नई पुस्तकें >> नाट्य विमर्श नाट्य विमर्शमोहन राकेश
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मोहन राकेश हिन्दी के निरीह-से सामान्य नाटककार भर न होकर ‘थिएटर एक्टीविस्ट’ भी थे। इसीलिए उनके ‘नाट्य-विमर्श’ का दायरा केवल नाटक-लेखन और उससे जुड़े सवालों के शास्त्रीय-सैद्धान्तिक विवेचन-विश्लेषण तक ही सीमित नहीं था। उनकी प्रमुख चिन्ता आधुनिक भारतीय रंग-दृष्टि की तलाश/उपलब्धि और उसके विश्व- स्तरीय विकास की थी। यही कारण है कि वह एकांकी, रेडियो नाटक, नाट्यानुवाद और हिन्दी नाटक तथा रंगमंच का ऐतिहासिक विकास-क्रम से समग्र विवेचन करने के बाद सीधे ‘नाटककार और रंगमंच’, ‘रंगमंच और शब्द’, ‘शब्द और ध्वनि’ तथा शुद्ध और नाटकीय शब्द की खोज के साथ-साथ रंगकर्म में शब्दों की बदलती भूमिका को रेखांकित करते हैं। यही नहीं, समकालीन हिन्दी रंगकर्म की अनेक व्यावहारिक समस्याओं से जूझने के साथ-साथ राकेश फ़िल्म और टेलीविजन की लगातार बढ़ती प्रत्यक्ष चुनौतियों के समक्ष रंगमंच के मूल तर्क और भविष्य के बारे में भी गम्भीर चिन्तन-मनन करते हैं।
स्पष्ट है कि राकेश का नाट्य-विमर्श स्वानुभव पर आधारित, गम्भीर, बहुआयामी और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। परन्तु इस विषय से सम्बद्ध राकेश की सारी सामग्री अब तक हिन्दी-अंग्रेज़ी की पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में लेखों, साक्षात्कारों, टिप्पणियों, प्रतिक्रियाओं, परिसंवादों एवं समीक्षाओं के रूप में इधर-उधर बिखरी होने के कारण सहज उपलब्ध नहीं थी। यहाँ राकेश के नाट्य- विमर्श को, उसकी चिन्तन-प्रक्रिया के विकास-क्रम में, एक साथ प्रकाशित किया गया है।
आशा है, यह पुस्तक मोहन राकेश के प्रबुद्ध पाठकों, अध्येताओं और रंगकर्म के साहसी प्रयोक्ताओं, प्रेक्षकों-समीक्षकों के लिए निश्चय ही उपयोगी और सार्थक होगी।
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