कहानी संग्रह >> इतनी दूर इतनी दूरतरुणकान्ति मिश्र
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प्रस्तुत है श्रेष्ठ 10 कहानियों का संग्रह....
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
इन कहानियों का सम्बन्ध हमारे अतीत और वर्तमान के बहुत निकट है। जिस कौशल
से इन कहानियों में कल्पना और यथार्थ का सामंजस्य स्थापित किया है वह
पाठकों अन्त तक बाँधे रहता है। छात्र-जीवन की खट्टी-मीठी अनूभूतियाँ हों
या सामाजिक सम्बन्धों के निर्वाह से जुड़ी समस्याएँ या फिर राजकीय सेवा के
दौरान हुए अनुभव-इन कहानियों में एक टीस,एक आनन्द,एक अन्तर्वेदना का एहसास
है।
अनजानी तिथि का चाँद
अन्ततः मैंने सोचा था कि यह कहानी नहीं लिखूँगा। यह एक ऐसी कम उम्र और समय
की कहानी है जिसे इतने दिनों बाद लिखने का कोई मतलब ही नहीं था।
मैंने कहा—कम उम्र और समय। लेकिन क्या यह कहना ठीक है ? आज से अठारह साल पहले, जब मेरी उम्र सिर्फ़ सत्रह वर्ष थी, क्या मेरी उस समय की साँसें आज की तरह गहरी नहीं थीं, क्या उम्र का अनुभव इतना निजी, इतना घनिष्ठ नहीं था ? यदि नहीं, तो आज तक वे स्मृतियाँ मुझमें जीवित कैसे हैं ?
यह कहानी लिखते समय मेरी आँखों के आगे एक चेहरा उभरने लगा है। चाँदनी से भीगी रात-सी स्निग्ध कोमल एक युवती का चेहरा और उसके साथ-साथ कुछ छितराये दृश्य। मुझे डर है कि मैं उस चेहरे के बारे में, अठारह साल पहले के उन बीते दिनों के बारे में, ठीक से कुछ कह नहीं पाऊँगा।
महाकाल के संचार-पथ पर अठारह साल सम्भवतः कोई लम्बा समय नहीं होता, किन्तु एक मनुष्य के जीवन में यह सफ़र काफ़ी लम्बा है। और मैं जिस माहौल और अनुभव की बात कह रहा हूँ, वह मेरी आज की दुनिया से काफ़ी भिन्न है। फिर भी, जब शुरु कर ही चुका हूँ कहानी तो ख़त्म करनी ही होगी।
यहाँ से लगभग डेढ़ हज़ार मील दूर पखानजूर नामक एक छोटी-सी बस्ती है। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर स्थित यह इलाका पच्चीस साल पहले सिर्फ़ जंगल-ही-जंगल था। दण्डकारण्य प्रखण्ड की शुरुआत होने के बाद पहली बार वहाँ मनुष्य के पैर पड़े। धीरे-धीरे अनेक शरणार्थी बस्तियाँ बनीं। बने रास्ते, अस्पताल, स्कूल वेश्यालय।
दण्डकारण्य से मेरा परिचय बहुत पुराना है। इस प्रखण्ड के पाँच हज़ार कर्मचारियों में मेरे पिता भी एक थे। ऑफ़िसर ग्रेड में पदोन्नति पाकर वे उस समय पखानजूर आये थे जब मैंने इण्टर साइन्स के बाद रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला लिया था। पहले पिताजी की इच्छा कोरापुट छोड़कर इस दूर-दराज़ के इलाक़े में आने की नहीं थी। किन्तु माँ ने कहा, ‘‘यह तो बहुत अच्छा हुआ। रायपुर से पखानजूर क़रीब पड़ेगा। सरोज जब भी चाहेगा घर आ सकता है। आप डी.सी. से ‘हाँ’ कह दीजिए।’’
हमारे परिवार के एक और सदस्य की भी पखानजूर जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी। वह थी नन्दिता—मेरी छोटी बहन। यह सच है कि वहाँ पढ़ाई के लिए उसे स्कूल तो मिल जाएगा, लेकिन स्कूल से लौटने के बाद समय काटने के लिए क्या उसे मन-मुताबिक सहेलियाँ मिलेंगी ?
माँ ने गम्भीर स्वर में नन्दिता से कहा, ‘‘इस वर्ष तेरी बोर्ड की परीक्षा है। साथ-सहेली ढूँढ़ने में समय न गँवाकर किसी तरह मैट्रिक पास तो करना ही होगा। समझी ?’’
समझने की कोशिश न करके नन्दिता ने ख़ामोश विद्रोह से मुँह बिचका दिया था।
लेकिन पखानजूर पहुँचकर नन्दिता ने मुझे जो पत्र लिखा था, उसमें एक तरह के अद्भुत उच्छ्वास का स्वर था। उसमें लिखा था, वन-पहाड़ों से घिरी वह जगह उसे बहुत अच्छी लग रही है। बेहद ख़ूबसूरत। विशेष रूप से ख़ूबसूरत है जापानी विशेषज्ञों के निवास के आगे बना विशाल जल-भण्डार। मानो कोई प्राकृतिक झील हो।
उसके बाद के पत्रों में पखानजूर के बारे में बहुत-सी ख़बरें थीं, उसकी पढ़ाई-लिखाई के बारे में भी। लेकिन यह बात उसने पत्रों में क़तई नहीं लिखी थी कि वहाँ जाकर वह एक प्रभावशाली नारी-नेत्री बन गयी है।
उसका प्रमाण मुझे तब मिला, जब मैं पहली बार पखानजूर गया। अपनी कई हम-उम्र लड़कियों को साथ लेकर उसने एक सांस्कृतिक संस्था बनायी थी और उसी की कोशिश से उस बार एक नृत्य-नाटिका की भी तैयारी हो रही थी।
जंगल-भरी पृथ्वी से कुछ संघर्ष और कुछ समझौता करके जीना चाहते थे, पूर्वी बंगाल के शरणार्थी। उनके लिए काम करनेवाले कर्मचारी भी उसी संघर्ष और समन्वय में बराबरी के भागीदार थे। उन सबके सम्मिलित प्रयास से ही इस प्रखण्ड में एक नयी संस्कृति पैदा हुई है। हर वर्ष कुछ-न-कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, तीन सौ मील दूर से ही कभी-कभी प्रखण्ड के मुख्य प्रशासक भी आकर इस उत्सव में शामिल होते हैं।
उस बार भी वैसा ही आयोजन चल रहा था। कॉलोनी की लड़कियों के ज़िम्मे एक नृत्य-नाटिका थी, जिसकी मुख्य संचालिका थी नन्दिता।
रायपुर से आकर घर पर क़दम रखने के बाद से ही नन्दिता अपनी हर बात मुझसे लगातार बताती रहती। ख़ासकर नृत्य-नाटिका के बारे में। उनका कार्यक्रम देखकर प्रत्याशित मुख्य अतिथि चीफ़ एडमिनिस्ट्रेटर निश्चित ही मुग्ध हो जाएँगे, इस बारे में उसे ज़रा भी सन्देह नहीं था।
मैं मुस्कराया, ‘‘प्रखण्ड के मुख्य प्रशासक एक आई.सी.एस. ऑफ़िसर हैं। बदक़िस्मती से कोरापुट में पड़े हैं। वे भला तुम्हारी नृत्य-नाटिका देखकर मुग्ध होंगे ?’’
‘‘मुग्ध होंगे या नहीं, तुम ही कहना। किसी दिन हमारा रिहर्सल देखने आओ, उसके बाद।’’
नन्दिता का रिहर्सल देखने की मुझमें ज़रा भी इच्छा नहीं थी। लेकिन उससे सूचना मिलती कि तैयारी ज़ोर-शोर से चल रही थी और स्टेज पर खड़ी होकर सुचरिता निश्चित ही सबको मोह लेगी।
‘‘यह सुचरिता कौन है ?’’
‘‘वही तो है श्रीराधा।’’
‘‘अब यह श्रीराधा कौन है ?’’
उसके बाद नन्दिता का स्वर खिन्न सुनाई दिया। उसने कहा, ‘‘तुम इतनी जल्दी सारी बातें भूल जाते हो ? कल मैंने तुम्हें बताया नहीं था कि सुचरिता हमारी ‘श्रीराधा’ नृत्य-नाटिका में हिरोइन बनी है ?’’
