सामाजिक >> मूकज्जी मूकज्जीशिवराम कारंत
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प्रस्तुत है एक अतीन्द्रिय लोक-कथा पर आधारित उपन्यास....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मूकज्जी अपने पोते के माध्यम से इतिहास का ऊहापोह करती अनेक पात्रों की
जीवन-गाथा में अपनी समस्त कोमल संवेदनाओं को उड़ेलती है। और हमे सिखाती है कि संसार की सबसे बड़ी शक्ति और मनुष्यता का सबसे बड़ा गुण है करुणा।
मूकज्जी मिथ्यात्व और छलनाओं से भरी इन तथाकथित नैतिकताओं को चुनौती देती है और हमें जीवन की यथार्थ दृष्टि प्रदान करती है। मूकज्जी जिसने स्वयं
जीवन की वंचना भोगी है। सैक्स और काम के सम्बन्ध में खुलकर बोलनेवाली बन
गयी है, वैज्ञानिक हो गयी है।
प्रस्तुति
(पहले संस्करण से)भारतीय साहित्य के श्रेष्ठ कृतित्व को हिन्दी
के माध्यम से प्रस्तुत करना भारतीय ज्ञानपीठ की ‘राष्ट्रभारती’
ग्रन्थमाला का उद्देश्य है जो विख्यात ‘लोकोदय ग्रन्थमाला’ का
अंग है। भारतीय साहित्य में श्रेष्ठ क्या है और श्रेष्ठ में भी श्रेष्ठतर या
श्रेष्ठतम क्या है इसका एक सुनियोजित आधार देश के सामने है-भारतीय
ज्ञानपीठ का साहित्य पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’। इस
उद्देश्य से गठित ‘प्रवर परिषद्’ प्रतिवर्ष भारतीय संविधान
द्वारा मान्य पन्द्रह भारतीय भाषाओं में से प्रत्येक की श्रेष्ठ कृतियों
में से श्रेष्ठतम को चुनती है और उसके लेखक को एक लाख रूपये की राशि तथा
प्रशस्ति द्वारा सम्मानित करती है। इस प्रकार के बारह सम्मान-समारोह
आयोजित हो चुके हैं। इस श्रृंखला में तेरहवाँ पुरस्कार डॉ. के. शिवराम
कारन्त को उनके उपन्यास मूकज्जिय कनसुगलु के लिए समर्पित है जिसे 1961 से
1970 के बीच प्रकाशित भारतीय साहित्य में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। डॉ.
के. शिवराम कारन्त की प्रशस्ति में कहा गया हैः
‘‘सत्य और सौन्दर्य के प्रबल जिज्ञासु कारन्त जी गाँधीवादी आदर्शप्रेरित युवा से क्रमशः विकास करते हुए अनुभवसिक्त और प्रबुद्ध मानववादी के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं। जीवन को यथार्थ और सम्पूर्णता में निरख पाने के अविराम प्रयत्न में वे साहित्य और विज्ञान, संगीत और नृत्य, चित्रकला और स्थापत्य जैसे ज्ञान और कला के विभिन्न क्षेत्रों में अन्वीक्षण करते आये हैं। उनकी बौद्धिक कुतूहलता, कलागत संवेद्यता और सर्जनात्मक प्रतिभा ने विविध और बहुमुखी उपलब्धियाँ अर्जित की हैं जिनके अर्न्तगत शब्दकोश, विश्वकोश और यात्रावृतों से लेकर संगीत-रूपक, निबन्ध, कहानी और एकांकी तक आते हैं, और आता है तटीय कर्नाटक के अनूठे लोक-नृत्यनाट्य ‘यक्षगान’ के संजीवन में उनका योगदान।
किन्तु उनकी प्रतिभा की दीप्ति प्रकट हुई है उपन्यासकार के रूप में। उनकी सब लगभग 200 प्रकाशित कृतियों में 39 उपन्यास हैं। इनमें जीवन के प्रति कारन्त जी का दृष्टि-भाव समाविष्ट हुआ है। इनके ही माध्यम से प्रत्यक्ष होती है उनकी व्यापक मानवीय सहानुभूति, अविचल सत्यनिष्ठा, समाजगत प्रामाणिक विचार-चिन्तना, निसर्ग के प्रति सहज श्रद्धा और प्रभावयुक्त व्यंग्य-विनोदप्रियता।
पुरस्कार-जयी उपन्यास ‘मूकज्जिय कनसुगलु’ एक असामान्य व्यक्तित्व, एक विधुरा वृद्धा के चतुर्दिक् संकेन्द्रित है जिसकी चरित्रगत विशेषताएँ हैं सत्यनिष्ठा, अपरिसीम करूणाभाव और सौम्य सदयता। बड़ी विशिष्टता है इसकी अधिमानसिक शक्ति, जिसके सहारे वह धर्म और जीवन की व्याख्या प्रस्तुत करती है और मानव-जाति की सम्पूर्ण अनुभूति को अभिव्यक्ति देती है।’’
‘मूकज्जी का अर्थ है, वह अज्जी (आजी-दादी) जो मूक है। इस उपन्यास में कारन्त ने अस्सी वर्ष की एक ऐसी विधवा बुढ़िया पात्र की सृष्टि की है जिसमें वेदना सहते-सहते, मानवीय स्थितियों की विषमता देखते-बूझते, प्रकृति के विशाल खुले प्रांगण में, बरसों से एक पीपल के नीचे उठते-बैठते, सब कुछ मन-ही-मन गुनते-गुनते, एक ऐसी अद्भुत अतीन्द्रिय क्षमता जाग्रत हो गयी है कि उसने प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान काल तक की समस्त मानव-सभ्यता के विकास को आत्मसात् कर लिया है। किन्तु, मात्र इतिहास-क्रम बताना इस उपन्यास का उद्देश्य नहीं है। इतिहास तो मूकज्जी की परा-चेतना का एक आनुषंगिक अंग है। वास्तव में तो यह उपन्यास अनेक क्रिया-कलापों और घटनाओं के सन्दर्भ में मानव चरित्र की ऐसी छवि है जिसमें हम सब और हमारी सारी मनोवृत्तियाँ प्रतिबिम्बित हैं।
मूकज्जी अपने पोते के माध्यम से इतिहास का ही ऊहापोह नहीं करती, अनेक पात्रों की जीवन-गाथा में अपनी समस्त कोमल संवेदनाओं को सम्मिलित करती है और हमें सिखाती है कि संसार की सबसे बड़ी शक्ति और मनुष्यता का सबसे बड़ा गुण है ‘करूणा’। ‘सिखाती है’ कहने से एक भ्रामक धारणा बन सकती है कि उपन्यास का उद्देश्य नैतिक है। किन्तु व्यंग्य तो यह कि मूकज्जी सारी नैतिकताओं को चुनौती देती चलती है, और एक ऐसी वस्तुपरक यथार्थ दृष्टि प्रस्तुत करती है जो परम्परागत धाराणाओं पर प्रबल प्रहार करती है। हम चौंकते हैं कि क्या कह दिया इस बुढ़िया ने। और जो कहा यह तो हमारी श्रद्धा से, हमारी मान्यता से, हमारी सामाजिक धारणा से मेल नहीं खाता ! यही ‘चौंकना’ हमें सिखाता है जीवन को नयी दृष्टि से देखना, सम्पूर्णता से देखना। मूकज्जी, जिसने स्वयं जीवन को वंचना भोगी है, सेक्स और कामभोग के सम्बन्ध में वाचाल हो गयी है, वैज्ञानिक हो गयी है। सच्ची ललक और सच्ची जीवन-अनुभूति के लिए मूकज्जी के दर्शन में कुछ भी वर्जित नहीं है। वर्जित है पाखण्ड, वर्जित है त्रास, वर्जित है अन्याय, वर्जित है नारी का, दीन-असहाय का दोहन। मूकज्जी कहना चाहती है कि जीवन जीने के लिए है, और जिसने जीवन को जीना नहीं जाना, समग्रता से जीना नहीं जाना, उसका तत्त्वचिन्तन, उसकी तपस्या और उसका संन्यास स्वस्थ नहीं है। नास्तिकता तो यहाँ नहीं है, किन्तु ‘अन-आस्तिकता’ यदि यहाँ है तो यह निषेध की दृष्टि नहीं है, स्वीकृति की दृष्टि है। आप चाहे तो मूकज्जी से झगड़ें, चाहें तो मूकज्जी के स्त्रजेता से। लेकिन मूकज्जी के यथार्थ-दर्शन को, उसकी व्यापक सहानुभूति को, उसकी मानवीय दृष्टि को, उसके करूणा और प्रेम के निर्दशन को आप नकार सकें, यह हिम्मत की बात होगी।
भारतीय ज्ञानपीठ को गर्व है कि उसने कारन्त जी के सम्मान से अपने पुरस्कार को गौरवान्वित किया है और मूकज्जी के प्रकाशन से अपने को कृतार्थ।
‘‘सत्य और सौन्दर्य के प्रबल जिज्ञासु कारन्त जी गाँधीवादी आदर्शप्रेरित युवा से क्रमशः विकास करते हुए अनुभवसिक्त और प्रबुद्ध मानववादी के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं। जीवन को यथार्थ और सम्पूर्णता में निरख पाने के अविराम प्रयत्न में वे साहित्य और विज्ञान, संगीत और नृत्य, चित्रकला और स्थापत्य जैसे ज्ञान और कला के विभिन्न क्षेत्रों में अन्वीक्षण करते आये हैं। उनकी बौद्धिक कुतूहलता, कलागत संवेद्यता और सर्जनात्मक प्रतिभा ने विविध और बहुमुखी उपलब्धियाँ अर्जित की हैं जिनके अर्न्तगत शब्दकोश, विश्वकोश और यात्रावृतों से लेकर संगीत-रूपक, निबन्ध, कहानी और एकांकी तक आते हैं, और आता है तटीय कर्नाटक के अनूठे लोक-नृत्यनाट्य ‘यक्षगान’ के संजीवन में उनका योगदान।
किन्तु उनकी प्रतिभा की दीप्ति प्रकट हुई है उपन्यासकार के रूप में। उनकी सब लगभग 200 प्रकाशित कृतियों में 39 उपन्यास हैं। इनमें जीवन के प्रति कारन्त जी का दृष्टि-भाव समाविष्ट हुआ है। इनके ही माध्यम से प्रत्यक्ष होती है उनकी व्यापक मानवीय सहानुभूति, अविचल सत्यनिष्ठा, समाजगत प्रामाणिक विचार-चिन्तना, निसर्ग के प्रति सहज श्रद्धा और प्रभावयुक्त व्यंग्य-विनोदप्रियता।
