधिकाधिक सहज भाषा में पहुँचाया जाये है। यह सहज भाषा तत्तत् प्रदेशों की अपनी-अपनी बोली ही हो सकती है। इस युग में वही हुआ है। हमने अँग्रेजी की प्रतिद्वन्द्विता और अपनी-अपनी बोलियों को खड़ा किया है। यह उचित है, वही योग्य है परन्तु यही सब कुछ नहीं है। हमें सारे देश में एक विचार-स्रोत को बहा देना है। सारे देश में एक ही उमंग, एक ही आवेग, एक ही सहानुभूतिमय हृदय उत्पन्न करना है। यह कैसा हो ? इतिहास में पहली बार हमने इस समस्या को इतने निबिड़ भाव से अनुभव किया है ?
आज से डेढ़-दो सौ वर्ष पहले तक संस्कृत भाषा ने हमारे भीतर विचारगत एकता बनाये रखने का प्रयत्न किया था।बंगाल के रघुनन्दन भट्ट अपनी व्यवस्थाएँ इसी भाषा के बल पर कन्याकुमारी से कश्मीर तक पहुँचा सके थे, काशी के नागेश भट्ट को व्याकरणशास्त्रीय विचार सारे देश में फैला देने में कोई बाधा नहीं पड़ती थी, महाराष्ट्र के गणेश दैवज्ञ को अपनी ज्योतिषिक शोध इस विशाल देश के इस कोने से उस कोने तक फैला देने में कोई कठिनाई नहीं पड़ी। परन्तु आज अवस्था एकदम बदल गयी है। हमारे पास अपना कोई भी स्वदेशी माध्यम नहीं रह गया है जिसके द्वारा हमारे सर्वोत्तम व्यक्ति अपनी ज्ञान सम्पत्ति अनायास ही सारे देश में फैला सकें। स्वामी विवेकानन्द और स्वामी रामतीर्थ को अपने वेदान्त सम्बन्धी सन्देश विदेशी भाषा में लिखने पड़े, लोकमान्य तिलक को अपनी वेद और ज्योतिष सम्बन्धी शोध, तथा डॉक्टर भाण्डारकर को हिन्दू देव-देवियों के विषय में किया हुआ महत्त्वपूर्ण अध्ययन विदेशी माध्यम से देशवासियों तक पहुँचाना पड़ा। ऐसा तो इस देश में हुआ है कि धर्मोपदेश के लिए भिन्न-भिन्न प्रान्तों की भाषाओं से काम लिया गया हो। थोड़े समय के लिए ऐसा भी हुआ है कि राजकीय व्यवहार की भाषा कुछ और हो गयी हो, परन्तु हमारे उच्चतर अध्ययन, दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक गवेषणा की भाषा भी विदेशी हो गयी हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। इसीलिए राजनीतिगत उथल-पुथल के होते हुए भी सुदूर प्रदेशों में फैला हुआ यह महादेश होते हुए भी इसमें एक अद्भुत एकता पायी जाती रही है। आज इस पर भी विदेशी भाषा का आधिपत्य है। इसीलिए कहता हूँ कि भाषा-समस्या को इतने निबिड़ भाव से ऐसे गाढ़ भाव से हमने अपने समूचे इतिहास में कभी भी अनुभव नहीं किया है।
परन्तु हम अब संस्कृत को फिर से नहीं पा सकते। अगर बीच में अँग्रेजी ने आकर हमारी परम्परा को बुरी तरह तोड़ न भी दिया होता तो भी आज हम संस्कृत को छोड़ने को बाध्य होते, क्योंकि वह जनसाधारण की भाषा नहीं हो सकती। जिन दिनों एक विशेष श्रेणी के लोग ही ज्ञान-चर्चा का भार स्वीकार करते थे, उन दिनों भी यह कठिन और दुःसह थी। परन्तु आज वह जमाना नहीं रहा। हम बदल गयें हैं, हमारी दुनिया पलट गयी है हमारे पुराने विश्वास हिल गये हैं, हमारी ऐहिकता बढ़ गयी है, और हमारे वे दिन हमेशा के लिए चले गये। भवभूति के राम की भाँति हम भी अब यह कहने को लाचार हैं कि ‘‘ते हि नो दिवसा गतः-अब हमारे वे दिन नहीं रहे।
अफसोस करना बेकार है। हम जहाँ आ पड़े हैं, वहीं से हमें यात्रा शुरू करनी है। काल धर्म हमें पीछे नहीं लौटने देगा। हमें अपने को और अपनी दुनियाँ को समझने में अपने हजारों वर्षों के इतिहास का अनुभव प्राप्त है। हम इस दुनिया में नये नहीं हैं, नौसिखुए नहीं हैं। अपने संस्कारों के अनुभवों के लिए हमें गर्व है। ये हमें अपने को और अपनी दुनिया को समझने में सहायता पहुँचाएँगे। हमें याद रखना चाहिए कि अनुभव और संस्कार तभी वरदान होते हैं जब वे हमे आगे ठेल सकें, कर्मशील बना सकें। निठल्से का अनुभव उसे खा जाता है और संस्कार उसे भी अपाहिज बना देता है।
हमारा पुराना अनुभव बताता है कि हम आसेतु-हिमाचल एक भाषा से एक संस्कार, एक विचार, एक मनोवृत्ति तैयार कर सकते हैं और वह एक भाषा संस्कृत है। हमारी नयी परिस्थिति बता रही है कि शास्त्रों की चर्चा से मुक्ति या परलोक बनाने वाला आदर्श अब नहीं चल सकता। ‘‘एकः शब्दः शब्द सम्यग्ज्ञातः’ अर्थात ‘एक भी शब्द भलीभाँति जान लिया जाये तो स्वर्गलोक में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो जाता है’ का आदर्श इस काल में नहीं टिक सकता, जबकि प्रत्येक कार्य में हड़बड़ी और जल्दी की भावना काम कर रही है। हमें एक ऐसी भाषा चुन लेनी है जो हमारी हजारों वर्ष की परम्पराओं से कम से कम विच्छिन्न हो और हमारी नूतन परिस्थित का सामना अधिक से अधिक मुस्तैदी से कर सकती हो; संस्कृत न होकर भी संस्कृत-सी हो और साथ ही जो प्रत्येक नये विचार को प्रत्येक नयी भावना को अपना लेने में एकदम हिचकिचाती न हो, जो प्राचीन परम्परा की उत्तराधिकारिणी भी हो और नवीन चिन्ता की वाहिका भी।