उसके बाद उसने सुचरिता की प्रशंसा करते हुए बहुत-सी बातें बतायी थीं, जो मैंने ध्यान से नहीं सुनी थीं।
ठीक उसके दूसरे दिन सुचरिता से मेरी मुलाक़ात हो गयी। उसी के बारे में है मेरी यह कहानी।
उन दिनों हवा में माघ-फागुन की कोमल ठण्डक थी। आसमान साफ़ नीला था। उस युवती की पाप से अछूती आँखों की तरह।
लेकिन उस दिन शाम को आसमान का रंग एकदम बदल गया था। पर्वतों के सन्धि-स्थल से बे-मौसम बादल घिर आये थे और बारिश भी हुई थी, थोड़ी बहुत हवा के साथ।
मैं एक चादर ओढ़े बैड-रूम में जॉर्ज गॉमो की वैज्ञानिक पहेलियों की किताब लिये बैठे पढ़ रहा था।
ठीक उसी समय काफ़ी घबरायी हुई-सी नन्दिता अन्दर कमरे में आयी। उसने कहा, ‘‘भैया, एक समस्या आ गयी है।’’
किताब के पन्ने से मुँह उठाकर उसकी तरफ देखा। मैंने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘क्या हुआ ? क्या श्रीराधा कल रात से गुम हो गयी है ?’’
मुझे परदे की ओट से एक अपरिचित युवती का चेहरा दिखाई दिया। उसी की ओर उँगली से इशारा करके नन्दिता ने कहा, ‘‘भैया, यह मेरी सहेली सुचरिता है। इसी को लेकर इस समय एक समस्या उपजी है।’’
सुचरिता ने हाथ जोड़कर मुझे नमस्ते किया, मगर मैं इतना घबरा गया था कि उसे उलटकर नमस्ते तक नहीं कर पाया था।
उसके बाद नन्दिता ने मुझे अपनी परेशानी बतलायी थी।
हर रोज़ शाम को स्कूल से एक घण्टा पहले छुट्टी लेकर नन्दिता और उसकी अन्य सहेलियाँ छह बजे तक रिहर्सल करती थीं। उसके बाद सभी अपने-अपने घर चली जातीं।
पखानजूर से सात मील की दूरी पर काप्सी प्रोजेक्ट की एक और कॉलोनी है जहाँ मैडिकल और इंजीनियरिंग के दफ़्तर हैं। उस कॉलोनी से आवाजाही के लिए सिर्फ़ एक ही बस है। वह बस सुबह दस बजे पखानजूर आती है और शाम को छह बजे काप्सी लौट जाती है।
सुचरिता काप्सी अस्पताल के फ़र्मासिस्ट की बेटी है। वह रोज़ उसी बस से आती-जाती है। उसे कोई दिक़्क़त नहीं थी। लेकिन आज अचानक बादल-बारिश के कारण उसे क्लब में ही रुकना पड़ा और बस अपने समय पर काप्सी लौट गयी।
लेकिन इस समस्या के लिए मेरे पास कौन-सा समाधान है ?
कोई गम्भीर अपराध करने की तरह सुचरिता सिर झुकाये बैठी थी और मैं बुरी तरह ख़ुद को कोस रहा था कि श्रीराधा के बारे में इस समय मज़ाक़ न किया होता तो कम-से-कम मुझ-जैसे सत्रह वर्षीय व्यक्तित्व के लिए अधिक सम्मानजनक होता।
मुझे चुप्पी साधे देख नन्दिता ने कहा, ‘‘भैया, क्या तुम हमें ज़रा हैल्प नहीं करोगे ?’’
कैसा हैल्प चाहती है नन्दिता मुझसे ? क्या मैं बसवाले से जाकर कहूँ कि बस लौटा लाए, श्रीराधा जाएँगी ? मैंने मन-ही-मन यह सवाल किया और अपने उस अपरिपक्व सोच के लिए पुनः क्षुब्ध हुआ।
नन्दिता ने कहा, ‘‘तुम ज़रा सुचरिता को उसके घर छोड़ आओगे ?’’
पहले तो मैंने चौंकते हुए सोचा कि नन्दिता ने मुझसे जो कुछ कहा वह मैंने ठीक-ठीक सुना या नहीं ? इस वक़्त रात के आठ बजने वाले थे और आसमान में घटाटोप बादल डोल रहे थे, डेमोक्लीज़ की तलवार की तरह। ऐसे में क्या मैं साल मील चलकर जाऊँगा, वह भी एक लड़की के साथ ?
नन्दिता हर तरह से सोच-विचारकर मेरे पास आयी थी। पिताजी से उचित राय लेकर। उसने कहा, ‘‘पिताजी से पूछ चुकी हूँ। इस समय उन्हें कहीं नहीं जाना। तुम उनकी मोटर साइकिल लेकर सुचरिता को छोड़ आओ न !’’
उस दिन की बातचीत मैं अधिक नहीं बढ़ाऊँगा, पर इतना ज़रूर कहूँगा कि अनेक दुविधाओं और तर्क-वितर्क के बाद मुझे नन्दिता का अनुरोध मानना ही पड़ा।
तर्क की बनिस्बत उस दिन मुझमें दुविधा अधिक थी। परेशानी में पड़ी सहायता माँग रही युवती के आगे सत्रह साल का एक युवक ज़्यादा तर्क-वितर्क नहीं कर सकता, यह सही है। पर मन के भीतर की दुविधा के कई कारण होते हैं।
इस वक़्त दिल्ली महानगरी के एक जाने-माने इंजीनियरिंग संस्थान के ऑफ़िस में बैठा मैं सोच रहा हूँ कि अठारह साल पहले के उस अनुभव को किन शब्दों में बयान करूँ। नारी-पुरुष में जो सहजात संकोच होता है, उसकी अधोगति का नाम यदि सभ्यता है, तब तो यह दिल्ली शहर ही उसकी अन्तिम सीमा है। इस सीमान्त में बैठकर मैं कैसे वर्णन करूँगा जंगलों से घिरे अर्वाचीन जनपद का वह दृश्य ?
उस समय रात के लगभग आठ बजे होंगे। हवा में भीगी मिट्टी की महक और अनेक अनजान जंगली फूलों की सुरभि व्याप्त थी। आगे सूनसान रास्ता, बारिश से भीगे अँधेरे में मोटर साइकिल की रोशनी भर थी।
सुचरिता के बैठने के ढंग से मैं जान गया था कि वह पहली बार बाइक पर बैठी है। टेढ़े-मेढ़े जंगली रास्ते में वह अपना संतुलन ठीक से बना नहीं पा रही थी और मेरी पीठ से टिककर बैठने में हिचकिचा रही थी।
सात मील का रास्ता पार करने में अधिक समय नहीं लगा। मैं मोटर साइकिल भीतर कॉलोनी में ले गया। कुछ दूर जाने के बाद उसने धीरे से फुसफुसाकर कहा, ‘‘यह सामने हमारा मकान है।’’
बिना किसी आहट के सुचरिता मोटर साइकिल से उतरी। कुछ बोले बग़ैर गेट के अन्दर चली गयी। इस अन्दाज़ में मानो इस दुनिया में मेरा कोई अस्तित्व ही न था।
मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ था। बड़ी अज़ीब लड़की है यह तो ! देखो, धन्यवाद तक न कहकर किस तरह झटपट चली गयी !
निश्चित ही वह शर्मीली नहीं, बल्कि उसका गर्वीला होना अधिक सम्भव है। सुन्दर लड़कियाँ तो आम तौर पर गर्वीली ही होती हैं। और फिर नाच-गाना जाननेवाली सुन्दरियों में तो ज़्यादा ऐंठ होनी ही चाहिए।
दूसरे दिन, दोपहर को खाना खाते समय नन्दिता ने मुझसे कहा, ‘‘भैया, आज क्लब में हमने एक डिसीज़न लिया है।’’
‘‘कैसा डिसीज़न ?’’
डिसीज़न वाक़ई खतरनाक था। सुनते ही मेरे गले में कौर फँस गया। दो घूँट पानी पीने के बाद मैंने पूछा, ‘‘इसका मतलब तू सोच रही है कि....’’
‘‘सिर्फ़ मैं ही नहीं, क्लब के अन्य सदस्यों ने भी यही सोचा है। उस दिन गेम्स पीरियड में क्लब की एक अनौपचारिक बैठक के बाद सबने यह तय किया था कि फ़िलहाल यही करना उचित होगा। ग्यारह कलाकारों में से केवल सुचरिता ही काप्सी से आना-जाना करती है और वही इस नृत्य-नाटिका की नायिका है। और सात दिन के बाद जिस कार्यक्रम का आयोजन होगा, उसके लिए काफ़ी समय तक रिहर्सल करने की आवश्यकता है। यदि किसी तरह सुचरिता आठ बजे तक रुक जाती, और भैया, तुम रोज़ाना उसे मोटर साइकिल पर बिठाकर उसके घर छोड़ आते तो....’’