पुरस्कार-जयी उपन्यास ‘मूकज्जिय कनसुगलु’ एक असामान्य व्यक्तित्व, एक विधुरा वृद्धा के चतुर्दिक् संकेन्द्रित है जिसकी चरित्रगत विशेषताएँ हैं सत्यनिष्ठा, अपरिसीम करूणाभाव और सौम्य सदयता। बड़ी विशिष्टता है इसकी अधिमानसिक शक्ति, जिसके सहारे वह धर्म और जीवन की व्याख्या प्रस्तुत करती है और मानव-जाति की सम्पूर्ण अनुभूति को अभिव्यक्ति देती है।’’
‘मूकज्जी का अर्थ है, वह अज्जी (आजी-दादी) जो मूक है। इस उपन्यास में कारन्त ने अस्सी वर्ष की एक ऐसी विधवा बुढ़िया पात्र की सृष्टि की है जिसमें वेदना सहते-सहते, मानवीय स्थितियों की विषमता देखते-बूझते, प्रकृति के विशाल खुले प्रांगण में, बरसों से एक पीपल के नीचे उठते-बैठते, सब कुछ मन-ही-मन गुनते-गुनते, एक ऐसी अद्भुत अतीन्द्रिय क्षमता जाग्रत हो गयी है कि उसने प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान काल तक की समस्त मानव-सभ्यता के विकास को आत्मसात् कर लिया है। किन्तु, मात्र इतिहास-क्रम बताना इस उपन्यास का उद्देश्य नहीं है। इतिहास तो मूकज्जी की परा-चेतना का एक आनुषंगिक अंग है। वास्तव में तो यह उपन्यास अनेक क्रिया-कलापों और घटनाओं के सन्दर्भ में मानव चरित्र की ऐसी छवि है जिसमें हम सब और हमारी सारी मनोवृत्तियाँ प्रतिबिम्बित हैं।
मूकज्जी अपने पोते के माध्यम से इतिहास का ही ऊहापोह नहीं करती, अनेक पात्रों की जीवन-गाथा में अपनी समस्त कोमल संवेदनाओं को सम्मिलित करती है और हमें सिखाती है कि संसार की सबसे बड़ी शक्ति और मनुष्यता का सबसे बड़ा गुण है ‘करूणा’। ‘सिखाती है’ कहने से एक भ्रामक धारणा बन सकती है कि उपन्यास का उद्देश्य नैतिक है। किन्तु व्यंग्य तो यह कि मूकज्जी सारी नैतिकताओं को चुनौती देती चलती है, और एक ऐसी वस्तुपरक यथार्थ दृष्टि प्रस्तुत करती है जो परम्परागत धाराणाओं पर प्रबल प्रहार करती है। हम चौंकते हैं कि क्या कह दिया इस बुढ़िया ने। और जो कहा यह तो हमारी श्रद्धा से, हमारी मान्यता से, हमारी सामाजिक धारणा से मेल नहीं खाता ! यही ‘चौंकना’ हमें सिखाता है जीवन को नयी दृष्टि से देखना, सम्पूर्णता से देखना। मूकज्जी, जिसने स्वयं जीवन को वंचना भोगी है, सेक्स और कामभोग के सम्बन्ध में वाचाल हो गयी है, वैज्ञानिक हो गयी है। सच्ची ललक और सच्ची जीवन-अनुभूति के लिए मूकज्जी के दर्शन में कुछ भी वर्जित नहीं है। वर्जित है पाखण्ड, वर्जित है त्रास, वर्जित है अन्याय, वर्जित है नारी का, दीन-असहाय का दोहन। मूकज्जी कहना चाहती है कि जीवन जीने के लिए है, और जिसने जीवन को जीना नहीं जाना, समग्रता से जीना नहीं जाना, उसका तत्त्वचिन्तन, उसकी तपस्या और उसका संन्यास स्वस्थ नहीं है। नास्तिकता तो यहाँ नहीं है, किन्तु ‘अन-आस्तिकता’ यदि यहाँ है तो यह निषेध की दृष्टि नहीं है, स्वीकृति की दृष्टि है। आप चाहे तो मूकज्जी से झगड़ें, चाहें तो मूकज्जी के स्त्रजेता से। लेकिन मूकज्जी के यथार्थ-दर्शन को, उसकी व्यापक सहानुभूति को, उसकी मानवीय दृष्टि को, उसके करूणा और प्रेम के निर्दशन को आप नकार सकें, यह हिम्मत की बात होगी।
भारतीय ज्ञानपीठ को गर्व है कि उसने कारन्त जी के सम्मान से अपने पुरस्कार को गौरवान्वित किया है और मूकज्जी के प्रकाशन से अपने को कृतार्थ।
प्राक्कथन
(मूल कन्नड़ उपन्यास ‘मूकज्जिय कनसुगलु’ से)
बुद्धिजीवी मानव धरती पर निवास की अपनी इस
अल्प अवधि में
अनन्त विश्वों से युक्त एवं करोड़ों-करोड़ वर्षों से चली आ रही इस विशाल
सृष्टि के किसी एक भाग के एक सूक्ष्म अंश को भी ठीक-ठीक से नहीं देख पाया।
किन्तु अपनी अल्प दृष्टि में इस बीच उसे जो कुछ भी अद्भुद, आलौकिक और
चमत्कारपूर्ण लगा उससे वह विस्मित हुए बिना भी नहीं रहा और जिज्ञासु बन
प्रश्न करने लगा-आखिर यह जगत क्या है ? इसकी रचना किसने की? किस प्रयोजन से की ? और, मैं कौन हूँ और क्यों हूँ ? आदि। मात्र प्रश्नों से वह तृप्त
होकर नहीं रह गया। उसने अपनी पहुँच के बाहर के उन विषयों को अपनी
अपेक्षाओं के अनुरूप जानने-समझने के लिए अपनी बुद्धि को अनुमान और कल्पना
के लोक में प्रवाहित किया । फलतः उसे जैसा, जो कुछ भी आभास हुआ उस कल्पित को ही वह सत्य बताने लगा।
जिनकी कल्पना जितनी भव्य और चतुराई-भरी रही उनका चिन्तन, कथन उतना ही अधिक सत्य माना गया। जिनकी कल्पना को अवकाश नहीं मिला या जिनका चिन्तन-पक्ष दुर्बल रहा, वे आँख मूँदकर अपने बुजुर्गों की प्रत्येक बात अक्षरश: सत्य मानकर उसी लीक पर चलते-चले आये। हज़ार लोगों द्वारा हज़ार-हज़ार ढ़ंग से समय-समय पर प्रकल्पित ये मनोविलास परस्पर संघर्ष के कारण भी बने।
भारत, अर्थात् यहाँ के मूल निवासी और बाहर से आयी अन्यान्य जातियाँ, भी इसका अपवाद नहीं हैं। इस देश के लोगों के इस परम्परागत मनोविश्लेषण को इस उपन्यास की ‘मूकज्जी’ अपने अनुभव व चिन्तन के माध्यम से कुरेदती है।
प्रस्तुत उपन्यास का न तो कोई कथा-नायक है और न ही कथा-नायिका। मूकज्जी भी नहीं। उसका काम तो यहाँ साम्प्रदायिक मान्यातओं के कारण परत-दर-परत जम गये इस मन को धीरे-धीरे गर्म करके पिघलाना भर है। ऐसी भी कोई मूकज्जी होगी ? हमारी परम्परागत आस्था या विश्वास के कारण यदि किसी के मन में उसके अस्तित्व के प्रति भ्रम उत्पन्न होता है तो उसका वह शंका-पिशाच ही मूकज्जी है, ऐसा मान लीजिए। परन्तु हममें से अनेक ऐसे भी हैं जिनके मानस में वह पिशाच के रूप में नहीं है, बल्कि एक वास्तविक सन्देह के रूप में बसी हुई है। उसका पोता सुब्बराय ऐसों में ही एक है।
अज्जी और उसका पोता दोनों मिलकर चार-पाँच हज़ार वर्षों से प्रवहमान इस सृष्टि-समस्या के मंथन का प्रयास करते हैं। अवास्तविक लगने वाली ‘अज्जी’ कितने ही वास्तविक ऐतिहासिक तथ्यों को अपनी अन्तर्दृष्टि से उजागर करती है।
उपन्यास के अन्य पात्र-नागी, रामण्णा, जन्ना आदि या तो सृष्टि-शक्ति की अवहेलना करने वाली जो मनोवृत्ति है उसके समर्थक या विरोधी हैं, या फिर मात्र साक्षी हैं।
अपनी अपरिपक्व मान्यताओं को बलात् दूसरों पर लादनेवाले की कहानी भी इसमें समाविष्ट है। इसीलिए यातना की जो ध्वनियाँ आज के हम लोगों को सुनाई नहीं पड़ती थीं, वे यहाँ सुनाई पड़ रही हैं। इति,
जिनकी कल्पना जितनी भव्य और चतुराई-भरी रही उनका चिन्तन, कथन उतना ही अधिक सत्य माना गया। जिनकी कल्पना को अवकाश नहीं मिला या जिनका चिन्तन-पक्ष दुर्बल रहा, वे आँख मूँदकर अपने बुजुर्गों की प्रत्येक बात अक्षरश: सत्य मानकर उसी लीक पर चलते-चले आये। हज़ार लोगों द्वारा हज़ार-हज़ार ढ़ंग से समय-समय पर प्रकल्पित ये मनोविलास परस्पर संघर्ष के कारण भी बने।
भारत, अर्थात् यहाँ के मूल निवासी और बाहर से आयी अन्यान्य जातियाँ, भी इसका अपवाद नहीं हैं। इस देश के लोगों के इस परम्परागत मनोविश्लेषण को इस उपन्यास की ‘मूकज्जी’ अपने अनुभव व चिन्तन के माध्यम से कुरेदती है।
प्रस्तुत उपन्यास का न तो कोई कथा-नायक है और न ही कथा-नायिका। मूकज्जी भी नहीं। उसका काम तो यहाँ साम्प्रदायिक मान्यातओं के कारण परत-दर-परत जम गये इस मन को धीरे-धीरे गर्म करके पिघलाना भर है। ऐसी भी कोई मूकज्जी होगी ? हमारी परम्परागत आस्था या विश्वास के कारण यदि किसी के मन में उसके अस्तित्व के प्रति भ्रम उत्पन्न होता है तो उसका वह शंका-पिशाच ही मूकज्जी है, ऐसा मान लीजिए। परन्तु हममें से अनेक ऐसे भी हैं जिनके मानस में वह पिशाच के रूप में नहीं है, बल्कि एक वास्तविक सन्देह के रूप में बसी हुई है। उसका पोता सुब्बराय ऐसों में ही एक है।
अज्जी और उसका पोता दोनों मिलकर चार-पाँच हज़ार वर्षों से प्रवहमान इस सृष्टि-समस्या के मंथन का प्रयास करते हैं। अवास्तविक लगने वाली ‘अज्जी’ कितने ही वास्तविक ऐतिहासिक तथ्यों को अपनी अन्तर्दृष्टि से उजागर करती है।
