कहानी संग्रह >> पारुल दी पारुल दीदिनेश पाठक
|
5 पाठकों को प्रिय 249 पाठक हैं |
प्रस्तुत है उत्कृष्ठ कहानियों का समावेश...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
संग्रह की इन कहानियों में पात्र बिना किसी हताशा-निराशा के अपने मूल्यों
और आदर्शों के लिए कड़ा संघर्ष करते हैं य़े पात्र हमें नितान्त आत्मीय
लगते हैं। इन कहानियों में सामाजिक सोच पूरी गंभीरता से उतरता है। मूल्यों
और आदर्शों की प्रतिष्ठा के बावजूद ये कहानियाँ अत्यन्त रोचक हैं जो अन्त
तक पढ़ने को बाध्य करती हैं और पाठक के साथ विश्वसनीय सम्बन्ध स्थापित
करती हैं।
पारुल दी
पारुल दी के चेहरे की ओर देखा तो वह सहज नहीं
लगा, जैसा कि
आम तौर पर वह रहता है-एकदम सधा हुआ, सन्तुलित। वहाँ एक साथ कई सारी लहरें
थीं-आती-जातीं, उमड़ती-घुमड़तीं। भीतर का द्वन्द्व मानो वहाँ पल-पल छप रहा
था। कभी एक रंग उभरता तो कभी दूसरा। दोनों रंगो के बीच जबरदस्त रस्साकशी
थी। याद नहीं आया कि पारुल दी को कभी इस स्थिति में देखा हो, इतनी विषम
अवस्था में। यूँ उसे घण्टों अपने में गुम पाया है, चिन्ता की अशरीरी
दुनिया में डूबा हुआ ही देखा है, गहरी उदासी के कोहरे में भी लिप्त मिली
है...पर इस तरह के विकट द्वन्द्व की स्थिति आज पहली बार उसके सामने थी।
कहना चाहिए कि ऐसी द्वन्द्व की स्थिति कभी-कभी ही किसी की जिन्दगी में आती
है। चाहा कुछ कहूँ, कुछ भी। न हो तो ठिठोली ही कर डालूँ। पर चाहकर भी कुछ
नहीं कर सका। साहस जवाब दे गया। हालाँकि यह सच था कि पूरे गाँव-घर में मैं
ही अकेला ऐसा था जो उसके साथ ठिठोली कर सकता था। यह अधिकार जैसे मुझे ही
मिला हुआ था। बाकी और किसी की हिम्मत ही नहीं थी कि पारुल दी से परिहास
करता। करना तो दूर की बात थी, सोच भी नहीं सकता था। उस पत्थर सरीखे सख्त
चेहरे के साथ भला कोई क्या ठिठोली करता ? कैसा हास-परिहास ? जिन्दगी मानो
प्रस्तर-मूर्ति थी।
पर सदा ऐसी नहीं थी पारुल दी....
यह पारुल नाम मेरा ही दिया हुआ है। घर ने नाम दिया था परुली-ठेठ देशज, ग्रामीण नाम। गाँवभर में वह इसी नाम से जानी-पुकारी जाती है। पारुल दी तो मैं कहता हूँ...सिर्फ मैं जो उम्र में थोड़ा ही छोटा हूँ, उसका चचेरा भाई। मेरे प्रति वह सदैव बहुत आत्मीय रही है, बल्कि कहना चाहिए कि पूरे घर-परिवार में मैं ही उसके सर्वाधिक निकट हूँ-उसका दोस्त। जो बातें वह किसी से नहीं कह सकती, मुझसे कहती है। मन की गाँठें सदैव मेरे सामने ही खोली हैं। मैं पढ़ता-लिखता ज्यों-ज्यों ऊँची कक्षा में पहुँचता गया, मेरे परिष्कृत होते संस्कार को यह परुली नाम कुछ ठीक नहीं लगा था। मैंने एक दिन उसका नाम संशोधित कर दिया, ‘‘अब से तुम्हारा नाम पारुल होगा... मैं तुम्हें पारुल दी ही कहूँगा...।’’
मैंने उसी दिन से उसे पारुल दी ही कहना शुरू कर दिया था।
पारुल दी को सुन्दर, बहुत सुन्दर कहना कतई अतिशयोक्ति नहीं थी। गाँव में सभी कहते, बहुत फुरसत से बनाया है ईश्वर ने परुली को- बड़े मनोयोग से। नख-शिख पर्यन्त सब कुछ निश्चित साँचे में गढ़ा-ढला था। चम्पई गौरवर्ण, सुतवाँ नाक। खूबसूरत और भावप्रवण आँखें, गुलाबी आभा से युक्त कपोल, चमकीले केश, मोती-सी सजी दन्तावली। स्वर भी बहुत मीठा था...एक-एक शब्द जैसे शहद में घुला हुआ हो। जितनी उज्वलता बाहर थी, उससे कहीं ज्यादा भीतर। अपरूप अन्तरघट...
परिवार में पाँच भाई-बहनों में वह सबसे बड़ी थी, पर अपने सगे भाई-बहनों से भी ज्यादा मुझे मानती। छोटा होते हुए भी एक तरह से मैं उसका समवयस्क जैसा ही था। हमारे सुर भी बहुत मिलते थे, सो मुझसे खूब छनती। बड़ी होने के नाते बचपन से ही उस पर ढेर सारे दायित्व आ गये थे। छोटे भाई-बहनों की देख-भाल से लेकर बाहर-भीतर के कई सारे काम देखने पड़ते। गलती किसी की भी क्यों न हो, डाँट उसी के हिस्से होती। मैं कभी-कभी झींकता भी, ‘‘ये क्या पारुल दी, तुम सब कुछ चुपचाप क्यों सहती हो ? विरोध क्यों नहीं करती ? बोलती क्यों नहीं ? ईश्वर ने तुम्हें भी तो जुबान दी है...’’
पारुल दी सुनती और मुस्करा देती। कहती, ‘‘किससे विरोध करूँ ? सभी तो अपने हैं। अपने ही ईजा-बाबू, अपने ही भाई-बहन।’’
‘‘वो तो ठीक है...’’ बात मेरे गले नहीं उतरती। ‘‘पर जो बातें गलत होती हैं उनका विरोध करना ही चाहिए। नहीं क्या ?’’
‘‘पता नहीं...’’ पारुल दी गम्भीर हो जाती, ‘‘तू ठैरा पढ़ने-लिखनेवाला आदमी, शायद ठीक ही कहता होगा। पर मैं दूसरी तरह से सोचती हूँ। सबसे बड़ी हूँ तो ये सब तो मुझे झेलना ही चाहिए, करना ही चाहिए।...’’
मैं खीज उठता। पर वह मेरी खीझ से लापरवाह रहती, अविचलित। उम्र के कच्चे दौर से ही मैं उसके स्वभाव में एक तरह की गम्भीरता देखने लगा था। अक्सर ही गम्भीर बनी रहती थी....बातें भी समझदारी-भरी करती। पर मन के कपाट का थोड़ा-सा हिस्सा भी खोलना हो तो तत्काल मेरी खोज शुरू हो जाती। फिर अकेले किसी कोने में बैठकर हमारी बातें जमतीं। हालाँकि अकेले बैठने के अवसर पारुल दी को कम ही मिलते थे। बीच में ही पुकार सुनाई दे जाती थी, ‘‘कहाँ चली गयी रेऽ परुली ? देख तो ये कब से रो रहा है। जरा इसे पकड़ तो...’’ पारुल दी मन मसोसती हुई उठती। ये उठी और वो गयी। बातें अधूरी ही रह जातीं।
स्कूल जाने का मौका पारुल दी को कभी नहीं मिला, हालाँकि वह दिमाग की तेज थी। चीजों को समझने और जरूरत पड़ने पर विश्लेषण की झमता मानों ईश्वर-प्रदत्त हो। कई बार मुझे भी चुप करा देती। मैं दंग रह जाता। सोचता की ऐसी बुद्धि कहाँ से पायी पारुल दी ने ? वह अद्भुत थी। यह अलग बात है कि उसे फलने-फूलने का अवसर नहीं मिला।
इण्टर के बाद जब मैं आगे की पढ़ाई के लिए शहर चला गया तो पारुल दी से सिर्फ छुट्टियों में मुलाकात होती। तब तक उसके पास बातों का खजाना इकट्ठा हुआ रहता। वह बोलती जाती थी, जैसे बातों का असमाप्त बहाव हो-एक अन्तहीन नदी। मैं भी उसके साथ जंगल-खेत चल देता। जंगल में घास काटते या खेत में गोड़ाई करते हुए वह बहुत-सी बातें कहती-बताती। तमाम तरह के सवाल पूछती। मेरे लिए छिपाकर बचाए हुए अखरोट व चिउड़ा आँचल से निकालकर मुझे देती। मैं कहता, ‘‘ये क्या पारुल दी ? मेरा हिस्सा तो रखा हुआ था दादी ने।’’
‘‘तो क्या हुआ...यह तो मैंने अपने हिस्से से बचाकर रखा है।’’ वह मुस्कराती आँखों से मुझे देखती। उसके चेहरे पर लाड़ उभर आता, ‘‘चल, चलते हैं। घास की टोकरी भर गयी है...मेरे सिर पर रख।’’ हम लौटने लगते। मैं अचानक प्रस्ताव करता, ‘‘पारुल दी, सोच रहा हूँ, इस बार जाड़ों में तुम्हें पढ़ना-लिखना सिखाऊँ। कैसा ?’’
