कहानी संग्रह >> सप्तर्षिशंख सप्तर्षिशंखमोहम्मद मांकड
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प्रस्तुत है सप्तर्षिशंख...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गुजराती के लोक प्रिय कथाकार मोहम्मद मांकड के कहानी-लेखन का अपना ही एक
फलक है और वह भी इतना विस्तृत कि मनुष्य और उसके आसपास की ज़िन्दगी उसके
रंग-ढंग, उसकी समस्याएँ उसकी उलझनें और कोशिशें- सभी कुछ विचित्र है उस
पर। उनकी कहानियों में साहूकार है, शोषित आदमी है, प्रतीक्षारत स्त्री है,
प्रतिशोध और घृणा का गुप्त आनन्द ले रहा पड़ोसी है, भावी उम्मीदों पर
जिन्दगी ढो रहा आदमी है, सब कुछ डूब जाने पर भी बाँसुरी बजा रहा किसान है;
तो साथ ही शिक्षक है, डाक्टर है, मज़दूर हैं, मुहताज लोग हैं, पुलिस
इंस्पेक्टर है, पहलवान है, डाकू है- यों कहा जाए कि यहाँ एक समूचा संसार
है। मानव स्वभाव के विविध स्वभाव रूपों को अनावृत्त करने वाला एक भरा-पूरा
संसार।
मांकड की हर रचना पाठक के अन्तर्मन की गहराई का मात्र स्पर्श ही नहीं करती, बल्कि वहाँ जाकर पैठ जाती है। कारण स्पष्ट है, मोहम्मद भाई अपने आसपास की दुनिया से पाये हुए संवेदनों को बहुत ही रोचक एवं सहज ढंग से प्रस्तुत करते हैं। किसी वादग्रस्त, प्रयोगग्रस्त या शैलीग्रस्त हुए बिना ही उन्होंने अपनी सर्जकता की कोंपलों को सतत फूटने दिया है। उनकी रचनाओं में एक ऐसा रस-प्रवाह है जो पाठक के चित्त को बराबर डुबोए रखता है। विशेषकर, गुजरती पाठक की मांकड और उनकी कहानियों के साथ तो जैसे प्रेम की गाँठ ही बँध गयी है। आशा है, हिन्दी प्रेमियों को भी उनकी ये कहानियाँ उतने ही सहजभाव से रसान्वित करेंगी।
मांकड की हर रचना पाठक के अन्तर्मन की गहराई का मात्र स्पर्श ही नहीं करती, बल्कि वहाँ जाकर पैठ जाती है। कारण स्पष्ट है, मोहम्मद भाई अपने आसपास की दुनिया से पाये हुए संवेदनों को बहुत ही रोचक एवं सहज ढंग से प्रस्तुत करते हैं। किसी वादग्रस्त, प्रयोगग्रस्त या शैलीग्रस्त हुए बिना ही उन्होंने अपनी सर्जकता की कोंपलों को सतत फूटने दिया है। उनकी रचनाओं में एक ऐसा रस-प्रवाह है जो पाठक के चित्त को बराबर डुबोए रखता है। विशेषकर, गुजरती पाठक की मांकड और उनकी कहानियों के साथ तो जैसे प्रेम की गाँठ ही बँध गयी है। आशा है, हिन्दी प्रेमियों को भी उनकी ये कहानियाँ उतने ही सहजभाव से रसान्वित करेंगी।
प्रस्तुति
सर्वपल्लि डॉ० राधाकृष्णन ने एक बार कहा था कि यद्यपि भारतीय साहित्य
विभिन्न भारतीय भाषाओं में लिखा जाता पर उसकी आत्मा एक ही है। यह सच है पर
इस मूलभूत एकात्मकता के होते हुए समय-समय पर अलगाव का स्वर क्यों उठता
रहता है ? उत्तर स्पष्ट है, राजनीतिक स्वार्थ और जनसाधारण की