चूँकि वर्तमान युग में मनुष्य की प्रधानता समान भाव से स्वीकार कर ली गयी है इसलिए उसी को दृष्टि में रखकर इस समस्या को हल किया जा सकता है। जिस प्रकार मनुष्य की सुविधा की दृष्टि से सहज-सरल देशी भाषाओं को प्रोत्साहित किया गया है, उसी प्रकार वृहत्तर देश के विराट् मानव-समुदाय को दृष्टि में रखकर सामान्य भाषा की समस्या भी हल की जा सकती है। अधिकांश मनुष्य जिस भाषा में बोल सकते हों अधिकांश मनुष्यों की नाड़ी के साथ जिस भाषा का अच्छेद्य सम्बन्ध हो, वह भाषा क्या है ? आपसे कहने की आवश्यकता नहीं है। आपने अपने ढंग से उसका उत्तर खोज लिया है पर मैं आपको संस्कृत की याद एक बार फिर दिला देता हूँ। हिन्दी या हिन्दुस्तानी हमारी अधिकजनों की समझ में आनेवाली अधिक प्रचलित भाषा जरूर है पर संस्कृत ने हमारे सर्वदेश की भाषा पर जो अपना अनुत्सारणीय (न हटाया जा सकनेवाला) प्रभाव रख दिया है, वह कम नहीं है हम हजार संस्कृत की परम्परा से च्युत हों और उस भाषा तथा उसके विशाल साहित्य को भूल गये हों, पर वह हमसे दूर नहीं हो सकती। हमने चाहे कमली को छोड़ दिया हो पर कमली हमें नहीं छोड़ सकती। संस्कृत ने हममें अब भी चौदह आना एकता कायम कर रखी है। नये सिरे से हमें दो आना ही प्रयत्न करना है। वस्तुतः हिन्दी और अन्यान्य भारतीय भाषाओं में चौदह आना ही साम्य है। दो आना ही हमें नये सिरे से गढ़ना है। यह आप कर रहें है।
परन्तु मैं उम्मीद करता हूँ कि आपने मुझे गलत नहीं समझा है। मैं संस्कृत को भाषा बनाने की वकालत नहीं कर रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ, कि पिछले हजारों वर्षों के इतिहास ने हमें जो कुछ दिया है, उससे हम सबक सीखें। मेरे कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि हम विदेशी शब्दों का बहिष्कार करें। अगर आपने मेरे कथन का यह अर्थ समझा हो तो मैंने कहीं अपनी बात उपस्थित करने में गलती की होगी। मैं ऐसा कैसे कह सकता हूँ जबकि हमारी श्रद्धेय संस्कृत भाषा ने ही विदेशी शब्दों को ग्रहण करने का रास्ता दिखाया है। हमारे संस्कृत साहित्य में होरा, द्रेक्काण, अपोल्किम, पणफर, कौर्प्य, जूक, लेय, हेलि आदि दर्जनों ग्रीक शब्द व्यवहृत हुए हैं। ये ग्रीक शब्दों के संस्कृतवत् रूप हैं परन्तु संस्कृत में इतने अधिक प्रचलित हो गये हैं कि कोई संस्कृत का पण्डित उनकी शुद्धता में भी सन्देह नहीं करता। कम से कम एक कोड़ी (बीस) ग्रीक शब्द मैं आपको ऐसे दे सकता हूँ जिनका व्यवहार धर्म-शास्त्रीय व्यवस्था देने वाले ग्रंथों में होता है। ज्योतिष के (ताजक-शास्त्र) वर्ष-फल मासफल आदि बतलाने वाला ज्योतिष शास्त्र का एक अंग के योगों के नाम में बीसियों अरबी शब्द मिलेंगे। ताजक नीलकण्ठी (एक ज्योतिष-ग्रन्थ) ये यदि मैं एक श्लोक पढ़ूँ, तो आप शायद समझेंगे कि मैं कुरान की आयत पढ़ रहा हूँ-
नाना कारणों से इस देश में और बाहर यह बार-बार विज्ञापित किया जाता है कि इस महादेश में सैकड़ों भाषाएँ प्रचलित हैं और इसीलिए इसमें अखण्डता या एकता की कल्पना नहीं की जा सकती। मैंने विदेशी भाषाओं के जानकारों और विदेश के नाना देशों में भ्रमण कर चुकने वाले कई विद्वानों से सुना है कि तथाकथित एक-राष्ट्र व स्वाधीन देशों में भी दर्जनों भाषाएँ हैं और भारत वर्ष की भाषा समस्या उनकी तुलना में नगण्य है। परन्तु अन्य देशों में यह अवस्था हो या नहीं, इससे हमारी समस्या का समाधान नहीं हो जाता । दूसरों की आँख में खराबी सिद्ध कर देने से हमारी आँख में दृष्टि-शक्ति नहीं आ जाएगी। फिर भी मैं आपको स्मरण कराना चाहता हूँ कि हमारे इस देश ने हजारों वर्ष पहले से भाषा की समस्या हल कर ली थी। हिमालय से सेतुबन्ध तक सारे भारतवर्ष के धर्म, दर्शन, विज्ञान, चिकित्सा आदि विषयों की भाषा कुछ सौ वर्ष पहले तक एक ही रही है। यह भाषा संस्कृत थी। भारतवर्ष का जो कुछ श्रेष्ठ है, जो कुछ उत्तम है, जो कुछ रक्षणीय है वह इस भाषा के भण्डार से संचित किया गया है। जितनी दूरी तक इतिहास, हमें ठेलकर पीछे ले जा सकता है उतनी दूर तक इस भाषा के सिवा हमारा और कोई सहारा नहीं है।
