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कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12361
आईएसबीएन :9788183619189

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हाथ की नन्ही घड़ी को सहलाकर कली ने कलाई पर बाँध लिया। चारों ओर हीरों की वर्तुलाकार पंक्ति में घिरी घड़ी के भीतर टेढ़े-मेढ़े रोमन अक्षर चीटियों-से चमक रहे थे। यह घड़ी लौरीन आण्टी की भेंट थी। एक बार एक साथ तीन सौ घड़ियाँ स्मगल करने का कठिन भार लौरीन ने कली को सौंपा था और वही भार सफलतापूर्वक वहन करने के पुरस्कार-स्वरूप उसे यह अनूठी घड़ी प्राप्त हुई थी। गोदी में था भाड़े

का एक गोल-मटोल शिशु और उसी शिशु के नैपकिन मे रुई के भीतर ठँसी थीं विदेशी घड़ियाँ। ऐसा ट्रेण्ड शिशु कली ने अपने जीवन में पहली बार देखा था। बम्बई से कलकत्ता तक की यात्रा और मजाल जो पट्ठा एक बार भी रो दे।

देखने में ऐसा गुलगुथना जैसे मोम का डला हो। उसी डिब्बे में लड़कियों की एक हॉकी टीम बम्बई से कलकत्ता जा रही थी। लम्बे-लम्बे मर्दाने चेहरेवाली सब लड़कियाँ वैसी ही रूखी-सूखी जैसी प्रायः हॉकी खेलनेवाली लड़कियाँ हुआ करती हैं। उन अश्वमुखियों का दल अपने कोच और मोटी मैनेजर सहित कली की गोद के शिशु के पछिए जैसे दीवाना हो गया था।
''यह आपका बच्चा है? सच, कौन विश्वास करेगा,'' उनके लम्बू कोच ने कहा था।
''क्यों?'' कली ने सहमकर पूछा था। कहीं सी. आई. डी ने तो नहीं सूंघ लिया?
''नहीं जी, माफ़ कीजिएगा, आप तो खुद ही बच्चा लगती हैं,'' और अपनी बत्तीसी दिखाकर वह ही-ही कर हँसने लगा था।
टीम की हर लड़की ने उसे बारी-बारी से गोदी में ले लिया, हाँकी स्टिक-सी ही बन गयीं, कड़ी ठूँठ-सी बाँहों में उछाला, गुदगुदाया, चूमा-चाटा, पर एक सौ बीस विदेशी घड़ियों का लँगोट बाँधे वह नन्हा पहलवान, कैलेण्डर के बच्चेवाली हँसी से सबका मन मोहता रहा। लौरीन आण्टी का यही अन्तिम काम किया था कली ने। उसी रात को आण्टी ने उसकी कलाई चूमकर उसे घड़ी पहना दी थी।
''सोने में मढ़कर रखने लायक हैं ये दक्ष कलाइयाँ, और यह चेहरा! यही तुम्हारा सबसे बड़ा अस्त्र है कली।''
''क्यों आण्टी?'' अनजान बनकर कली ने पूछा था।
''क्यों? इसलिए मेरी बच्ची, कि किसी का खून भी कर दोगी, तब भी अदालत तुम्हें छोड़ देगी-ऐसा निर्दोष चेहरा, ऐसी निष्पाप आँखें और देसी उस्तरे की धार-सी तेज अँगुलियाँ।''
कली ने गर्व से दर्पण को चुनौती दी। हाथ में बटुआ और कन्धे पर एअर बैग लेकर वह अम्मा के परिवार से मिलने चल दी।