निरथपता एवं अज्ञान। इन बिखरती हुई विचारधाराओं को एक सूत्र में पिरोने के
लिए मात्र एक साधन है- सृजनात्मक साहित्य जो न केवल अपने आप में भावात्मक
सृष्टि का निर्माण करके जीवन-मूल्यों को आयाम प्रदान करता है बल्कि उन्हें
परिपुष्ट भी करता है। ऐसा समृद्ध साहित्य विभिन्न भारतीय भाषाओं में
विद्यमान होते हुए भी अलग-अलग लिपियों का बन्धन होने के कारण, इन
साहित्यिक मूल्यों का आदान–प्रदान नहीं हो पाता।
भारतीय ज्ञानपीठ ने इस खाई को पाटने के लिए एक सेतु की सक्रिय भूमिका निभाई है एक ओर ज्ञान पीठ पुरस्कार जैसे अखिल भारतीय अनुष्ठान से समग्र भारतीय भाषाओं के लेखकों को चयन के हेतु एक ही मंच पर लाया जाता है तो दूसरी ओर ‘भारतीय उपन्यासकार’ ‘भारतीय कहानीकार’ ‘भारतीय कवि’ आदि साहित्यिक विधाओं के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करके भारतीय साहित्य को निश्चित रूप से एक सूत्र में पिरोने का पवित्र अनुष्ठान भी आरम्भ कर दिया है। भारतीय ज्ञानपीठ की न केवल यह एक साहित्य उपलब्धि है बल्कि यह एक राष्ट्रीय उपलब्धि भी है।
‘भारतीय कहानीकार’ श्रृंखला में प्रस्तुत है गुजराती के लब्ध-प्रतिष्ठ मोहम्मद मांकड की कुछ चुनी हुई कहानियों का संकलन। मोहम्मद मांकड गुजराती के एक अत्यन्त प्रभावशाली कथाकार हैं। उनकी कथाओं में लोकप्रियता और साहित्यिकता का मणि-कांचन योग संपन्न हुआ है। गुजराती कहानी पिछली अर्द्ध शताब्दी में कई आयामों से गुज़री है और अपने रचनाकारों का साहित्य-पटल पर एक निश्चित चिन्ह अंकित कर गयी है। जैसा कि हर सृजनात्मक साहित्यकार के विषय में होता है, मोहम्मद मांकड एक चिन्तनशील प्रकृति के व्यक्ति रहे हैं। मनुष्य और उसके आस-पास की सृष्टि, उसका रंग-ढंग उसकी समस्याएं उसकी उलझनें और कोशिशें–इन सबका उनके कथा-साहित्य में मार्मिक चित्रण हुआ है और इस तरह से मोहम्मद मांकड के कहानी-लेखन का अपना ही एक विशेष फलक है। विषयवस्तु की। विविधता के कारण उनकी कहानियों में अपार विविधता के दर्शन होते हैं। उनकी कहानियों की यह भी विशेषता रही है कि वे लम्बे विवरणों से या संकेतपूर्ण दृश्यों से लगभग अछूती रही हैं और परस्पर संवाद के एक नाटकीय ढंग से आगे बढ़ती हैं इन संवादों के लिए उन्होंने बोलचाल की व्यावहारिक भाषा का प्रयोग किया है। बिना शैलीग्रस्त या वादग्रस्त हुए अपनी आस-पास की दुनियां से पायी हुई संवेदना को रोचक रूप देकर प्रस्तुत करते हैं।
इस संकलन के प्रकाशन के लिए मेरे सहयोगी गुलाबचन्द्र जैन तथा साज-सज्जा के लिए पुष्पकणा मुखर्जी का मैं आभारी हूँ। बिना गुलाबचन्द्र जैन के अनवरत प्रयत्न के इतने थोड़े समय में संकलन का प्रकाशन सम्भव नहीं था।