इस भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरन्तर होती आ रही है। इसके लक्षाधिक ग्रन्थों के पठन-पाठन और चिन्तन में भारतवर्ष के हजारों पुश्त तक के करोड़ों सर्वोत्तम मस्तिष्क दिन-रात लगे रहे हैं और आज भी लगे हुए हैं। मैं नहीं जानता कि संसार के किसी देश में इतने काल तक, इतनी दूरी तक व्याप्त, इतने उत्तम मस्तिष्क में विचरण करने वाली कोई भाषा है या नहीं। शायद नहीं है।
फिर भी भाषा की समस्या इस देश में कभी उठी ही नहीं हो, सो बात नहीं है। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने संस्कृत के एकाधिपत्य को स्वीकार किया था, उन्होंने लोकभाषा को आश्रय करके अपने उपदेश प्रचार किये थे। ऐसा जान पड़ता है कि संस्कृत भाषा को इस युग में पहली बार एक प्रतिद्वन्द्वी भाषा का सामना करना पड़ा था। जहाँ तक बौद्ध धर्म का सम्बन्ध है यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि उस युग की लोकभाषा कही जानेवाली पालि सचमुच ही बुद्धदेव के मुख्य से उच्चारित भाषा थी या नहीं। प्रियदर्शी महाराज अशोक ने दृणता के साथ लोकभाषा को प्रचारित करना चाहा था। इसका सबूत हमारे पास है और सीलोन तथा बर्मा आदि में प्राप्त पालि भाषा का बौद्ध साहित्य भी हमें बताता है कि बुद्धदेव ने सिर्फ इस लोकभाषा में उपदेश ही नहीं दिया था बल्कि निश्चित रूप से अपनी वाणी को संस्कृत में रूपान्तर करने का निषेध भी किया था। यह साहित्य स्थविरवादियों का है जो कई बौद्ध सम्प्रदायों में से एक है। आधुनिक काल में बौद्ध साहित्य की जब पहले-पहल इस देश मे चर्चा शुरू हुई थी तब इन पालि ग्रंथों को एक मात्र प्रमाण मान लिया गया था, और उस समय जो कुछ कहा गया था वह अब भी संस्कार रूप से बहुत से सुसंस्कृत जनों के मन पर रह गया है । परन्तु सही बात यह है कि स्थविरवादियों का यह साहित्य विशाल बौद्ध साहित्य का एक अत्यन्त अल्प अंशमात्र है। न तो वह एक मात्र बौद्ध साहित्य ही है, और न सर्वाधिक प्रामाणिक साहित्य ही है, न यही जोर देकर कहा जा सकता है कि यह सबसे अधिक पुराना साहित्य है। इस शास्त्र का संकलन कई बड़ी संगतियों में हुआ है। आपको मालूम ही होगा कि बुद्धदेव के निर्वाण के बाद उनके वचनों को ठीक-ठीक संग्रह करने के लिए बौद्ध आचार्यों की बड़ी-बड़ी सभाएँ हुई थीं। इन्हें संगीति कहा जा सकता है।
अशोक संगीति के अवसर पर अठारह बौद्ध सम्प्रदायों की चर्चा मिलती है। इन सबके अलग-अलग पिटक थे और इनमें सिर्फ पाठ का ही भेद नहीं था; विषय, वस्तु और भाषा का भी भेद था। बहुत पुराने काल में हीनयान और महायान दोनों ही प्रधान बौद्ध शाखाओं के ग्रंथ संस्कृत और अर्द्ध-संस्कृत में लिखे जाने लगे थे। आज इनमें का अधिकांश खो गया है। फिर भी आज नेपाल से तो कल तुर्किस्तान और मध्य रशिया से नये-नये ग्रन्थ मिलते रहते हैं और बौद्ध साहित्य की भाषा के सम्बन्ध में किये गये पूर्ववर्ती अनुमानों को धक्का मार जाते हैं।
सातवीं शताब्दी में इन बौद्ध ग्रन्थों का एक विशाल साहित्य था। चीनी यात्री हुएन्त्सांग उन दिनों जब इस देश में आये थे तब वे स्थविरवादी, महासंधिक, महीशास्त्रक काश्यपीय, धर्मगुप्त, सर्वास्तिवादी आदि सम्प्रदायों के 593 ग्रन्थ अपने साथ ले गये थे। ये अधिकांश संस्कृत में थे। इस प्रकार यद्यपि एक सम्प्रदाय की गवाही पर हम पालि को संस्कृत की प्रतिद्वन्द्विनी भाषा के रूप में पाते हैं, तथापि बहुत शीघ्र ही संस्कृत ने उस प्रतिक्रिया पर विजय पा ली थी।
भगवान महावीर के द्वारा पुनरुज्जीवित जैन धर्म के विषय में भी यह एक ही बात कही जा सकती है। सन् ईसवी के बाद के सिद्धान्तोत्तर साहित्य में धीरे-धीरे संस्कृत का प्रवेश होने लगा और जैन आचार्यों ने नाना काव्य और नाटकों की भाषा को समृद्ध ही नहीं बनाया, उसमें नवीन प्राण भी संचारित किये। मैंने जैन-प्रबन्धों की प्राकृतगन्धी संस्कृत देखी है और मैं साहस पूर्वक कह सकता हूँ कि संस्कृत को इतना सरल और प्रांजल बनाना एकदम नवीन और स्फूर्तिदायक प्रयास था। जैन मुनियों ने इसमें प्रांजलता ले आने में कमाल का किया है। जैन धर्म की श्रेष्ठ चिन्ता तो उनके दर्शन-शास्त्र हैं जो अधिकांश में ही हैं। इस साहित्यांग ने संस्कृत के दर्शन-साहित्य को नये सिरे से उत्तेजना दी है। जिन दिनों भारतवर्ष की सांस्कृतिक अवस्था अत्यन्त उतार पर थी उन दिनों भी जैन दर्शन ने थोड़ी-बहुत गर्मी बनाये रखने का आश्चर्यजनक कार्य किया था।