उपन्यास के अन्य पात्र-नागी, रामण्णा, जन्ना आदि या तो सृष्टि-शक्ति की अवहेलना करने वाली जो मनोवृत्ति है उसके समर्थक या विरोधी हैं, या फिर मात्र साक्षी हैं।
अपनी अपरिपक्व मान्यताओं को बलात् दूसरों पर लादनेवाले की कहानी भी इसमें समाविष्ट है। इसीलिए यातना की जो ध्वनियाँ आज के हम लोगों को सुनाई नहीं पड़ती थीं, वे यहाँ सुनाई पड़ रही हैं। इति,
एक
कहानियाँ सुनने और पढ़ने का सभी को चाव होता
है। पढ़े-लिखे
लोग तक उनमें रूचि लेते हैं। लिखित कहानियों के साथ लेखक का नाम दिया रहता
है। लिखते-लिखते उसकी यदि प्रसिद्धि हो जाती है, तो फिर धीरे-धीरे उसकी
बातों को वेदवाक्य की नाईं प्रामाणिक माना जाने लगता है।
मैं भी एक पढ़ा-लिखा आदमी हूँ। अर्थात् पाठशाला में पढ़ा हूँ। कुछ सीढ़ियाँ कॉलेज की भी चढ़ चुका हूँ। अपने बचपन मैं मैंने काफ़ी कहानियाँ पढ़ी हैं। पढ़ते समय और किसी बात की सुध-बुध तक नहीं रहती थी। कहानी चाहे बत्तीस पुतलियों की होती, चाहे यमन-यामिनी की; पढ़कर जी खिल उठता था। तब तक पढ़ता रहता कहानी, तब तक ही नहीं बाद को भी जब तक वह ध्यान में बनी रहती, उसके चरित्र और कितने ही प्रसंग चलचित्र की तरह मस्तिष्क में घूमते ही रहते थे। कुछ इस तरह छा जाती थी मन पर वह कि फिर न इसका बोध होने पाता कि भोजन परोस दिया गया है, न परोसे हुए भोजन को खाने की ही सुध आती। सारी चेतना ही कहानी की भाव-धारा में ऊभ-चूभ हुई पड़ी हो तब ऐसा होना स्वाभाविक ही था।
धीरे-धीरे पढ़ी हुई कहानियों के विवरण भूलने लगते। मगर पढ़ते समय जो प्रश्न उभर उठते वे बराबर कुरेदते रहते। जैसे यही कुछ प्रश्नः ‘सीसम-सीसम दरवाजा खोलो’ कहने से क्या सचमुच ही किसी गुफा का द्वार खुल सकता? क्या अलीबाबा नाम का कोई व्यक्ति कहीं सचमुच हुआ होगा? या यह निरा काल्पनिक पात्र है कोई ? क्या यह सम्भव हो सकता है किसी ने कठपुतली से बातें करायी हों, कठपुतली आदमी की तरह बोल सकी हो ? क्या कोई बाजीगर हाथ में कंकड़ लेकर अपनी जादू की छड़ी घुमाये तो उसके स्थान पर हीरा या मोती दिखाई पड़ सकता है? ऐसे-ऐसे अनगिनत प्रश्न और अनगिनत सन्देह मन में उत्पन्न होने लगते । मगर तब मेरी उम्र ऐसी नहीं थी कि इस प्रकार की बातों को असम्भव मानकर अनदेखा-अनसुना कर सकूँ। उतनी समझ ही तब नहीं हो सकती थी।
कैसे कहता कि हिरण्यकशिपु ने जब खम्भे में लात मारी तो नरसिंह का प्रकट होना असम्भव था ? कैसे ध्रुव के सीधे नक्षत्रलोक में जाने की बात को असत्य मान लेता ? किस आधार पर कहता कि नहीं, भगवान् ने उसे वर प्रदान ही नहीं किया होगा ? क्या यह कहता मैं कि दुर्वासा ऋषि ने शाप ही नहीं दिया ? या दिया भी हो तो उसका परिणाम वह नहीं हो सकता जिसका पुराणों में उल्लेख मिलता है ? मेरा मन बार-बार यही कहता था कि ये सब पौराणिक कथाएँ यदि झूठी नहीं हैं तब बत्तीस पुतलियों या अलीबाबा और चालीस चोर जैसी कथाएँ ही क्योंकर झूठी होंगी ? मेरी बुद्धि तो उन दिनों इसी तरह सोचा करती थी।
आगे चलकर जब कुछ अधिक पढ़-लिख गया तब अपने-आस-पड़ोस में ही जो सब आये दिन घटित हुआ करता उसे स्वयं अपनी आँखों देखता। साथ ही, अपनी बुद्धि के अनुसार हर बात को समझने की कोशिश भी करता। इस प्रकार जैसे-जैसे मेरा लोकानुभव बढ़ता और परिपक्व होता गया, मेरा मन गूँजने लगा कि उन कहानियों पर विश्वास करने में कोई विशेष हानि नहीं। कारण स्पष्ट थाः उनसे कहीं अधिक अनहोनी और विचित्र बातें हमारे अपने गाँव में घर-घर हो रही थीं। इन घटनाओं के पात्रों में से कुछेक के तो नाम भी गिना सकता हूँ। मगर आप लोग यह न समझ बैठें कि मैं उन नामों के व्यक्तियों की ही बात कर रहा हूँ।
कहा जाता है हमारे पड़ोस के गाँव के तिप्पय्या ने अपनी जान-पहचान की कई विधवाओं को बहला-फुसलाकर उनकी सारी सम्पत्ति हड़प ली। इतनी बात तो बिल्कुल सच है कि तिप्पय्या अब बहुत धनवान बन गया है। और यह भी उसी तरह सच है कि मैंने ही नहीं, किसी और ने भी कोई काम-धाम करते उसे कभी नहीं देखा। एक बार तो यह भी सुनने में आया कि उसकी प्रजा में से किसी के एक छोटे लड़के ने पिछवाड़े के बगीचे से एक अँबिया चुरा ली तो उसे खम्भे में बँधवाकर उसने कोड़ों से पिटवाया। उन विधवाओं की सम्पत्ति हड़प लेने की बात जितनी सच्ची है उतनी ही यह घटना भी सच है।
ये सारी कहानियाँ मेरी अपनी तरूणाई के दिनों की सुनी-सुनायी हुई हैं। सुनते समय कुछ बातें तो इतनी अविश्वसनीय लगतीं कि मैं भीतर-भीतर परेशान हो उठता था। अनेक-अनेक प्रश्न सामने आ खड़े होते और मुझे झँझोड़ने लगते। उदाहरण के लिए, मैं सोचने लगता कि गाँव के आस-पास जो कई भले और जाने-माने लोग रहते हैं और जिनकी मान-गौन है, वे सब क्यों चुप्पी साधे बैठे रहे ? इतना ही नहीं, वही तिप्पय्या यदि उनमें से किसी के यहाँ जाता तो उसका खूब स्वागत किया जाता ! यहाँ तक कहा जाता, ‘‘आइये-आइये श्रीमान्, आप आज पधारे तो घर में मानो साक्षात् गंगा मैया ही उतर आयीं ! विराजो !’’ क्यों कहा जाता इस प्रकार ? अपने छुटपन में यह प्रश्न मैंने आजीमाँ से पूछा था। तिप्पय्या का नाम लेकर पूछा था। उत्तर में वे इतना ही बोलीं, ‘‘कलमुँहा कहीं का ! भाड़ में जाये ! उसका तो नाम भी कानों में पड़ जाये तो नहाकर पवित्र होना पड़े।’’ आजीमाँ के शुद्ध और निष्कलंक व्यक्तित्व और खरी बात कह देने के स्वभाव पर मुझे बहुत गर्व है । हाँ, इसलिए तो और भी कि वे अपनी ही आजीमाँ हैं और अपने ही घर हैं। उन्हें न किसी से लेना है न किसी को देना।
और एक घटना सुनाऊँ। एक बार हमारे गाँव में रातों-रात खून हुआ, डाका पड़ा। कुहराम मच उठा। तिप्पय्या के ही एक कुटुम्बी के यहाँ यह घटना घटी। सवा लाख लूटलाटकर घर को आग भी लगा दी गयी। उस दिन यह कुटुम्बी, पूर्णय्या उसका नाम था, गाँव में नहीं था। काशी गया हुआ था। घर पर होता यदि तो उसकी भी वही दुर्गति होती जो घर के रखवाले सुब्बा की हुई। सुब्बा ने उन आतताइयों को घर में घुसने से भरसक रोका। दुहाई डाली। उनकी आवाज से उन्हें पहचानने में भी नहीं चूका। मगर हाय-पुकार करके भी कितनी देर उन्हें अटकाये रख सकता था ! उन गुण्डों ने बेहरहमी से उसे मार डाला।
सुब्बा का बेटा, नौ-दस बरस का रहा होगा, उसके पास, सोया हुआ था। हल्ला सुनते ही डर के मारे भागकर कहीं आमने-सामने ही जा छुपा। उसने शायद यही सारा काण्ड होता हुआ अपनी आँखों से देखा था। घर-मालिक पूर्णय्या के काशी से लौटकर आने तक वह इधर-उधर वहीं लुका-छुपा ही रहा। तीन दिन बाद पूर्णय्या गाँव लौटा तो, हो सकता है, उस लड़के ने जो कुछ देखा था वह सब अपनी तरह से मालिक को बताया हो।
बाद में, डाके और खून की खबर पाकर कुन्दापुर से पुलिस वाले आये। पीछे-पीछे अफ़सर लोग भी दो-एक आये। पूरी तरह से जाँच पड़ताल की गयी। गाँव के लोग मन-ही-मन जानते थे कि सारी करतूत तिप्पय्या की है। मगर पुलिस ने अपनी तहकीकात करने के बाद जो रिपोर्ट लिखी वह तिप्पय्या के घर की ड्योढ़ी पर बैठकर।
काशी से लौटकर आने पर पूर्णय्या ने खूनी और लुटेरों का पता लगाने की बहुत-बहुत चेष्टा की। मगर परिणाम कुछ न निकला। पेड़ और दीवारों के बोल नहीं होते, कोई और बताने का साहस कैसे करता ! सुब्बा बेचारा मर चुका था। सच्चाई बताने के लिए वह अब आता कहाँ से ? मगर उसके बेटे ने भी अब बयान यह दिया कि वह तो तीन दिन से घर ही नहीं था कानोंकान लोगों ने जरूर कहा कि तिप्पय्या का हाथ रहे बिना यह सब हरगिज नहीं हो सकता था। बाद में ये ही कानाफूसी करने वाले कहते सुन गये कि सारा काण्ड पास के गाँव वालों की करतूत थी।
आजीमाँ ने इस पर इतनी टिप्पणी की थी कि आसपास के किसी भी गाँव के गुण्डों को तो यहाँ आये अब पचासों बरस बीते !