नन्दिता का यह प्रस्ताव मेरे लिए बड़ा अजीब था। इस तरह के प्रस्ताव का मैं क्या जवाब दूँ, यह तय करने से पहले ही माँ बीच में बोल पड़ी, ‘‘इस नाच-गाने के नशे में इस साल तू मैट्रिक ज़रूर फेल होगी, यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है....’’
मैंने अति उत्साहपूर्वक माँ की बात का समर्थन किया होता; किन्तु मुझे मालूम था इस विशेष आयोजन के पीछे पिताजी वरदहस्त हैं। वे चाहते हैं कि चीफ़ एडमिनिस्ट्रेटर यहाँ आकर इनका कार्यक्रम देखकर ख़ुश हों और उन्हें यह पता चले कि नन्दिता पटनायक उनकी बेटी है। लेकिन मेरा भी तो अपना एक व्यक्तित्व है। अपनी स्वतन्त्र राय भी। मछली से काँटा निकालने के काम में कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने मन-ही-मन अपने व्यक्तित्व का ख़ाका तैयार किया और गंभीर होकर कहा, ‘‘मैं जो कुछ कहता हूँ सुन, इन सब फ़ालतू कामों के लिए मेरा पास ज़रा भी समय नहीं है।’’
‘‘तुम इसे फ़ालतू काम कर रहे हो, भैया ! कला संस्कृति...ये फ़ालतू काम हैं ? तुम साइंस के छात्र हो तो क्या सारी दुनिया सिर्फ़ मैथेमैटिक्स रटती रहेगी, लेबोरेटरी में बैठी मेंढक और केंचुआ का सिर चबाती रहेगी ?’’
उसके बाद काफ़ी देर तक बातचीत होती रही, जिसका विवरण मैं यहाँ नहीं दूँगा। किन्तु अन्त में राज़ी न होने के पक्ष में कोई ज़ोरदार तर्क न पाकर, मैं चुप हो गया था।
उस दिन शाम को भी सुचरिता को छोड़ने मुझे काप्सी जाना पड़ा। हालाँकि उस दिन आसमान में बादल नहीं थे, ना ही हवा में भीगी-भीगी सिहरन थी। किन्तु सात मील लम्बे अँधेरे में एक अस्पृश्य कोमलता और कई अँजुली गर्म साँसें मेरा पीछा कर रही थीं।
उस रोज़ घर लौटकर मैंने नन्दिता से कहा था, ‘‘कुछ भी बोल, तेरी यह सहेली है बहुत अशिष्ट।’’
इससे पहले कि नन्दिता की आँखों में विस्मय-भरे सवाल उभरें, मैंने अपनी बात अधिक तर्कसंगत बनाते हुए कहा, ‘‘पिछले दो दिनों से इतना परेशान होकर उसके लिए ड्राइवरी कर रहा हूँ, मगर उसकी सज्जनता तो देख, सामान्य-सा धन्यवाद तक नहीं कहा उसने। कितना गर्व है उसमें !’’
नन्दिता ने कहा था, ‘‘भैया, सुचरिता को तुम गर्वीली कहते हो ? आख़िर तुमने उसके बारे में यही राय बनायी ?’’
‘‘ऐसी राय बनाये बग़ैर और कोई उपाय भी तो नहीं था। स्टेज पर खड़ी होकर धेई-धेई नाचनेवाली लड़की उतनी शर्मीली तो नहीं ही होगी।’’ इसे प्रमाणित करने की ज़रूरत नहीं थी।
लेकिन नन्दिता ने गम्भीर होते हुए वही कहा था। उसने कहा था, ‘‘सुचरिता बहुत शर्मीली है। किसी से अच्छी तरह बात तक नहीं कर सकती। स्टेज पर खड़ी होकर इतना सुन्दर गाती है, नाचती है, पर स्टेज से उतरते ही वह बिल्कुल बदल जाती है। बेइन्तहा शर्मीली हो जाती है।’’
‘‘वह इस बात के लिए काफ़ी चिन्तित है कि तुम उसके लिए इतनी परेशानी उठा रहे हो। उसने मुझसे कई मर्तबा कहा कि, ‘अपने भैया से कह देना, बुरा न मानें; मेरे लिए उनका बहुत समय बर्बाद होता है। कहना, मुझे माफ़ कर दें।’’
इतना सुनने के बाद सत्रह साल के किसी युवक का चुप्पी साध लेना स्वाभाविक है।
सच ही कहूँगा, पिछले दो दिनों से मैं सुचरिता को अच्छी तरह देख भी नहीं सका था। वह चुपचाप पिलियन पर बैठ जाती, सात मील तक मेरी आँखों की ओट में रहने के बाद पुनः चुपचाप मेरे पीछे से आकर अँधेरे में डूबे मकान के बरामदे में अदृश्य हो जाती।
लेकिन आज हम दोनों ने एक-दूसरे को अच्छी तरह देखा था। उसने देखा होगा, मैं भी कितना शर्मीला हूँ।
कृष्ण पक्ष की धुँधली चाँदनी काप्सी की ओर पसरी सड़क और दोनों ओर के जंगलों में बिखरी हुई थी। थोड़ी दूर जाने के बाद एक शरणार्थी बस्ती को पार करके मोटर साइकिल का इंजन अचानक बन्द हो गया।
मैं कुछ समझ नहीं पाया। कुछ घबराया हुआ-सा बाइक खड़ा किया।
सुचरिता का आवाज़ कुछ सहमी हुई थी। उसने पूछा, ‘‘क्या हुआ ?’’
क्या हुआ, यह मैं भी नहीं जान पा रहा था। मुझे मोटर साइकिल सिर्फ़ चलानी भर आती है, उसकी मशीनरी के बारे में मेरी कोई जानकारी नहीं।
कई बार इंजन स्टार्ट करने की असफल चेष्टा करने के बाद मैंने अपनी अज्ञानता स्वीकार कर ली। मीठी आवाज़ में पूछा, ‘‘अब क्या करें ?’’
आकाश में अनजानी तिथि का चाँद था। पेड़ पौधों पर अचीन्हे पक्षियों और पतंगों का स्वर। पीछे कुछ ही दूरी पर शरणार्थी बस्ती।
‘‘कितनी दूर है काप्सी यहाँ से ?’’ सुचरिता ने पूछा।
‘‘लगभग तीन मील।’’
‘‘ठीक है, चलिए पैदल चलें।’’
सुचरिता का आश्वासन मुझे उतना उपयुक्त नहीं लगा। उस वीरान रास्ते में वह और मैं—सिर्फ़ हम दोनों, यह सोचते ही मेरे सीने में एक अद्भुत भय और साहस की मिली-जुली सिहरन फैल गयी थी। उसके प्रभाव से मेरी निगाह उस पर कुछ देर तक टिकी रही।
पन्द्रह साल की किसी युवती का वर्णन मैं कैसे करूँ ? मैं कैसे अभिव्यक्त करूँ अपना अनुभव, उस समय मेरी उम्र थी सिर्फ़ सत्रह साल ! सुचरिता लड़की है, एक जीवित शरीर—मन आत्मा, इससे अधिक भला और क्या कहने की ज़रूरत है ?
सुचरिता के बदन से शायद एक अद्भुत ख़ुशबू निकल रही थी। उसके हर पग पर एक अद्भुत संगीत-लहरी थी, और उसकी तेज़ साँसों में था नामहीन उत्ताप का कोमल प्रवाह।
मुझे मदहोशी-सी लग रही थी। पैर कुछ लड़खड़ाने लगे। शायद मोटर साइकिल का वज़न मेरे पैरों को कमज़ोर कर रहा था, या फिर अन्य कोई अनास्वादित चेतना।
सुचरिता ने मेरी ओर देखा। उसने कहा, ‘‘आप थक गये होंगे। चलिए यहीं बैठते हैं कुछ देर।’’
मेरे जवाब का इन्तज़ार किये बिना वह सड़क-किनारे बनी एक छोटी-सी पुलिया पर बैठ गयी।
मोटर साइकिल खड़ी करके मैंने चारों ओर देखा। पुल के नीचे बह रहे पहाड़ी सोते का कलकल स्वर मुझे साफ़-साफ़ सुनाई दे रहा था।
उसी निर्जनता में सुचरिता ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा, ‘‘क्या आप हमारा प्रोग्राम देखने आएँगे ?’’