मेरे कहने का तात्पर्य इतना ही है कि यद्यपि कभी इस भाषा में और कभी उस भाषा में धर्मोपदेश और उस काव्य आदि की रचना के प्रमाण पाये जाते हैं, परन्तु सब मिलाकर पिछले कई सहस्राब्दकों तक भारतवर्ष के सर्वोत्तम को, उसके ज्ञान और विज्ञान को, उसके दर्शन और अध्यात्म को, उसके ज्योतिष और चिकित्सा को, उसकी राजनीति और व्यवहार को, उसके कोश और व्यकरण को और उसकी समस्त चिन्ता को इस भाषा का ही सहारा मिला है।
विदेशियों के झुण्ड बराबर इस देश में आते रहे हैं और आकर इन्होंने बड़ी जल्दी सीख लिया है कि संस्कृत ही इस देश में उनके काम की भाषा हो सकती है। यह आश्चर्य की बात कही जाती है कि संस्कृत भाषा का सबसे पुराने शिलालेख जो अब तक पाया गया है वह गिरनार वाला शक महाक्षत्र रूद्रदामा का शिलालेख है जो सन् ईसवी के लगभग डेढ़ सौ वर्ष बाद खुदवाया गया था। इस शिलालेख ने उस भ्रम का निराकरण कर दिया था जो ऐतिहासिक पण्डितों द्वारा प्रचारित किया गया था कि संस्कृत का अभ्युत्थान बहुत शताब्दियों बाद गुप्त सम्राटों के हाथों हुआ है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि गुप्त सम्राटों के युग से संस्कृत भाषा ज्यादा वेग से चल पड़ी थी, परन्तु यह नितान्त गलत बात है कि उससे पहले उसकी (संस्कृत भाषा की) धारा एकदम रूद्ध हो गयी थी।
शुरू-शुरू में मुसलमान बादशाह भी इस भाषा की महिमा हृदयंगम कर सके थे। पठानों के सिक्कों से नागरी अक्षरों का ही नहीं, संस्कृत भाषा का भी अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है। परन्तु बाद में जमाने ने पलटा खाया और अदालतों और राजकार्य की भाषा फारसी हो गयी । इस देश के बड़े समुदाय ने नाना कारणों से मुसलमानी धर्म का वरण किया और फलतः एक बहुत बड़े सम्प्रदाय की धर्मभाषा अरबी हो गयी। यह अवस्था अधिक से अधिक पाँच सौ वर्ष तक रही है। परन्तु आप भूल न जाएँ कि इस समय भी भारतवर्ष की श्रेष्ठ चिन्ता का स्रोत संस्कृत के ही रास्ते बह रहा था। नाना शास्त्र-ग्रंथों की अतुलनीय टीकाएँ, धर्म शास्त्रीय व्यवस्था के निबन्ध-ग्रंथ, दर्शन और अध्यात्म विषयक अनुवाद और टीका-ग्रन्थ और सबसे अधिक नव्य-न्याय और न्यायानुप्राणिता-व्याकरण शास्त्र इसी काल में लिखे जाते रहे। इस युग में यद्यपि संस्कृत ग्रन्थों में से मौलिक चिन्ता बराबर घटती जा रही थी। फिर भी वह एक दम लुप्त नहीं हो गयी थी। कुछ शताब्दियों तक भारत वर्ष एक विचित्र अवस्था में से गुजरा है। उसके न्याय, राजनीति और व्यवहार की भाषा फारसी रही है, हृदय की भाषा तत्तत् प्रदेशों की प्रान्तीय भाषाएँ रही हैं और मस्तिष्क की भाषा संस्कृत रही है। हृदय की भाषा बराबर किसी न किसी रुप में देशी भाषाएँ रही हैं। यह और बात है कि दूर पड़ जाने से पिछले हजारों वर्षों के देशी भाषा का साहित्य आज हम न पा सकें पर वह वर्तमान जरूर रहा है और उसका सम्मान भी हुआ है। मैं आज इस बात की चर्चा नहीं करूँगा। मैंने अन्यत्र सप्रमाण दिखाया है कि इस देश में देशी भाषाओं में सदा काव्य लिखे जाते रहे हों सिर्फ यही बात नहीं है बल्कि उनका भरपूर सम्मान भी बराबर होता रहा है।
एक बार मेरे इस कथन को संक्षेप में आप अपने सामने रख कर देखें तो हमारी वर्तमान भाषा-समस्या काफी स्पष्ट हो जाएगी। मैंने अब तक जो आपको प्राचीन-काल के खण्डहरों में भटकाया, वह इसी उदेश्य से । संक्षेप में बात इस प्रकार है कि-
1. भारतवर्ष के दर्शन-विज्ञान आदि की भाषा सदा संस्कृत रही है।
2. उसके धर्म-प्रचार की भाषा अधिकांश में संस्कृत रही है, यद्यपि बीच-बीच में साहित्य के रूप में और सदैव बोलचाल के रूप में देशी भाषाएँ भी इस प्रयोजन के लिए काम लायी जाती रही हैं।
3. आज से चार-पाँच सौ वर्ष पहले तक व्यवहार, नयाय और राजनीति की भाषा भी संस्कृत ही रही है। पिछले चार-पाँच सौ वर्षों से विदेशी भाषा ने इस क्षेत्र को दखल किया है।
4. काव्य के लिए सदा से ही कथ्य देशी भाषाएँ काम में लायी गयी हैं और संस्कृत भी सदा इस कार्य के उपयुक्त मानी गयी है।