एक और छोटी-सी कहानी सुनाता हूँ। यह है रामण्णा की पत्नी नागी की। रामण्णा तेल बेचता है। वही उसका धन्धा है। जीवन चलाने का साधन। घर में उसका अपना कोल्हू है। एक भूल वह कर बैठा था। अपना ब्याह उसने एक सुन्दर लड़की से किया, फिर गौना भी कराया, मैंने यह सब अपनी आजीमाँ से ही सुना है। इसलिए यह सब बताने में कहीं कोई भूल-चूक या और कोई बात होने की गुंजाइश ही नहीं है।
उस लड़की का नाम था नागी। था नहीं, है। कुछ ही दिनों बाद कुछ लोग उसे रामण्णा के यहाँ से भगा ले गये। चार बरस उसे अपने यहाँ रखकर इन लोगों ने खूब ऐशो-आराम किया उसके बाद जैसे जूठी पत्तल को उठाकर फेंक देते हैं नागी को भी उन लोगों ने घर से निकाल दिया। बहुत दिनों बाद नेरा एक मित्र गाँव में एक बार मेला देखने आया। नागी पर नजर पड़ते ही उसने मुझे उँगली के इशारे से दिखाते हुए बताया, ‘‘यही है वह रामण्णा की पत्नी नागी ! एक दिन अपने रूप और सौन्दर्य में यह दूसरी रम्भा थी। अब देखो क्या दशा हो गयी है बेचारी की ! बिलकुल ठठरी बन कर रह गयी है।’’
मुझे तत्काल चार बरस पहले सुनी हुई उसकी कहानी याद हो आयी। मैंने पूछा मित्र से, ‘‘पर इसकी यह दुर्दशा हुई किस कारण?’’ मित्र में उसी क्षण उत्तर दिया ‘‘रूप के कारण ! इसके अपने सौन्दर्य के कारण !’ मैंने आजीमाँ से जो कुछ सुना था। वह भूला नहीं था। इसलिए बात की तह तक पहुँचने के उद्देश्य से मित्र ने कहा, ‘‘पर कौन व्यक्ति था इस सबके मूल में, उसका नाम भी तो बताओ !’’ मित्र धीरे से हँसा और इतना ही बोला, ‘‘वह व्यक्ति रामण्णा ही नहीं था। नागी स्वयं भी अपनी दुर्गति के मूल में नहीं थी। लोग बस, इतना ही कहते-बताते हैं।’’
‘‘फिर क्या हुआ ?’’ मैंने स्वभावतः आगे जानना चाहा। मित्र ने बताया, ‘‘सुनते हैं मायके वालों ने उसे अपने यहाँ बुला लिया था। सोने-चाँदी का लालच दिखा-दिखाकर उसे फुसलाना चाहा। चार-पाँच दिन कहीं छिपाये रखा उसे। उसके बाद तो वही कहावत चरितार्थ हुई कि नदिया में नहाने उतरे तो जाड़े का क्या डर ! एक दिन कहीं उसे रखैल बना ही दिया। गहने-कपड़े से लादकर कुछ ऐसा जाल उस पर फैलाया कि वह रामण्णा को भूल ही गयी। अच्छा ही हुआ शायद। रामण्णा के यहाँ रहती तो कोल्हू का बैल ही तो हुई रहती।’’
दो क्षण ठहर कर मित्र आगे बताने लगे, ‘‘मगर तब नागी की कच्ची उम्र थी। अपने ब्याहे मर्द को ठुकराकर भागने की समझ और हिम्मत ही उसमें कहाँ रही होगी। पर जहाँ रखैल बनाकर उसे डाला गया वहाँ भी बाद में कुछ-न-कुछ गड़बड़ हुई। हुई ही होगी। क्योंकि जो लोग उसे ले गये, जहाँ वह इतने दिनों रही कि दो-दो बच्चों की माँ तक बन गयी, वे भी अब नहीं अपनाना चाहते उसे। पहले जैसी चमक-दमक और सुन्दरता तो अब नहीं ही रह गयी थी।’’
मैंने बार-बार तरह-तरह से कुरेदकर अपने मित्र से जानना चाहा कि आख़िर यह जो कुछ हुआ उस सबके मूल में था कौन व्यक्ति। मगर मेरे मित्र ने नहीं बताया तो नहीं बताया। साफ इनकार ही कर दिया बताने से। मैंने भी जोर नहीं दिया। मित्र ही आगे कहता गया, ‘‘अब तो यह चुसी हुआ अँबिया होकर रह गयी है। रखैल के रूप में घर डालने वाला भी था तो कोई मनचला ही। हो सकता है जी भर चुका हो। हो सकता है बोझ को और न ढोना चाहा हो। और एक दिन यह कहकर कि तेरे गहने नये सिर से बनवाये देता हूँ, उससे सब कुछ लेकर अपने हाथों में कर लिया और फिर उसके पास आना-जाना ही नहीं बन्द कर दिया, उसे और उन दोनों छोटे-छोटे बच्चों को खाना-पीना देना तक बन्द कर दिया।’’
सुनाते-सुनाते मित्र उदास हो आया था। थोड़ा सभँलकर आगे बोला, ‘‘लोग कहते हैं कि सब तरह बरबाद होकर लाचारी में एक दिन यह उसके द्वारे जाकर बहुत-बहुत रोयी और गिड़गिड़ायी । मगर उस व्य़क्ति ने इस बेतरह दुतकारा और वहाँ से भगाते हुए यहाँ तक कहा, ‘‘राँड कहीं की, अब अगर कभी इधर आने का नाम भी लिया तो कमर तुड़वा दी जायेगी। जा, काला मुँह कर अपना।’ बेचारी चली आयी।’’
मित्र का कण्ठ भर्रा आया। कहता गया वह, ‘‘बस्ती का बड़ा आदमी था। अपनी चला ही सकता था। कमर भी तुड़वाते उसे क्या लगता। मगर तबसे ही इतनी बुरी हालत हो गयी है इसकी कि देखते तक नहीं बनता। छोटे-छोटे दो बच्चे हैं। इधर-उधर गाँव में ही फिरती-भटकती है। कहीं कुछ मजूरी या बेगारी मिल जाती है तो उसी से बच्चों का और अपना पापी पेट किसी तरह भर लेती है। सुनते हैं इतने पर भी रामण्णा ने इसके पास जाकर प्यार की भीख माँगी। कहा, ‘अपने घर चलकर रह।’ नागी सुनकर फफक पड़ी। आँसू बहाते-बहाते बोली थी, ‘नहीं, इस जूठी पत्तल को तुम मत छुओ। मेरे हाल पर ही छोड़ दो मुझे।’ और यह कहकर बच्चों को घसीटती हुई-सी सामने से हट गयी थी।’’
‘‘इतना भलापन ! और इतनी हिम्मत !’’ मेरे मुँह से निकला।
‘‘किसमें, नागी में !’’ मित्र ने मेरी ओर देखते हुए पूछा।
‘हाँ, नागी का भलापन और रामण्णा का भोलापन और हिम्मत दोनों !’’