‘‘ठीक...।’’ वह चहक उठती।
जाड़ों की छुट्टियाँ आती और बीत जातीं। चीजें सब यथावत रहतीं-वहीं की वहीं, जस की तस। पारुल दी के पास न फुर्सत होती, न पढ़ाई का सिलसिला चल पाता। एकाधिक बार हाथ का काम छुड़वाकर जबरदस्ती बैठाने की कोशिश की भी तो मुझे ही डाँट पड़ गयी, ‘‘क्यों, उसे भी अपनी तरह निठल्ला बनाने का इरादा है क्या ? अरे, उसके काम यह स्लेट-पाठी नहीं आयेगी, घर-बार का कामकाज आयेगा।...’’ स्वर दादी का था, पर पारुल दी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह वैसी ही थी-शान्त, सौम्य, जैसे झिड़की उसे नहीं, सामने की दीवारों को मिली हो।
उन्नीस साल की होते-होते पारुल दी के विवाह की चर्चाएँ चलने लगी थीं। तेजी से घर-वर की तलाश शुरू हो गयी। दो रोटी खाने वाला ठीक-ठाक-सा अपने ही स्तर के कुलवंश का कोई जमाता मिल जाए तो धन्य हो उठे घर। पर मेरे हिसाब से अभी यह जल्दी था। हालाँकि उस बड़े कुनबे में मुझ जैसे कम उम्र के सदस्य की राय कोई अहमियत नहीं रखती थी। होगा वही जो बड़े चाहेंगे। फिर भी मैंने बहुत दबी जबान से अपना विरोध माँ व ताई के सामने रखा था। दोनों ने मेरी बात को मुस्कराहट में टाल दिया। उल्टे माँ बोली थी, ‘‘पता है, मेरा विवाह किस उम्र में हो गया था ? कुल तेरह की थी तब मैं...।’’
‘‘और मैं बारह की।’’ ताई बोली।
मुझे लगा, किसी के सामने भी कुछ कहना बेकार है। अर्थहीन। यह सोचकर बुरा लगता कि पारुल दी चली जाएँगी यहाँ से, इस घर से। अपने अकेले हो जाने के बोध से सिहरन-सी होती। सच में, पारुल दी के बिना कैसे रह पाऊँगा मैं ? कभी मैं पारुल दी के करीब बैठा सलाह दे रहा होता, ‘‘तुम शादी के लिए मना कर देना, पारुल दी। साफ-साफ कह देना कि मुझे नहीं करनी है शादी अभी।...’’
पारुल दी अपनी बड़ी-बड़ी आँखें उठाकर मुझपर टिका देतीं। पूछती, इससे क्या हो जायेगा ?’’
‘‘क्या हो जायेगा माने ?’’ यह मेरे तैश में आने की बारी थी, ‘‘जैसा तुम चाहोगी, वैसा होगा। तुम्हारी मरजी के खिलाफ कोई तुम्हारी शादी कैसे कर सकता है, बोलो...?’’
पारुल दी मौन हो गयी। एकदम चुप। मैं पारुल दी के इस मौन पर खिन्न हो उठा। कहा, ‘‘समझ गया, सब समझ गया। तुम खुद ही जल्दी-जल्दी शादी रचाकर भागना चाहती हो यहाँ से...’’ मेरे स्वर में उलाहना का भाव था।
पारुल दी जैसे भरभरा गयी थी, ‘‘ये कैसी बात कर रहा है, आशी तू ? पर सच्चाई तो यही है भैयू कि हम लड़कियों को जाना ही होता है। हम जहाँ जन्म लेती हैं, पलती-बढ़ती हैं, वह हमारा घर नहीं होता। वहाँ हम किसी और घर की धरोहर के रूप में पलती हैं। हमें तो जहाँ जैसे और जब बाँध दिया, चुपचाप बँध जाना ठैरा...’’
मैं बुरी तरह खीज गया था। कैसी दकियानूसी बकवास है यह ! फिर सोचा, जो लड़की भूखे होने पर अपने लिए खाना नहीं माँग सकती, प्यासी होने पर पानी की फरमाइ नहीं कर सकती, डरती- सकुचाती है, उससे इतनी बड़ी बात की उम्मीद कैसे कर सकता हूँ मैं ? लगता ही नहीं कि उसके पास अपनी जुबान हो। हर बात को चुपचाप स्वीकार कर लेना, सह लेना उसका प्रकृत स्वभाव था। कभी-कभी लगता, उसका यह स्वभाव उसके खुद के लिए ही दुःख का कारण न बन जाए।
अन्ततः एक दिन सुना, पारुल दी का विवाह तय हो गया है।
वह वैशाख का महीना था। पहाड़ों में भी गर्मी शुरू हो गयी थी। प्रकृति इन दिनों मनोरम थी। आड़ू, खुबानी, पूलम में फल आने लगे थे। मैं इण्टर बोर्ड की परीक्षाएँ समाप्त कर गाँव पहुँचा तो देखता हूँ, घर में अलग तरह की गहमागहमी है। एक पल के लिए समझ में नहीं आया कि क्या बात है आखिर ? माँ से पूछा तो वह मुस्करायी, ‘‘परुली की शादी तय हो गयी है। अगले हफ्ते की बारात है।...’’
परीक्षा निपटाने की जो खुशी थी वह काफूर हो गयी। मैं उदास हो आया, निपट उदास।
माँ से पता चला, यहाँ से कोई बीस कोस अन्दर की ओर लड़के वालों का गाँव है। गाड़ी सड़क से लगभग छः मील पैदल जाना पड़ता है। लड़के का नाम चिन्तामणि है-पं. चिन्तामणि। गाँव की अपनी खेती सँभालने के अलावा यजमान वृत्ति में अपने पिता का हाथ बँटाता है।
‘‘यजमानी ?’’ मैंने बुरा-सा मुँह बनाया। आँखों के सामने घुटनों तक धोती पहने, कुरता लादे, चन्दन-टीका लगाये, चुटियाधारी व्यक्ति का चित्र घूम गया। तो क्या ऐसे के पल्ले बँध रही है पारुल दी ?
माँ हँसी, ‘‘और कैसा लड़का मिलता रे परुली को ?’’ मुझे माँ पर गुस्सा आया। क्या खराबी है अपनी पारुल दी में ? पर किससे कहता ! मेरा मन दूसरी बार उदास हुआ था। विवाह होने तक मैं पारुल दी से कटता रहा विवाह के दिन देखा तो आश्चर्य नहीं हुआ। पारुल दी का दूल्हा ठीक वैसा ही था जैसा मेरी आँखों ने कल्पित किया था। मन में कसक-सी उठी, पर क्या कर सकता था मैं ? विवाह के बाद विदा होकर जाती पारुल दी को सभी से लिपटकर रोता देखता रहा। कैसा रुदन था वह ? मुझसे लिपटी तो जैसे सारा बाँध ही टूट पड़ा। आँसुओं की धारासार झड़ी लग गयी थी।
विवाह के बाद पारुल दी सिर्फ एक दिन के लिए आयी थी-अपने पं. चिन्तामणि के साथ। लेकिन इस एक दिन में वह इस तरह घिरी रही कि मुझसे उसकी कोई बात नहीं हो सकी। फिर बाद में उसका आना न हुआ। मैं भी शहर जाकर अपनी आगे की पढ़ाई में व्यस्त हो गया। गाँव जब भी आता, सबसे पहले पारुल दी के बारे में ही पूछता। पता चलता, पारुल दी ठीक है, मजे में। पारुल दी के बिना सारा गाँव ही खाली-खाली लगता था, वीरान...
तभी कोई सालभर बाद पारुल दी का आना हुआ था। पर दरअसल यह पारुल दी का आना नहीं, वापस लौटना था-एकदम तिरस्कृत, अपमानित और प्रताड़ित। जिसने भी देखा, अवाक् देखता ही रह गया। मुँह खुला का खुला, अचम्भित। तो क्या यह वही परुली है-किशनानन्दज्यू की पुत्री परुली ? नहीं; यहाँ तो कोई साम्य ही नहीं था, रंचमात्र भी नहीं। मैंने पीड़ा भरी कराह के साथ आँखें मूँद ली थीं। यह सच में क्या हो गया था पारुल दी को ? कोटरों में धँसी आँखों वाली एक कंकाल मात्र रह गयी थी वह...हड्डियों का स्पष्ट ढाँचा भर। कोई देखे तो कैसे पहचाने ?
पूरे घर में कटखना सन्नाटा उतर आया था-मानो जीती-जागती पारुल दी के न होने का मातम छा गया हो। कहीं कोई आवाज नहीं, कोई संवाद नहीं-सिर्फ स्तब्धता। एक रात तो चूल्हा भी नहीं जला था। सब के सब जहाँ के तहाँ जड़ हो गये थे। ऐसा नजारा बच्चों के लिए बड़ा खौफनाक था। बच्चे कुछ समझ नहीं पा रहे थे। डरे-डरे एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। वातावरण व परिवेश का विचित्र प्रभाव होता है-मनुष्य के बच्चे तो क्या, पशु भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते।
हफ्ता बीतते-बीतते थोड़ी सहजता लौटी थी। जिन्दगी लंबे समय तक उदास रह भी नहीं सकती। उसे तो चलना और जीना ही है-ठहराव उसकी नियति नहीं है, एक क्षण के लिए भी नहीं।
पर पारुल दी ? पारुल दी तो जैसे भूमिगत हो गयी थी। कहीं दिखाई नहीं पड़ती। मेरी भी हिम्मत नहीं होती थी कि उसे खोजूँ, उससे बतिया सकूँ। कोटरों में धँसी आँखों वाली उस कंकाल का सामना करने का मुझमें साहस नहीं था। मैं खुद भी बच रहा था-लगातार, कई-कई दिनों तक...
बड़ा विचित्र ससुराल निकला पारुद दी का-परम्परा में एकदम ढीठ और हद दरजे का रूढ़िवादी। हालाँकि श्वशुर अपेक्षाकृत उदार थे, पर उस घर में वे चलन में थे भी कहाँ ? एकदम खोटे सिक्के घोषित थे। चलन में तो एक मात्र सास थी जिसके आगे सब बौने थे। पं. चिन्तामणि की हैसियत भी वहाँ खास नहीं थी-जिधर हाँक दिया, जैसे हाँक दिया, बस चल दिए। माँ के सामने वे वैसे भी पूरी तरह मौन होते, गूँगे की तरह। सुना और आदेश की तरह सिर हिला दिया।...
