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कविता संग्रह >> क्या तो समय

क्या तो समय

अरुण देव

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1261
आईएसबीएन :81-263-1016-2

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कविताओं का संग्रह....

Kya to Samaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


जीवनराग से भरे इस कवि के युवा हाथों ने ऐसे ही ओस कणों को सँजोने की कोशिश की है इस संग्रह में। ये ओस कण सिर्फ प्रकृति से नहीं इतिहास और वर्तमान समय की धूल से भी उठाये गये हैं और इस तरह के उनमें अपना सत्व भी बचा रहता है। और अनुभव की खुरदुरी मिट्टी का अपना स्पर्श भी। एक खास बात यह है कि इन तरुण कवितां में वयस्क कला की एक कसावट दिखाई पड़ती है।

शुरुआत


जीवन के गलियारे में जब
अँधेरा फैल रहा हो
शिराओं में पीड़ा की नदी
तुम्हें श्लथ कर रही हो जब

जब तुम्हारे सपने कच्ची भीत की तरह
हहराकर धसक रहे हों
प्रिया के मन में जब
तुम्हारी कोई आहट न हो

तुम्हारे पथ-प्रदर्शक
अँधेरी घाटियों के ढलान पर हों
तुम्हारे घर की दीवार पर
टँगी तुम्हारी मुस्कराहट

फीकी पड़ती जा रही हो जब
जब तुम्हारे अन्दर का ध्वंस
तुम्हें किसी सूनी पगडण्डी
की ओर ले जा रहा हो

शोक के विस्तार में जब
तुम्हारी सुनहरी पतंग बिला गयी हो
और खो गये हों तुम्हारे संगी
अहं के हाट में

और कागज पर कलम से लिखे
अक्षर भी जब बुझने लगे हों
जाना रंगों के पास और कहना
वह आएँ जीवन के हरे पत्तों पर धूप की तरह

आकृतियों से कहना
वे आदिम युवती की
साँवली उँगिलयों से निकलें
कि तुम्हें फिर से
पहचानना है मर्म

कहना ध्वनियों से
वे कच्चे बाँस के आस-पास रहें कि
तुम्हें पानी है
जीवन की लय।

कहो कालिदास !

उज्जयिनी का दिशाहीन मेघ
भटकते-भटकते थक गया है मल्लिका
वह भूल गया है अपनी गति
महानगर के चौराहे पर
सूझता नहीं कुछ उसे

दिशाएँ सब एक-सी हैं
और रास्ते कहीं नहीं जाते

राजप्रासाद की रौशनी में कोई उत्सव है
पथ के एकाकीपन में
ऊँघते बूढ़े की आँखों में
भविष्य की लौ थरथरा रही है

यक्ष के रुदन के भर गया है आकाश
उसे कोई सुनता नहीं

कोई दुष्यन्त नहीं जाता अब
किसी शकुन्तला के पास

चली गयी हैं किताबों में
शौर्य और प्रेम की गाथाएँ

प्रतिनायकों की चालाकियों के बीच
पराजित नायक लौट गया है अरण्य की ओर

मल्लिका !
इस सीलन-भरे समय में
क्या करे तुम्हारा कालिदास !

लौटना

कस्बे के चौक की फीकी पड़ती मूर्ति
की अबूझ मुस्कान में
ढूँढनी थी लौट कर आने की विवशता

टूटे लैम्पपोस्ट के नीचे बिछी रात के
उत्सुक एकान्त में करनी थी आदतन किसी की प्रतीक्षा
यादों के गलियारे में भटकना था दूर तक

कटी हुई पतंग के पीछे चलते जाना था
ले लेनी थी वह गेंद जो तबसे खोई पड़ी है
उस नदी को पार कर लेना था जो तब बहुत गहरी लगती थी