अब अगर आप ध्यान पूर्वक देखें तो हजारों वर्ष के इतिहास ने हमारी भाषा समस्या को इस प्रकार सुलझाया है कि हमारे उच्चतर विचार, तर्क, दर्शन विज्ञान, राजनीति, व्यवहार और हमारे न्याय की भाषा का सदा एक सामान्य स्टैण्डर्ड रहा है और हमारे इतिहास के एक अत्यन्त सीमित काल में हमारी भाषा के विशाल साहित्य के एक अत्यन्त नगण्य अंश पर विदेशी भाषा का आधिपत्य रहा है। अर्थात हमारे कम से कम छह सात हजार वर्ष के विशाल इतिहास में अधिकसे अधिक पाँच सौ वर्ष ऐसे रहे हैं जिनमें अदालतों की भाषा संस्कृत न होकर एक विदेशी भाषा रही है। दुर्भाग्यवश इस सीमित काल और सीमित अंश में व्यवहृत भाषा का दावा आज हमारी भाषा समस्या का सर्वाधिक जबर्दस्त रोड़ा साबित हो रहा है। पर यह एक सामयिक बात है। आज यह जितनी बड़ी बाधा के रुप में भी क्यों न दीख रही हो, इतिहास की विशाल पट-भूमिका पर इसे रखकर देखिए तो इसमें कुछ तत्व नहीं रह जाएगा। यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी की आपाततः दीख रही है। इस विशाल देशों की भाषा समस्या का हाल आज से सहस्रों वर्षों पूर्व से लेकर अब तक जिस भाषा के जरिये हुआ है उसके सामने कोई भी भाषा न्यायपूर्वक अपना दावा लेकर उपस्थित नहीं रख सकती-फिर वह स्वदेशी हो या विदेशी, इस धर्म के मानने वालों की हो या उस धर्म के। इतिहास साक्षी है कि संस्कृत इस देशों की अद्वितीय महिमाशालिनी भाषा है-अविजित अनाहत और दुर्द्धर्ष।
आज से डेढ़-दो सौ वर्ष पहले तक यही अवस्था रही है। इसके बाद नवीन युग शुरू होता है । जमाने के अनिवार्य तरंगाघात ने हमें एक दूसरे किनारे पर लाकर पटक दिया। दुनिया बदल गयी तथा और भी तेजी से बदलती जा रही है। अँग्रेजी-साम्राज्य ने हमारी परम्परा को तोड़ दिया गया है। इन डेढ़-सौ वर्षों में हम इतने बदल गये हैं, सारी दुनिया ही इतनी बदल गयी है कि पुराने जमाने का को पूर्वज हमें शायद ही पहचान सकेगा। हमारी शिक्षा-दीक्षा से लेकर विचार-वितर्क की भाषा भी विदेशी हो गयी है। हमारे चुने हुए मनीषी अँग्रेजी भाषा में शिक्षा पाये हुए हैं, उसी में बोलतें हैं और उसी में लिखते रहे हैं। अँग्रेजी भाषा ने संस्कृत का सर्वाधिकार छीन लिया है। आज भारतीय विद्याओं की जैसी विवेचना और विचार अँग्रेजी भाषा में है, उसकी आधी चर्चा का भी दावा कोई भारतीय भाषा नहीं कर सकती। यह हमारी सबसे बड़ी पराजय है। राजनीतिक सत्ता के छिन जाने से हम उतने नतमस्तक नहीं हैं जितने कि अपने विचार की, तर्क की, दर्शन की, अध्यात्म की और सर्वस्व की भाषा छिन जाने से अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में हम अपनी ही विद्या को अपनी बोली में न कह सकने के उपहासास्पद अपराधी हैं। यह लज्जा हमारी जातीय है। देश का स्वाभिमानी हृदय इस असहाय अवस्था को अधिक बर्दाश्त नहीं कर सकता।
जब हममें राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ तो हमने देखा कि हम लुट चुके हैं। हमारे नायकों ने कहा, सँभल जाओ। पर क्या सँभलें, कैसे सँभलें ? क्या संस्कृत को अपनाकर ? यह असम्भव है।
क्यों ? जो कल तक सम्भव था, वह आज असम्भव क्यों है ? इसलिए कि दुनिया बदल गयी है। अब शास्त्र या कोई अन्य ग्रन्थ मुक्ति पाने या परलोक बनाने के लिए नहीं लिखे जाते तथा अब विद्या और ज्ञान एक विशेष श्रेणी की सम्पत्ति नहीं माने जाते। आज मनुष्य ने हर क्षेत्र में अपनी प्रधानता बना ली है। जो कुछ है, मनुष्य के लिए-चाहे वह धर्म हो, दर्शन हो, राजनीति हो, कुछ भी हो मनु्ष्य उसके लिए नहीं है।
वह जमाना ही मर गया जब केवल भाषा पर अधिकार करने के लिए वर्षों परिश्रम किया जाता था और जब गर्वपूर्वक कहा जाता था कि ‘द्वादशरभिर्वर्षव्याकरणं श्रूयते’ अर्थात ‘बारह वर्ष में व्याकरण शास्त्र के सुनने की योग्यता होती है’। अब भाषा गौड़ है, विचार मुख्य, और विचार भी ऐसे नहीं जो विचार के लिए लिखे गये हों; विचार भी ऐसे जो मनुष्य के लिए हों और जिनसे निश्चित रूप से मनुष्यता उपकृत होती हो। इसीलिए सबसे सीधा रास्ता यह है कि विचारों की अधिकाधिक सहज भाषा में पहुँचाया जाये है। यह सहज भाषा तत्तत् प्रदेशों की अपनी-अपनी बोली ही हो सकती है। इस युग में वही हुआ है। हमने अँग्रेजी की प्रतिद्वन्द्विता और अपनी-अपनी बोलियों को खड़ा किया है। यह उचित है, वही योग्य है परन्तु यही सब कुछ नहीं है। हमें सारे देश में एक विचार-स्रोत को बहा देना है। सारे देश में एक ही उमंग, एक ही आवेग, एक ही सहानुभूतिमय हृदय उत्पन्न करना है। यह कैसा हो ? इतिहास में पहली बार हमने इस समस्या को इतने निबिड़ भाव से अनुभव किया है ?