पं.चिन्तामणि को एक दिन लगा, उनकी पत्नी के चेहरे की चमक लुप्त हो रही है। शरीर से भी ज्यादा दुर्बल महसूस होने लगी है। ब्याह को अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ था मुश्किल से चार माह हुए थे। इन चार माहों में ही वह क्यों इतनी कमजोर लगने लगी है ? क्या वजह हो सकती है ? एक अन्तरंग क्षण में फुसफुसाकर जानना भी चाहा, पर पारुल दी की ओर से कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिला। फिर वे भी भूल गये। पत्नी के लिए उनके पास ज्यादा लम्हे होते भी नहीं थे।
तभी अचानक लगा, पत्नी को शायद भरपेट आहार नहीं मिल रहा है। उस दिन उन्होंने अकस्मात्...एकदम अचानक लक्ष्य किया कि जैसे ही वे भोजन करके उठते हैं, दूसरी दिशा में निकल जाते हैं, तब कहीं जाकर उनकी जूठी थाली में पत्नी के लिए भोजन परोसा जाता है। पर वह इतना कम होता है, इतना नाममात्र का कि उसमें कैसे किसी का पेट भर सकता है ? एक बार में उतना परोसने के बाद दोबारा फिर कुछ नहीं मिलता। पूछा भी नहीं जाता। चिन्तामणि ने उस बार गौर किया, ध्यान से देखा भी-महज एक रोटी और नाममात्र को चावल रखा गया था उसकी थाली में। इतने से क्या होता होगा इस बेचारी का, वे सोचते रह गये। दिनभर की हाड़-तोड़ मेहनत हुई...बल्कि सारा कामकाज उसी के माथे पर डाल दिया गया था...अलस्सुबह से रात तक। और ऊपर से चिड़ियों जैसा भोजन। रात को भी मात्र दो ही रोटियाँ मिल रही थीं। पं. चिन्तामणि को हालाँकि यह तो लगा कि यह उचित नहीं है, अनाचार है एक तरह से, पर माँ से कुछ कह सकें, ऐसा साहस उनमें था ही कहाँ ? हाँ, इतना जरूर था कि एकाधिक बार पारुल दी के भोजन के वक्त उन्होंने किसी-न-किसी बहाने रसोई में झाँकने की कोशिश की थी। कदाचित् माँ को यह अहसास दिलाना चाहते थे कि वे देख रहे हैं, उनसे कुछ छुपा नहीं है, पर माँ ने भी एक दिन ऐसी जबरदस्त झाड़ पिलायी थी कि सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी थी। चिल्लाकर बोली थी, ‘‘अब यहाँ क्या कर रहा है तू ? कोई काम नहीं है तो बाहर जाकर बैठ। भूखी नहीं मर रही है तेरी जोरू...’’
दुम दबाकर भाग तो जरूर आये थे पं. चिन्तामणि, पर कहीं सोच में भी डूब गये थे। पत्नी के प्रति मोह भी जागा था। ब्याह कर लाये तो कैसी गुलाब की खिली कली-सरीखी थी, और अब ? क्यों करती है माँ ऐसा ? क्यों भरपेट भोजन नहीं देती ? सोचकर ही अजीब लगा था। बेचारी को देखो, सुबह से रात तक लगातार काम में लगी रहती है। कतई शिकायत नहीं, कोई मनाही नहीं स्वभाव की भी कितनी शिष्ट व सुशील है। रात बिस्तर पर आती है तो आँखें नींद से बोझिल रहती हैं, शरीर थककर चूर। देखकर माँ पर गुस्सा आता है, पर कर कुछ नहीं पाते, खुद को एकदम विवश व लाचार पाते हैं। सोचने लगे पं. चिन्तामणि कि क्या करें, कैसे अपनी ब्याहता के लिए भोजन की समुचित व्यवस्था करें ? माँ से कुछ कहने का प्रश्न ही नहीं था। रह गये पिता तो उनकी हालत और भी बदतर थी। बाकी बचे बाद के भाई-बहनों की कोई भूमिका ही नहीं बनती थी। सो, क्या करें पं. चिन्तामणि ? अकस्मात् एक रास्ता सूझा था। खाती तो उन्हीं की थाली में है परुली। क्यों न प्रतिदिन अपनी थाली में इतना अन्न अवशेष छोड़ दिया करें कि उस छोड़े गये अन्न और उसके अलग परोसे जाने वाले अन्न की मात्रा मिलाकर परुली के लिए पर्याप्त हो जाए। हाँऽ, बस यही एक मार्ग है...पं. चिन्तामणि ने राहत की साँस ली थी।
अगले दिन से इस पर अमल भी होना शुरू हो गया था। पं. चिन्तामणि अपनी थाली में कुछ न कुछ छोड़ जाते। माँ ने लगातार दो-तीन दिन ऐसा होते देखा तो भृकुटि तान ली। डपटते हुए पूछा, ‘‘ये क्या चिन्तामणि, तू थाली में खाना क्यों छोड़ जा रहा है आजकल ?’’
माँ के स्वर से वे सहमे। खुद का सँभालते बोले, ‘‘पता नहीं क्या हो गया है इन दिनों, भूख खुलकर नहीं लग रही है...।’’
ज्यादा देर वे वहाँ पर रुके नहीं। माँ की घूरती आँखों का या शायद उसके अगले सवाल का सामना करने की हिम्मत नहीं थी। पर संतोष हुआ कि अपनी ब्याहता के लिए जैसे भी हो, भरपेट भोजन की व्यवस्था कर पा रहे हैं। हालाँकि जानते थे, यह विधि भी ज्यादा दिन नहीं चल पाएगी...पर तभी उन्हें झटका लगा। उस दिन अचानक किसी बहाने रसोई में झाँकने चले गये थे। बहाना चाहे कुछ भी रहा हो पर मकसद यह जानना था कि उनकी पत्नी के भोजन की अब क्या स्थिति है। देखकर दंग रह गये।
माँ उनकी जूठी थाली को घूरते हुए कह रही थी, ‘‘खाना तो सभी कुछ बचा है तेरी थाली में...।’’ उसके बाद माँ ने उस ओर झाँका भी नहीं था। खुद के लिए परोसने में लग गयी थी।
वे हैरत से देखते रह गये थे यानी उसे अलग से कुछ और नहीं परोसा जा रहा था। परोसा भी जा रहा होगा तो शायद उसी अनुपात में जितना प्रतिदिन का कोटा निर्धारित था। नहीं, यह तो कोई बात नहीं हुई। यह तो अनाचार हुआ एक तरह से...घोर अनाचार। मन को सदमा-सा लगा। न वे खुद ढंग से खा पा रहे हैं, न पत्नी को ही भरपेट अन्न मिल पा रहा है। एक अजीब-सी विवशता में कसमसाकर रह गये थे।
उस दिन पड़ोस वाले गाँव से पूजा निपटाकर लौट रहे थे। पिता का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, सो उनको भेज दिया था। लौटते हुए रास्ते की दुकान में चाय पीने बैठ गये थे। तभी दुकान में रखे बिस्कुट के पैकेट पर नजर गयी थी। अनायास एक विचार कौंधा, क्यों न परुली के लिए एक बिस्कुट का पैकेट उठा ले जाएँ। मौका देखकर थमा देंगे उसे। घास-पानी के दौरान जहाँ कहीं मौका मिलेगा, खा लेगी बेचारी। अगले ही पल एक और विचार आया, ऐसा तो वह अकसर ही किया जा सकता है। होठों पर मुस्कारहट उभरी। उठते हुए एक बिस्कुट का पैकेट खरीद लिया और गाँव के रास्ते पर आगे बढ़ गये। पारुल दी गाँव की सीमा पर ही टकरा गयी। डलिया सिर पर धरे घास की खोज में निकली हुई थी। हालाँकि साथ में दो-चार घसियारिनें और भी थीं, तो झट से मौका ताड़ा और बिस्कुट का पैकेट उसकी हथेली पर धरते हुए फुसफुसाये, ‘‘खा लेना...’’
पारुल दी समझ नहीं पायी एकाएक कि यह क्या घटित हुआ है ? हक्की-बक्की-सी साथ की घसियारिनों के पीछे चलती रही। बिस्कुट के पैकेट को घबराकर डलिया में डाल लिया। दूसरों के सामने हाथ में कैसे रख सकती थी भला। खोद-खोदकर पूछेंगी सब। जाहिर है, खाने का सवाल भी नहीं था। बिस्कुट का वह पैकेट डलिया में ही पड़ा रह गया। सोच लिया पारुल दी ने घर जाकर डलिया खाली करते समय चुपके से आँचल में छुपा लेगी। फिर ट्रंक में रख देगी। रात को जब एकान्त मिलेगा तो पं. चिन्तामणि के साथ बाँटकर खायेगी।
पर विधि को शायद कुछ औऱ ही स्वीकार था। वह बिस्कुट का पैकेट जैसे अभिशाप बनकर आया। ऐसा होगा यह तो किसी की कल्पना में भी नहीं हो सकता था। उस दिन घास लेकर लौटी तो सास को इन्तजार करते पाया। घास की डलिया लेकर जानवरों के गोठ की ओर पलटी तो सास भी पीछे-पीछे थी। उसके सिर की टोकरी उतारनें में मदद करती हुई बोली, ‘‘अन्दर दो पाहुन बैठे हैं। तू जल्दी से दो गिलास चाय उबाल दे।...’’
पारुल दी हड़बड़ाई। कहना चाहा, ‘आप चलिए, मैं बस आ रही हूँ। पशुओं के आगे घास भी डाल देती हूँ...।’ पर कुछ कहने की नौबत ही नहीं आयी। सास ने पहले ही हुक्मनुमा अन्दाज में सुनाया था, ‘‘जानवरों को घास मैं दे दूँगी, तू सीधे रसोई में चली जा...।’’
पर बिस्कुट ? कुछ समझ नहीं पायी पारुल दी। धक्क से रह गयी। अब क्या होगा ? क्या करे वह ? फुरती से बिस्कुट का पैकेट निकाल कर आँचल में छुपा भी नहीं सकती थी। अणकस्स जैसी स्थिति हो आयी-न निगलते बनते थी, न उगलते। सारी देह पसीने में नहा उठी।
अन्ततः वही हुआ, जिसे नहीं होना चाहिए था। टोकरी से घास खाली करते समय सास के हाथ में वह बिस्कुट का पैकेट आ ही गया था। एक क्षण के लिए पैकेट हाथ में थामे वह ठिठकी खड़ी रह गयी...जस की तस, अगले ही पल ऐसे चिल्लाई जैसे कोई भुतहा चीज देख ली हो, ‘‘क्या है येऽ...क्याऽऽ...है ?’’
पारुल दी चुप...मानो गूँगी हो गयी हो। वाणी थी कि भीतर ही भीतर कहीं सूख गयी। होठों ने खुलने से मना कर दिया। उसकी डरी-सहमी हिरनी-सी आँखें झुक गयीं। क्या जवाब दे वह ? क्या कहे ? हालाँकि प्रश्न का उत्तर कतई कठिन नहीं था। कह सकती थी बिस्कुट का पैकेट है यह...पर शब्द तो तालू से चिपक गये थे।
‘‘कहाँ से आया यह ? किसने दिया तुझे ?’’ सास खूँखार सिंहनी में तब्दील होने लगी थी।
उत्तर इस प्रश्न का भी कठिन नहीं था। सीधे-सीधे यही तो कहना था कि यह उसके पति यानी उसके पुत्र पं. चिन्तामणि ने लाकर दिया है उसे। पर नहीं कह सकी। आँखें झुकी रहीं।
सास और प्रचण्ड हुई। सीधे-सीधे लांछन पर उतर आयी, ‘‘कौन यार पाल रखा है यहाँ गाँव में तूने ? कौन लाकर देता है यह तुझे ? बता कुलच्छनी...।’’
‘‘माँ जी...’’ तड़प उठी पारुल दी।
‘‘चुप हरामजादी...बेशुवा...पता नहीं कितने यार तो पाल रखे हैं तूने...। तूने तो नाक कटा दी हमारे कुल-वंश की। अभी करती हूँ मैं तेरा हिसाब किताब...’’
