पार्वती का सुदर्शन सिपाही भी शायद घर लौट आया होगा। चकोरी की आँखों से टपटप
आँसू गिरने लगते। मुँह फेरकर वह आँसू पोंछ दूसरे ही क्षण अपने आनन्दी चोले
में लौट आती, ''इन नक़ली अँगुलियों से क्या चोटी गँथूं यारो, और गूँथ भी लूँगी
तो मेरा सिपाही क्या अब मेरे लिए बैठा होगा?''
''कोई बात नहीं पार्वती, हम तो बैठे हैं तेरे लिए, ''उसका नवीन प्रेमी पूरी
बिरादरी के सम्मुख भूरी मूँछों पर ताव देता, दुहरा होता, किसी नाटक के कलाकार
की ही भाँति नम्र 'कर्टसी' में झुक जाता;
''वाह, वाह!''
''शाब्बास, क्या बात कही है सवा लाख की।'' पार्वती लजाकर भाग जाती। उन दोनों
की प्रणय रसकेलि पूरी बिरादरी को ज्ञात थी, फिर भी असाध्य रोग की एक-सी व्यथा
की एकता से सब ऐसे कसकर बँधे थे कि एक भी खिंचता तो सबके सब साथ ही खिंच
जाते। किसी ने डॉ. पैद्रिक से एक शब्द नहीं कहा। कुछ दिनों तक असदुला को
कुहाश्रम की चारदीवारी में बन्द रहने में कोई आपत्ति नहीं रही, पर धीरे-धीरे
वह लुक-छिपकर रात-आधी रात को खिसक जाता।
''आज मैंने एक बढ़िया पिक्चर देखी पर्वती! उसमें काम करने वाली छोकरी एकदम
तेरी सूरत की है,'' वह कहता। पार्वती को वह पर्वती कहकर बुलाता था।
''चल हट,'' पार्वती उसे झिड़क देती, ''इतने पैसे कहीं से पाता है तू?''
''क्यों, असदुल्ला खान के पास पैसों की क्या कमी? राजा घर मोलूँ अकाल?'' वह
भूरी मूँछों पर ताव देता, पहाड़ी की कहावत से अपनी पार्वती को एक बार फिर
निहाल कर देता।
''अभी तो तीन ही खलर बेचे हैं, पचास खचर चचा जान को सौंप आया हूँ? अगले हफ्ते
तुझे तीन तोले की मछलियाँ नहीं बनवा दीं तो मेरा नाम बदल देना। समझी?'' झूठ
नहीं बोलता था खान, पर पार्वती को उन तीन तोले की रामपुरी मछलियों का गहरा
मोल चुकाना पड़ा था। पार्वती की दुरवस्था का भान होते ही असदुल्ला कब चुपचाप
खिसक गया; कोई जान भी नहीं पाया। इधर पार्वती के असंयमित जीवन ने, रोग को
तीव्रता से उभाड़ दिया था। खाई-खन्दक में छिपे कुटिल शत्रु की भाँति उसने एक
दिन पार्वती की पीठ में छुरी भोंक दी। रीढ़ की हड्डी की मर्मान्तक व्यथा से वह
छटपटा रही थी कि उस पर झुकी डॉ. पैद्रिक ने उसका रोग भी पकड़ लिया। बड़ी देर तक
वे हतबुद्धि-सी बैठी ही रह गयीं।
''यह क्या कर बैठी पार्वती? कौन था वह हृदयहीन? बताती क्यों नहीं बनी?''
पर पार्वती एक शब्द भी नहीं बोली। जिस उठी नासिका के एकमात्र स्तम्भ पर उसके
सौन्दर्य का प्रासाद अब तक खड़ा था वह अचानक बैठने लगी थी। आँखों की पीड़ा से
कभीकभी ऐसी व्याकुल हो जाती कि लगता कोई लोहे की सहस्र गरम सलाखें उसकी आंखों
में घुसेड़ रहा है। उस पर चक्राकार झूमते गर्भस्थ शिशु के अन्धकारमय भविष्य की
चिन्ता उसे पागल बना देती। एक दिन उसने स्वयं ही दृढ़ निश्चय कर लिया, पुत्र
हो या पुत्री, एक क्षण भी उस अभागे जीव को वह इस पृथ्वी पर-साँस नहीं लेने
देगी।
अपना वही अमानवीय दृढ़संकल्प उसने डॉ. पैद्रिक के सम्मुख दुहराया तो वे सिहर
उठी थीं। आज वही क्षण आया तो हृदय एक बार फिर उसी आशका से काँप उठा। निश्चय
ही वह पार्वती के शिशु का क्रन्दन था। भरी नींद में, वर्षामुखरित रात्रि को
चीरता वही शिशुस्पर का क्रन्दन उन्हें झकझोर गया था। जैसे नन्हे फेफड़े
फाड़-फाड़कर उन्हें चीख-चीखकर पुकार रहा था, 'बचा लो मुझे, बचा लो।
पहाड़ी आषाढ़ की वेगवती वर्षा के तीव्रतर अंग में सिहरती शर्वरी को चीरती, डॉ.
पैद्रिक सहसा एक रुद्ध कण्ठ की चिहुँक सुनकर ठिठककर खड़ी रह गयीं। फिर वे ऐसे
दौड़ने लगीं, जैसे बारह बरस की किशोरी हों। पैरों का गठिया, हाथ का
आर्थराइटिस, सब कुछ भूल-भालकर गिरती-पड़ती, वे पार्वती की खटिया पर झुक गयीं।
उनका अनुमान ठीक था। प्रथम प्रसव से अकेले ही जूझती पार्वती क्लान्त होकर एक
ओर पड़ी थी और दूसरी ओर थी मांस के लोथड़े-सी नवजात शिशु की निर्जीव देह।
''खतम कर दिया साली को मेम सा'ब,'' वह बुझे स्वर में कहती खिसियाकर हँसने
लगी। ''एक तो छोकरी जन्मी, उस पर माँ-बाप दोनों साच्छात देवी-देवता।''
अपने पैशाचिक कृत्य की सफलता पर स्वयं ही प्रसन्न हो, महातृप्ति की एक लम्बी
साँस खींच, वह दीवार की ओर मुँह फेरकर लेट गयी। ''हे भगवान्! अभागी, यह क्या
कर दिया तूने?'' डॉ. पैद्रिक उसी गन्दगी के बीच बैठ गयीं और अवश निर्जीव पड़ी,
खमार शिशु की कागज के फूलन्सी हलकी देह को उन्होंने गोद में उठा लिया।
नन्ही-सी छाती पर कान धरे तो धड़कन का आभास पाते ही चौंक उठीं। उनके हाथ की
घड़ी की टिकटिक थी, या नन्हे कलेजे की धड़कन?
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