भारतीय ज्ञानपीठ ने इस खाई को पाटने के लिए एक सेतु की सक्रिय भूमिका निभाई है एक ओर ज्ञान पीठ पुरस्कार जैसे अखिल भारतीय अनुष्ठान से समग्र भारतीय भाषाओं के लेखकों को चयन के हेतु एक ही मंच पर लाया जाता है तो दूसरी ओर ‘भारतीय उपन्यासकार’ ‘भारतीय कहानीकार’ ‘भारतीय कवि’ आदि साहित्यिक विधाओं के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करके भारतीय साहित्य को निश्चित रूप से एक सूत्र में पिरोने का पवित्र अनुष्ठान भी आरम्भ कर दिया है। भारतीय ज्ञानपीठ की न केवल यह एक साहित्य उपलब्धि है बल्कि यह एक राष्ट्रीय उपलब्धि भी है।
‘भारतीय कहानीकार’ श्रृंखला में प्रस्तुत है गुजराती के लब्ध-प्रतिष्ठ मोहम्मद मांकड की कुछ चुनी हुई कहानियों का संकलन। मोहम्मद मांकड गुजराती के एक अत्यन्त प्रभावशाली कथाकार हैं। उनकी कथाओं में लोकप्रियता और साहित्यिकता का मणि-कांचन योग संपन्न हुआ है। गुजराती कहानी पिछली अर्द्ध शताब्दी में कई आयामों से गुज़री है और अपने रचनाकारों का साहित्य-पटल पर एक निश्चित चिन्ह अंकित कर गयी है। जैसा कि हर सृजनात्मक साहित्यकार के विषय में होता है, मोहम्मद मांकड एक चिन्तनशील प्रकृति के व्यक्ति रहे हैं। मनुष्य और उसके आस-पास की सृष्टि, उसका रंग-ढंग उसकी समस्याएं उसकी उलझनें और कोशिशें–इन सबका उनके कथा-साहित्य में मार्मिक चित्रण हुआ है और इस तरह से मोहम्मद मांकड के कहानी-लेखन का अपना ही एक विशेष फलक है। विषयवस्तु की। विविधता के कारण उनकी कहानियों में अपार विविधता के दर्शन होते हैं। उनकी कहानियों की यह भी विशेषता रही है कि वे लम्बे विवरणों से या संकेतपूर्ण दृश्यों से लगभग अछूती रही हैं और परस्पर संवाद के एक नाटकीय ढंग से आगे बढ़ती हैं इन संवादों के लिए उन्होंने बोलचाल की व्यावहारिक भाषा का प्रयोग किया है। बिना शैलीग्रस्त या वादग्रस्त हुए अपनी आस-पास की दुनियां से पायी हुई संवेदना को रोचक रूप देकर प्रस्तुत करते हैं।
इस संकलन के प्रकाशन के लिए मेरे सहयोगी गुलाबचन्द्र जैन तथा साज-सज्जा के लिए पुष्पकणा मुखर्जी का मैं आभारी हूँ। बिना गुलाबचन्द्र जैन के अनवरत प्रयत्न के इतने थोड़े समय में संकलन का प्रकाशन सम्भव नहीं था।
नई दिल्ली
र० श० केलकर, सचिव
गुजराती कहानी में मोहम्मद मांकड का योगदान
लोकप्रियता और साहित्यकता के बीच सुमेल हो ऐसा शायद ही पाया जाता है।
बहुधा दोनों को अलग-अलग सिरे से देखा जाता है। फिर, लोक-प्रियता का विशेष
गुण मानें या-उसका प्रवाह शायद ही समतल होता है। उसमे कभी ज्वार तो कभी
भाटा की स्थिति भी आती है। फिर भी हमारे यहाँ कुछ ऐसे खुशनशीब सर्जक हैं
जिनके लिए भाटा की स्थिति नहीं आई है। इन सर्जकों में वाचन-क्षमता के साथ
ही साहित्यिकता भी पर्याप्त मात्रा में देखी जायेगी। गुजराती की कहानियों