सास की तीव्र होती गर्जना सुनी तो भागे-भागे श्वसुर भी नीचे आ गये। चेहरे पर क्या हुआ का भाव था। दोनों अतिथियों ने भी उनका अनुसरण किया। कहीं से घूमते-घामते हाथ झुलाते पं.चिन्तामणि जोशी भी पहुँच गये थे तब तक।
‘‘क्या हुआ ? क्यों चीख रही हो ?’’ श्वसुर गोकुलानन्द जी ने क्रोध में अग्निपिण्ड बनी अपनी पत्नी की ओर देखते हुए पूछा।
पत्नी ने अपना सिर पीटा, ‘‘ होने को अब बचा ही क्या है ? सारे कुल-वंश की, हमारे पितरों की इज्जत डुबो दी है इस कुलच्छनी ने...यह हमारी बहू नहीं है, बेशुवा है यह...’’
‘‘चुप रह...’’ श्वसुर ने झिड़का, ‘‘ क्या अनाप-शनाप बक रही है...’’
‘‘मैं बक नहीं रह रही हूँ...’’ फुँफकारती नागिन की तरह सास का पूरा बदन लहराया, ‘‘ ये देखो, येऽ बिस्कुट का पैकेट। येऽ कौन दे गया है इसे जंगल में ? कौन है ऐसा इसका यार ? पता नहीं कब से चल रहा है यह सारा खेल ? कब से धूल झोंक रही है यह हमारी आँखों में ? पूछो इससे...पूछोऽ...’’
पारुल दी के भीतर जैसे सर्र से ब्लेड चली हो। वहां धार-धार लहू बहने लगा था। बीच बाखली का मकान था उनका। आसपास घरों के सारे लोग आकर जुड़ गये थे। एक तरह शोर मच उठा, फुसफुसाहटों का कोहराम सुनाई देने लगा। काश, यह सारी धरती फट जाती और वह पलक झपकते समा जाती उसमें !
इस दफा सास आगे बढ़ी। बालों से पकड़कर उसे झकझोरा, खींचा, अन्ततः जमीन में धकियाते हुए कहा, ‘‘बताती क्यों नहीं हरामजादी ? किसके साथ फूट रही थी तेरी यह जवानी ? कुलच्छनी...’’
सामने खड़े थे पं. चिन्तामणि। अपनी निरीह भयातुर आँखें उठाकर उस ओर देखा था पारुल दी ने, जैसे कहा हो-देख रहे सारे गाँव के सामने कैसे विष्ठा में लथपथ किया जा रहा है मुझे ? कुलच्छनी-वैश्या कहा जा रहा है। क्यों चुप हो तुम ? क्योंऽ...।
पर आश्चर्य, पं. चिन्तामणि ने अपनी आँखें झुका ली थीं।
‘‘देख रे चिन्तामणि, अपनी औरत के लक्षण...’’ सास के विस्फारित गुस्से ने पं. चिन्तामणि का हाथ खींचा था और उसे पारुल दी के रू-ब-रू खड़ा कर दिया था, ‘‘देख, गाँव में किसी और के साथ चल रही है इसकी सटपट। सारे कुल-वंश की नाक कटा दी इसने, इस दुराचारिणी ने।’’ सास ने अपना माथा पीटा।
चुप थे, पं. चिन्तामणि। पर पारुल दी सोच रही थी, कदाचित् अब शब्द फूटें उसके पति के श्रीमुख से...बिल्कुल अब... अगले ही पल कहें कि नहीं माँ, कतई लांछन न लगा इस पर। यह पैकेट तो मैंने दिया है इसे। सोचा, जंगल-खेत जाते हुए खा लेगी बेचारी, पर यह इतनी भोली-सीधी निकली कि इससे अकेले खाया भी नहीं जा सका। ले आयी वापस अपने ही साथ यह दुस्साहस कलंक सुनने के लिए...।
पर नहीं, पं. चिन्तामणि के पास मानों जुबान ही नहीं थी। उन्हें तो जैसे काठ मार गया था। एक बार फिर चुपचाप अपनी नजरें झुका लीं। निर्दोष पवित्र पत्नी को कलंक की विष्ठा में सनते देखते रहे।
सास ने एकबार फिर बालों को पकड़कर घसीटा। भीड़ के बीचोबीच ले आयी। चीखी, ‘‘सुन कलंकिनी ! इस घर में अब तेरे लिए कोई जगह नहीं है। अभी इसी वक्त निकल जा यहाँ से। इस खानदान में तुझ जैसी दुराचारिणी का अब एक पल को भी यहाँ रहना पाप है-महापाप। तू निकल यहाँ से, निकल...।’’
नहीं बोल पायी पारुल दी कुछ भी। आँसू भी नहीं निकले। शब्द भीतर ही भीतर कहीं सूखकर रेत हो गये थे। आश्चर्य तो था महज इतना कि ऐसे भदेस आरोपों से भरी सभा में अपमानित-लांछित होने के बावजूद भी प्राण देह में कैसे बने हुए थे। उसे खींचकर जो धक्का दिया सास ने तो वह धरती पर गिरी की गिरी रह गयी थी-बेजान।
सब ओर छीः-छीः, थू-थू की वर्षा होने लगी।
श्वसुर पं. गोकुलचन्द्र जी मूलतः शान्त स्वभाव के थे, पर उससे वे भी उत्तेजित हो उठे थे। पीड़ा भरे स्वर में बोले, ‘‘ऐसी दुराचारिणी निकलोगी तुम, यह तो कभी सोच भी नहीं सकता था। अब बहू कहते भी शर्म आ रही है। आज ही भेजता हूँ तेरे पिता के पास किसी को। ले जाएँ वे अपनी साध्वी को। नहींऽ, इस घर में अब तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है...’’ फैसला एक तरह से हो चुका था।
पिता के आने तक गोठ में ही पड़ी रही...
कभी-कभी सोचती है पारुल दी-लांछन व अपमान के घावों की असह्य पीड़ा सहती जानवरों के गोठ में पड़ी उस पूरी रात वह जीवित कैसे रह गयी ? क्यों रह गयी ? अगर स्वाभाविक मौत नहीं मर सकी, तो क्यों नहीं उसने गले में फंदा डालकर अपने को खत्म कर लिया ? आखिर क्या बचा रह गया था उसकी जिंदगी में ? जीवन भर के लिए कालिख तो पुत ही गया था उस पर। शेष जीवन इसी लांछन की कालिख लिए जीना था। फिर भी बची रह गयी थी वह।
पिता घबराए से दूसरे दिन ही आ गये। चेहरे पर हवाइयाँ थीं। वे बार-बार दोहरा रहे थे कि उनकी बेटी ऐसी हो ही नहीं सकती। दुनिया इधर से उधर हो जाए पृथ्वी अपनी धुरी पर उल्टा घूमना शुरू कर दे, सूर्य पश्चिम से निकल आये...पर उनकी पुत्री कोई भी ऐसा काम नहीं कर सकती जिससे पितृकुल या पतिकुल को कलंकित होना पड़े। नामुमकिन है यह...असम्भव, एकदम असम्भव। पारुल दी पर उनकी विश्वास अटल था।
गोठ में बेसुध पड़ी पारुल दी ने यह सुना। कल से अब तक लगातार सूखी आँखों ने अब गीला होना शुरू किया था। वे छलछलाती गयीं। फिर जो तीव्र रुलाई फूटी थी कि समूचा गोठ ही उसमें हिचकोले खाने लगा था।
पर पिता की बातें, उसका हृदय विदारक रुदन सब व्यर्थ सिद्ध हुआ। तूफान में बहते तिनके की तरह कुछ भी नहीं ठहर सका। सास ने पिता को खरी-खोटी सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनके पूरे कुलवंश का श्राद्ध कर डाला था। श्वसुर दो टूक शब्दों में बोले, ‘‘ आप ले जाइये अपनी पुत्री को। दूसरा कोई मार्ग नहीं है...’’
पिता फिर भी मनाते रहे, गिड़गिड़ाते रहे। दामाद पं. चिन्तामणि के आगे भी हाथ जोड़े। पर चिन्तामणि पुरुष था ही कहाँ ? कापुरुष था वह...निर्वीर्य...क्लीव। जवान होते हुए भी माँ के पल्लू से बँधा मन्दबुद्धि मानुष। अन्ततः पिता हार गये। गोठ का द्वार खोलकर उसके निकट आये। रोने लगे उसकी दुर्दशा देखकर। इतनी प्रताड़ना, ऐसा लांछन...सारे गाँव के सामने कलंकित किया उनकी पुत्री को। थके पिता के भीतर आक्रोश फूटा, ‘‘ ले जाता हूँ अपनी पुत्री को मैं, अभी, आज ही। मैंने ब्याहा ही इसे राक्षसों में था। अच्छा हुआ, मुक्त हुई वह इन राक्षसों से। धरती कभी कलंकित नहीं होती, हो ही नहीं सकती। कलंकित तो वे स्वयं होते हैं जो धरती को कलंकित करने का प्रयास करते हैं। उठ परुली...चल पुत्री, छोड़ते हैं इस-द्वार को...थूकते हैं इस अमानुषों की देहरी पर...’’
किस ठाट-बाट, किस उत्साह-उमंग से पिता-घर से विदा होकर पति-गृह को गयी थी एक दिन। और वापिस लौटी थी तो जैसे मृतप्राय होकर...।
लौटी हुई पारुल दी को देखा तो मैं सन्न रह गया। क्या थी और क्या हो गयी पारुल दी ! वह पारुल दी जो कभी पहाड़ी प्रपात की तरह थी, एकदम सूखी धार में बदल गयी थी। सबसे पहले ताऊ उबरे। पारुल दी को समझाना शुरू किया था, नहीं परुली, तू कुछ भी नहीं बताएगी तो भी मैं जानता हूँ, तू निर्दोष है। तूने कुछ नहीं किया। तू ऐसा कुछ कर ही नहीं सकती। पर इससे उबरना होगा पुत्री। जिन्दगी वहीं पर खत्म नहीं हो गयी। जिन्दगी का तो बहुत विस्तार है। दूर-दूर तक बाँहें फैलायी रहती है जिन्दगी। उठ, चैतन्य कर अपने को। सबके बीच उठ-बैठ, हँस- बोल। हो सके तो अपनी व्यथा बाँट। मन का बोझ हल्का हो जाएगा...’’ पर पारुल दी पर बहुत फर्क नहीं पड़ा। एकदम निस्पन्द थी वह। स्थिर...निर्वाक...निर्भाव...। मायके के इस गाँव को भी पता चल ही गया था कि पारुल दी को निष्कासित कर दिया है उसके ससुरालियों ने। कहते हैं कि वहाँ पर किसी पुरुष से सटपट हो गयी थी उसकी। अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय। पर ज्यादातर लोगों का यही सोचना था कि ऐसी नहीं है परुली...यह झूठा आक्षेप है उस पर। लेकिन कुछ दूसरी तरफ भी फुसफुसाते-क्या पता ? यह औरत-मर्द का मामला होता ही बड़ी विचित्र है, पता नहीं, कब, किसका, कहाँ पैर रपट जाये। उस पर औरत जात का क्या भरोसा, वोऽ कहा या है न-तिरिया चरित्तर...