आज से डेढ़-दो सौ वर्ष पहले तक संस्कृत भाषा ने हमारे भीतर विचारगत एकता बनाये रखने का प्रयत्न किया था।बंगाल के रघुनन्दन भट्ट अपनी व्यवस्थाएँ इसी भाषा के बल पर कन्याकुमारी से कश्मीर तक पहुँचा सके थे, काशी के नागेश भट्ट को व्याकरणशास्त्रीय विचार सारे देश में फैला देने में कोई बाधा नहीं पड़ती थी, महाराष्ट्र के गणेश दैवज्ञ को अपनी ज्योतिषिक शोध इस विशाल देश के इस कोने से उस कोने तक फैला देने में कोई कठिनाई नहीं पड़ी। परन्तु आज अवस्था एकदम बदल गयी है। हमारे पास अपना कोई भी स्वदेशी माध्यम नहीं रह गया है जिसके द्वारा हमारे सर्वोत्तम व्यक्ति अपनी ज्ञान सम्पत्ति अनायास ही सारे देश में फैला सकें। स्वामी विवेकानन्द और स्वामी रामतीर्थ को अपने वेदान्त सम्बन्धी सन्देश विदेशी भाषा में लिखने पड़े, लोकमान्य तिलक को अपनी वेद और ज्योतिष सम्बन्धी शोध, तथा डॉक्टर भाण्डारकर को हिन्दू देव-देवियों के विषय में किया हुआ महत्त्वपूर्ण अध्ययन विदेशी माध्यम से देशवासियों तक पहुँचाना पड़ा। ऐसा तो इस देश में हुआ है कि धर्मोपदेश के लिए भिन्न-भिन्न प्रान्तों की भाषाओं से काम लिया गया हो। थोड़े समय के लिए ऐसा भी हुआ है कि राजकीय व्यवहार की भाषा कुछ और हो गयी हो, परन्तु हमारे उच्चतर अध्ययन, दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक गवेषणा की भाषा भी विदेशी हो गयी हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। इसीलिए राजनीतिगत उथल-पुथल के होते हुए भी सुदूर प्रदेशों में फैला हुआ यह महादेश होते हुए भी इसमें एक अद्भुत एकता पायी जाती रही है। आज इस पर भी विदेशी भाषा का आधिपत्य है। इसीलिए कहता हूँ कि भाषा-समस्या को इतने निबिड़ भाव से ऐसे गाढ़ भाव से हमने अपने समूचे इतिहास में कभी भी अनुभव नहीं किया है।
परन्तु हम अब संस्कृत को फिर से नहीं पा सकते। अगर बीच में अँग्रेजी ने आकर हमारी परम्परा को बुरी तरह तोड़ न भी दिया होता तो भी आज हम संस्कृत को छोड़ने को बाध्य होते, क्योंकि वह जनसाधारण की भाषा नहीं हो सकती। जिन दिनों एक विशेष श्रेणी के लोग ही ज्ञान-चर्चा का भार स्वीकार करते थे, उन दिनों भी यह कठिन और दुःसह थी। परन्तु आज वह जमाना नहीं रहा। हम बदल गयें हैं, हमारी दुनिया पलट गयी है हमारे पुराने विश्वास हिल गये हैं, हमारी ऐहिकता बढ़ गयी है, और हमारे वे दिन हमेशा के लिए चले गये। भवभूति के राम की भाँति हम भी अब यह कहने को लाचार हैं कि ‘‘ते हि नो दिवसा गतः-अब हमारे वे दिन नहीं रहे।
अफसोस करना बेकार है। हम जहाँ आ पड़े हैं, वहीं से हमें यात्रा शुरू करनी है। काल धर्म हमें पीछे नहीं लौटने देगा। हमें अपने को और अपनी दुनियाँ को समझने में अपने हजारों वर्षों के इतिहास का अनुभव प्राप्त है। हम इस दुनिया में नये नहीं हैं, नौसिखुए नहीं हैं। अपने संस्कारों के अनुभवों के लिए हमें गर्व है। ये हमें अपने को और अपनी दुनिया को समझने में सहायता पहुँचाएँगे। हमें याद रखना चाहिए कि अनुभव और संस्कार तभी वरदान होते हैं जब वे हमे आगे ठेल सकें, कर्मशील बना सकें। निठल्से का अनुभव उसे खा जाता है और संस्कार उसे भी अपाहिज बना देता है।
हमारा पुराना अनुभव बताता है कि हम आसेतु-हिमाचल एक भाषा से एक संस्कार, एक विचार, एक मनोवृत्ति तैयार कर सकते हैं और वह एक भाषा संस्कृत है। हमारी नयी परिस्थिति बता रही है कि शास्त्रों की चर्चा से मुक्ति या परलोक बनाने वाला आदर्श अब नहीं चल सकता। ‘‘एकः शब्दः शब्द सम्यग्ज्ञातः’ अर्थात ‘एक भी शब्द भलीभाँति जान लिया जाये तो स्वर्गलोक में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो जाता है’ का आदर्श इस काल में नहीं टिक सकता, जबकि प्रत्येक कार्य में हड़बड़ी और जल्दी की भावना काम कर रही है। हमें एक ऐसी भाषा चुन लेनी है जो हमारी हजारों वर्ष की परम्पराओं से कम से कम विच्छिन्न हो और हमारी नूतन परिस्थित का सामना अधिक से अधिक मुस्तैदी से कर सकती हो; संस्कृत न होकर भी संस्कृत-सी हो और साथ ही जो प्रत्येक नये विचार को प्रत्येक नयी भावना को अपना लेने में एकदम हिचकिचाती न हो, जो प्राचीन परम्परा की उत्तराधिकारिणी भी हो और नवीन चिन्ता की वाहिका भी।