के इतिहास में ऐसे कुछ नाम उभर कर आते हैं। इनमें एक मोहम्मद
मांकड
का भी है। चार साढ़े-चार दशकों के इनके सुदीर्घ लेखनकाल में हम देखते हैं
कि वे लोकहृदय पर वही आकर्षण जमाए हुए हैं। गुजराती की कहानी के स्वरूप
में आए हुए तरह-तरह के स्थित्यन्तरों का एक विशिष्ट इतिहास है। परन्तु इस
समयावधि में लोग मांकड की कहानियाँ उत्साह के साथ पढ़ते रहे हैं। कहानी के
बदल रहे अभिगमों के बीच माकंड अपनी कहानी से किस तरह काम लेते रहे, यह
देखना रसप्रद होगा। विशेष रूप से तो प्रवाहपतित हुए बिना या प्रवाह के
विरोध में खड़े बिना भी जिन स्वरूपगत बलाबलों से गुज़रे हैं और कहानी के
साथ उन्होंने जो सम्बन्ध निभाया है, वह स्वयं उनके लेखनकार्य में एक
‘घटना’ है। यह ‘घटना’ परोक्ष रूप
से कहानी को
चाहने वाले पाठकों की रुचि-परिवर्तन का आलेख भी बन जाती है।
माकंड कहानी की कला के विषय में सोचते समय गुजरती कहानी पर एक सरसरी नज़र डालना आवश्यक है। इससे गुजराती कहानी के क्षेत्र में मांकड के योगदान की रूपरेखा स्पष्ट नज़र आयेगी।
गुजराती कहानी का आरम्भ हम यहाँ-वहाँ ढूँढ़ने की कोशिश करें। परंतु बीसवें शतक के आरम्भ से हमारे यहाँ इस विधा का प्रादुर्भाव हुआ है और तत्त्वतः यह पश्चिमी साहित्य के प्रवाह का सीधा परिणाम है। पश्चिम में और यहाँ भी कहानी के सम्बन्ध में जो बात स्पष्ट रूप से देखी गयी है, वह यह कि कहानी का स्वरूप किसी एक चौखटे में बँधा नहीं रहा है। उसके कुछ लक्षणों को स्थायी रूप मिलने लगे तभी उसका स्वरूप बदलता रहा है। हर बार उसमें आधार के रूप में कहीं कम तो कही घन मात्रा में वृत्तान्त का तत्त्व टिका रहा है, परन्तु उस वृत्तान्त को निरूपित करने का ढंग बदलता रहा है। गुजराती कहानी के नौ दशकों के समयपट को देखने पर उसमें असंख्य चेहरे नज़र आते हैं। कहीं उसका कोष्टक हाथ में आ जाता है, तो कहीं कविता कि तरह बिलकुल ही वायुस्वरूप बनकर हमारी पकड़ में से छूट जाता है।
गुजराती कहानी के प्रभवकाल के प्रथम दो दशक कहानी के स्वरूप पर पकड़ जमाने की भारी कोशिश के समान हैं। एक ओर नवशिक्षित लेखक तो दूसरी ओर उनके सीधे आविष्कार जैसे ‘वार्तावारिधि’, ‘गुणसुन्दरी’ और ‘सुन्दरीसुबोध’ आदि सामियिकों ने गुजराती कहानी के अवतरण को सम्भव बनाया। अम्बालाल साकरलाल देसाई की कहानी ‘शान्तिलाल’ उसी प्रकार की रचना है जो कुछ ध्यान आकर्षित करती है। कहानी का झरना रमणभाई नील-कण्ठ, धनसुखलाल महेता, कन्हैयालाल मुंशी और मलयानिल जैसे सर्जकों द्वारा पुष्ट होता है। यहाँ कहानी का स्तर कहानी की कलात्मकता तक नहीं उठता है। उस समय के लेखकों के लिए कहानी सामाजिक समस्याओं को अभिव्यक्त करने का साधन बन जाती है। हालाँकि ‘गोवालाणी’ कहानी के लेखक मलयानिल में कला की ओर झुकाव अवश्य पाया जाता है। परन्तु इस प्रकार की अन्य रचनाओं का वे सृजन कर पाते इसके पहले तो उनका निधन हो गया था। परिणामतः गुजराती कहानी जैसी भी थी, उसी को मान्य रखना पड़ा।