वह ऐसा दौर था जब पारुल दी को मेरी सख्त जरूरत थी। घर के दूसरे सदस्य भी इस बात को समझ रहे थे। सबको पता था कि मुझमें और पारुल दी में कितनी छनती है। सो एक तरह से पारुल दी को सहज सामान्य बनाने की जिम्मेदारी मुझ पर आ गयी थी। मेरा ज्यादातर समय अब पारुल दी के साथ गुजरने लगा था। मैं उसे भरसक समझाने-बुझाने का प्रयास करता, इधर-उधर
पर सदा ऐसी नहीं थी पारुल दी....
यह पारुल नाम मेरा ही दिया हुआ है। घर ने नाम दिया था परुली-ठेठ देशज, ग्रामीण नाम। गाँवभर में वह इसी नाम से जानी-पुकारी जाती है। पारुल दी तो मैं कहता हूँ...सिर्फ मैं जो उम्र में थोड़ा ही छोटा हूँ, उसका चचेरा भाई। मेरे प्रति वह सदैव बहुत आत्मीय रही है, बल्कि कहना चाहिए कि पूरे घर-परिवार में मैं ही उसके सर्वाधिक निकट हूँ-उसका दोस्त। जो बातें वह किसी से नहीं कह सकती, मुझसे कहती है। मन की गाँठें सदैव मेरे सामने ही खोली हैं। मैं पढ़ता-लिखता ज्यों-ज्यों ऊँची कक्षा में पहुँचता गया, मेरे परिष्कृत होते संस्कार को यह परुली नाम कुछ ठीक नहीं लगा था। मैंने एक दिन उसका नाम संशोधित कर दिया, ‘‘अब से तुम्हारा नाम पारुल होगा... मैं तुम्हें पारुल दी ही कहूँगा...।’’
मैंने उसी दिन से उसे पारुल दी ही कहना शुरू कर दिया था।
पारुल दी को सुन्दर, बहुत सुन्दर कहना कतई अतिशयोक्ति नहीं थी। गाँव में सभी कहते, बहुत फुरसत से बनाया है ईश्वर ने परुली को- बड़े मनोयोग से। नख-शिख पर्यन्त सब कुछ निश्चित साँचे में गढ़ा-ढला था। चम्पई गौरवर्ण, सुतवाँ नाक। खूबसूरत और भावप्रवण आँखें, गुलाबी आभा से युक्त कपोल, चमकीले केश, मोती-सी सजी दन्तावली। स्वर भी बहुत मीठा था...एक-एक शब्द जैसे शहद में घुला हुआ हो। जितनी उज्वलता बाहर थी, उससे कहीं ज्यादा भीतर। अपरूप अन्तरघट...
परिवार में पाँच भाई-बहनों में वह सबसे बड़ी थी, पर अपने सगे भाई-बहनों से भी ज्यादा मुझे मानती। छोटा होते हुए भी एक तरह से मैं उसका समवयस्क जैसा ही था। हमारे सुर भी बहुत मिलते थे, सो मुझसे खूब छनती। बड़ी होने के नाते बचपन से ही उस पर ढेर सारे दायित्व आ गये थे। छोटे भाई-बहनों की देख-भाल से लेकर बाहर-भीतर के कई सारे काम देखने पड़ते। गलती किसी की भी क्यों न हो, डाँट उसी के हिस्से होती। मैं कभी-कभी झींकता भी, ‘‘ये क्या पारुल दी, तुम सब कुछ चुपचाप क्यों सहती हो ? विरोध क्यों नहीं करती ? बोलती क्यों नहीं ? ईश्वर ने तुम्हें भी तो जुबान दी है...’’
पारुल दी सुनती और मुस्करा देती। कहती, ‘‘किससे विरोध करूँ ? सभी तो अपने हैं। अपने ही ईजा-बाबू, अपने ही भाई-बहन।’’
‘‘वो तो ठीक है...’’ बात मेरे गले नहीं उतरती। ‘‘पर जो बातें गलत होती हैं उनका विरोध करना ही चाहिए। नहीं क्या ?’’
‘‘पता नहीं...’’ पारुल दी गम्भीर हो जाती, ‘‘तू ठैरा पढ़ने-लिखनेवाला आदमी, शायद ठीक ही कहता होगा। पर मैं दूसरी तरह से सोचती हूँ। सबसे बड़ी हूँ तो ये सब तो मुझे झेलना ही चाहिए, करना ही चाहिए।...’’
मैं खीज उठता। पर वह मेरी खीझ से लापरवाह रहती, अविचलित। उम्र के कच्चे दौर से ही मैं उसके स्वभाव में एक तरह की गम्भीरता देखने लगा था। अक्सर ही गम्भीर बनी रहती थी....बातें भी समझदारी-भरी करती। पर मन के कपाट का थोड़ा-सा हिस्सा भी खोलना हो तो तत्काल मेरी खोज शुरू हो जाती। फिर अकेले किसी कोने में बैठकर हमारी बातें जमतीं। हालाँकि अकेले बैठने के अवसर पारुल दी को कम ही मिलते थे। बीच में ही पुकार सुनाई दे जाती थी, ‘‘कहाँ चली गयी रेऽ परुली ? देख तो ये कब से रो रहा है। जरा इसे पकड़ तो...’’ पारुल दी मन मसोसती हुई उठती। ये उठी और वो गयी। बातें अधूरी ही रह जातीं।
स्कूल जाने का मौका पारुल दी को कभी नहीं मिला, हालाँकि वह दिमाग की तेज थी। चीजों को समझने और जरूरत पड़ने पर विश्लेषण की झमता मानों ईश्वर-प्रदत्त हो। कई बार मुझे भी चुप करा देती। मैं दंग रह जाता। सोचता की ऐसी बुद्धि कहाँ से पायी पारुल दी ने ? वह अद्भुत थी। यह अलग बात है कि उसे फलने-फूलने का अवसर नहीं मिला।
इण्टर के बाद जब मैं आगे की पढ़ाई के लिए शहर चला गया तो पारुल दी से सिर्फ छुट्टियों में मुलाकात होती। तब तक उसके पास बातों का खजाना इकट्ठा हुआ रहता। वह बोलती जाती थी, जैसे बातों का असमाप्त बहाव हो-एक अन्तहीन नदी। मैं भी उसके साथ जंगल-खेत चल देता। जंगल में घास काटते या खेत में गोड़ाई करते हुए वह बहुत-सी बातें कहती-बताती। तमाम तरह के सवाल पूछती। मेरे लिए छिपाकर बचाए हुए अखरोट व चिउड़ा आँचल से निकालकर मुझे देती। मैं कहता, ‘‘ये क्या पारुल दी ? मेरा हिस्सा तो रखा हुआ था दादी ने।’’
‘‘तो क्या हुआ...यह तो मैंने अपने हिस्से से बचाकर रखा है।’’ वह मुस्कराती आँखों से मुझे देखती। उसके चेहरे पर लाड़ उभर आता, ‘‘चल, चलते हैं। घास की टोकरी भर गयी है...मेरे सिर पर रख।’’ हम लौटने लगते। मैं अचानक प्रस्ताव करता, ‘‘पारुल दी, सोच रहा हूँ, इस बार जाड़ों में तुम्हें पढ़ना-लिखना सिखाऊँ। कैसा ?’’
‘‘ठीक...।’’ वह चहक उठती।
जाड़ों की छुट्टियाँ आती और बीत जातीं। चीजें सब यथावत रहतीं-वहीं की वहीं, जस की तस। पारुल दी के पास न फुर्सत होती, न पढ़ाई का सिलसिला चल पाता। एकाधिक बार हाथ का काम छुड़वाकर जबरदस्ती बैठाने की कोशिश की भी तो मुझे ही डाँट पड़ गयी, ‘‘क्यों, उसे भी अपनी तरह निठल्ला बनाने का इरादा है क्या ? अरे, उसके काम यह स्लेट-पाठी नहीं आयेगी, घर-बार का कामकाज आयेगा।...’’ स्वर दादी का था, पर पारुल दी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह वैसी ही थी-शान्त, सौम्य, जैसे झिड़की उसे नहीं, सामने की दीवारों को मिली हो।
उन्नीस साल की होते-होते पारुल दी के विवाह की चर्चाएँ चलने लगी थीं। तेजी से घर-वर की तलाश शुरू हो गयी। दो रोटी खाने वाला ठीक-ठाक-सा अपने ही स्तर के कुलवंश का कोई जमाता मिल जाए तो धन्य हो उठे घर। पर मेरे हिसाब से अभी यह जल्दी था। हालाँकि उस बड़े कुनबे में मुझ जैसे कम उम्र के सदस्य की राय कोई अहमियत नहीं रखती थी। होगा वही जो बड़े चाहेंगे। फिर भी मैंने बहुत दबी जबान से अपना विरोध माँ व ताई के सामने रखा था। दोनों ने मेरी बात को मुस्कराहट में टाल दिया। उल्टे माँ बोली थी, ‘‘पता है, मेरा विवाह किस उम्र में हो गया था ? कुल तेरह की थी तब मैं...।’’
‘‘और मैं बारह की।’’ ताई बोली।
मुझे लगा, किसी के सामने भी कुछ कहना बेकार है। अर्थहीन। यह सोचकर बुरा लगता कि पारुल दी चली जाएँगी यहाँ से, इस घर से। अपने अकेले हो जाने के बोध से सिहरन-सी होती। सच में, पारुल दी के बिना कैसे रह पाऊँगा मैं ? कभी मैं पारुल दी के करीब बैठा सलाह दे रहा होता, ‘‘तुम शादी के लिए मना कर देना, पारुल दी। साफ-साफ कह देना कि मुझे नहीं करनी है शादी अभी।...’’
पारुल दी अपनी बड़ी-बड़ी आँखें उठाकर मुझपर टिका देतीं। पूछती, इससे क्या हो जायेगा ?’’