चूँकि वर्तमान युग में मनुष्य की प्रधानता समान भाव से स्वीकार कर ली गयी है इसलिए उसी को दृष्टि में रखकर इस समस्या को हल किया जा सकता है। जिस प्रकार मनुष्य की सुविधा की दृष्टि से सहज-सरल देशी भाषाओं को प्रोत्साहित किया गया है, उसी प्रकार वृहत्तर देश के विराट् मानव-समुदाय को दृष्टि में रखकर सामान्य भाषा की समस्या भी हल की जा सकती है। अधिकांश मनुष्य जिस भाषा में बोल सकते हों अधिकांश मनुष्यों की नाड़ी के साथ जिस भाषा का अच्छेद्य सम्बन्ध हो, वह भाषा क्या है ? आपसे कहने की आवश्यकता नहीं है। आपने अपने ढंग से उसका उत्तर खोज लिया है पर मैं आपको संस्कृत की याद एक बार फिर दिला देता हूँ। हिन्दी या हिन्दुस्तानी हमारी अधिकजनों की समझ में आनेवाली अधिक प्रचलित भाषा जरूर है पर संस्कृत ने हमारे सर्वदेश की भाषा पर जो अपना अनुत्सारणीय (न हटाया जा सकनेवाला) प्रभाव रख दिया है, वह कम नहीं है हम हजार संस्कृत की परम्परा से च्युत हों और उस भाषा तथा उसके विशाल साहित्य को भूल गये हों, पर वह हमसे दूर नहीं हो सकती। हमने चाहे कमली को छोड़ दिया हो पर कमली हमें नहीं छोड़ सकती। संस्कृत ने हममें अब भी चौदह आना एकता कायम कर रखी है। नये सिरे से हमें दो आना ही प्रयत्न करना है। वस्तुतः हिन्दी और अन्यान्य भारतीय भाषाओं में चौदह आना ही साम्य है। दो आना ही हमें नये सिरे से गढ़ना है। यह आप कर रहें है।
परन्तु मैं उम्मीद करता हूँ कि आपने मुझे गलत नहीं समझा है। मैं संस्कृत को भाषा बनाने की वकालत नहीं कर रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ, कि पिछले हजारों वर्षों के इतिहास ने हमें जो कुछ दिया है, उससे हम सबक सीखें। मेरे कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि हम विदेशी शब्दों का बहिष्कार करें। अगर आपने मेरे कथन का यह अर्थ समझा हो तो मैंने कहीं अपनी बात उपस्थित करने में गलती की होगी। मैं ऐसा कैसे कह सकता हूँ जबकि हमारी श्रद्धेय संस्कृत भाषा ने ही विदेशी शब्दों को ग्रहण करने का रास्ता दिखाया है। हमारे संस्कृत साहित्य में होरा, द्रेक्काण, अपोल्किम, पणफर, कौर्प्य, जूक, लेय, हेलि आदि दर्जनों ग्रीक शब्द व्यवहृत हुए हैं। ये ग्रीक शब्दों के संस्कृतवत् रूप हैं परन्तु संस्कृत में इतने अधिक प्रचलित हो गये हैं कि कोई संस्कृत का पण्डित उनकी शुद्धता में भी सन्देह नहीं करता। कम से कम एक कोड़ी (बीस) ग्रीक शब्द मैं आपको ऐसे दे सकता हूँ जिनका व्यवहार धर्म-शास्त्रीय व्यवस्था देने वाले ग्रंथों में होता है। ज्योतिष के (ताजक-शास्त्र) वर्ष-फल मासफल आदि बतलाने वाला ज्योतिष शास्त्र का एक अंग के योगों के नाम में बीसियों अरबी शब्द मिलेंगे। ताजक नीलकण्ठी (एक ज्योतिष-ग्रन्थ) ये यदि मैं एक श्लोक पढ़ूँ, तो आप शायद समझेंगे कि मैं कुरान की आयत पढ़ रहा हूँ-
‘‘खल्लासरं रूद्दमथो दुफालिः कुत्थं तदुत्थोत्थ दिवीर
नामा।’’ और
‘‘स्यादिक्कवालः इशराफ योगः’’, इत्यादि।
‘‘स्यादिक्कवालः इशराफ योगः’’, इत्यादि।
रमल (‘रमल’ नामक ज्योतिष
विद्या) के ग्रंथों
में कोड़ियों (बीसों) अरबी और फारसी के शब्द व्यवहृत हुए हैं। एक श्लोक
में ‘तारीख’ शब्द का ऐस व्यवहार किया गया है मानो वह
पाणिनी
का ही शब्द है-‘तारीखे च त्रितये
त्रयोदशे’’। सुल्तान
शब्द का सुरत्राण रूप संस्कृत के काव्य-ग्रंथों में ही नहीं, मुसलमान
बादशाहों के सिक्कों पर भी पाया जाता है। पुरातन प्रबन्ध-संग्रह में एक
जगह मसजिद को मीसित बनाकर ही प्रयोग नहीं किया गया है, अनुप्रास के साँचे
में बैठकर ‘अशीतिर्मसीति’ कहकर उसमें सुकुमारता भी
लायी गयी
है। नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आप विदेशी शब्दों को निकालना शुरू
करें। मुझे गर्व है कि आपने आज जिस भाषा को अपने लिए सामान्य-भाषा के रूप