पा लेना था उसे किसी घुमाव पर
साक्षी स्मृति की किसी धुँधले पृष्ठ की वह शरारती मुस्कान
उसके बनते-बिगड़ते आशय में कौंधता कोई संकेत
और दिख जाती कोई पगडण्डी
जिसके सहारे पहुँचना था उस जंगल में
जहाँ किसी चिड़िया के पीछे
हम डुबो आते दिन के कुएँ में सूरज को
धागे से लटकाकर
कस्बे की तंग गलियों में चलते हुए
मिलाना था हाथ कलम पर चिपक गये हाथों से
और मिलना था सरकारी क़ाग़जों के किसी तिलिस्म में कैद हो गयीं
उन आँखों से
जो कभी हँसती थीं कुछ परिचित चेहरों पर

उस स्त्री के लिए ढूँढ़ कर लाने थे कुछ शब्द
जो जब अपनी विपदा सुनाती
तब डकरने लगती थी एक गाय
और ज़िबह किये बकरे का बहता रक्त
उसकी आँखों से टप-टप टपकने लगता था

एक मेरी मुश्किल थे मौजम मियाँ
जो मशीन पर झुके सिलते रहते थे
किसी पुरानी बुनावट का कोई हिस्सा
जब वह मुझे बेटा कहते तब मुझे किसी गुम्बद के ढहने की
आवाज़ आती
और मुख़्तसर-सी गुफ़्तगू में फैल जाता कर्फ़्यू-सा सन्नाटा

प्रवास से लौटते पक्षी की भी क्या कुछ होती होंगी विवशताएँ
खुशबू की कौन-सी मजबूरी कि वह लौट आये फूल पर
अनाज धरती की ओर
स्त्रियाँ माँ के नजदीक
नदियाँ सागर के पास
वृक्ष की जड़ों पर बिखरे रहते हैं क्यों फल
कस्बे की शब्दावली का जीवन की किताब से क्या रिश्ता !

नैतिकताएँ कैसे बदल रही हैं विवशताओं में !

बुद्ध

सुन्दर, लम्बा कद, नीची की हुई आँख वाला, स्मृतिशील
बत्तीस, लक्षणों से युक्त वह
राहुल, भद्रा कपिलायनी और महल से जब निकला
आषाढ़ की पूर्णिमा थी

‘गृहकारक मैंने तुम्हें पहचान लिया
तुम अब गृह का निर्माण नहीं कर सकते
टूट कर गिर गयी हैं कड़ियाँ और
ध्वस्त हो गया है शिखर’

लगभग दो हजार पाँच सौ उन्तीस वर्ष पहले
निरंजना नदी के किनारे की वह पहले पहर की रात
जब खो गये सारे रास्ते, रज भी शान्त हुआ, आस्रव रुद्ध हो चले
और तुमने कहा कि दुख का भी अन्त हुआ

महापरिनिर्वाण से पूर्व
कुशीनारा के शाल वन में
शास्ता ने प्रिय शिष्य आनन्द से कहा-
सत्य के साथ रखना तर्क
भोग के साथ अप्रमाद, अतियों से बचना

यह एक नदी थी करुणा की
जो हर बार नयी थी
धोये इसने युद्धों के कल्मष
यहाँ ईश्वर ऐसे था जैसे नहीं था
इस महोत्सव की चमकीली आत्मा पर आतंक नहीं था
सत्य के अकेले पाठ का
यह नदी बहती रही
इतिहास के शुष्क पन्ने नम रहे इसकी आर्द्रता से

एक सुबह
दो सौ गायों के रक्त में सनी उस मूर्ति के टुकड़े बटोरने
जब सूर्य निकला
अफग़ानिस्तान के बामियान में
वृद्ध बुद्ध और युवा आनन्द
साफ कर रहे थे रास्ता जो रुँधा पड़ा था
भय, अज्ञान और घृणा से।

किताबों के बाहर दिन और रात

सूरज पलटता है
रोजनामचे का सफेद चमकीला पन्ना
सरोवर का जल लेता है गहरी-गहरी साँसें
उछलती है एक मछली
और लौट आती है सकुशल

हवाओं ने उड़ा रखी है पतंग
ताज़े सुगन्ध की
दौड़ते हैं उसकी ओर चिड़ियों के नंग-धड़ंग बच्चे