‘‘क्या हो जायेगा माने ?’’ यह मेरे तैश में आने की बारी थी, ‘‘जैसा तुम चाहोगी, वैसा होगा। तुम्हारी मरजी के खिलाफ कोई तुम्हारी शादी कैसे कर सकता है, बोलो...?’’
पारुल दी मौन हो गयी। एकदम चुप। मैं पारुल दी के इस मौन पर खिन्न हो उठा। कहा, ‘‘समझ गया, सब समझ गया। तुम खुद ही जल्दी-जल्दी शादी रचाकर भागना चाहती हो यहाँ से...’’ मेरे स्वर में उलाहना का भाव था।
पारुल दी जैसे भरभरा गयी थी, ‘‘ये कैसी बात कर रहा है, आशी तू ? पर सच्चाई तो यही है भैयू कि हम लड़कियों को जाना ही होता है। हम जहाँ जन्म लेती हैं, पलती-बढ़ती हैं, वह हमारा घर नहीं होता। वहाँ हम किसी और घर की धरोहर के रूप में पलती हैं। हमें तो जहाँ जैसे और जब बाँध दिया, चुपचाप बँध जाना ठैरा...’’
मैं बुरी तरह खीज गया था। कैसी दकियानूसी बकवास है यह ! फिर सोचा, जो लड़की भूखे होने पर अपने लिए खाना नहीं माँग सकती, प्यासी होने पर पानी की फरमाइ नहीं कर सकती, डरती- सकुचाती है, उससे इतनी बड़ी बात की उम्मीद कैसे कर सकता हूँ मैं ? लगता ही नहीं कि उसके पास अपनी जुबान हो। हर बात को चुपचाप स्वीकार कर लेना, सह लेना उसका प्रकृत स्वभाव था। कभी-कभी लगता, उसका यह स्वभाव उसके खुद के लिए ही दुःख का कारण न बन जाए।
अन्ततः एक दिन सुना, पारुल दी का विवाह तय हो गया है।
वह वैशाख का महीना था। पहाड़ों में भी गर्मी शुरू हो गयी थी। प्रकृति इन दिनों मनोरम थी। आड़ू, खुबानी, पूलम में फल आने लगे थे। मैं इण्टर बोर्ड की परीक्षाएँ समाप्त कर गाँव पहुँचा तो देखता हूँ, घर में अलग तरह की गहमागहमी है। एक पल के लिए समझ में नहीं आया कि क्या बात है आखिर ? माँ से पूछा तो वह मुस्करायी, ‘‘परुली की शादी तय हो गयी है। अगले हफ्ते की बारात है।...’’
परीक्षा निपटाने की जो खुशी थी वह काफूर हो गयी। मैं उदास हो आया, निपट उदास।
माँ से पता चला, यहाँ से कोई बीस कोस अन्दर की ओर लड़के वालों का गाँव है। गाड़ी सड़क से लगभग छः मील पैदल जाना पड़ता है। लड़के का नाम चिन्तामणि है-पं. चिन्तामणि। गाँव की अपनी खेती सँभालने के अलावा यजमान वृत्ति में अपने पिता का हाथ बँटाता है।
‘‘यजमानी ?’’ मैंने बुरा-सा मुँह बनाया। आँखों के सामने घुटनों तक धोती पहने, कुरता लादे, चन्दन-टीका लगाये, चुटियाधारी व्यक्ति का चित्र घूम गया। तो क्या ऐसे के पल्ले बँध रही है पारुल दी ?
माँ हँसी, ‘‘और कैसा लड़का मिलता रे परुली को ?’’ मुझे माँ पर गुस्सा आया। क्या खराबी है अपनी पारुल दी में ? पर किससे कहता ! मेरा मन दूसरी बार उदास हुआ था। विवाह होने तक मैं पारुल दी से कटता रहा विवाह के दिन देखा तो आश्चर्य नहीं हुआ। पारुल दी का दूल्हा ठीक वैसा ही था जैसा मेरी आँखों ने कल्पित किया था। मन में कसक-सी उठी, पर क्या कर सकता था मैं ? विवाह के बाद विदा होकर जाती पारुल दी को सभी से लिपटकर रोता देखता रहा। कैसा रुदन था वह ? मुझसे लिपटी तो जैसे सारा बाँध ही टूट पड़ा। आँसुओं की धारासार झड़ी लग गयी थी।
विवाह के बाद पारुल दी सिर्फ एक दिन के लिए आयी थी-अपने पं. चिन्तामणि के साथ। लेकिन इस एक दिन में वह इस तरह घिरी रही कि मुझसे उसकी कोई बात नहीं हो सकी। फिर बाद में उसका आना न हुआ। मैं भी शहर जाकर अपनी आगे की पढ़ाई में व्यस्त हो गया। गाँव जब भी आता, सबसे पहले पारुल दी के बारे में ही पूछता। पता चलता, पारुल दी ठीक है, मजे में। पारुल दी के बिना सारा गाँव ही खाली-खाली लगता था, वीरान...
तभी कोई सालभर बाद पारुल दी का आना हुआ था। पर दरअसल यह पारुल दी का आना नहीं, वापस लौटना था-एकदम तिरस्कृत, अपमानित और प्रताड़ित। जिसने भी देखा, अवाक् देखता ही रह गया। मुँह खुला का खुला, अचम्भित। तो क्या यह वही परुली है-किशनानन्दज्यू की पुत्री परुली ? नहीं; यहाँ तो कोई साम्य ही नहीं था, रंचमात्र भी नहीं। मैंने पीड़ा भरी कराह के साथ आँखें मूँद ली थीं। यह सच में क्या हो गया था पारुल दी को ? कोटरों में धँसी आँखों वाली एक कंकाल मात्र रह गयी थी वह...हड्डियों का स्पष्ट ढाँचा भर। कोई देखे तो कैसे पहचाने ?
पूरे घर में कटखना सन्नाटा उतर आया था-मानो जीती-जागती पारुल दी के न होने का मातम छा गया हो। कहीं कोई आवाज नहीं, कोई संवाद नहीं-सिर्फ स्तब्धता। एक रात तो चूल्हा भी नहीं जला था। सब के सब जहाँ के तहाँ जड़ हो गये थे। ऐसा नजारा बच्चों के लिए बड़ा खौफनाक था। बच्चे कुछ समझ नहीं पा रहे थे। डरे-डरे एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। वातावरण व परिवेश का विचित्र प्रभाव होता है-मनुष्य के बच्चे तो क्या, पशु भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते।
हफ्ता बीतते-बीतते थोड़ी सहजता लौटी थी। जिन्दगी लंबे समय तक उदास रह भी नहीं सकती। उसे तो चलना और जीना ही है-ठहराव उसकी नियति नहीं है, एक क्षण के लिए भी नहीं।
पर पारुल दी ? पारुल दी तो जैसे भूमिगत हो गयी थी। कहीं दिखाई नहीं पड़ती। मेरी भी हिम्मत नहीं होती थी कि उसे खोजूँ, उससे बतिया सकूँ। कोटरों में धँसी आँखों वाली उस कंकाल का सामना करने का मुझमें साहस नहीं था। मैं खुद भी बच रहा था-लगातार, कई-कई दिनों तक...
बड़ा विचित्र ससुराल निकला पारुद दी का-परम्परा में एकदम ढीठ और हद दरजे का रूढ़िवादी। हालाँकि श्वशुर अपेक्षाकृत उदार थे, पर उस घर में वे चलन में थे भी कहाँ ? एकदम खोटे सिक्के घोषित थे। चलन में तो एक मात्र सास थी जिसके आगे सब बौने थे। पं. चिन्तामणि की हैसियत भी वहाँ खास नहीं थी-जिधर हाँक दिया, जैसे हाँक दिया, बस चल दिए। माँ के सामने वे वैसे भी पूरी तरह मौन होते, गूँगे की तरह। सुना और आदेश की तरह सिर हिला दिया।...
पं.चिन्तामणि को एक दिन लगा, उनकी पत्नी के चेहरे की चमक लुप्त हो रही है। शरीर से भी ज्यादा दुर्बल महसूस होने लगी है। ब्याह को अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ था मुश्किल से चार माह हुए थे। इन चार माहों में ही वह क्यों इतनी कमजोर लगने लगी है ? क्या वजह हो सकती है ? एक अन्तरंग क्षण में फुसफुसाकर जानना भी चाहा, पर पारुल दी की ओर से कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिला। फिर वे भी भूल गये। पत्नी के लिए उनके पास ज्यादा लम्हे होते भी नहीं थे।
तभी अचानक लगा, पत्नी को शायद भरपेट आहार नहीं मिल रहा है। उस दिन उन्होंने अकस्मात्...एकदम अचानक लक्ष्य किया कि जैसे ही वे भोजन करके उठते हैं, दूसरी दिशा में निकल जाते हैं, तब कहीं जाकर उनकी जूठी थाली में पत्नी के लिए भोजन परोसा जाता है। पर वह इतना कम होता है, इतना नाममात्र का कि उसमें कैसे किसी का पेट भर सकता है ? एक बार में उतना परोसने के बाद दोबारा फिर कुछ नहीं मिलता। पूछा भी नहीं जाता। चिन्तामणि ने उस बार गौर किया, ध्यान से देखा भी-महज एक रोटी और नाममात्र को चावल रखा गया था उसकी थाली में। इतने से क्या होता होगा इस बेचारी का, वे सोचते रह गये। दिनभर की हाड़-तोड़ मेहनत हुई...बल्कि सारा कामकाज उसी के माथे पर डाल दिया गया था...अलस्सुबह से रात तक। और ऊपर से चिड़ियों जैसा भोजन। रात को भी मात्र दो ही रोटियाँ मिल रही थीं। पं. चिन्तामणि को हालाँकि यह तो लगा कि यह उचित नहीं है, अनाचार है एक तरह से, पर माँ से कुछ कह सकें, ऐसा साहस उनमें था ही कहाँ ? हाँ, इतना जरूर था कि एकाधिक बार पारुल दी के भोजन के वक्त उन्होंने किसी-न-किसी बहाने रसोई में झाँकने की कोशिश की थी। कदाचित् माँ को यह अहसास दिलाना चाहते थे कि वे देख रहे हैं, उनसे कुछ छुपा नहीं है, पर माँ ने भी एक दिन ऐसी जबरदस्त झाड़ पिलायी थी कि सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी थी। चिल्लाकर बोली थी, ‘‘अब यहाँ क्या कर रहा है तू ? कोई काम नहीं है तो बाहर जाकर बैठ। भूखी नहीं मर रही है तेरी जोरू...’’