इसके बाद धूमकेतु के कहानी के क्षेत्र में आने के पहले बटुभाई उमरिवाडिया, लीलावती मुंशी, ब० क० ठाकोर और इन्दुलाल याज्ञिक आदि की कलामय और स्पृहणीय रचनाएँ प्राप्त हुईं। परन्तु मलयानिल की कहानी ‘गोवालणी’ के बाद धूमकेतु की ‘भैया दादा’ ‘पोस्ट आफिस’ या ‘गोविन्दनुं खेतर’ जैसी कहानियों तक आकर गुजरती कहानी जैसे हनुमान जैसी छलांग लगाती है। कहानी एक स्वायत्त, स्वनिर्भर कला प्रकार है, यह इसके साथ सिद्ध हो जाता है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि धूमकेतु के हाथों गुजराती कहानी का सही मायने में यज्ञोपादित संस्कार हो जाता है। उनके कहानी-संग्रह ‘तणखामण्डल’ के विविध खण्डों में समाविष्ट कहानियाँ कई तरह से ध्यान आकर्षित करती हैं। सच तो यह है कि ये कहानियाँ इतिहास बनाती हैं। कहानी क्या है, उसमें संवेदनाएँ कैसे रूपायित होती हैं, उनके आरंभ-मध्य-अन्त में कैसे परिणाम देखे जाते हैं, पात्र, भाषा आदि का कैसे विस्तार होता है-इन सब बातों की पूरी जानकारी ‘तणखामण्डल’ में मिल जाती है। इस तरह धूमकेतु आगमन गुजराती कहानी में एक सीमा-चिन्ह है।
ग्राम-सभ्यता और उसके विरोध में नगर-सभ्यता दोनों में बसे हुए, तो कभी इन दोनों सभ्यताओं के बीच टकरा रहे मनुष्य का करुण मधुर चित्र उनकी कहानियों में अंकित हुआ है। फिर भी आंचलिक सभ्यता और गोप जीवन के प्रति उनका विशेष झुकाव है। अपार विषय-वैविध्य अलगाव और सनकी पात्र, आरण्यक आबोहवा और चिन्तन की हल्की-सी फुहार लेकर आनेवाला उसका भावसभर गद्य तथा कहानी का आकस्मिक और अकल्पित अन्त-अंगारा उनकी कहानी की विशेषता है। उनकी कहानियों को गुजरात के बाहर भी प्रशंसा प्राप्त हुई है। अपनी इस लाक्षणिक सम्पन्ता को लेकर उन्होंने अपने समकक्ष तथा अनुगामी कहानी-लेखकों को अनेक प्रकार से प्रभावित किया है।
धूमकेतु की कहानियों की लाक्षणिकताओं को स्वयं उन्होंने इतना निचोड़-निचोड़ कर रख दिया है कि कहानी के क्षेत्र में कुछ नया करने की इच्छुक लेखकों को भिन्न राह पर ही चलना पड़ा। उत्कट-भावमयता का चरम बिन्दु दर्शाने वाली उनकी कहानियों के अनुकरण भी हुए, परन्तु जो क़दम उन्होंने उठाया, वह तो न्यारा ही रहा।