हलवाई की दुकान का कोयला
धधक कर हो जाता है लाल
केतली का ढक्कन हड़बड़ा जाता है
और चाय छोड़ती है साँस

सूरज डालता है एक किनारे दिनांक
और छपकर आ जाते हैं अख़बार
अख़बार में बैठा आदमी
दुहराता है पिछले दिन को
सुबह धूप सन्ध्या गझिन-रात

बुनता रहता है सूरज
उसकी बुनी चादर में थरथराता रहता है
पिछला दिन

जैसे कि लिखने से पहले
पेन की चिरी हुई निब

उसके छापे में खिलता है एक फूल
फूटता है कोई अंकुर
जिसकी उम्मीद की धूप
पड़ती है बच्चे की आँखों पर
संसार के सबसे वृद्ध तलवों के नीचे वह
सुथरी हरी घास बन जाता है
और इस पृथ्वी के सबसे नये नागरिक के स्वागत में
रक्त कमल की तरह बिछ जाता है
समा जाता है जैसे सीधी हो रही रीढ़ में तनाव

वह इकट्ठी करता है सम्भावनाएँ
और जो रद्दी बचती जाती है उसे जलाता जाता है।

ग़ालिब

ग़ालिब पर सोचते हुए
वो दिल्ली याद आयी
जिसके गली-कूचे अब वैसे न थे
आसमान में परिन्दों के लिए कम थी जगह
उड़कर जाते थे कि लौट आते हैं अभी

शब-ओ-ऱोज होने वाले बाजीच:-ए-अत्फ़ाल में
मसरूफ थी हर सुबह
इब्न-ए-मरियम थे
दुख की दवा न थी

इस शोर में
एक आवाज़ थी बल्लीमारान से उठती हुई
लेते थे जिसमें अदब के आदमक़द बुत
गहरी-गहरी साँसें
हिन्दुस्तान की नब्ज़ में पिघलने लगता था पारा, सीसा, आबनूस
दीद-ए-तर से टपकता था लहू
उस ख़स्ता के ‘अन्दाज़-ए-बयाँ और’ में वह क्या था
कि हिलने लगती थी बूढ़े बादशाह की दाढ़ी

थकी सल्तनत की सीढ़ियाँ उतरते उसकी फीकी हँसी के
न जाने कितने अर्थ थे
उसने देखा था
तमाशा देखने वालों का तमाशा
उसकी करुणा में डूबी आँखों में हिज्र का लम्बा रेगिस्तान था
उसका पता नहीं कौन यार था
जिसके विसाल के लिए उम्र भी कम ठहरी

दिल्ली और कलकत्ता के बीच कहीं खो गयी थी
उसकी रोटी
टपकती हुई छत और ढहे हुए महलसरे को
कलम की नोक से सँभाले
वह जिद्दी शायर ताउम्र जद्दोजहद करता रहा कि
निकल आये
फिरदौस और दोजख़ को मिलाकर भी
ज़िन्दगी के लिए थोड़ी और गुंजाइश।

अख़बार

दरवाज़े पर पड़ी रहती है दुनिया
उसकी छत और ऊँचाई
उसके तहखाने और तिलिस्म
उसका अँधेरा, उसकी रौशनी,
रौशनी में उघड़ी रात
रात में हँसते स्याह साये
साये में दिन की कालिख

पन्ने से लुढ़कता है ग्लोब
बहता है पानी पिघलता है हिम
सर्द हवा की ठिठुरन रेंगने लगती है हड्डी पर
रेत के कुछ जिद्दी कण फँसे रह जाते हैं दाँतों के बीच
जंगल में एक शिकारी आदतन है शिकार पर
स्मृतियों के सहारे ढूँढ़ता है कोई हिंस्र पशु
एक चिड़िया आखिरी उड़ान पर है
तितली की प्रतीक्षा में है फूल का अन्तिम पराग