दुम दबाकर भाग तो जरूर आये थे पं. चिन्तामणि, पर कहीं सोच में भी डूब गये थे। पत्नी के प्रति मोह भी जागा था। ब्याह कर लाये तो कैसी गुलाब की खिली कली-सरीखी थी, और अब ? क्यों करती है माँ ऐसा ? क्यों भरपेट भोजन नहीं देती ? सोचकर ही अजीब लगा था। बेचारी को देखो, सुबह से रात तक लगातार काम में लगी रहती है। कतई शिकायत नहीं, कोई मनाही नहीं स्वभाव की भी कितनी शिष्ट व सुशील है। रात बिस्तर पर आती है तो आँखें नींद से बोझिल रहती हैं, शरीर थककर चूर। देखकर माँ पर गुस्सा आता है, पर कर कुछ नहीं पाते, खुद को एकदम विवश व लाचार पाते हैं। सोचने लगे पं. चिन्तामणि कि क्या करें, कैसे अपनी ब्याहता के लिए भोजन की समुचित व्यवस्था करें ? माँ से कुछ कहने का प्रश्न ही नहीं था। रह गये पिता तो उनकी हालत और भी बदतर थी। बाकी बचे बाद के भाई-बहनों की कोई भूमिका ही नहीं बनती थी। सो, क्या करें पं. चिन्तामणि ? अकस्मात् एक रास्ता सूझा था। खाती तो उन्हीं की थाली में है परुली। क्यों न प्रतिदिन अपनी थाली में इतना अन्न अवशेष छोड़ दिया करें कि उस छोड़े गये अन्न और उसके अलग परोसे जाने वाले अन्न की मात्रा मिलाकर परुली के लिए पर्याप्त हो जाए। हाँऽ, बस यही एक मार्ग है...पं. चिन्तामणि ने राहत की साँस ली थी।
अगले दिन से इस पर अमल भी होना शुरू हो गया था। पं. चिन्तामणि अपनी थाली में कुछ न कुछ छोड़ जाते। माँ ने लगातार दो-तीन दिन ऐसा होते देखा तो भृकुटि तान ली। डपटते हुए पूछा, ‘‘ये क्या चिन्तामणि, तू थाली में खाना क्यों छोड़ जा रहा है आजकल ?’’
माँ के स्वर से वे सहमे। खुद का सँभालते बोले, ‘‘पता नहीं क्या हो गया है इन दिनों, भूख खुलकर नहीं लग रही है...।’’
ज्यादा देर वे वहाँ पर रुके नहीं। माँ की घूरती आँखों का या शायद उसके अगले सवाल का सामना करने की हिम्मत नहीं थी। पर संतोष हुआ कि अपनी ब्याहता के लिए जैसे भी हो, भरपेट भोजन की व्यवस्था कर पा रहे हैं। हालाँकि जानते थे, यह विधि भी ज्यादा दिन नहीं चल पाएगी...पर तभी उन्हें झटका लगा। उस दिन अचानक किसी बहाने रसोई में झाँकने चले गये थे। बहाना चाहे कुछ भी रहा हो पर मकसद यह जानना था कि उनकी पत्नी के भोजन की अब क्या स्थिति है। देखकर दंग रह गये।
माँ उनकी जूठी थाली को घूरते हुए कह रही थी, ‘‘खाना तो सभी कुछ बचा है तेरी थाली में...।’’ उसके बाद माँ ने उस ओर झाँका भी नहीं था। खुद के लिए परोसने में लग गयी थी।
वे हैरत से देखते रह गये थे यानी उसे अलग से कुछ और नहीं परोसा जा रहा था। परोसा भी जा रहा होगा तो शायद उसी अनुपात में जितना प्रतिदिन का कोटा निर्धारित था। नहीं, यह तो कोई बात नहीं हुई। यह तो अनाचार हुआ एक तरह से...घोर अनाचार। मन को सदमा-सा लगा। न वे खुद ढंग से खा पा रहे हैं, न पत्नी को ही भरपेट अन्न मिल पा रहा है। एक अजीब-सी विवशता में कसमसाकर रह गये थे।
उस दिन पड़ोस वाले गाँव से पूजा निपटाकर लौट रहे थे। पिता का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, सो उनको भेज दिया था। लौटते हुए रास्ते की दुकान में चाय पीने बैठ गये थे। तभी दुकान में रखे बिस्कुट के पैकेट पर नजर गयी थी। अनायास एक विचार कौंधा, क्यों न परुली के लिए एक बिस्कुट का पैकेट उठा ले जाएँ। मौका देखकर थमा देंगे उसे। घास-पानी के दौरान जहाँ कहीं मौका मिलेगा, खा लेगी बेचारी। अगले ही पल एक और विचार आया, ऐसा तो वह अकसर ही किया जा सकता है। होठों पर मुस्कारहट उभरी। उठते हुए एक बिस्कुट का पैकेट खरीद लिया और गाँव के रास्ते पर आगे बढ़ गये। पारुल दी गाँव की सीमा पर ही टकरा गयी। डलिया सिर पर धरे घास की खोज में निकली हुई थी। हालाँकि साथ में दो-चार घसियारिनें और भी थीं, तो झट से मौका ताड़ा और बिस्कुट का पैकेट उसकी हथेली पर धरते हुए फुसफुसाये, ‘‘खा लेना...’’
पारुल दी समझ नहीं पायी एकाएक कि यह क्या घटित हुआ है ? हक्की-बक्की-सी साथ की घसियारिनों के पीछे चलती रही। बिस्कुट के पैकेट को घबराकर डलिया में डाल लिया। दूसरों के सामने हाथ में कैसे रख सकती थी भला। खोद-खोदकर पूछेंगी सब। जाहिर है, खाने का सवाल भी नहीं था। बिस्कुट का वह पैकेट डलिया में ही पड़ा रह गया। सोच लिया पारुल दी ने घर जाकर डलिया खाली करते समय चुपके से आँचल में छुपा लेगी। फिर ट्रंक में रख देगी। रात को जब एकान्त मिलेगा तो पं. चिन्तामणि के साथ बाँटकर खायेगी।
पर विधि को शायद कुछ औऱ ही स्वीकार था। वह बिस्कुट का पैकेट जैसे अभिशाप बनकर आया। ऐसा होगा यह तो किसी की कल्पना में भी नहीं हो सकता था। उस दिन घास लेकर लौटी तो सास को इन्तजार करते पाया। घास की डलिया लेकर जानवरों के गोठ की ओर पलटी तो सास भी पीछे-पीछे थी। उसके सिर की टोकरी उतारनें में मदद करती हुई बोली, ‘‘अन्दर दो पाहुन बैठे हैं। तू जल्दी से दो गिलास चाय उबाल दे।...’’
पारुल दी हड़बड़ाई। कहना चाहा, ‘आप चलिए, मैं बस आ रही हूँ। पशुओं के आगे घास भी डाल देती हूँ...।’ पर कुछ कहने की नौबत ही नहीं आयी। सास ने पहले ही हुक्मनुमा अन्दाज में सुनाया था, ‘‘जानवरों को घास मैं दे दूँगी, तू सीधे रसोई में चली जा...।’’
पर बिस्कुट ? कुछ समझ नहीं पायी पारुल दी। धक्क से रह गयी। अब क्या होगा ? क्या करे वह ? फुरती से बिस्कुट का पैकेट निकाल कर आँचल में छुपा भी नहीं सकती थी। अणकस्स जैसी स्थिति हो आयी-न निगलते बनते थी, न उगलते। सारी देह पसीने में नहा उठी।
अन्ततः वही हुआ, जिसे नहीं होना चाहिए था। टोकरी से घास खाली करते समय सास के हाथ में वह बिस्कुट का पैकेट आ ही गया था। एक क्षण के लिए पैकेट हाथ में थामे वह ठिठकी खड़ी रह गयी...जस की तस, अगले ही पल ऐसे चिल्लाई जैसे कोई भुतहा चीज देख ली हो, ‘‘क्या है येऽ...क्याऽऽ...है ?’’
पारुल दी चुप...मानो गूँगी हो गयी हो। वाणी थी कि भीतर ही भीतर कहीं सूख गयी। होठों ने खुलने से मना कर दिया। उसकी डरी-सहमी हिरनी-सी आँखें झुक गयीं। क्या जवाब दे वह ? क्या कहे ? हालाँकि प्रश्न का उत्तर कतई कठिन नहीं था। कह सकती थी बिस्कुट का पैकेट है यह...पर शब्द तो तालू से चिपक गये थे।
‘‘कहाँ से आया यह ? किसने दिया तुझे ?’’ सास खूँखार सिंहनी में तब्दील होने लगी थी।
उत्तर इस प्रश्न का भी कठिन नहीं था। सीधे-सीधे यही तो कहना था कि यह उसके पति यानी उसके पुत्र पं. चिन्तामणि ने लाकर दिया है उसे। पर नहीं कह सकी। आँखें झुकी रहीं।
सास और प्रचण्ड हुई। सीधे-सीधे लांछन पर उतर आयी, ‘‘कौन यार पाल रखा है यहाँ गाँव में तूने ? कौन लाकर देता है यह तुझे ? बता कुलच्छनी...।’’
‘‘माँ जी...’’ तड़प उठी पारुल दी।
‘‘चुप हरामजादी...बेशुवा...पता नहीं कितने यार तो पाल रखे हैं तूने...। तूने तो नाक कटा दी हमारे कुल-वंश की। अभी करती हूँ मैं तेरा हिसाब किताब...’’
सास की तीव्र होती गर्जना सुनी तो भागे-भागे श्वसुर भी नीचे आ गये। चेहरे पर क्या हुआ का भाव था। दोनों अतिथियों ने भी उनका अनुसरण किया। कहीं से घूमते-घामते हाथ झुलाते पं.चिन्तामणि जोशी भी पहुँच गये थे तब तक।
‘‘क्या हुआ ? क्यों चीख रही हो ?’’ श्वसुर गोकुलानन्द जी ने क्रोध में अग्निपिण्ड बनी अपनी पत्नी की ओर देखते हुए पूछा।
पत्नी ने अपना सिर पीटा, ‘‘ होने को अब बचा ही क्या है ? सारे कुल-वंश की, हमारे पितरों की इज्जत डुबो दी है इस कुलच्छनी ने...यह हमारी बहू नहीं है, बेशुवा है यह...’’
‘‘चुप रह...’’ श्वसुर ने झिड़का, ‘‘ क्या अनाप-शनाप बक रही है...’’
