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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : रवि पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?

दूसरा दिन

उनतीस सितम्बर : मंगलवार


उस रोज के अखबारों में गोपाल कृष्ण बतरा के कत्ल की खबर, बमय उसकी तसवीर, मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुई। हर अखबार में 'घर का भेदी' नामक कॉलम का हवाला था लेकिन सब ने लिखा था कि ऐसा कहा जाता था कि उस कॉलम का लेखक बतरा ही था, अलबत्ता किसी की भी उसे ब्लैकमेल का जरिया बताने की मजाल नहीं हुई थी।
खुद बतरा के अखबार 'जागरूक' में बतरा की शान में खूब कसीदे पढ़े गये थे, उसे एक महान, निष्ठावान और जागरूक पत्रकार बताया गया था और स्पष्टतया ये लिखा था कि 'घर का भेदी' का 'जीकेबी' दिवंगत गोपाल कृष्ण बतरा ही था जो कि समाज के गणमान्य व्यक्तियों के 'काले कारनामों की पोल खोलता था, जिसकी वजह से कि नगर में उसके कई दुश्मन हो गये थे और उन्हीं दुश्मनों में से किसी एक ने आखिरकार उसकी जान ले ली थी और 'कलम का एक निर्भीक सिपाही' अखबार की दुनिया से उठ गया था।

लेकिन असल में पत्रकार बिरादरी में उसकी तारीफ में दो शब्द कहने वाला कोई नहीं था। असल में हर किसी ने उसे पीत पत्रकारिता का पोषक एक ब्लैकमेलर ही करार दिया जो कि उसी खड्डे में गर्क हो गया था जो कि उसने खुद अपने हाथों से खोदा था। शिकारी के खुद शिकार हो जाने का वो ज्वलन्त उदाहरण था।
केवल 'ब्लास्ट' में ही ये सम्भावना व्यक्त की गयी थी कि जरूरी नहीं था कि कातिल उसकी ब्लैकमेलिंग का शिकार कोई शख्स ही होता, वो पिछली रात वहां चलती पार्टी में मौजूद मेहमानों में से भी कोई हो सकता था। और कत्ल की वजह कोई ऐसी हो सकती थी जिसकी तरफ कि अभी कोई इशारा तक नहीं था।

संजीव सूरी की वाबत कुछ छपने की सम्भावना केवल 'ब्लास्ट' में थी लेकिन उसमें भी कुछ इसलिये नहीं छप सकता था क्योंकि पिछली रात सुनील के आफिस में पहुंचने तक अखबार का लेट सिटी एडीशन छपना भी कब का चालू हो चुका था। ... ग्यारह बजे सुनील आफिस में पहुंचा।.
रिसेप्शन पर रेणु मौजूद थी।
"कभी रेडियो सुनती हो?"-उसने पूछा।
"ये क्या सवाल हुआ?"-वो हड़बड़ा कर बोली।
"आजकल टी.वी. का बोलबाला है न? कौन सुनता है रेडियो!"
"मैं तो सुनती हूं। एक खास प्रोग्राम तो मैं जरूर सुनती हूं।"
“कौन-सा?"
‘ए डेट विद यू' । नौ बजे आकाशवाणी से आता है। संजीव सूरी नाम का डी.जे. ब्राडकास्ट करता है। कम्बख्त इतना मीठा बोलता है कि यही खतरा रहता है कि प्रोग्राम सुन सुन कर कहीं डायबिटीज न हो जाये।"
“कल सुना था?" ...
"हां। पूरा।"
"रोज आता है?"
"इतवार को नहीं आता। बाकी छः दिन रोज आता है। क्यों . पूछ रहे हो?".
“रोज सुनती हो तो तुम उस डी-जे. संजीव सूरी की आवाज तो बाखूबी पहचानती होगी?" . "हां"
"दावे के साथ कह सकती हो कि प्रोग्राम में कल वो ही बोल रहा था?"
"हां।"
“कब बोलता है वो? प्रोग्राम के शुरू में, बीच में, आखिर में" या तीनों वक्त?" . .. "सारे प्रोग्राम में बोलता है। हर गाने को वो अपनी एक्सपर्ट कमेंट्री से इन्ट्रोड्यूस करता है। तीन मिनट का गाना होता है और .. हर गाने से पहले उसकी दो मिनट की कमेंट्री होती है।"
"कल भी ऐसा ही था?"
"हां। हमेशा ऐसा ही होता है।"
“यानी कि ये मुमकिन नहीं कि वो बीच में उठ के कहीं चला जाये?"
"मुमकिन है। लेकिन तीन मिनट से ज्यादा के लिये नहीं।"
"ओह!"
. . तभी अर्जुन ने वहां कदम रखा। सुनील उसके करीब पहुंचा और बोला- “क्या खबर है?"
"खास खबर तो कोई नहीं।" -अर्जुन बोला-“छिट पुट कई हैं।
“मसलन?"
"कल रात संजीव सूरी आकाशवाणी भवन में वहां के साउन्ड स्टूडियो नम्बर पांच में मौजूद था और अपना दैनिक कार्यक्रम 'ए डेट विद यू' ब्राडकास्ट कर रहा था। वहां से उसकी नौ से दस तक उस स्टूडियो में मौजूदगी की तसदीक हुई है।"
"ओह!"
"इस बात की भी तसदीक हुई है कि सवा दस से पौने ग्यारह तक वो 'निकल चेन' में उसके प्रोपराइटर निरंजन चोपड़ा की सोहबत में था।" ..
"यानी कि वो सच बोल रहा था?"
“अगर उसने ऐसा कहा था तो सच ही बोल रहा था।"
“तो फिर वो खिसक क्यों गया? भाई को क्यों खिसका दिया?" .
“क्या किस्सा है, गुरुजी?"
सुनील'ने बताया।

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