‘‘और पाँच दिन के बाद प्रोग्राम है। मेरी छुट्टी अभी बारह दिन और है, इसलिए प्रोग्राम न देखने का कोई कारण नज़र नहीं आता।’’ मुझसे इस तरह का जवाब सुनकर सुचरिता ने कहा, ‘‘मैंने सोचा था, आप नहीं आएँगे।’’
ऐसा उसने क्यों सोचा था ? इस सवाल का जवाब खुद उसी ने दिया। ‘‘नन्दिता कहती थी, आपको नाच-गाना बिल्कुल पसन्द नहीं।’’
इस लड़की के आगे नन्दिता ने मुझे काफ़ी बदनाम कर रखा है; इसमें सन्देह नहीं। इस समय क्या कहकर अपना महत्त्व बचा सकता हूँ, ठीक से सोच नहीं पाया। कुण्ठित स्वर में बोला, ‘‘नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। मतलब, मैं साइंस का छात्र हूँ तो, इन सब में इण्टरेस्ट लेने का समय ही नहीं मिल पाता।’’
सुचरिता ने यह तर्क मान लिया। उसने कहा, ‘‘हाँ, आप तो पढ़ाई में काफ़ी तेज़ भी हैं, आई.एस.सी. में तो पोज़ीशन थी आपकी; मैंने सुना है।’’
वस्तुतः इस तरह परोक्ष रूप से मैं अपनी प्रशंसा क़तई नहीं करवाना चाहता था। मैं शर्म से पानी-पानी हो गया। उस मनोभाव को छिपाने के लिए मैंने पुनः मोटर साइकिल स्टार्ट करनी चाही। और देखो क़िस्मत भी, इंज़न तुरन्त स्टार्ट हो गया। पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ।
उस दिन की बातचीत उतनी ही थी। यदि रास्ते में उस तरह की कोई अनहोनी असुविधा न हुई होती तो शायद जीवन में हम दोनों की कभी बातचीत ही न हुई होती।
मैं एक बात सोचता हूँ; शायद दो शर्मीले इन्सान बहुत जल्दी एक-दूसरे को पहचान लेते हैं। उनके संकोच की सहजात बाधा संभवतः बड़ी आसानी से अन्तर्धान हो जाती है। वरना इस कहानी के अगले पृष्ठ किस तरह लिखे जाते ?
दूसरे दिन बाइक से जाते समय सुचरिता ने आहिस्ता से अपना हाथ मेरे कन्धे पर रखा, ठीक उतना ज़ोर देकर, जितना कि सुरक्षित और स्वाभाविक यात्रा के लिए आवश्यक था। उसके मृदु स्पर्श से मेरा शरीर उसी तरह सिहर उठा, जैसे कि स्वादिष्ट कुल्फी का टुकड़ा मुँह में घुल जाने से लगता है।
उस दिन रास्ते में कोई परेशानी नहीं हुई। बाइक ठीक से चल रही थी। लेकिन मैं ठीक उसी पुल के पास ठहर गया, जहाँ कल हम कुछ देर रुके थे।
पुल के पास बाइक रोकते ही सुचरिता ने पूछा, ‘‘आज फिर क्या हो गया ?’’
मैं ख़ुद ही नहीं समझ पा रहा था कि बाइक मैंने क्यों और कैसे रोक दी।
अपना अपराध स्वयं अस्वीकार करने-सा बोला, ‘‘कल मैं यहाँ एक चीज़ छोड़ गया था।’’
‘‘क्या चीज़ ?’’
मैं शायद उतना हाज़िर-जवाब नहीं था। मैंने कहा, ‘‘मेरी क़लम खो गयी है। सोचा, शायद यहीं कहीं गिरी होगी।’’ मैं तुरन्त कलम ढूँढ़ने का अभिनय करने लगा।
अपने उस मिथ्यावादी मनोभाव के लिए बाद में मुझे कोई पछतावा नहीं हुआ, हालाँकि कभी-कभी उस बारे में सोचकर शरमाया ज़रूर हूँ।
मैं क़लम ढूँढ़ने लगा और सुचरिता पुल पर बैठकर चारों ओर देखने लगी। कुछ देर बाद उसने मधुर आवाज़ में कहा, ‘‘कितनी सुन्दर है यह जगह !’’
मैंने तुरन्त हामी भरते हुए कहा था, ‘‘दण्डकारण्य वाक़ई बहुत सुन्दर है।’’
‘‘मिली आपकी क़लम ?’’
सुचरिता के सवाल करने के लहज़े से मैं समझ गया कि वह ख़ुद इसका उत्तर जानती है। क़लम मुझे नहीं मिली।
मैंने जो जवाब दिया, उसका मतलब था : शायद क़लम और कहीं छोड़ आया हूँ, ‘‘ठीक है, चिन्ता की कोई बात नहीं। कोई ख़ास क़ीमती क़लम भी नहीं थी।’’
मेरे इस जवाब के बाद भी सुचरिता उसी तरह पुल पर बैठी रही।
अन्यमनस्क-सी चारों ओर देखने के बाद बोली, ‘‘मैं बहुत नर्वस हो रही हूँ।’’
‘‘क्यों ?’’ मैंने पूछा।
छोटे-बड़े हर कलाकार के मन में सम्भवतः एक सन्देह, एक आशंका रहती है। कल्पना के किसी रूप को साकार करनेवाले प्रत्येक कलाकार में ठीक से कला-प्रदर्शन न कर पाने जैसा एक क्षुद्र-बोध होता है। सुचरिता उसका अपवाद नहीं थी।
हालाँकि इतनी बातें मैंने उस दिन नहीं सोची थीं, किंतु जब सुचरिता ने चार दिन बाद आनेवाली शाम के लिए उद्वेग प्रकट किया, मैंने कहा, ‘‘आप तो अच्छा पार्ट कर रही हैं, नन्दिता कह रही थी।’’
उसके बाद मानो मुझे मौक़ा मिल गया, अपनी कल की बातचीत के दौरान हुई ग़लती सुधारने का। मैंने कहा, ‘‘नाच-गाना मैं पसन्द नहीं करता, लेकिन सच कहूँ तो मैं ये सब ठीक से समझ नहीं पाता। ठीक जिस तरह की आधुनिक कविताएँ, क्या होता है इन कविताओं का मतलब ?’’
सुचरिता ने अपनी पन्द्रह साल की उम्र के अनुभव के आधार पर मुझे समझाने की कोशिश की थी—नाच-गाना, कला-साहित्य आदि के बारे में और अन्त में उसने कहा था, ‘‘कई बातें समझ में नहीं आतीं, उन्हें केवल महसूस किया जाता है। और यही काफ़ी है। यह गणित तो है नहीं कि स्टैप-बाई-स्टैप समझना पड़े।’’
उस दिन नहीं, उसके दूसरे दिन उसने मुझसे पूछा, ‘‘आपने गीतांजलि पढ़ी है ?’’
मैंने अस्वीकार करते हुए कहा था, ‘‘मुझें बांग्ला भाषा नहीं आती।’’
‘‘मैं भी बांग्ला नहीं जानती। मेरे पास अँग्रेज़ी में है गीतांजलि। उसकी कई बातें समझ में नहीं आतीं, किन्तु बहुत अच्छी लगती हैं पढ़ने में। ऐसा लगता है जैसे कि यह सारी पृथ्वी बहुत अपनी है। सारे दुखों और सुखों की ! मैं कभी दूँगी वह पुस्तक आपको, पढ़कर देखिएगा।’’
अब मुझे स्वीकारने में शर्म नहीं है कि तब मेरे मन में सुचरिता के लिए तरह की कमज़ोरी आ गयी थी। मन-ही-मन सोच रहा था कि मैं जिस लड़की से शादी करूँगा वह भी ठीक इसी सुचरिता-जैसी होनी चाहिए। उसके बाद सोचा था यदि वह लड़की स्वयं सुचरिता ही हो तो क्या हानि है ?
लेकिन क्या यह सम्भव है ?
फिर मन-ही-मन सोचा था, क्यों नहीं है सम्भव ? तरह-तरह के तर्क उठ रहे थे मन में। हालाँकि अब उनका कोई अर्थ नहीं।
तीन दिन बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ था। मुख्य प्रशासक आये थे। मैंने मुक्ताकाश थियेटर के एक कोने में खड़े होकर सुचरिता को देखा था। उसके बाद बाक़ी बची रात मैं सो नहीं पाया। अँधेरे में उठता-बैठता, खिड़की के पास जाकर खड़ा रहता। देखता नीले आकाश को, चाँदनी से नहायी पृथ्वी को, और अभिसारिका श्रीराधा के रूप में अभिनय करती सुचरिता को।
मेरे मन में कई सवाल उठे थे। क्यों है पृथ्वी इतनी सुन्दर ? क्यों होती है फूलों में ख़ुशबू ? क्यों बादल और तारों के अन्तराल में सपनों की आकाश-गंगा फैल जाती है दूर तक, क्यों मनुष्य के शरीर-मन-आत्मा के द्वार-रहित मन्दिर में अकारण ही गूँजने लगता है एक विचित्र संगीत ? क्यों ?