धूमकेतु के तुरंत बाद कहानी के क्षेत्र में रामनारायण वि. पाठक (द्विरेफ) ने प्रवेश किया जिन्हें गम्भीर कलापरक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। कहानी के क्षेत्र में कुछ निजी तत्त्व को प्रकट करना हो तो उनके लिए धूमकेतु की रीतियों को टालना अनिवार्य था। इसीलिए उन्होंने भिन्न सिरे से कहानी का प्रयोग किया। धूमकेतु की उत्कट भावमयता के विरोध में उन्होंने बौद्धिकता, तार्किकता और मनोवैज्ञानिक मोड़ को प्रधान्य दिया। गुजराती कहानी का यह महत्वपूर्ण प्रस्थान था। धूमकेतु ने तीव्र भावुकता से, तो द्विरेफ ने यथार्थ और तर्क-संगत संदर्भ से गुजराती कहानी का विस्तार किया।
माकंड कहानी की कला के विषय में सोचते समय गुजरती कहानी पर एक सरसरी नज़र डालना आवश्यक है। इससे गुजराती कहानी के क्षेत्र में मांकड के योगदान की रूपरेखा स्पष्ट नज़र आयेगी।
गुजराती कहानी का आरम्भ हम यहाँ-वहाँ ढूँढ़ने की कोशिश करें। परंतु बीसवें शतक के आरम्भ से हमारे यहाँ इस विधा का प्रादुर्भाव हुआ है और तत्त्वतः यह पश्चिमी साहित्य के प्रवाह का सीधा परिणाम है। पश्चिम में और यहाँ भी कहानी के सम्बन्ध में जो बात स्पष्ट रूप से देखी गयी है, वह यह कि कहानी का स्वरूप किसी एक चौखटे में बँधा नहीं रहा है। उसके कुछ लक्षणों को स्थायी रूप मिलने लगे तभी उसका स्वरूप बदलता रहा है। हर बार उसमें आधार के रूप में कहीं कम तो कही घन मात्रा में वृत्तान्त का तत्त्व टिका रहा है, परन्तु उस वृत्तान्त को निरूपित करने का ढंग बदलता रहा है। गुजराती कहानी के नौ दशकों के समयपट को देखने पर उसमें असंख्य चेहरे नज़र आते हैं। कहीं उसका कोष्टक हाथ में आ जाता है, तो कहीं कविता कि तरह बिलकुल ही वायुस्वरूप बनकर हमारी पकड़ में से छूट जाता है।
गुजराती कहानी के प्रभवकाल के प्रथम दो दशक कहानी के स्वरूप पर पकड़ जमाने की भारी कोशिश के समान हैं। एक ओर नवशिक्षित लेखक तो दूसरी ओर उनके सीधे आविष्कार जैसे ‘वार्तावारिधि’, ‘गुणसुन्दरी’ और ‘सुन्दरीसुबोध’ आदि सामियिकों ने गुजराती कहानी के अवतरण को सम्भव बनाया। अम्बालाल साकरलाल देसाई की कहानी ‘शान्तिलाल’ उसी प्रकार की रचना है जो कुछ ध्यान आकर्षित करती है। कहानी का झरना रमणभाई नील-कण्ठ, धनसुखलाल महेता, कन्हैयालाल मुंशी और मलयानिल जैसे सर्जकों द्वारा पुष्ट होता है। यहाँ कहानी का स्तर कहानी की कलात्मकता तक नहीं उठता है। उस समय के लेखकों के लिए कहानी सामाजिक समस्याओं को अभिव्यक्त करने का साधन बन जाती है। हालाँकि ‘गोवालाणी’ कहानी के लेखक मलयानिल में कला की ओर झुकाव अवश्य पाया जाता है। परन्तु इस प्रकार की अन्य रचनाओं का वे सृजन कर पाते इसके पहले तो उनका निधन हो गया था। परिणामतः गुजराती कहानी जैसी भी थी, उसी को मान्य रखना पड़ा।