उड़ते चले आते हैं कुछ पुराने पन्ने
काई लगी ईंटों पर काले नाग की तरह सोई पड़ी है
एक घायल सभ्यता
जिसे जगा रहा है कोई सपेरा
कुछ लोग एक लम्बे उत्सव में हैं
नीली पड़ गयी हैं उनकी नैतिकताएँ

एक युवा बेच रहा है अपनी त्वरा
चींटियों की तरह सम्भावित युवाओं की कतारें हैं उसके पीछे
वे बेचेंगे अपना होना
कई गैरज़रूरी आवश्यकताएँ

स्त्रियाँ अपनी युवा देहों में क़ैद हैं
उनकी देहें अभी भी क़ैद में हैं
कुछ शब्दों की राख में है
सुलगती हुई वह आग
जो धूसर चेहरों के आगे-आगे चल रही है
टुकड़े पड़े हैं पीछे उनकी अपात्रताओं के

पूरा अख़बार प्रतीक्षा में है सुनने के लिए
बर्फीली घाटी से आनेवाली उस स्त्री आवाज़ को
जो कहेगी-ना

एक बच्चा अस्तित्व के पर्याय में चुनता है
शान्ति

अख़बार बदल देता है दिन को।

संगठन

हमें शुरू करना चाहिए
वे कुछ थे
उनमें उतावले चेहरे वाला लड़का
कन्धे को झटकता हुआ
कुछ दूर चला गया
छूटी जगह पर उसकी अनिच्छा थी
जो धीरे से बदल गयी असमर्थता में

वे थोड़े से कुछ हुए थे
वे सोचते थे कि उन्हें ढेर सारा होना है
धरती पर पहले मेघ का कीचड़ था
पाँव को गीली मिट्टी छू रही थी
उनके हटने के बाद उनके पैरों के निशान मिट जाते

आत्मीय चेहरे वाली लड़की उनके बीच नहीं थी
सड़क के किनारे लगे पोस्टरों में
वह छूट गयी थी एक जरूरी रंग की तरह

वह सम्मोहित थी और
पोस्टर में हाथ उठाये चीख को देख रही थी
उसे सबकुछ पहचाना-सा लगा
चीख को एकबारगी उसने छू कर देखा भी

गम्भीर आँखों वाला लड़का
सड़क देख रहा था
कुछ धुँधली परछाइयाँ उतरतीं
और चली जातीं
सड़क के अन्तहीन विलाप में

उकताहट से उसने
सूखे पेड़ों को देखना शुरू किया
उसे उम्मीद थी कि शायद
उसके अज्ञान में ही कुछ ठीक हो जाए

वे कुछ शुरू करने के लिए इकट्ठे हुए थे।

गर्मी में बच्चे

गर्मी थी फिर
हवाएँ जैसे छिपी हुई भट्ठी से आतीं
कभी चुकता न था उनका अदृश्य कोयला
लपट दिखती न थी, पर थी
गाल सुर्ख होकर कुम्हला जाते
होठों पर पपड़ियाँ थीं
जैसे सूख कर बन जाती है किशमिश

त्वचा छोड़ रही थी पसीना
नमकीन पानी के घेरे में थी देह
देह के चारों ओर सनसना रही थी बनैली हवा
हवा में जैसे जल रहा हो सूर्य

घरों में गुजर न थी धूप की, नंगी हवा की
हवा आती भी तो नहाकर आती
सुथरी होकर मुलायम-सी लटों से चूता हो पानी

दोपहर की लम्बाई डूब जाती नींद के गहरे कुएँ में
बच्चे कसमसाते
धमा को चौकड़ी से मिलाने के लिए
पर घर से बँधे थे नन्हे पाँव

सूर्य पर थे उनके आवारगी के उड़ते बादल
टिकोरों पर सम्भावित निशान
बागीचे की धूप को थोड़ी खट्टी कर
वह खा जाते नमक के साथ

दौड़ते टायर को छड़ी से सँभाले
सँभलता हुआ यह जीवन
चुनौती था दहकते उस गोले के लिए

कभी पृथ्वी ने
स्वीकारी थी यह चुनौती।

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