मैंने कहा—कम उम्र और समय। लेकिन क्या यह कहना ठीक है ? आज से अठारह साल पहले, जब मेरी उम्र सिर्फ़ सत्रह वर्ष थी, क्या मेरी उस समय की साँसें आज की तरह गहरी नहीं थीं, क्या उम्र का अनुभव इतना निजी, इतना घनिष्ठ नहीं था ? यदि नहीं, तो आज तक वे स्मृतियाँ मुझमें जीवित कैसे हैं ?
यह कहानी लिखते समय मेरी आँखों के आगे एक चेहरा उभरने लगा है। चाँदनी से भीगी रात-सी स्निग्ध कोमल एक युवती का चेहरा और उसके साथ-साथ कुछ छितराये दृश्य। मुझे डर है कि मैं उस चेहरे के बारे में, अठारह साल पहले के उन बीते दिनों के बारे में, ठीक से कुछ कह नहीं पाऊँगा।
महाकाल के संचार-पथ पर अठारह साल सम्भवतः कोई लम्बा समय नहीं होता, किन्तु एक मनुष्य के जीवन में यह सफ़र काफ़ी लम्बा है। और मैं जिस माहौल और अनुभव की बात कह रहा हूँ, वह मेरी आज की दुनिया से काफ़ी भिन्न है। फिर भी, जब शुरु कर ही चुका हूँ कहानी तो ख़त्म करनी ही होगी।
यहाँ से लगभग डेढ़ हज़ार मील दूर पखानजूर नामक एक छोटी-सी बस्ती है। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर स्थित यह इलाका पच्चीस साल पहले सिर्फ़ जंगल-ही-जंगल था। दण्डकारण्य प्रखण्ड की शुरुआत होने के बाद पहली बार वहाँ मनुष्य के पैर पड़े। धीरे-धीरे अनेक शरणार्थी बस्तियाँ बनीं। बने रास्ते, अस्पताल, स्कूल वेश्यालय।
दण्डकारण्य से मेरा परिचय बहुत पुराना है। इस प्रखण्ड के पाँच हज़ार कर्मचारियों में मेरे पिता भी एक थे। ऑफ़िसर ग्रेड में पदोन्नति पाकर वे उस समय पखानजूर आये थे जब मैंने इण्टर साइन्स के बाद रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला लिया था। पहले पिताजी की इच्छा कोरापुट छोड़कर इस दूर-दराज़ के इलाक़े में आने की नहीं थी। किन्तु माँ ने कहा, ‘‘यह तो बहुत अच्छा हुआ। रायपुर से पखानजूर क़रीब पड़ेगा। सरोज जब भी चाहेगा घर आ सकता है। आप डी.सी. से ‘हाँ’ कह दीजिए।’’
हमारे परिवार के एक और सदस्य की भी पखानजूर जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी। वह थी नन्दिता—मेरी छोटी बहन। यह सच है कि वहाँ पढ़ाई के लिए उसे स्कूल तो मिल जाएगा, लेकिन स्कूल से लौटने के बाद समय काटने के लिए क्या उसे मन-मुताबिक सहेलियाँ मिलेंगी ?
माँ ने गम्भीर स्वर में नन्दिता से कहा, ‘‘इस वर्ष तेरी बोर्ड की परीक्षा है। साथ-सहेली ढूँढ़ने में समय न गँवाकर किसी तरह मैट्रिक पास तो करना ही होगा। समझी ?’’
समझने की कोशिश न करके नन्दिता ने ख़ामोश विद्रोह से मुँह बिचका दिया था।
लेकिन पखानजूर पहुँचकर नन्दिता ने मुझे जो पत्र लिखा था, उसमें एक तरह के अद्भुत उच्छ्वास का स्वर था। उसमें लिखा था, वन-पहाड़ों से घिरी वह जगह उसे बहुत अच्छी लग रही है। बेहद ख़ूबसूरत। विशेष रूप से ख़ूबसूरत है जापानी विशेषज्ञों के निवास के आगे बना विशाल जल-भण्डार। मानो कोई प्राकृतिक झील हो।
उसके बाद के पत्रों में पखानजूर के बारे में बहुत-सी ख़बरें थीं, उसकी पढ़ाई-लिखाई के बारे में भी। लेकिन यह बात उसने पत्रों में क़तई नहीं लिखी थी कि वहाँ जाकर वह एक प्रभावशाली नारी-नेत्री बन गयी है।
उसका प्रमाण मुझे तब मिला, जब मैं पहली बार पखानजूर गया। अपनी कई हम-उम्र लड़कियों को साथ लेकर उसने एक सांस्कृतिक संस्था बनायी थी और उसी की कोशिश से उस बार एक नृत्य-नाटिका की भी तैयारी हो रही थी।
जंगल-भरी पृथ्वी से कुछ संघर्ष और कुछ समझौता करके जीना चाहते थे, पूर्वी बंगाल के शरणार्थी। उनके लिए काम करनेवाले कर्मचारी भी उसी संघर्ष और समन्वय में बराबरी के भागीदार थे। उन सबके सम्मिलित प्रयास से ही इस प्रखण्ड में एक नयी संस्कृति पैदा हुई है। हर वर्ष कुछ-न-कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, तीन सौ मील दूर से ही कभी-कभी प्रखण्ड के मुख्य प्रशासक भी आकर इस उत्सव में शामिल होते हैं।
उस बार भी वैसा ही आयोजन चल रहा था। कॉलोनी की लड़कियों के ज़िम्मे एक नृत्य-नाटिका थी, जिसकी मुख्य संचालिका थी नन्दिता।
रायपुर से आकर घर पर क़दम रखने के बाद से ही नन्दिता अपनी हर बात मुझसे लगातार बताती रहती। ख़ासकर नृत्य-नाटिका के बारे में। उनका कार्यक्रम देखकर प्रत्याशित मुख्य अतिथि चीफ़ एडमिनिस्ट्रेटर निश्चित ही मुग्ध हो जाएँगे, इस बारे में उसे ज़रा भी सन्देह नहीं था।
मैं मुस्कराया, ‘‘प्रखण्ड के मुख्य प्रशासक एक आई.सी.एस. ऑफ़िसर हैं। बदक़िस्मती से कोरापुट में पड़े हैं। वे भला तुम्हारी नृत्य-नाटिका देखकर मुग्ध होंगे ?’’
‘‘मुग्ध होंगे या नहीं, तुम ही कहना। किसी दिन हमारा रिहर्सल देखने आओ, उसके बाद।’’
नन्दिता का रिहर्सल देखने की मुझमें ज़रा भी इच्छा नहीं थी। लेकिन उससे सूचना मिलती कि तैयारी ज़ोर-शोर से चल रही थी और स्टेज पर खड़ी होकर सुचरिता निश्चित ही सबको मोह लेगी।
‘‘यह सुचरिता कौन है ?’’
‘‘वही तो है श्रीराधा।’’
‘‘अब यह श्रीराधा कौन है ?’’
उसके बाद नन्दिता का स्वर खिन्न सुनाई दिया। उसने कहा, ‘‘तुम इतनी जल्दी सारी बातें भूल जाते हो ? कल मैंने तुम्हें बताया नहीं था कि सुचरिता हमारी ‘श्रीराधा’ नृत्य-नाटिका में हिरोइन बनी है ?’’
उसके बाद उसने सुचरिता की प्रशंसा करते हुए बहुत-सी बातें बतायी थीं, जो मैंने ध्यान से नहीं सुनी थीं।
ठीक उसके दूसरे दिन सुचरिता से मेरी मुलाक़ात हो गयी। उसी के बारे में है मेरी यह कहानी।
उन दिनों हवा में माघ-फागुन की कोमल ठण्डक थी। आसमान साफ़ नीला था। उस युवती की पाप से अछूती आँखों की तरह।
लेकिन उस दिन शाम को आसमान का रंग एकदम बदल गया था। पर्वतों के सन्धि-स्थल से बे-मौसम बादल घिर आये थे और बारिश भी हुई थी, थोड़ी बहुत हवा के साथ।
मैं एक चादर ओढ़े बैड-रूम में जॉर्ज गॉमो की वैज्ञानिक पहेलियों की किताब लिये बैठे पढ़ रहा था।
ठीक उसी समय काफ़ी घबरायी हुई-सी नन्दिता अन्दर कमरे में आयी। उसने कहा, ‘‘भैया, एक समस्या आ गयी है।’’
किताब के पन्ने से मुँह उठाकर उसकी तरफ देखा। मैंने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘क्या हुआ ? क्या श्रीराधा कल रात से गुम हो गयी है ?’’