बात वहीं रह गयी। मित्र ने और कुछ नहीं बताया। शायद किसी प्रकार का कोई भय कारण रहा हो। जो हो, मेरी उत्सुकता बनी की बनी रह गयी। उस समय मैं यही कोई सोलह का रहा हूँगा। लोकानुभव बिलकुल ही नहीं था।
मेरा मन नागी के लिए स्वभावतः सहानुभूति से भर उठा। उसके बच्चों को देख-सोचकर तो मैं द्रवित ही हो आया। कोई स्त्री किसी पुरूष के लिए अपने घर तक को छोड़ गयी या कोई पुरूष ही किसी स्त्री के पीछे पागल हो उठाः ऐसी बातें सुनने पर न हँसी आती मुझे, न कुछ अचरज ही होता। आये दिन ही कहीं-न-कहीं कोई घटना होती रहती। सच्चाई मनगढ़ी कहानी में भी होती है और वास्तविक जीवन में भी।
नागी के बारे में अपने मित्र से जो सब मेले में सुना उससे कई बातें बिलकुल स्पष्ट हो आयीं। जिन लोगों ने उसे ससुराल से बुलवाया उन्होंने जान-बूझकर ऐसा किया। उन्होंने ही उसे बाद को बहकाया भी। और इसमें नागी के मायके वालों का भी पूरा-पूरा हाथ था। फिर उसे जात-बिरादरी तक से अलग किया गया। दोनों बच्चों को पालने पोसने का समूचा भार उस अकेली, टूटी हुई, और सब तरह से मारी पड़ी औरत के ऊपर पड़ा । इतने पर भी रामण्णा के निहोरे करने पर उसके घर न जाकर उसने रामण्णा की इज्जत रखी। कितनी भली थी वह सचमुच ! मेरे मन में विचारों का एक ताँता लगा गया और नागी के प्रति एक सहज दया उमड़ आयी।
मेरा मित्र चला गया तो मैंने नागी को दूर से देखा। उससे बात करने की जी में आयी। तभी जैसे वह कपालेश्वर शिवालय के आस-पास लगे उस मेले की भीड़ में कहीं आँखों से ओझल हो गयी। काफी देर बाद वह अकस्मात वह दिखी। चने-कुरमुरे वाले की दूकान के आगे खड़ी थी। शायद बच्चों के लिए मूड़ी ले रही थी। फिर एक पेड़ के नीचे ऐसी जगह जा बैठी जहाँ भीड़ नहीं थी। मैं थोड़ा घूमता फिरता धीरे से उनके पास जा खड़ा हुआ। मेरे पास एक दुअन्नी थी। उसकी ओर बढ़ते हुए मैंने कहा, ‘‘लो, इन बच्चों के लिए कुछ ला दो।’’ सुनते ही इस तरह घूमकर उसने मेरी तरफ़ देखा कि मुझे आज तक भी याद है। कभी-कभी तो याद आने पर काँप तक जाता हूँ।
उसने कड़वे स्वर में उत्तर दिया था, ‘‘तुम्हारी पालतू कुतिया नहीं हूँ मैं, बड़े आये दया दिखानेवाले !’’ मैंने सामान्य भाव से समझाना चाहा, ‘‘क्यों इस तरह बिगड़ती हो, मैंने तो बच्चों का खयाल करके ही देना चाहा। नहीं लेना चाहती तो मैं जोर नहीं दूँगा। तुम्हारे कष्टों की कहानी मैंने सुनी है। हमारे ही गाँव की रहने वाली हो तुम । इसीलिए मुझे और भी लगा.....।’’ नागी कुछ बोली नहीं, आँखे उठाये सामने शून्य में देखती रही। मैं ही बताने लगा, ‘‘इस गाँव का हूँ, अड़िगों के घराने का। मूकज्जी का पोता...।’ सुनकर कुछ देर आँखें फाड़े हुए मेरी ओर देखती रही। उसके बाद बोली, ‘‘ना बाबा, मैंने जो पाप किया है उसका दण्ड मैं ही भुगतूँगी। मुझे किसी का पैसा नहीं चाहिए।’’
मैंने फिर एक बार कहा, ‘‘मैं तुम्हें नहीं, बच्चों के लिए दे रहा था। इन बेचारों ने किसी का क्या बिगाड़ा है। कुछ खा लेते, दो घड़ी ख़ुश रहते, बस !’’ नागी की आँखों से आँसू की बूँदें टपकती दिखीं। पैसे उसने फिर भी नहीं लिये। स्वाभिमानी ग़रीब के सहज दर्द के साथ बोली, ‘‘बच्चों के लिए भी दूसरों का पैसा मुझे नहीं चाहिए। अपनी शक्ति-भर मेहनत करूँगी। जो मिलेगा उसी से इनका पेट पालूँगी। कल को बड़े होकर ये भी कहीं दया माँगने नहीं जाएँगे, अपने परिश्रम पर जियेगे।” बच्चों को लेकर जाते जाते इतना और बोली, “तुम बड़े घर के लोग हो। आजीमाँ तो देवता ही है। तो भी किसी की कृपा मुझे नहीं चाहिए। तुम बुरा मत मानना।’’
मेरा गला भीग आया। नागी से कहा, ‘‘नहीं, बुरा क्या मानूँगा। एक तरह से तुम ठीक ही तो कहती हो। तुम्हारा साहस देखकर तो, सच आश्चर्य होता है।’’ सिटपिटाती हुई-सी बोली वह, ‘‘नहीं मालिक, मैं तो एक शिखण्डी की तरह हूँ।’’ मैं नहीं समझा उसका भाव तो उसने बताया, ‘‘यक्षगान के प्रसंग में आचार्य भीष्म के सामने खड़े शिखण्डी की तरह ही मैंने भी हठ पकड़ी है मालिक ! मैं उसे छोड़ने वाली नहीं। अपनी मेहनत से, अपना पेट काट-काटकर, बच्चों को सयाना बनाऊँगी। फिर इन्हें उसके सामने खड़ा करके कहूँगी, ‘लो, इन्हें देखो और पहचानो, और कहीं लाज-शर्म बची हो तो चुल्लू-भर पानी में डूब मरो !’ मैं भूलूँगी नहीं।’’
मैं कुछ सोच में पड़ा। भीतर-भीतर जैसे घबराया भी। नागी से बोला, ‘‘तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आयी। मुझसे यह सब क्यों कहती हो ? मैं तो पढ़ता हूँ, विद्यार्थी हूँ अभी।’’ उसने स्पष्ट किया, ‘‘नहीं मालिक, तुम्हारे लिए कुछ नहीं कहा मैंने। पर जो कहा है मैंने वह अपने मामा को सुना देना। बस। वह समझ जायेंगे। इसलिए तुमसे कहा है।’’
और नागी बच्चों को लिये हुए वहाँ से चली गयी।
ऐसा लगा मानो शिखण्डी का शाप मुझे ही लग गया है। नागी की बातें सुनकर मेरा जी मसोस उठा। मेला देखने की सारी इच्छा वहीं बुझ गयी। मन मर गया। रह-रहकर ऐसा लगता जैसे कहीं कुछ भूल कर बैठा हूँ।
उखडा-उखड़ा-सा घर आया और आजीमाँ को देखते बोला, ‘‘आजीमाँ, क्या जाने क्यों आज जी अच्छा नहीं लगता। चलो, बाहर चबूतरे पर बैठें।’’
आजीमाँ की बूढ़ी आँखें मेरी तरफ़ को उठीं। मेरी बेचैनी भाँपते उन्हें दो क्षण भी नहीं लगे शायद। बोलीं, ‘‘क्यों, ऐसे क्यों हो रहे हो ? आज तो बड़ा अच्छा दिन है, त्योहार है।’’
मेरी सारी खिन्नता उमड़ पड़ी। जेब से उस दुअन्नी को निकालकर आजीमाँ की हथेली पर रखते हुए कहा, ‘‘आजीमाँ, इस दुअन्नी के कारण मुझसे बड़ी भूल हो गयी है आज। जिसे देने लगा था उसने ली भी नहीं और ऊपर से, उलटे बुरा-भला कहा। अपनी और अपने मामा, दोनों की फजीहत करायी।’’
आजीमाँ दुअन्नी हाथ में लिये रहीं, बोली कुछ नहीं। मैं ही फिर पूछ उठा, ‘‘आजीमाँ, मेरे मामा कितने हैं? कौन-कौन हैं ? मेरी माँ के तो कोई भाई थे नहीं शायद !’’
मैं पूछ ही रहा था कि आजीमाँ बीच में ही बोल उठीं, ‘‘यह दुअन्नी किसी स्त्री को दी थी क्या ? उसने लौटा दी ? पर तुमने दी ही क्यों ?’’
आजीमाँ के इस तरह पूछने पर मुझे सभी कुछ बता देना पड़ा।
वे तब बोलीं, ‘‘उसने इस दुअन्नी को छुआ दिखता है। अभी भी गर्म बनी हुई है। जरूर नागी ने छुआ है। उसके जी का सारा उबाल इसमें भर आया है।’’
‘‘आजीमाँ, उसने मेरे मामा को बुरा-भला कहा। वह तो हठ पकड़े है....’’
‘‘तुम नागी की कहानी नहीं जानते बेटा, ‘‘आजीमाँ बताने लगीं, ‘‘उसका अपना रूप ही उसकी मौत बन गया। बचपन में ही बहकावों में आ गयी। ऊपर से लालच। जाल में फँस गयी। अब समझ आ गयी है। हठीली वह है ही। भीतर-भीतर बहुत पछतावा है उसे कि जूठी पत्तल बनी और जूठने खाती रही।’’
‘‘हाँ, आजीमाँ, उसके मुँह से दो बार ‘जूठन’ शब्द निकला।’’
‘‘अपने पति को छोड़ गयी थी न ! जूठन तो बनी ही ! पर उसकी दुर्गति सारी हुई तुम्हारे मामा के ही कारण। पर जाने दो उन बातों को बेटा। जैसे जो बोयेगा वैसा काटेगा भी।’’
‘‘तो क्या, आजीमाँ, बच्चों के बड़े हो जाने पर भी वैसा ही करेगी वह जैसा कहती है ?’’
‘‘क्या नहीं करेगी ? वह हठ की भी पक्की है और सत्य भी उसके साथ है !’’ आजीमाँ ने निश्चय-भाव के साथ कहा।
‘‘पर आजीमाँ, वह जो पति के बुलाने आने पर भी उसके साथ गयी नहीं ?’’ मैंने तर्क किया।
‘‘हाँ, बेटा, अन्तर की सच्ची है इसीलिए तो नहीं गयी। आज के संसार में सत्य का पल्ला थामता ही कौन है ! कौन जाने की बीते युगों में कैसा क्या रहा। किन्तु यह अगर जीवित रही, दोनों बच्चे इसके समझदार बने, और तुम्हारे मामा भी तब तक जीवित रहे, तो यह इन बच्चों को उनके सामने खड़ा करके कहे बिना नहीं रहेगी कि मुझे अनाथ बनाकर तुमने सड़क पर फेंका मगर लोग नहीं कहेंगे क्या कि इन बच्चों के पिता तुम हो-तुम !’’
‘‘आजीमाँ, इसका कौन भरोसा ! सिर पर बदले की आग सवार है। मुझे तो भय है कहीं मामा का ख़ून न कर-करा दे !’’
आजीमाँ सुनकर हँस पड़ीं, ‘‘पगला कहीं का ! मौत क्या इज्जत और आबरू से बढ़कर होती है ?’’
फिर आजीमाँ जब आराम करने गयीं तब उन्होंने पास बैठाकर समूची कहानी सुनायी। हमारे गाँव के दक्षिण में ईरिगे नाम की एक छोटी-सी बस्ती है। वहाँ मेरे एक मामा रहते हैं। नागी की कहानी इनसे ही सम्बन्धित है। मगर ये मेरे सगे मामा नहीं है। आजीमाँ से यह जान लेने के बाद जाकर कहीं तसल्ली मिली मुझे।
उन्होंने बताया मेरे पिता ने दो विवाह किये थे। मेरी माँ उनकी दूसरी पत्नी थीं। पहली पत्नी प्रवास के समय ही चल बसी थीं। उनके ही भाई थे यह मामा जो नागी की बरबादी का कारण बने। मुझे इन मामा के बारे में कोई ज्ञान न था। आजीमाँ ने सब सुनने के बाद जरूर सोच में पड़ा कि आखिर कैसे होंगे यह मामा जिन्होंने एक भोली स्त्री को इस दुर्दशा को पहुँचाया !
