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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : रवि पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?


रमाकान्त ने उसे अपनी चाँदी की फ्लास्क फिर थमाई तो पंकज ने उसमें से विस्की का घूँट लगाकर फ्लास्क रमाकान्त को वापिस कर दी।

"वो क्या है कि"-फिर वो यूँ बोला जैसे विस्की से नया हौसला पैदा हो गया हो- "संचिता पूरी तरह से उस कम्बख्त जीजा पर आश्रित है। वो उससे बाहर नहीं जा सकती। बतरा की अपनी बीवी से नहीं बनती। साली कोई तेवर दिखाती तो बीवी को तो शायद वखश देता, साली को शर्तिया निकाल बाहर करता।"
“आश्रय तो फिर साली को ब्लैकमेल करने का जरिया हो गया! हथियार हो गया!"
“नहीं, नहीं।"-वो तत्काल बोला- “संचिता उस हद तक झुकने या टूटने वाली लड़की नहीं।" - “यानी कि जीजा जी को खीर में चम्मच मारने तक की ही छूट दे सकती है।" . .
“हांडी ही साफ कर देने की इजाजत नहीं दे सकती!" रमाकान्त बोला।
“यार, तुम लोग तो बात को बड़े वल्गर तरीके से कह रहे हो।"
“अच्छा!" -सुनील की भवें उठीं।
"हां।"
"यानी कि वो वो माल अलग बाँध के रखती है जो बढ़िया है! तुम्हारे लिये!" ...
"क्या? क्या मतलब?" ...
“जीजा ने साली को किस किया तो तुमने उसका जबड़ा तोड़ने में कसर न छोड़ी, साली का पुलन्दा ही बांधते देख लिया तो गोली मार दी।"
"क्या बकते हो?"-वो भड़का- “अरे, मैं तो जब से आया था, एक मिनट के लिये भी पहली मंजिल से नीचे नहीं उतरा था। मुझे तो ये तक मालूम नहीं था कि बतरा घर लौट आया हुआ था।"
“ऊपर से ड्राइव-वे दिखाई देता है?" . .... "
"हां"

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