मुझे परदे की ओट से एक अपरिचित युवती का चेहरा दिखाई दिया। उसी की ओर उँगली से इशारा करके नन्दिता ने कहा, ‘‘भैया, यह मेरी सहेली सुचरिता है। इसी को लेकर इस समय एक समस्या उपजी है।’’
सुचरिता ने हाथ जोड़कर मुझे नमस्ते किया, मगर मैं इतना घबरा गया था कि उसे उलटकर नमस्ते तक नहीं कर पाया था।
उसके बाद नन्दिता ने मुझे अपनी परेशानी बतलायी थी।
हर रोज़ शाम को स्कूल से एक घण्टा पहले छुट्टी लेकर नन्दिता और उसकी अन्य सहेलियाँ छह बजे तक रिहर्सल करती थीं। उसके बाद सभी अपने-अपने घर चली जातीं।
पखानजूर से सात मील की दूरी पर काप्सी प्रोजेक्ट की एक और कॉलोनी है जहाँ मैडिकल और इंजीनियरिंग के दफ़्तर हैं। उस कॉलोनी से आवाजाही के लिए सिर्फ़ एक ही बस है। वह बस सुबह दस बजे पखानजूर आती है और शाम को छह बजे काप्सी लौट जाती है।
सुचरिता काप्सी अस्पताल के फ़र्मासिस्ट की बेटी है। वह रोज़ उसी बस से आती-जाती है। उसे कोई दिक़्क़त नहीं थी। लेकिन आज अचानक बादल-बारिश के कारण उसे क्लब में ही रुकना पड़ा और बस अपने समय पर काप्सी लौट गयी।
लेकिन इस समस्या के लिए मेरे पास कौन-सा समाधान है ?
कोई गम्भीर अपराध करने की तरह सुचरिता सिर झुकाये बैठी थी और मैं बुरी तरह ख़ुद को कोस रहा था कि श्रीराधा के बारे में इस समय मज़ाक़ न किया होता तो कम-से-कम मुझ-जैसे सत्रह वर्षीय व्यक्तित्व के लिए अधिक सम्मानजनक होता।
मुझे चुप्पी साधे देख नन्दिता ने कहा, ‘‘भैया, क्या तुम हमें ज़रा हैल्प नहीं करोगे ?’’
कैसा हैल्प चाहती है नन्दिता मुझसे ? क्या मैं बसवाले से जाकर कहूँ कि बस लौटा लाए, श्रीराधा जाएँगी ? मैंने मन-ही-मन यह सवाल किया और अपने उस अपरिपक्व सोच के लिए पुनः क्षुब्ध हुआ।
नन्दिता ने कहा, ‘‘तुम ज़रा सुचरिता को उसके घर छोड़ आओगे ?’’
पहले तो मैंने चौंकते हुए सोचा कि नन्दिता ने मुझसे जो कुछ कहा वह मैंने ठीक-ठीक सुना या नहीं ? इस वक़्त रात के आठ बजने वाले थे और आसमान में घटाटोप बादल डोल रहे थे, डेमोक्लीज़ की तलवार की तरह। ऐसे में क्या मैं साल मील चलकर जाऊँगा, वह भी एक लड़की के साथ ?
नन्दिता हर तरह से सोच-विचारकर मेरे पास आयी थी। पिताजी से उचित राय लेकर। उसने कहा, ‘‘पिताजी से पूछ चुकी हूँ। इस समय उन्हें कहीं नहीं जाना। तुम उनकी मोटर साइकिल लेकर सुचरिता को छोड़ आओ न !’’
उस दिन की बातचीत मैं अधिक नहीं बढ़ाऊँगा, पर इतना ज़रूर कहूँगा कि अनेक दुविधाओं और तर्क-वितर्क के बाद मुझे नन्दिता का अनुरोध मानना ही पड़ा।
तर्क की बनिस्बत उस दिन मुझमें दुविधा अधिक थी। परेशानी में पड़ी सहायता माँग रही युवती के आगे सत्रह साल का एक युवक ज़्यादा तर्क-वितर्क नहीं कर सकता, यह सही है। पर मन के भीतर की दुविधा के कई कारण होते हैं।
इस वक़्त दिल्ली महानगरी के एक जाने-माने इंजीनियरिंग संस्थान के ऑफ़िस में बैठा मैं सोच रहा हूँ कि अठारह साल पहले के उस अनुभव को किन शब्दों में बयान करूँ। नारी-पुरुष में जो सहजात संकोच होता है, उसकी अधोगति का नाम यदि सभ्यता है, तब तो यह दिल्ली शहर ही उसकी अन्तिम सीमा है। इस सीमान्त में बैठकर मैं कैसे वर्णन करूँगा जंगलों से घिरे अर्वाचीन जनपद का वह दृश्य ?
उस समय रात के लगभग आठ बजे होंगे। हवा में भीगी मिट्टी की महक और अनेक अनजान जंगली फूलों की सुरभि व्याप्त थी। आगे सूनसान रास्ता, बारिश से भीगे अँधेरे में मोटर साइकिल की रोशनी भर थी।
सुचरिता के बैठने के ढंग से मैं जान गया था कि वह पहली बार बाइक पर बैठी है। टेढ़े-मेढ़े जंगली रास्ते में वह अपना संतुलन ठीक से बना नहीं पा रही थी और मेरी पीठ से टिककर बैठने में हिचकिचा रही थी।
सात मील का रास्ता पार करने में अधिक समय नहीं लगा। मैं मोटर साइकिल भीतर कॉलोनी में ले गया। कुछ दूर जाने के बाद उसने धीरे से फुसफुसाकर कहा, ‘‘यह सामने हमारा मकान है।’’
बिना किसी आहट के सुचरिता मोटर साइकिल से उतरी। कुछ बोले बग़ैर गेट के अन्दर चली गयी। इस अन्दाज़ में मानो इस दुनिया में मेरा कोई अस्तित्व ही न था।
मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ था। बड़ी अज़ीब लड़की है यह तो ! देखो, धन्यवाद तक न कहकर किस तरह झटपट चली गयी !
निश्चित ही वह शर्मीली नहीं, बल्कि उसका गर्वीला होना अधिक सम्भव है। सुन्दर लड़कियाँ तो आम तौर पर गर्वीली ही होती हैं। और फिर नाच-गाना जाननेवाली सुन्दरियों में तो ज़्यादा ऐंठ होनी ही चाहिए।
दूसरे दिन, दोपहर को खाना खाते समय नन्दिता ने मुझसे कहा, ‘‘भैया, आज क्लब में हमने एक डिसीज़न लिया है।’’
‘‘कैसा डिसीज़न ?’’
डिसीज़न वाक़ई खतरनाक था। सुनते ही मेरे गले में कौर फँस गया। दो घूँट पानी पीने के बाद मैंने पूछा, ‘‘इसका मतलब तू सोच रही है कि....’’
‘‘सिर्फ़ मैं ही नहीं, क्लब के अन्य सदस्यों ने भी यही सोचा है। उस दिन गेम्स पीरियड में क्लब की एक अनौपचारिक बैठक के बाद सबने यह तय किया था कि फ़िलहाल यही करना उचित होगा। ग्यारह कलाकारों में से केवल सुचरिता ही काप्सी से आना-जाना करती है और वही इस नृत्य-नाटिका की नायिका है। और सात दिन के बाद जिस कार्यक्रम का आयोजन होगा, उसके लिए काफ़ी समय तक रिहर्सल करने की आवश्यकता है। यदि किसी तरह सुचरिता आठ बजे तक रुक जाती, और भैया, तुम रोज़ाना उसे मोटर साइकिल पर बिठाकर उसके घर छोड़ आते तो....’’
नन्दिता का यह प्रस्ताव मेरे लिए बड़ा अजीब था। इस तरह के प्रस्ताव का मैं क्या जवाब दूँ, यह तय करने से पहले ही माँ बीच में बोल पड़ी, ‘‘इस नाच-गाने के नशे में इस साल तू मैट्रिक ज़रूर फेल होगी, यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है....’’