में वरण किया है, उसने उर्दू के रूप में इतने विदेशी शब्दों को हजम किया
है कि संसार की समस्त विदेशी भाषाओं को पाचन-शक्ति की प्रतिद्वन्द्विता
में पीछे छोड़ गयी है। प्रचलित शब्दों का त्याग करना मूर्खता है; पर मैं
साथ ही जोर देकर कहता हूँ कि किसी विदेशी भाषा के शब्दों के आ जाने के भर
से वह विदेशी भाषा संस्कृत के साथ बराबरी का दावा नहीं कर सकती। वह हमारे
नवीन भावों के प्रकाशन के लिए संस्कृत के शब्दों को गढ़ने से हमें नहीं
रोक सकती। प्रचलित शब्दों को विदेशी कहकर त्याद देना मूर्खता है; पर किसी
के भाषा के शब्दों का प्रचलन देकर अपनी हजारों वर्ष की परम्परा की उपेक्षा
करना आत्मघात है। संस्कृत ने भिन्न-भिन्न भाषाओं के हजारों शब्द लिये हैं;
पर उन्हें संस्कृत बनाकर। हम अब भी विदेशी शब्दों को लें तो उन्हें भारतीय
बनाकर, इस देश के उच्चारण और वाक्य-रचना परम्परा के अनुकूल बनाकर।
मगर यह तो मैं अवान्तर बात कह गया । मैं मूल प्रश्न पर फिर आ रहा हूँ। इस युग का मुख्य उदेश्य मनुष्य है। इस युग का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि विज्ञान की सहायता से जहाँ वाह्य भौगोलिक बन्धन तड़ातड़ टूट गये हैं वहाँ मानसिक संकीर्णता दूर नहीं हुई है। हम एक-दूसरे को पहचानते नहीं। तीन दिन की सारे संसार की यात्रा करके लौटे हुए यात्रा-विलासी लोगों और नाना प्रकार के स्वार्थ-परायणों की पुस्तकों ने संसार में घोर गलतफहमी फैला रखी है। इस देश में ही हम एक प्रदेश वाले दूसरे प्रदेश के लोगों को नहीं समझ रहे, एक सम्प्रदाय के लोग दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को नहीं पहचान रहे। इसीलिए इतनी मारामारी-काटाकाटी चल रही है। आपने जब एक सामान्य भाषा को बनाने की ठानी है तो आप से आशा होती है कि आप यहाँ नहीं रूकेंगे। यह भी ब्राह्य (बाहरी) बात है। और भी आगे चलिए। एक साहित्य बनाइए। गलतफहमी दूर कीजिए। ऐसा कीजिए कि एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय को समझ सके। एक धर्मवाले दूसरे धर्मवाले की कदर कर सकें। एक प्रदेशवाले दूसरे प्रदेशवाले के अन्तर में प्रवेश कर सकें। ऐसा कीजिए कि इस सामान्य माध्यम के द्वारा आप सारे देश में एक आशा, एक उमंग और एक उत्साह भर सकें। और फिर ऐसा कीजिए कि हम इस भाषा के जरिये इस देश की और अन्य देशों की इस काल की और अन्य कालों की समूची ज्ञान-सम्पत्ति आपस में विनिमय कर सकें।
मगर यह तो मैं अवान्तर बात कह गया । मैं मूल प्रश्न पर फिर आ रहा हूँ। इस युग का मुख्य उदेश्य मनुष्य है। इस युग का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि विज्ञान की सहायता से जहाँ वाह्य भौगोलिक बन्धन तड़ातड़ टूट गये हैं वहाँ मानसिक संकीर्णता दूर नहीं हुई है। हम एक-दूसरे को पहचानते नहीं। तीन दिन की सारे संसार की यात्रा करके लौटे हुए यात्रा-विलासी लोगों और नाना प्रकार के स्वार्थ-परायणों की पुस्तकों ने संसार में घोर गलतफहमी फैला रखी है। इस देश में ही हम एक प्रदेश वाले दूसरे प्रदेश के लोगों को नहीं समझ रहे, एक सम्प्रदाय के लोग दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को नहीं पहचान रहे। इसीलिए इतनी मारामारी-काटाकाटी चल रही है। आपने जब एक सामान्य भाषा को बनाने की ठानी है तो आप से आशा होती है कि आप यहाँ नहीं रूकेंगे। यह भी ब्राह्य (बाहरी) बात है। और भी आगे चलिए। एक साहित्य बनाइए। गलतफहमी दूर कीजिए। ऐसा कीजिए कि एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय को समझ सके। एक धर्मवाले दूसरे धर्मवाले की कदर कर सकें। एक प्रदेशवाले दूसरे प्रदेशवाले के अन्तर में प्रवेश कर सकें। ऐसा कीजिए कि इस सामान्य माध्यम के द्वारा आप सारे देश में एक आशा, एक उमंग और एक उत्साह भर सकें। और फिर ऐसा कीजिए कि हम इस भाषा के जरिये इस देश की और अन्य देशों की इस काल की और अन्य कालों की समूची ज्ञान-सम्पत्ति आपस में विनिमय कर सकें।
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