जो हो, मुझे इस बात का सन्तोष था कि नागी का कोप-ताप छूत बनकर भी मेरे निकट नहीं आ सकता था। इन मामा से नाता जुड़ता भी था तो बहुत दूर का, टूटे हुए सम्बन्ध-सूत्रों का।
पर सचमुच कितनी-कितनी विचित्र होती हैं वास्तविक कहानियाँ ! कितनी पीड़ा और दर्द-भरी, कितनी करूण ! इसलिए अच्छा यही कि इन कहानियों के स्थान पर कल्पित कहानियाँ ही सुनें। कम-से-कम ऐसी तो वे नहीं ही होंगी।
बचपन में मुझे और छोटे भाईको आजीमाँ ने बीसियों कहानियाँ सुनायी थीं। इतनी अनोखी और बाँध लेने वाली होती थीं वे कि हम तो बस उन्हीं के हुए रहते। आगे च
मैं भी एक पढ़ा-लिखा आदमी हूँ। अर्थात् पाठशाला में पढ़ा हूँ। कुछ सीढ़ियाँ कॉलेज की भी चढ़ चुका हूँ। अपने बचपन मैं मैंने काफ़ी कहानियाँ पढ़ी हैं। पढ़ते समय और किसी बात की सुध-बुध तक नहीं रहती थी। कहानी चाहे बत्तीस पुतलियों की होती, चाहे यमन-यामिनी की; पढ़कर जी खिल उठता था। तब तक पढ़ता रहता कहानी, तब तक ही नहीं बाद को भी जब तक वह ध्यान में बनी रहती, उसके चरित्र और कितने ही प्रसंग चलचित्र की तरह मस्तिष्क में घूमते ही रहते थे। कुछ इस तरह छा जाती थी मन पर वह कि फिर न इसका बोध होने पाता कि भोजन परोस दिया गया है, न परोसे हुए भोजन को खाने की ही सुध आती। सारी चेतना ही कहानी की भाव-धारा में ऊभ-चूभ हुई पड़ी हो तब ऐसा होना स्वाभाविक ही था।
धीरे-धीरे पढ़ी हुई कहानियों के विवरण भूलने लगते। मगर पढ़ते समय जो प्रश्न उभर उठते वे बराबर कुरेदते रहते। जैसे यही कुछ प्रश्नः ‘सीसम-सीसम दरवाजा खोलो’ कहने से क्या सचमुच ही किसी गुफा का द्वार खुल सकता? क्या अलीबाबा नाम का कोई व्यक्ति कहीं सचमुच हुआ होगा? या यह निरा काल्पनिक पात्र है कोई ? क्या यह सम्भव हो सकता है किसी ने कठपुतली से बातें करायी हों, कठपुतली आदमी की तरह बोल सकी हो ? क्या कोई बाजीगर हाथ में कंकड़ लेकर अपनी जादू की छड़ी घुमाये तो उसके स्थान पर हीरा या मोती दिखाई पड़ सकता है? ऐसे-ऐसे अनगिनत प्रश्न और अनगिनत सन्देह मन में उत्पन्न होने लगते । मगर तब मेरी उम्र ऐसी नहीं थी कि इस प्रकार की बातों को असम्भव मानकर अनदेखा-अनसुना कर सकूँ। उतनी समझ ही तब नहीं हो सकती थी।
कैसे कहता कि हिरण्यकशिपु ने जब खम्भे में लात मारी तो नरसिंह का प्रकट होना असम्भव था ? कैसे ध्रुव के सीधे नक्षत्रलोक में जाने की बात को असत्य मान लेता ? किस आधार पर कहता कि नहीं, भगवान् ने उसे वर प्रदान ही नहीं किया होगा ? क्या यह कहता मैं कि दुर्वासा ऋषि ने शाप ही नहीं दिया ? या दिया भी हो तो उसका परिणाम वह नहीं हो सकता जिसका पुराणों में उल्लेख मिलता है ? मेरा मन बार-बार यही कहता था कि ये सब पौराणिक कथाएँ यदि झूठी नहीं हैं तब बत्तीस पुतलियों या अलीबाबा और चालीस चोर जैसी कथाएँ ही क्योंकर झूठी होंगी ? मेरी बुद्धि तो उन दिनों इसी तरह सोचा करती थी।
आगे चलकर जब कुछ अधिक पढ़-लिख गया तब अपने-आस-पड़ोस में ही जो सब आये दिन घटित हुआ करता उसे स्वयं अपनी आँखों देखता। साथ ही, अपनी बुद्धि के अनुसार हर बात को समझने की कोशिश भी करता। इस प्रकार जैसे-जैसे मेरा लोकानुभव बढ़ता और परिपक्व होता गया, मेरा मन गूँजने लगा कि उन कहानियों पर विश्वास करने में कोई विशेष हानि नहीं। कारण स्पष्ट थाः उनसे कहीं अधिक अनहोनी और विचित्र बातें हमारे अपने गाँव में घर-घर हो रही थीं। इन घटनाओं के पात्रों में से कुछेक के तो नाम भी गिना सकता हूँ। मगर आप लोग यह न समझ बैठें कि मैं उन नामों के व्यक्तियों की ही बात कर रहा हूँ।
कहा जाता है हमारे पड़ोस के गाँव के तिप्पय्या ने अपनी जान-पहचान की कई विधवाओं को बहला-फुसलाकर उनकी सारी सम्पत्ति हड़प ली। इतनी बात तो बिल्कुल सच है कि तिप्पय्या अब बहुत धनवान बन गया है। और यह भी उसी तरह सच है कि मैंने ही नहीं, किसी और ने भी कोई काम-धाम करते उसे कभी नहीं देखा। एक बार तो यह भी सुनने में आया कि उसकी प्रजा में से किसी के एक छोटे लड़के ने पिछवाड़े के बगीचे से एक अँबिया चुरा ली तो उसे खम्भे में बँधवाकर उसने कोड़ों से पिटवाया। उन विधवाओं की सम्पत्ति हड़प लेने की बात जितनी सच्ची है उतनी ही यह घटना भी सच है।
ये सारी कहानियाँ मेरी अपनी तरूणाई के दिनों की सुनी-सुनायी हुई हैं। सुनते समय कुछ बातें तो इतनी अविश्वसनीय लगतीं कि मैं भीतर-भीतर परेशान हो उठता था। अनेक-अनेक प्रश्न सामने आ खड़े होते और मुझे झँझोड़ने लगते। उदाहरण के लिए, मैं सोचने लगता कि गाँव के आस-पास जो कई भले और जाने-माने लोग रहते हैं और जिनकी मान-गौन है, वे सब क्यों चुप्पी साधे बैठे रहे ? इतना ही नहीं, वही तिप्पय्या यदि उनमें से किसी के यहाँ जाता तो उसका खूब स्वागत किया जाता ! यहाँ तक कहा जाता, ‘‘आइये-आइये श्रीमान्, आप आज पधारे तो घर में मानो साक्षात् गंगा मैया ही उतर आयीं ! विराजो !’’ क्यों कहा जाता इस प्रकार ? अपने छुटपन में यह प्रश्न मैंने आजीमाँ से पूछा था। तिप्पय्या का नाम लेकर पूछा था। उत्तर में वे इतना ही बोलीं, ‘‘कलमुँहा कहीं का ! भाड़ में जाये ! उसका तो नाम भी कानों में पड़ जाये तो नहाकर पवित्र होना पड़े।’’ आजीमाँ के शुद्ध और निष्कलंक व्यक्तित्व और खरी बात कह देने के स्वभाव पर मुझे बहुत गर्व है । हाँ, इसलिए तो और भी कि वे अपनी ही आजीमाँ हैं और अपने ही घर हैं। उन्हें न किसी से लेना है न किसी को देना।
और एक घटना सुनाऊँ। एक बार हमारे गाँव में रातों-रात खून हुआ, डाका पड़ा। कुहराम मच उठा। तिप्पय्या के ही एक कुटुम्बी के यहाँ यह घटना घटी। सवा लाख लूटलाटकर घर को आग भी लगा दी गयी। उस दिन यह कुटुम्बी, पूर्णय्या उसका नाम था, गाँव में नहीं था। काशी गया हुआ था। घर पर होता यदि तो उसकी भी वही दुर्गति होती जो घर के रखवाले सुब्बा की हुई। सुब्बा ने उन आतताइयों को घर में घुसने से भरसक रोका। दुहाई डाली। उनकी आवाज से उन्हें पहचानने में भी नहीं चूका। मगर हाय-पुकार करके भी कितनी देर उन्हें अटकाये रख सकता था ! उन गुण्डों ने बेहरहमी से उसे मार डाला।
सुब्बा का बेटा, नौ-दस बरस का रहा होगा, उसके पास, सोया हुआ था। हल्ला सुनते ही डर के मारे भागकर कहीं आमने-सामने ही जा छुपा। उसने शायद यही सारा काण्ड होता हुआ अपनी आँखों से देखा था। घर-मालिक पूर्णय्या के काशी से लौटकर आने तक वह इधर-उधर वहीं लुका-छुपा ही रहा। तीन दिन बाद पूर्णय्या गाँव लौटा तो, हो सकता है, उस लड़के ने जो कुछ देखा था वह सब अपनी तरह से मालिक को बताया हो।
बाद में, डाके और खून की खबर पाकर कुन्दापुर से पुलिस वाले आये। पीछे-पीछे अफ़सर लोग भी दो-एक आये। पूरी तरह से जाँच पड़ताल की गयी। गाँव के लोग मन-ही-मन जानते थे कि सारी करतूत तिप्पय्या की है। मगर पुलिस ने अपनी तहकीकात करने के बाद जो रिपोर्ट लिखी वह तिप्पय्या के घर की ड्योढ़ी पर बैठकर।
काशी से लौटकर आने पर पूर्णय्या ने खूनी और लुटेरों का पता लगाने की बहुत-बहुत चेष्टा की। मगर परिणाम कुछ न निकला। पेड़ और दीवारों के बोल नहीं होते, कोई और बताने का साहस कैसे करता ! सुब्बा बेचारा मर चुका था। सच्चाई बताने के लिए वह अब आता कहाँ से ? मगर उसके बेटे ने भी अब बयान यह दिया कि वह तो तीन दिन से घर ही नहीं था कानोंकान लोगों ने जरूर कहा कि तिप्पय्या का हाथ रहे बिना यह सब हरगिज नहीं हो सकता था। बाद में ये ही कानाफूसी करने वाले कहते सुन गये कि सारा काण्ड पास के गाँव वालों की करतूत थी।
आजीमाँ ने इस पर इतनी टिप्पणी की थी कि आसपास के किसी भी गाँव के गुण्डों को तो यहाँ आये अब पचासों बरस बीते !