मैंने अति उत्साहपूर्वक माँ की बात का समर्थन किया होता; किन्तु मुझे मालूम था इस विशेष आयोजन के पीछे पिताजी वरदहस्त हैं। वे चाहते हैं कि चीफ़ एडमिनिस्ट्रेटर यहाँ आकर इनका कार्यक्रम देखकर ख़ुश हों और उन्हें यह पता चले कि नन्दिता पटनायक उनकी बेटी है। लेकिन मेरा भी तो अपना एक व्यक्तित्व है। अपनी स्वतन्त्र राय भी। मछली से काँटा निकालने के काम में कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने मन-ही-मन अपने व्यक्तित्व का ख़ाका तैयार किया और गंभीर होकर कहा, ‘‘मैं जो कुछ कहता हूँ सुन, इन सब फ़ालतू कामों के लिए मेरा पास ज़रा भी समय नहीं है।’’
‘‘तुम इसे फ़ालतू काम कर रहे हो, भैया ! कला संस्कृति...ये फ़ालतू काम हैं ? तुम साइंस के छात्र हो तो क्या सारी दुनिया सिर्फ़ मैथेमैटिक्स रटती रहेगी, लेबोरेटरी में बैठी मेंढक और केंचुआ का सिर चबाती रहेगी ?’’
उसके बाद काफ़ी देर तक बातचीत होती रही, जिसका विवरण मैं यहाँ नहीं दूँगा। किन्तु अन्त में राज़ी न होने के पक्ष में कोई ज़ोरदार तर्क न पाकर, मैं चुप हो गया था।
उस दिन शाम को भी सुचरिता को छोड़ने मुझे काप्सी जाना पड़ा। हालाँकि उस दिन आसमान में बादल नहीं थे, ना ही हवा में भीगी-भीगी सिहरन थी। किन्तु सात मील लम्बे अँधेरे में एक अस्पृश्य कोमलता और कई अँजुली गर्म साँसें मेरा पीछा कर रही थीं।
उस रोज़ घर लौटकर मैंने नन्दिता से कहा था, ‘‘कुछ भी बोल, तेरी यह सहेली है बहुत अशिष्ट।’’
इससे पहले कि नन्दिता की आँखों में विस्मय-भरे सवाल उभरें, मैंने अपनी बात अधिक तर्कसंगत बनाते हुए कहा, ‘‘पिछले दो दिनों से इतना परेशान होकर उसके लिए ड्राइवरी कर रहा हूँ, मगर उसकी सज्जनता तो देख, सामान्य-सा धन्यवाद तक नहीं कहा उसने। कितना गर्व है उसमें !’’
नन्दिता ने कहा था, ‘‘भैया, सुचरिता को तुम गर्वीली कहते हो ? आख़िर तुमने उसके बारे में यही राय बनायी ?’’
‘‘ऐसी राय बनाये बग़ैर और कोई उपाय भी तो नहीं था। स्टेज पर खड़ी होकर धेई-धेई नाचनेवाली लड़की उतनी शर्मीली तो नहीं ही होगी।’’ इसे प्रमाणित करने की ज़रूरत नहीं थी।
लेकिन नन्दिता ने गम्भीर होते हुए वही कहा था। उसने कहा था, ‘‘सुचरिता बहुत शर्मीली है। किसी से अच्छी तरह बात तक नहीं कर सकती। स्टेज पर खड़ी होकर इतना सुन्दर गाती है, नाचती है, पर स्टेज से उतरते ही वह बिल्कुल बदल जाती है। बेइन्तहा शर्मीली हो जाती है।’’
‘‘वह इस बात के लिए काफ़ी चिन्तित है कि तुम उसके लिए इतनी परेशानी उठा रहे हो। उसने मुझसे कई मर्तबा कहा कि, ‘अपने भैया से कह देना, बुरा न मानें; मेरे लिए उनका बहुत समय बर्बाद होता है। कहना, मुझे माफ़ कर दें।’’
इतना सुनने के बाद सत्रह साल के किसी युवक का चुप्पी साध लेना स्वाभाविक है।
सच ही कहूँगा, पिछले दो दिनों से मैं सुचरिता को अच्छी तरह देख भी नहीं सका था। वह चुपचाप पिलियन पर बैठ जाती, सात मील तक मेरी आँखों की ओट में रहने के बाद पुनः चुपचाप मेरे पीछे से आकर अँधेरे में डूबे मकान के बरामदे में अदृश्य हो जाती।
लेकिन आज हम दोनों ने एक-दूसरे को अच्छी तरह देखा था। उसने देखा होगा, मैं भी कितना शर्मीला हूँ।
कृष्ण पक्ष की धुँधली चाँदनी काप्सी की ओर पसरी सड़क और दोनों ओर के जंगलों में बिखरी हुई थी। थोड़ी दूर जाने के बाद एक शरणार्थी बस्ती को पार करके मोटर साइकिल का इंजन अचानक बन्द हो गया।
मैं कुछ समझ नहीं पाया। कुछ घबराया हुआ-सा बाइक खड़ा किया।
सुचरिता का आवाज़ कुछ सहमी हुई थी। उसने पूछा, ‘‘क्या हुआ ?’’
क्या हुआ, यह मैं भी नहीं जान पा रहा था। मुझे मोटर साइकिल सिर्फ़ चलानी भर आती है, उसकी मशीनरी के बारे में मेरी कोई जानकारी नहीं।
कई बार इंजन स्टार्ट करने की असफल चेष्टा करने के बाद मैंने अपनी अज्ञानता स्वीकार कर ली। मीठी आवाज़ में पूछा, ‘‘अब क्या करें ?’’
आकाश में अनजानी तिथि का चाँद था। पेड़ पौधों पर अचीन्हे पक्षियों और पतंगों का स्वर। पीछे कुछ ही दूरी पर शरणार्थी बस्ती।
‘‘कितनी दूर है काप्सी यहाँ से ?’’ सुचरिता ने पूछा।
‘‘लगभग तीन मील।’’
‘‘ठीक है, चलिए पैदल चलें।’’
सुचरिता का आश्वासन मुझे उतना उपयुक्त नहीं लगा। उस वीरान रास्ते में वह और मैं—सिर्फ़ हम दोनों, यह सोचते ही मेरे सीने में एक अद्भुत भय और साहस की मिली-जुली सिहरन फैल गयी थी। उसके प्रभाव से मेरी निगाह उस पर कुछ देर तक टिकी रही।
पन्द्रह साल की किसी युवती का वर्णन मैं कैसे करूँ ? मैं कैसे अभिव्यक्त करूँ अपना अनुभव, उस समय मेरी उम्र थी सिर्फ़ सत्रह साल ! सुचरिता लड़की है, एक जीवित शरीर—मन आत्मा, इससे अधिक भला और क्या कहने की ज़रूरत है ?
सुचरिता के बदन से शायद एक अद्भुत ख़ुशबू निकल रही थी। उसके हर पग पर एक अद्भुत संगीत-लहरी थी, और उसकी तेज़ साँसों में था नामहीन उत्ताप का कोमल प्रवाह।
मुझे मदहोशी-सी लग रही थी। पैर कुछ लड़खड़ाने लगे। शायद मोटर साइकिल का वज़न मेरे पैरों को कमज़ोर कर रहा था, या फिर अन्य कोई अनास्वादित चेतना।
सुचरिता ने मेरी ओर देखा। उसने कहा, ‘‘आप थक गये होंगे। चलिए यहीं बैठते हैं कुछ देर।’’
मेरे जवाब का इन्तज़ार किये बिना वह सड़क-किनारे बनी एक छोटी-सी पुलिया पर बैठ गयी।
मोटर साइकिल खड़ी करके मैंने चारों ओर देखा। पुल के नीचे बह रहे पहाड़ी सोते का कलकल स्वर मुझे साफ़-साफ़ सुनाई दे रहा था।
उसी निर्जनता में सुचरिता ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा, ‘‘क्या आप हमारा प्रोग्राम देखने आएँगे ?’’