''लो आ गयी कली, अभी-अभी तेरी ही बातें कर रही थी। बड़ी लम्बी उमर है तेरी। ये हैं मेरे बड़े दामाद दामोदर और ये छोटे हैं नवीन, यह जया है, माया तो पता नहीं कब लौटेगी।''
बड़ी नम्रता से झुककर कली ने भरतनाट्यम् की नर्तकी की-सी मुद्रा में नमस्कार किया और अम्मा के पास कुरसी खींचकर बैठ गयी।
''मैं अभी-अभी इनसे कह रही थी कि इन तीन महीनों में कली मुश्किल से डेढ़
महीना मेरे पास रही होगी। फिर भी मुझे ऐसा लगता है जैसे बरसों से मेरे साथ रही हो,'' अम्मा पान का बीड़ा मुँह में गुलगुलाती बड़े अपनत्व से कली की पीठ थपथपाती कहने लगीं, ''और इस भगोड़ी का यह हाल है कि जब देखो तब हवाई बैग कन्धे पर लटकाये चिरैया-सी उड़ने कौ तैयार! लगता है, आज फिर उड़ने जा रही हो, क्यों बेटी?''
''नहीं अम्मा,'' कली हँसी। अपनी एक ही हँसी के घातक प्रहार से उसने अम्मा के दोनों ठसकेदार दामादों को ढेर कर दिया है, यह समझने में उसे देर न लगी। उसने आश्वस्त होकर अब, अपना दूसरा प्राणघातक अस छोड़ा, विलम्बित स्मित के दर्पण में वह जान-बूझकर दोनों आकर्षक गालों के गढ़ों की चमक से दोनों पुरुषों की आँखों को चौंधियाने लगी।
''इस बार उड़ नहीं रही हूँ अम्मा, ट्रेन से ही जाना है।''
''कब लौटेगी?''
''पता नहीं अम्मा, मेरी इस बेतुकी नौकरी में तो हमेशा जाना अपने पैरों का होता है और लौटना पराये पैरों का!''
अम्माँ के बड़े दामाद दामोदर प्रसाद कली को आखों-ही-आँखों में पिये जा रहे हैं, यह शायद उनकी तुनकमिजाज पली ने देख लिया था।
''क्यों जी, आज नहाना-धोना नहीं है क्या, अम्मा भला कब तक तुम्हारा खाना लिये बैठी रहेंगी?''
जया का रूखा कण्ठ-स्वर सुनते ही कली ने पल-भर में भाँप लिया कि उसकी अनुपस्थिति में मातृगृह में अचानक टपक पड़ी सुन्दरी कली को देखकर वह निश्चय ही प्रसन्न नहीं हुई है।
''अभी तो दस ही बजे हैं दीदी,''छोटे दामाद ने हमजुक की पैरवी की, ''ससुराल आये हैं हम लोग, यहाँ ऐश-आराम नहीं करेंगे तब भला कहीं करेंगे?'' फिर वह कली की ओर देखकर हँसने लगा। उसके परिहास से चिड़चिड़ी जया और भी सुलग उठी।
''जी हां, माया नहीं है ना, इसी से चहक रहे हैं। वह होती है तो बोल नहीं फूटता इनका!''
दामोदर प्रसाद की सुधातुर दृष्टि अब तक कली का अर्धाग लील चुकी थी। अब वह बड़े मनोयोग से उस मन्दोदरी की क्षीण कटि को अपनी आँखों के इंचीटेप से नाप रहा था। पर वह क्या पहला ही पुरुष था जिसकी आँखें कली की इस सुडौल कटि पर नग-सी जड़ गयी थीं?
''लगता है हमारी विदेशी उक्ति तुम्हारी ही इस मुट्ठी-भर की कमर के लिए लिखी गयी है मिस मजूमदार''-फ्रेंच परफ्यूम की बोतल को गाल से सटाकर वह विज्ञापन बनी चित्र खिंचवा रही थी कि विदेशी फ़ोटोग्राफ़र उसके कानों के पास आकर
फुसफुसा गया था-''जानती हैं क्?एएान-मइा विटेशी उक्ति? 'यू शुड आलवेज होल्ड ए बॉटेल वाई नेक एण्ड ए यूमन बाई हर वेस्ट'।''
आज दामोदर प्रसाद को उसी उक्ति की मूक पुनरावृत्ति करते देख कली मन-ही-मन हँसने लगी। एक टीनएजर पुत्री का पिता है वह व्यक्ति, कौन कहेगा?
और जो हो, अम्मा ने दामाद खूब कस-कसकर छींटे थे। रंग साफ़ न होने पर भी दामोदर प्रसाद के शरीर और चेहरे की बनावट में कुछ राजपूती झलक थी। पर गम्भीर चेहरे से मिलान करने पर चंचल दृष्टि एकदम ही अनमेल लगती थी। लगता था स्वभाव से यह व्यक्ति ऐसा नहीं था जैसा वह बनने की चेटा करता रहता था। एक अनुसन्धानी दृष्टि का फोकस ही उस कच्चे धागे से बँधे मुखौटे को बड़ी सुगमता से उतार सकता था। बड़े यत्न और नियमित अभ्यास से ओढ़ी-पहनी गयी गम्भीरता, सामान्य-सी ही उत्तेजना से प्लास्टिक के फिसलते आवरण-सी ही फिसल जाती, कली को देखकर वह स्वयं ही मुखौटा उतारकर उसे पूरे जा रहा था। एक तो अरसे से उसकी नियुक्ति सभ्यता से पिछड़े एकदम जंगली इलाक़ों में होती चली आयी थी। उत्तराखण्ड के सीमावर्ती इलाके में मोटे नाक और चुँधियाती आंखोंवाली भोटिया स्त्रियों को देखते-देखते उसकी आँखें दुखने लगी थीं। वह एक ही साल वहाँ रहकर बुरी तरह उकताने लगा था। इसी से कलकत्ता आने पर उसे यामिनी राय की चित्रांकित आंखोंवाली साँवली-सलोनी सामान्य-से चेहरे की बंगाली लड़कियाँ अप्सरा-सी लगतीं। उस पर कली क्या साधारण सौन्दर्य की श्रेणी में आती थी!

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