एक और छोटी-सी कहानी सुनाता हूँ। यह है रामण्णा की पत्नी नागी की। रामण्णा तेल बेचता है। वही उसका धन्धा है। जीवन चलाने का साधन। घर में उसका अपना कोल्हू है। एक भूल वह कर बैठा था। अपना ब्याह उसने एक सुन्दर लड़की से किया, फिर गौना भी कराया, मैंने यह सब अपनी आजीमाँ से ही सुना है। इसलिए यह सब बताने में कहीं कोई भूल-चूक या और कोई बात होने की गुंजाइश ही नहीं है।
उस लड़की का नाम था नागी। था नहीं, है। कुछ ही दिनों बाद कुछ लोग उसे रामण्णा के यहाँ से भगा ले गये। चार बरस उसे अपने यहाँ रखकर इन लोगों ने खूब ऐशो-आराम किया उसके बाद जैसे जूठी पत्तल को उठाकर फेंक देते हैं नागी को भी उन लोगों ने घर से निकाल दिया। बहुत दिनों बाद नेरा एक मित्र गाँव में एक बार मेला देखने आया। नागी पर नजर पड़ते ही उसने मुझे उँगली के इशारे से दिखाते हुए बताया, ‘‘यही है वह रामण्णा की पत्नी नागी ! एक दिन अपने रूप और सौन्दर्य में यह दूसरी रम्भा थी। अब देखो क्या दशा हो गयी है बेचारी की ! बिलकुल ठठरी बन कर रह गयी है।’’
मुझे तत्काल चार बरस पहले सुनी हुई उसकी कहानी याद हो आयी। मैंने पूछा मित्र से, ‘‘पर इसकी यह दुर्दशा हुई किस कारण?’’ मित्र में उसी क्षण उत्तर दिया ‘‘रूप के कारण ! इसके अपने सौन्दर्य के कारण !’ मैंने आजीमाँ से जो कुछ सुना था। वह भूला नहीं था। इसलिए बात की तह तक पहुँचने के उद्देश्य से मित्र ने कहा, ‘‘पर कौन व्यक्ति था इस सबके मूल में, उसका नाम भी तो बताओ !’’ मित्र धीरे से हँसा और इतना ही बोला, ‘‘वह व्यक्ति रामण्णा ही नहीं था। नागी स्वयं भी अपनी दुर्गति के मूल में नहीं थी। लोग बस, इतना ही कहते-बताते हैं।’’
‘‘फिर क्या हुआ ?’’ मैंने स्वभावतः आगे जानना चाहा। मित्र ने बताया, ‘‘सुनते हैं मायके वालों ने उसे अपने यहाँ बुला लिया था। सोने-चाँदी का लालच दिखा-दिखाकर उसे फुसलाना चाहा। चार-पाँच दिन कहीं छिपाये रखा उसे। उसके बाद तो वही कहावत चरितार्थ हुई कि नदिया में नहाने उतरे तो जाड़े का क्या डर ! एक दिन कहीं उसे रखैल बना ही दिया। गहने-कपड़े से लादकर कुछ ऐसा जाल उस पर फैलाया कि वह रामण्णा को भूल ही गयी। अच्छा ही हुआ शायद। रामण्णा के यहाँ रहती तो कोल्हू का बैल ही तो हुई रहती।’’
दो क्षण ठहर कर मित्र आगे बताने लगे, ‘‘मगर तब नागी की कच्ची उम्र थी। अपने ब्याहे मर्द को ठुकराकर भागने की समझ और हिम्मत ही उसमें कहाँ रही होगी। पर जहाँ रखैल बनाकर उसे डाला गया वहाँ भी बाद में कुछ-न-कुछ गड़बड़ हुई। हुई ही होगी। क्योंकि जो लोग उसे ले गये, जहाँ वह इतने दिनों रही कि दो-दो बच्चों की माँ तक बन गयी, वे भी अब नहीं अपनाना चाहते उसे। पहले जैसी चमक-दमक और सुन्दरता तो अब नहीं ही रह गयी थी।’’
मैंने बार-बार तरह-तरह से कुरेदकर अपने मित्र से जानना चाहा कि आख़िर यह जो कुछ हुआ उस सबके मूल में था कौन व्यक्ति। मगर मेरे मित्र ने नहीं बताया तो नहीं बताया। साफ इनकार ही कर दिया बताने से। मैंने भी जोर नहीं दिया। मित्र ही आगे कहता गया, ‘‘अब तो यह चुसी हुआ अँबिया होकर रह गयी है। रखैल के रूप में घर डालने वाला भी था तो कोई मनचला ही। हो सकता है जी भर चुका हो। हो सकता है बोझ को और न ढोना चाहा हो। और एक दिन यह कहकर कि तेरे गहने नये सिर से बनवाये देता हूँ, उससे सब कुछ लेकर अपने हाथों में कर लिया और फिर उसके पास आना-जाना ही नहीं बन्द कर दिया, उसे और उन दोनों छोटे-छोटे बच्चों को खाना-पीना देना तक बन्द कर दिया।’’
सुनाते-सुनाते मित्र उदास हो आया था। थोड़ा सभँलकर आगे बोला, ‘‘लोग कहते हैं कि सब तरह बरबाद होकर लाचारी में एक दिन यह उसके द्वारे जाकर बहुत-बहुत रोयी और गिड़गिड़ायी । मगर उस व्य़क्ति ने इस बेतरह दुतकारा और वहाँ से भगाते हुए यहाँ तक कहा, ‘‘राँड कहीं की, अब अगर कभी इधर आने का नाम भी लिया तो कमर तुड़वा दी जायेगी। जा, काला मुँह कर अपना।’ बेचारी चली आयी।’’
मित्र का कण्ठ भर्रा आया। कहता गया वह, ‘‘बस्ती का बड़ा आदमी था। अपनी चला ही सकता था। कमर भी तुड़वाते उसे क्या लगता। मगर तबसे ही इतनी बुरी हालत हो गयी है इसकी कि देखते तक नहीं बनता। छोटे-छोटे दो बच्चे हैं। इधर-उधर गाँव में ही फिरती-भटकती है। कहीं कुछ मजूरी या बेगारी मिल जाती है तो उसी से बच्चों का और अपना पापी पेट किसी तरह भर लेती है। सुनते हैं इतने पर भी रामण्णा ने इसके पास जाकर प्यार की भीख माँगी। कहा, ‘अपने घर चलकर रह।’ नागी सुनकर फफक पड़ी। आँसू बहाते-बहाते बोली थी, ‘नहीं, इस जूठी पत्तल को तुम मत छुओ। मेरे हाल पर ही छोड़ दो मुझे।’ और यह कहकर बच्चों को घसीटती हुई-सी सामने से हट गयी थी।’’
‘‘इतना भलापन ! और इतनी हिम्मत !’’ मेरे मुँह से निकला।
‘‘किसमें, नागी में !’’ मित्र ने मेरी ओर देखते हुए पूछा।
‘हाँ, नागी का भलापन और रामण्णा का भोलापन और हिम्मत दोनों !’’