‘‘और पाँच दिन के बाद प्रोग्राम है। मेरी छुट्टी अभी बारह दिन और है, इसलिए प्रोग्राम न देखने का कोई कारण नज़र नहीं आता।’’ मुझसे इस तरह का जवाब सुनकर सुचरिता ने कहा, ‘‘मैंने सोचा था, आप नहीं आएँगे।’’
ऐसा उसने क्यों सोचा था ? इस सवाल का जवाब खुद उसी ने दिया। ‘‘नन्दिता कहती थी, आपको नाच-गाना बिल्कुल पसन्द नहीं।’’
इस लड़की के आगे नन्दिता ने मुझे काफ़ी बदनाम कर रखा है; इसमें सन्देह नहीं। इस समय क्या कहकर अपना महत्त्व बचा सकता हूँ, ठीक से सोच नहीं पाया। कुण्ठित स्वर में बोला, ‘‘नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। मतलब, मैं साइंस का छात्र हूँ तो, इन सब में इण्टरेस्ट लेने का समय ही नहीं मिल पाता।’’
सुचरिता ने यह तर्क मान लिया। उसने कहा, ‘‘हाँ, आप तो पढ़ाई में काफ़ी तेज़ भी हैं, आई.एस.सी. में तो पोज़ीशन थी आपकी; मैंने सुना है।’’
वस्तुतः इस तरह परोक्ष रूप से मैं अपनी प्रशंसा क़तई नहीं करवाना चाहता था। मैं शर्म से पानी-पानी हो गया। उस मनोभाव को छिपाने के लिए मैंने पुनः मोटर साइकिल स्टार्ट करनी चाही। और देखो क़िस्मत भी, इंज़न तुरन्त स्टार्ट हो गया। पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ।
उस दिन की बातचीत उतनी ही थी। यदि रास्ते में उस तरह की कोई अनहोनी असुविधा न हुई होती तो शायद जीवन में हम दोनों की कभी बातचीत ही न हुई होती।
मैं एक बात सोचता हूँ; शायद दो शर्मीले इन्सान बहुत जल्दी एक-दूसरे को पहचान लेते हैं। उनके संकोच की सहजात बाधा संभवतः बड़ी आसानी से अन्तर्धान हो जाती है। वरना इस कहानी के अगले पृष्ठ किस तरह लिखे जाते ?
दूसरे दिन बाइक से जाते समय सुचरिता ने आहिस्ता से अपना हाथ मेरे कन्धे पर रखा, ठीक उतना ज़ोर देकर, जितना कि सुरक्षित और स्वाभाविक यात्रा के लिए आवश्यक था। उसके मृदु स्पर्श से मेरा शरीर उसी तरह सिहर उठा, जैसे कि स्वादिष्ट कुल्फी का टुकड़ा मुँह में घुल जाने से लगता है।
उस दिन रास्ते में कोई परेशानी नहीं हुई। बाइक ठीक से चल रही थी। लेकिन मैं ठीक उसी पुल के पास ठहर गया, जहाँ कल हम कुछ देर रुके थे।
पुल के पास बाइक रोकते ही सुचरिता ने पूछा, ‘‘आज फिर क्या हो गया ?’’
मैं ख़ुद ही नहीं समझ पा रहा था कि बाइक मैंने क्यों और कैसे रोक दी।
अपना अपराध स्वयं अस्वीकार करने-सा बोला, ‘‘कल मैं यहाँ एक चीज़ छोड़ गया था।’’
‘‘क्या चीज़ ?’’
मैं शायद उतना हाज़िर-जवाब नहीं था। मैंने कहा, ‘‘मेरी क़लम खो गयी है। सोचा, शायद यहीं कहीं गिरी होगी।’’ मैं तुरन्त कलम ढूँढ़ने का अभिनय करने लगा।
अपने उस मिथ्यावादी मनोभाव के लिए बाद में मुझे कोई पछतावा नहीं हुआ, हालाँकि कभी-कभी उस बारे में सोचकर शरमाया ज़रूर हूँ।
मैं क़लम ढूँढ़ने लगा और सुचरिता पुल पर बैठकर चारों ओर देखने लगी। कुछ देर बाद उसने मधुर आवाज़ में कहा, ‘‘कितनी सुन्दर है यह जगह !’’
मैंने तुरन्त हामी भरते हुए कहा था, ‘‘दण्डकारण्य वाक़ई बहुत सुन्दर है।’’
‘‘मिली आपकी क़लम ?’’
सुचरिता के सवाल करने के लहज़े से मैं समझ गया कि वह ख़ुद इसका उत्तर जानती है। क़लम मुझे नहीं मिली।
मैंने जो जवाब दिया, उसका मतलब था : शायद क़लम और कहीं छोड़ आया हूँ, ‘‘ठीक है, चिन्ता की कोई बात नहीं। कोई ख़ास क़ीमती क़लम भी नहीं थी।’’
मेरे इस जवाब के बाद भी सुचरिता उसी तरह पुल पर बैठी रही।
अन्यमनस्क-सी चारों ओर देखने के बाद बोली, ‘‘मैं बहुत नर्वस हो रही हूँ।’’
‘‘क्यों ?’’ मैंने पूछा।
छोटे-बड़े हर कलाकार के मन में सम्भवतः एक सन्देह, एक आशंका रहती है। कल्पना के किसी रूप को साकार करनेवाले प्रत्येक कलाकार में ठीक से कला-प्रदर्शन न कर पाने जैसा एक क्षुद्र-बोध होता है। सुचरिता उसका अपवाद नहीं थी।
हालाँकि इतनी बातें मैंने उस दिन नहीं सोची थीं, किंतु जब सुचरिता ने चार दिन बाद आनेवाली शाम के लिए उद्वेग प्रकट किया, मैंने कहा, ‘‘आप तो अच्छा पार्ट कर रही हैं, नन्दिता कह रही थी।’’
उसके बाद मानो मुझे मौक़ा मिल गया, अपनी कल की बातचीत के दौरान हुई ग़लती सुधारने का। मैंने कहा, ‘‘नाच-गाना मैं पसन्द नहीं करता, लेकिन सच कहूँ तो मैं ये सब ठीक से समझ नहीं पाता। ठीक जिस तरह की आधुनिक कविताएँ, क्या होता है इन कविताओं का मतलब ?’’
सुचरिता ने अपनी पन्द्रह साल की उम्र के अनुभव के आधार पर मुझे समझाने की कोशिश की थी—नाच-गाना, कला-साहित्य आदि के बारे में और अन्त में उसने कहा था, ‘‘कई बातें समझ में नहीं आतीं, उन्हें केवल महसूस किया जाता है। और यही काफ़ी है। यह गणित तो है नहीं कि स्टैप-बाई-स्टैप समझना पड़े।’’
उस दिन नहीं, उसके दूसरे दिन उसने मुझसे पूछा, ‘‘आपने गीतांजलि पढ़ी है ?’’
मैंने अस्वीकार करते हुए कहा था, ‘‘मुझें बांग्ला भाषा नहीं आती।’’
‘‘मैं भी बांग्ला नहीं जानती। मेरे पास अँग्रेज़ी में है गीतांजलि। उसकी कई बातें समझ में नहीं आतीं, किन्तु बहुत अच्छी लगती हैं पढ़ने में। ऐसा लगता है जैसे कि यह सारी पृथ्वी बहुत अपनी है। सारे दुखों और सुखों की ! मैं कभी दूँगी वह पुस्तक आपको, पढ़कर देखिएगा।’’
अब मुझे स्वीकारने में शर्म नहीं है कि तब मेरे मन में सुचरिता के लिए तरह की कमज़ोरी आ गयी थी। मन-ही-मन सोच रहा था कि मैं जिस लड़की से शादी करूँगा वह भी ठीक इसी सुचरिता-जैसी होनी चाहिए। उसके बाद सोचा था यदि वह लड़की स्वयं सुचरिता ही हो तो क्या हानि है ?
लेकिन क्या यह सम्भव है ?
फिर मन-ही-मन सोचा था, क्यों नहीं है सम्भव ? तरह-तरह के तर्क उठ रहे थे मन में। हालाँकि अब उनका कोई अर्थ नहीं।
तीन दिन बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ था। मुख्य प्रशासक आये थे। मैंने मुक्ताकाश थियेटर के एक कोने में खड़े होकर सुचरिता को देखा था। उसके बाद बाक़ी बची रात मैं सो नहीं पाया। अँधेरे में उठता-बैठता, खिड़की के पास जाकर खड़ा रहता। देखता नीले आकाश को, चाँदनी से नहायी पृथ्वी को, और अभिसारिका श्रीराधा के रूप में अभिनय करती सुचरिता को।
मेरे मन में कई सवाल उठे थे। क्यों है पृथ्वी इतनी सुन्दर ? क्यों होती है फूलों में ख़ुशबू ? क्यों बादल और तारों के अन्तराल में सपनों की आकाश-गंगा फैल जाती है दूर तक, क्यों मनुष्य के शरीर-मन-आत्मा के द्वार-रहित मन्दिर में अकारण ही गूँजने लगता है एक विचित्र संगीत ? क्यों ?
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लोगों की राय
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