‘‘मैं बक नहीं रह रही हूँ...’’ फुँफकारती नागिन की तरह सास का पूरा बदन लहराया, ‘‘ ये देखो, येऽ बिस्कुट का पैकेट। येऽ कौन दे गया है इसे जंगल में ? कौन है ऐसा इसका यार ? पता नहीं कब से चल रहा है यह सारा खेल ? कब से धूल झोंक रही है यह हमारी आँखों में ? पूछो इससे...पूछोऽ...’’
पारुल दी के भीतर जैसे सर्र से ब्लेड चली हो। वहां धार-धार लहू बहने लगा था। बीच बाखली का मकान था उनका। आसपास घरों के सारे लोग आकर जुड़ गये थे। एक तरह शोर मच उठा, फुसफुसाहटों का कोहराम सुनाई देने लगा। काश, यह सारी धरती फट जाती और वह पलक झपकते समा जाती उसमें !
इस दफा सास आगे बढ़ी। बालों से पकड़कर उसे झकझोरा, खींचा, अन्ततः जमीन में धकियाते हुए कहा, ‘‘बताती क्यों नहीं हरामजादी ? किसके साथ फूट रही थी तेरी यह जवानी ? कुलच्छनी...’’
सामने खड़े थे पं. चिन्तामणि। अपनी निरीह भयातुर आँखें उठाकर उस ओर देखा था पारुल दी ने, जैसे कहा हो-देख रहे सारे गाँव के सामने कैसे विष्ठा में लथपथ किया जा रहा है मुझे ? कुलच्छनी-वैश्या कहा जा रहा है। क्यों चुप हो तुम ? क्योंऽ...।
पर आश्चर्य, पं. चिन्तामणि ने अपनी आँखें झुका ली थीं।
‘‘देख रे चिन्तामणि, अपनी औरत के लक्षण...’’ सास के विस्फारित गुस्से ने पं. चिन्तामणि का हाथ खींचा था और उसे पारुल दी के रू-ब-रू खड़ा कर दिया था, ‘‘देख, गाँव में किसी और के साथ चल रही है इसकी सटपट। सारे कुल-वंश की नाक कटा दी इसने, इस दुराचारिणी ने।’’ सास ने अपना माथा पीटा।
चुप थे, पं. चिन्तामणि। पर पारुल दी सोच रही थी, कदाचित् अब शब्द फूटें उसके पति के श्रीमुख से...बिल्कुल अब... अगले ही पल कहें कि नहीं माँ, कतई लांछन न लगा इस पर। यह पैकेट तो मैंने दिया है इसे। सोचा, जंगल-खेत जाते हुए खा लेगी बेचारी, पर यह इतनी भोली-सीधी निकली कि इससे अकेले खाया भी नहीं जा सका। ले आयी वापस अपने ही साथ यह दुस्साहस कलंक सुनने के लिए...।
पर नहीं, पं. चिन्तामणि के पास मानों जुबान ही नहीं थी। उन्हें तो जैसे काठ मार गया था। एक बार फिर चुपचाप अपनी नजरें झुका लीं। निर्दोष पवित्र पत्नी को कलंक की विष्ठा में सनते देखते रहे।
सास ने एकबार फिर बालों को पकड़कर घसीटा। भीड़ के बीचोबीच ले आयी। चीखी, ‘‘सुन कलंकिनी ! इस घर में अब तेरे लिए कोई जगह नहीं है। अभी इसी वक्त निकल जा यहाँ से। इस खानदान में तुझ जैसी दुराचारिणी का अब एक पल को भी यहाँ रहना पाप है-महापाप। तू निकल यहाँ से, निकल...।’’
नहीं बोल पायी पारुल दी कुछ भी। आँसू भी नहीं निकले। शब्द भीतर ही भीतर कहीं सूखकर रेत हो गये थे। आश्चर्य तो था महज इतना कि ऐसे भदेस आरोपों से भरी सभा में अपमानित-लांछित होने के बावजूद भी प्राण देह में कैसे बने हुए थे। उसे खींचकर जो धक्का दिया सास ने तो वह धरती पर गिरी की गिरी रह गयी थी-बेजान।
सब ओर छीः-छीः, थू-थू की वर्षा होने लगी।
श्वसुर पं. गोकुलचन्द्र जी मूलतः शान्त स्वभाव के थे, पर उससे वे भी उत्तेजित हो उठे थे। पीड़ा भरे स्वर में बोले, ‘‘ऐसी दुराचारिणी निकलोगी तुम, यह तो कभी सोच भी नहीं सकता था। अब बहू कहते भी शर्म आ रही है। आज ही भेजता हूँ तेरे पिता के पास किसी को। ले जाएँ वे अपनी साध्वी को। नहींऽ, इस घर में अब तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है...’’ फैसला एक तरह से हो चुका था।
पिता के आने तक गोठ में ही पड़ी रही...
कभी-कभी सोचती है पारुल दी-लांछन व अपमान के घावों की असह्य पीड़ा सहती जानवरों के गोठ में पड़ी उस पूरी रात वह जीवित कैसे रह गयी ? क्यों रह गयी ? अगर स्वाभाविक मौत नहीं मर सकी, तो क्यों नहीं उसने गले में फंदा डालकर अपने को खत्म कर लिया ? आखिर क्या बचा रह गया था उसकी जिंदगी में ? जीवन भर के लिए कालिख तो पुत ही गया था उस पर। शेष जीवन इसी लांछन की कालिख लिए जीना था। फिर भी बची रह गयी थी वह।
पिता घबराए से दूसरे दिन ही आ गये। चेहरे पर हवाइयाँ थीं। वे बार-बार दोहरा रहे थे कि उनकी बेटी ऐसी हो ही नहीं सकती। दुनिया इधर से उधर हो जाए पृथ्वी अपनी धुरी पर उल्टा घूमना शुरू कर दे, सूर्य पश्चिम से निकल आये...पर उनकी पुत्री कोई भी ऐसा काम नहीं कर सकती जिससे पितृकुल या पतिकुल को कलंकित होना पड़े। नामुमकिन है यह...असम्भव, एकदम असम्भव। पारुल दी पर उनकी विश्वास अटल था।
गोठ में बेसुध पड़ी पारुल दी ने यह सुना। कल से अब तक लगातार सूखी आँखों ने अब गीला होना शुरू किया था। वे छलछलाती गयीं। फिर जो तीव्र रुलाई फूटी थी कि समूचा गोठ ही उसमें हिचकोले खाने लगा था।
पर पिता की बातें, उसका हृदय विदारक रुदन सब व्यर्थ सिद्ध हुआ। तूफान में बहते तिनके की तरह कुछ भी नहीं ठहर सका। सास ने पिता को खरी-खोटी सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनके पूरे कुलवंश का श्राद्ध कर डाला था। श्वसुर दो टूक शब्दों में बोले, ‘‘ आप ले जाइये अपनी पुत्री को। दूसरा कोई मार्ग नहीं है...’’
पिता फिर भी मनाते रहे, गिड़गिड़ाते रहे। दामाद पं. चिन्तामणि के आगे भी हाथ जोड़े। पर चिन्तामणि पुरुष था ही कहाँ ? कापुरुष था वह...निर्वीर्य...क्लीव। जवान होते हुए भी माँ के पल्लू से बँधा मन्दबुद्धि मानुष। अन्ततः पिता हार गये। गोठ का द्वार खोलकर उसके निकट आये। रोने लगे उसकी दुर्दशा देखकर। इतनी प्रताड़ना, ऐसा लांछन...सारे गाँव के सामने कलंकित किया उनकी पुत्री को। थके पिता के भीतर आक्रोश फूटा, ‘‘ ले जाता हूँ अपनी पुत्री को मैं, अभी, आज ही। मैंने ब्याहा ही इसे राक्षसों में था। अच्छा हुआ, मुक्त हुई वह इन राक्षसों से। धरती कभी कलंकित नहीं होती, हो ही नहीं सकती। कलंकित तो वे स्वयं होते हैं जो धरती को कलंकित करने का प्रयास करते हैं। उठ परुली...चल पुत्री, छोड़ते हैं इस-द्वार को...थूकते हैं इस अमानुषों की देहरी पर...’’
किस ठाट-बाट, किस उत्साह-उमंग से पिता-घर से विदा होकर पति-गृह को गयी थी एक दिन। और वापिस लौटी थी तो जैसे मृतप्राय होकर...।
लौटी हुई पारुल दी को देखा तो मैं सन्न रह गया। क्या थी और क्या हो गयी पारुल दी ! वह पारुल दी जो कभी पहाड़ी प्रपात की तरह थी, एकदम सूखी धार में बदल गयी थी। सबसे पहले ताऊ उबरे। पारुल दी को समझाना शुरू किया था, नहीं परुली, तू कुछ भी नहीं बताएगी तो भी मैं जानता हूँ, तू निर्दोष है। तूने कुछ नहीं किया। तू ऐसा कुछ कर ही नहीं सकती। पर इससे उबरना होगा पुत्री। जिन्दगी वहीं पर खत्म नहीं हो गयी। जिन्दगी का तो बहुत विस्तार है। दूर-दूर तक बाँहें फैलायी रहती है जिन्दगी। उठ, चैतन्य कर अपने को। सबके बीच उठ-बैठ, हँस- बोल। हो सके तो अपनी व्यथा बाँट। मन का बोझ हल्का हो जाएगा...’’ पर पारुल दी पर बहुत फर्क नहीं पड़ा। एकदम निस्पन्द थी वह। स्थिर...निर्वाक...निर्भाव...। मायके के इस गाँव को भी पता चल ही गया था कि पारुल दी को निष्कासित कर दिया है उसके ससुरालियों ने। कहते हैं कि वहाँ पर किसी पुरुष से सटपट हो गयी थी उसकी। अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय। पर ज्यादातर लोगों का यही सोचना था कि ऐसी नहीं है परुली...यह झूठा आक्षेप है उस पर। लेकिन कुछ दूसरी तरफ भी फुसफुसाते-क्या पता ? यह औरत-मर्द का मामला होता ही बड़ी विचित्र है, पता नहीं, कब, किसका, कहाँ पैर रपट जाये। उस पर औरत जात का क्या भरोसा, वोऽ कहा या है न-तिरिया चरित्तर...
वह ऐसा दौर था जब पारुल दी को मेरी सख्त जरूरत थी। घर के दूसरे सदस्य भी इस बात को समझ रहे थे। सबको पता था कि मुझमें और पारुल दी में कितनी छनती है। सो एक तरह से पारुल दी को सहज सामान्य बनाने की जिम्मेदारी मुझ पर आ गयी थी। मेरा ज्यादातर समय अब पारुल दी के साथ गुजरने लगा था। मैं उसे भरसक समझाने-बुझाने का प्रयास करता, इधर-उधर
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book