इसके बाद धूमकेतु के कहानी के क्षेत्र में आने के पहले बटुभाई उमरिवाडिया, लीलावती मुंशी, ब० क० ठाकोर और इन्दुलाल याज्ञिक आदि की कलामय और स्पृहणीय रचनाएँ प्राप्त हुईं। परन्तु मलयानिल की कहानी ‘गोवालणी’ के बाद धूमकेतु की ‘भैया दादा’ ‘पोस्ट आफिस’ या ‘गोविन्दनुं खेतर’ जैसी कहानियों तक आकर गुजरती कहानी जैसे हनुमान जैसी छलांग लगाती है। कहानी एक स्वायत्त, स्वनिर्भर कला प्रकार है, यह इसके साथ सिद्ध हो जाता है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि धूमकेतु के हाथों गुजराती कहानी का सही मायने में यज्ञोपादित संस्कार हो जाता है। उनके कहानी-संग्रह ‘तणखामण्डल’ के विविध खण्डों में समाविष्ट कहानियाँ कई तरह से ध्यान आकर्षित करती हैं। सच तो यह है कि ये कहानियाँ इतिहास बनाती हैं। कहानी क्या है, उसमें संवेदनाएँ कैसे रूपायित होती हैं, उनके आरंभ-मध्य-अन्त में कैसे परिणाम देखे जाते हैं, पात्र, भाषा आदि का कैसे विस्तार होता है-इन सब बातों की पूरी जानकारी ‘तणखामण्डल’ में मिल जाती है। इस तरह धूमकेतु आगमन गुजराती कहानी में एक सीमा-चिन्ह है।
ग्राम-सभ्यता और उसके विरोध में नगर-सभ्यता दोनों में बसे हुए, तो कभी इन दोनों सभ्यताओं के बीच टकरा रहे मनुष्य का करुण मधुर चित्र उनकी कहानियों में अंकित हुआ है। फिर भी आंचलिक सभ्यता और गोप जीवन के प्रति उनका विशेष झुकाव है। अपार विषय-वैविध्य अलगाव और सनकी पात्र, आरण्यक आबोहवा और चिन्तन की हल्की-सी फुहार लेकर आनेवाला उसका भावसभर गद्य तथा कहानी का आकस्मिक और अकल्पित अन्त-अंगारा उनकी कहानी की विशेषता है। उनकी कहानियों को गुजरात के बाहर भी प्रशंसा प्राप्त हुई है। अपनी इस लाक्षणिक सम्पन्ता को लेकर उन्होंने अपने समकक्ष तथा अनुगामी कहानी-लेखकों को अनेक प्रकार से प्रभावित किया है।
धूमकेतु की कहानियों की लाक्षणिकताओं को स्वयं उन्होंने इतना निचोड़-निचोड़ कर रख दिया है कि कहानी के क्षेत्र में कुछ नया करने की इच्छुक लेखकों को भिन्न राह पर ही चलना पड़ा। उत्कट-भावमयता का चरम बिन्दु दर्शाने वाली उनकी कहानियों के अनुकरण भी हुए, परन्तु जो क़दम उन्होंने उठाया, वह तो न्यारा ही रहा।
धूमकेतु के तुरंत बाद कहानी के क्षेत्र में रामनारायण वि. पाठक (द्विरेफ) ने प्रवेश किया जिन्हें गम्भीर कलापरक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। कहानी के क्षेत्र में कुछ निजी तत्त्व को प्रकट करना हो तो उनके लिए धूमकेतु की रीतियों को टालना अनिवार्य था। इसीलिए उन्होंने भिन्न सिरे से कहानी का प्रयोग किया। धूमकेतु की उत्कट भावमयता के विरोध में उन्होंने बौद्धिकता, तार्किकता और मनोवैज्ञानिक मोड़ को प्रधान्य दिया। गुजराती कहानी का यह महत्वपूर्ण प्रस्थान था। धूमकेतु ने तीव्र भावुकता से, तो द्विरेफ ने यथार्थ और तर्क-संगत संदर्भ से गुजराती कहानी का विस्तार किया।
डॉ० प्रवीण दरजी
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