बात वहीं रह गयी। मित्र ने और कुछ नहीं बताया। शायद किसी प्रकार का कोई भय कारण रहा हो। जो हो, मेरी उत्सुकता बनी की बनी रह गयी। उस समय मैं यही कोई सोलह का रहा हूँगा। लोकानुभव बिलकुल ही नहीं था।
मेरा मन नागी के लिए स्वभावतः सहानुभूति से भर उठा। उसके बच्चों को देख-सोचकर तो मैं द्रवित ही हो आया। कोई स्त्री किसी पुरूष के लिए अपने घर तक को छोड़ गयी या कोई पुरूष ही किसी स्त्री के पीछे पागल हो उठाः ऐसी बातें सुनने पर न हँसी आती मुझे, न कुछ अचरज ही होता। आये दिन ही कहीं-न-कहीं कोई घटना होती रहती। सच्चाई मनगढ़ी कहानी में भी होती है और वास्तविक जीवन में भी।
नागी के बारे में अपने मित्र से जो सब मेले में सुना उससे कई बातें बिलकुल स्पष्ट हो आयीं। जिन लोगों ने उसे ससुराल से बुलवाया उन्होंने जान-बूझकर ऐसा किया। उन्होंने ही उसे बाद को बहकाया भी। और इसमें नागी के मायके वालों का भी पूरा-पूरा हाथ था। फिर उसे जात-बिरादरी तक से अलग किया गया। दोनों बच्चों को पालने पोसने का समूचा भार उस अकेली, टूटी हुई, और सब तरह से मारी पड़ी औरत के ऊपर पड़ा । इतने पर भी रामण्णा के निहोरे करने पर उसके घर न जाकर उसने रामण्णा की इज्जत रखी। कितनी भली थी वह सचमुच ! मेरे मन में विचारों का एक ताँता लगा गया और नागी के प्रति एक सहज दया उमड़ आयी।
मेरा मित्र चला गया तो मैंने नागी को दूर से देखा। उससे बात करने की जी में आयी। तभी जैसे वह कपालेश्वर शिवालय के आस-पास लगे उस मेले की भीड़ में कहीं आँखों से ओझल हो गयी। काफी देर बाद वह अकस्मात वह दिखी। चने-कुरमुरे वाले की दूकान के आगे खड़ी थी। शायद बच्चों के लिए मूड़ी ले रही थी। फिर एक पेड़ के नीचे ऐसी जगह जा बैठी जहाँ भीड़ नहीं थी। मैं थोड़ा घूमता फिरता धीरे से उनके पास जा खड़ा हुआ। मेरे पास एक दुअन्नी थी। उसकी ओर बढ़ते हुए मैंने कहा, ‘‘लो, इन बच्चों के लिए कुछ ला दो।’’ सुनते ही इस तरह घूमकर उसने मेरी तरफ़ देखा कि मुझे आज तक भी याद है। कभी-कभी तो याद आने पर काँप तक जाता हूँ।
उसने कड़वे स्वर में उत्तर दिया था, ‘‘तुम्हारी पालतू कुतिया नहीं हूँ मैं, बड़े आये दया दिखानेवाले !’’ मैंने सामान्य भाव से समझाना चाहा, ‘‘क्यों इस तरह बिगड़ती हो, मैंने तो बच्चों का खयाल करके ही देना चाहा। नहीं लेना चाहती तो मैं जोर नहीं दूँगा। तुम्हारे कष्टों की कहानी मैंने सुनी है। हमारे ही गाँव की रहने वाली हो तुम । इसीलिए मुझे और भी लगा.....।’’ नागी कुछ बोली नहीं, आँखे उठाये सामने शून्य में देखती रही। मैं ही बताने लगा, ‘‘इस गाँव का हूँ, अड़िगों के घराने का। मूकज्जी का पोता...।’ सुनकर कुछ देर आँखें फाड़े हुए मेरी ओर देखती रही। उसके बाद बोली, ‘‘ना बाबा, मैंने जो पाप किया है उसका दण्ड मैं ही भुगतूँगी। मुझे किसी का पैसा नहीं चाहिए।’’
मैंने फिर एक बार कहा, ‘‘मैं तुम्हें नहीं, बच्चों के लिए दे रहा था। इन बेचारों ने किसी का क्या बिगाड़ा है। कुछ खा लेते, दो घड़ी ख़ुश रहते, बस !’’ नागी की आँखों से आँसू की बूँदें टपकती दिखीं। पैसे उसने फिर भी नहीं लिये। स्वाभिमानी ग़रीब के सहज दर्द के साथ बोली, ‘‘बच्चों के लिए भी दूसरों का पैसा मुझे नहीं चाहिए। अपनी शक्ति-भर मेहनत करूँगी। जो मिलेगा उसी से इनका पेट पालूँगी। कल को बड़े होकर ये भी कहीं दया माँगने नहीं जाएँगे, अपने परिश्रम पर जियेगे।” बच्चों को लेकर जाते जाते इतना और बोली, “तुम बड़े घर के लोग हो। आजीमाँ तो देवता ही है। तो भी किसी की कृपा मुझे नहीं चाहिए। तुम बुरा मत मानना।’’
मेरा गला भीग आया। नागी से कहा, ‘‘नहीं, बुरा क्या मानूँगा। एक तरह से तुम ठीक ही तो कहती हो। तुम्हारा साहस देखकर तो, सच आश्चर्य होता है।’’ सिटपिटाती हुई-सी बोली वह, ‘‘नहीं मालिक, मैं तो एक शिखण्डी की तरह हूँ।’’ मैं नहीं समझा उसका भाव तो उसने बताया, ‘‘यक्षगान के प्रसंग में आचार्य भीष्म के सामने खड़े शिखण्डी की तरह ही मैंने भी हठ पकड़ी है मालिक ! मैं उसे छोड़ने वाली नहीं। अपनी मेहनत से, अपना पेट काट-काटकर, बच्चों को सयाना बनाऊँगी। फिर इन्हें उसके सामने खड़ा करके कहूँगी, ‘लो, इन्हें देखो और पहचानो, और कहीं लाज-शर्म बची हो तो चुल्लू-भर पानी में डूब मरो !’ मैं भूलूँगी नहीं।’’
मैं कुछ सोच में पड़ा। भीतर-भीतर जैसे घबराया भी। नागी से बोला, ‘‘तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आयी। मुझसे यह सब क्यों कहती हो ? मैं तो पढ़ता हूँ, विद्यार्थी हूँ अभी।’’ उसने स्पष्ट किया, ‘‘नहीं मालिक, तुम्हारे लिए कुछ नहीं कहा मैंने। पर जो कहा है मैंने वह अपने मामा को सुना देना। बस। वह समझ जायेंगे। इसलिए तुमसे कहा है।’’
और नागी बच्चों को लिये हुए वहाँ से चली गयी।
ऐसा लगा मानो शिखण्डी का शाप मुझे ही लग गया है। नागी की बातें सुनकर मेरा जी मसोस उठा। मेला देखने की सारी इच्छा वहीं बुझ गयी। मन मर गया। रह-रहकर ऐसा लगता जैसे कहीं कुछ भूल कर बैठा हूँ।
उखडा-उखड़ा-सा घर आया और आजीमाँ को देखते बोला, ‘‘आजीमाँ, क्या जाने क्यों आज जी अच्छा नहीं लगता। चलो, बाहर चबूतरे पर बैठें।’’
आजीमाँ की बूढ़ी आँखें मेरी तरफ़ को उठीं। मेरी बेचैनी भाँपते उन्हें दो क्षण भी नहीं लगे शायद। बोलीं, ‘‘क्यों, ऐसे क्यों हो रहे हो ? आज तो बड़ा अच्छा दिन है, त्योहार है।’’
मेरी सारी खिन्नता उमड़ पड़ी। जेब से उस दुअन्नी को निकालकर आजीमाँ की हथेली पर रखते हुए कहा, ‘‘आजीमाँ, इस दुअन्नी के कारण मुझसे बड़ी भूल हो गयी है आज। जिसे देने लगा था उसने ली भी नहीं और ऊपर से, उलटे बुरा-भला कहा। अपनी और अपने मामा, दोनों की फजीहत करायी।’’
आजीमाँ दुअन्नी हाथ में लिये रहीं, बोली कुछ नहीं। मैं ही फिर पूछ उठा, ‘‘आजीमाँ, मेरे मामा कितने हैं? कौन-कौन हैं ? मेरी माँ के तो कोई भाई थे नहीं शायद !’’
मैं पूछ ही रहा था कि आजीमाँ बीच में ही बोल उठीं, ‘‘यह दुअन्नी किसी स्त्री को दी थी क्या ? उसने लौटा दी ? पर तुमने दी ही क्यों ?’’
आजीमाँ के इस तरह पूछने पर मुझे सभी कुछ बता देना पड़ा।
वे तब बोलीं, ‘‘उसने इस दुअन्नी को छुआ दिखता है। अभी भी गर्म बनी हुई है। जरूर नागी ने छुआ है। उसके जी का सारा उबाल इसमें भर आया है।’’
‘‘आजीमाँ, उसने मेरे मामा को बुरा-भला कहा। वह तो हठ पकड़े है....’’
‘‘तुम नागी की कहानी नहीं जानते बेटा, ‘‘आजीमाँ बताने लगीं, ‘‘उसका अपना रूप ही उसकी मौत बन गया। बचपन में ही बहकावों में आ गयी। ऊपर से लालच। जाल में फँस गयी। अब समझ आ गयी है। हठीली वह है ही। भीतर-भीतर बहुत पछतावा है उसे कि जूठी पत्तल बनी और जूठने खाती रही।’’
‘‘हाँ, आजीमाँ, उसके मुँह से दो बार ‘जूठन’ शब्द निकला।’’
‘‘अपने पति को छोड़ गयी थी न ! जूठन तो बनी ही ! पर उसकी दुर्गति सारी हुई तुम्हारे मामा के ही कारण। पर जाने दो उन बातों को बेटा। जैसे जो बोयेगा वैसा काटेगा भी।’’
‘‘तो क्या, आजीमाँ, बच्चों के बड़े हो जाने पर भी वैसा ही करेगी वह जैसा कहती है ?’’
‘‘क्या नहीं करेगी ? वह हठ की भी पक्की है और सत्य भी उसके साथ है !’’ आजीमाँ ने निश्चय-भाव के साथ कहा।
‘‘पर आजीमाँ, वह जो पति के बुलाने आने पर भी उसके साथ गयी नहीं ?’’ मैंने तर्क किया।
‘‘हाँ, बेटा, अन्तर की सच्ची है इसीलिए तो नहीं गयी। आज के संसार में सत्य का पल्ला थामता ही कौन है ! कौन जाने की बीते युगों में कैसा क्या रहा। किन्तु यह अगर जीवित रही, दोनों बच्चे इसके समझदार बने, और तुम्हारे मामा भी तब तक जीवित रहे, तो यह इन बच्चों को उनके सामने खड़ा करके कहे बिना नहीं रहेगी कि मुझे अनाथ बनाकर तुमने सड़क पर फेंका मगर लोग नहीं कहेंगे क्या कि इन बच्चों के पिता तुम हो-तुम !’’
‘‘आजीमाँ, इसका कौन भरोसा ! सिर पर बदले की आग सवार है। मुझे तो भय है कहीं मामा का ख़ून न कर-करा दे !’’
आजीमाँ सुनकर हँस पड़ीं, ‘‘पगला कहीं का ! मौत क्या इज्जत और आबरू से बढ़कर होती है ?’’
फिर आजीमाँ जब आराम करने गयीं तब उन्होंने पास बैठाकर समूची कहानी सुनायी। हमारे गाँव के दक्षिण में ईरिगे नाम की एक छोटी-सी बस्ती है। वहाँ मेरे एक मामा रहते हैं। नागी की कहानी इनसे ही सम्बन्धित है। मगर ये मेरे सगे मामा नहीं है। आजीमाँ से यह जान लेने के बाद जाकर कहीं तसल्ली मिली मुझे।
उन्होंने बताया मेरे पिता ने दो विवाह किये थे। मेरी माँ उनकी दूसरी पत्नी थीं। पहली पत्नी प्रवास के समय ही चल बसी थीं। उनके ही भाई थे यह मामा जो नागी की बरबादी का कारण बने। मुझे इन मामा के बारे में कोई ज्ञान न था। आजीमाँ ने सब सुनने के बाद जरूर सोच में पड़ा कि आखिर कैसे होंगे यह मामा जिन्होंने एक भोली स्त्री को इस दुर्दशा को पहुँचाया !
जो हो, मुझे इस बात का सन्तोष था कि नागी का कोप-ताप छूत बनकर भी मेरे निकट नहीं आ सकता था। इन मामा से नाता जुड़ता भी था तो बहुत दूर का, टूटे हुए सम्बन्ध-सूत्रों का।
पर सचमुच कितनी-कितनी विचित्र होती हैं वास्तविक कहानियाँ ! कितनी पीड़ा और दर्द-भरी, कितनी करूण ! इसलिए अच्छा यही कि इन कहानियों के स्थान पर कल्पित कहानियाँ ही सुनें। कम-से-कम ऐसी तो वे नहीं ही होंगी।
बचपन में मुझे और छोटे भाईको आजीमाँ ने बीसियों कहानियाँ सुनायी थीं। इतनी अनोखी और बाँध लेने वाली होती थीं वे कि हम तो बस उन्हीं के हुए रहते। आगे च
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