नई पुस्तकें >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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एक
मूसलाधार वृष्टि टीन की ढालू छतों पर नगाड़े-सी बजा रही थी। देवदारु, बाज और बुरुश के लम्बे वृक्षों की घनी क़तार में छुपे बँगले में बरामदे में टँगी बरसाती हड़बड़ाकर सर पर डाल डॉक्टर पैद्रिक तीर-सी निकल गयीं।
ओफ़! कैसी विकट वृष्टि थी उस दिन! लगता था कुद्ध आषाढ़ के भृकुटि-विलास में अल्मोड़ा की सृष्टि ही लय हो जाएगी। कड़कती बिजली सामने गर्वोन्नत खड़े गागर और मुक्तेश्वर की चोटियों पर चमकी, तो डॉ. पैद्रिक दोनों कानों पर हाथ धर, थमककर खड़ी रह गयीं! बिजली के धड़ाके के साथ नवजात शिशु का क्रन्दन...कहीं इसी बीच पार्वती कुछ कर बैठी हो? काँपती, गले में पड़ी लम्बी रोजेरी को थामे, होंठों ही होंठों में बुदबुदाती डॉ. पैद्रिक, एक प्रकार से दौड़-सी लगाने लगीं।
दो दिन पहले ही तो उसने कहा था, ''फ़िकर मत कहो मेम सा 'ब, तुम्हारे आने से पहले ही मैं उसको खुल कर दूँगी!''
फिर ही-ही कर विकृत स्वर में हँसने लगी थी-निर्लज्ज बेहया औरत! डॉ पैद्रिक बड़ी देर तक उसके पास बैठी रही थीं, ''बच्चे में ईश्वर का अंश होता है, जानती है पार्वती? ईश्वर का गला घोंटेगी तू? इस जन्म में न जाने किन पूर्वकृत पापों का फल भोग रही है, परलोक की चिन्ता नहीं है तुझे?''
उस अँधेरे कमरे में पार्वती की नासिका-विहीन विकराल हँसी को प्रथम बार सुनने पर एल्मर का कलेजा भी शायद भय से धड़कने लगता, ''इसी लोक में जब इतना सुख भोग लिया है भैम सा'ब, तब परलोक की कैसी चिन्ता? ''अन्य आसन्न-प्रसवा स्त्रियों की तरह गर्भभार में दुहरी नहीं हुई थी पार्वती, सीना तानकर, अपने नुकीले पेट की परिधि को दोनों हाथों में थामे वह डॉ. पैद्रिक के सम्मुख, विद्रोह की जीवित मूर्ति-सी खड़ी हो गयी थी, फिर वह शायद स्वयं ही अपनी अल्प-बुद्धि पर खिसिया गयी थी, ''बुरा मत मानना मेम सा'ब,'' उत्तेजित कण्ठस्वरूप अचानक अवरोह के सार पर उतर आया, ''तुम मेरी माँ हो, क्या ठीक नहीं कर रही हूँ मैं, अपने पाप का फल भोगने, इसे क्यों जीने दूँ!''
क्षण-भर पूर्व निर्लज्जता से हँसने वाला ढीठ महाकुत्सित रोग-विकृत चेहरा, असह्य दुःख की असंख्य झुर्रियों से भर गया, पलक-विहीन बड़ी-बड़ी आँखों में आँसू छलक
आये। किसी कूर हृदहीन आक्रमणकरिा शत्रु की भाँति, महारोग ने सौन्दर्यदुर्ग की धलियाँ उड़ा दी थीं, पर ऐतिहासिक दुर्ग के भग्नावशेष में भी जैसे दो सुन्दर झरोखे वैसे के वैसे ही धरे थे, शत्रु की निर्मम गोलाबारी केवल रेशमी पक्ष्मों को ही झुलसा पायी थी। हलद्वानी में अपनी बस के पीछे भागती पार्वती को डॉ. पैद्रिक दस वर्ष पूर्व पकड़कर अपने आश्रम में लायी थीं। तब की पार्वती और आज की पार्वती में धरती-आकाश का अन्तर था-नुकीली नाक, भरा-भरा शरीर और मछलीकी तिरछी 'बड़ी-बड़ी आँखों की स्वामिनी पार्वती अब क्या वैसी ही रह गयी थी? पैरों में केनवास के फटे जूते देखकर ही डॉ. पैद्रिक की अनुभवी आँखों ने रोग का प्रमुख खेमा पकड़ लिया था। अभी हाथ-पैर के अँगूठों पर ही रोग ने कुठाराघात किया था, समझा-बुझा, अन्त में पुलिस का भय दिखाकर ही डॉक्टर उसे अपने साथ ला पायी थीं। ''तेरा यह रोग अभी भी एकदम ठीक हो सकता है, जानती है लड़की?'' और उस आकर्षक लड़की ने दोनों हाथों के डुण्ठ, दुष्टता से हँसकर ठीक डॉ. पैद्रिक की नाक के नीचे फैला दिये थे, ''ये अँगुली कहीं से लाएगा मेम साहब?'' दस अँगुलियों में से अवशेष, उन तीन अँगुलियों की गठन निस्सन्देह अनुपम थी।-लम्बी, ऊपर से मुड़ी अँगुलियाँ। बहुत पहले जावा में रहती थीं डॉक्टर पैद्रिक, आज इन तीन अँगुलियों को देखकर उन्हें जावा की नर्तकियों की कलात्मक अँगुलियों का स्मरण हो आया, सचमुच ही इस नमूने की अँगुलियाँ गढ़ने में डिकी को कठिन परिश्रम करना होगा, पर डिकी की अद्भुत शक्ति को वह जानती थीं। बैलोर का वह विलक्षण चरक, आज तक कितने ही गलत अंशों का पुनः निर्माण कर असंख्य अभिशप्त रोगियों को जीवनदान दे चुका था। उनका अनुमान ठीक था। पार्वती बैलोर से अपनी नक़ली अँगुलियों लेकर लौटी तो डॉक्टर पैद्रिक दंग रह गयीं। कौन कहेगा, उन सुघड़ अँगुलियों की बनावट में कलाकार कहीं भी विधाता से पिछड़ा है! पर पार्वती को ये नयी अँगुलियाँ देकर बहुत बुद्धिमानी का कार्य नहीं किया, यह डॉ. पैद्रिकन्यैसी बुद्धिमती महिला पहले ही दिन समझ गयीं। भागकर पार्वती न जाने किस-किस से धेला-टका उधार लेकर बाजार से अपनी नयी-नयी अँगुलियों के लिए कई रंग-बिरंगी अगूठियाँ, मनकों की माला और एक छोटाका दर्पण खरीद लायी थी। जब डॉ. पैद्रिक राउण्ड पर गयीं तो वह अपनी खटिया पर दुल्हन-सी सजी-धजी नन्हें दर्पण में अपना मुँह निहारती, मुग्धा नायिका बनी बैठी थी। डॉक्टर का हृदय उस अभागिनी के लिए करुणा से भर गया। ''पार्वती,'' उन्होंने उसकी नक़ली अँगूठियों से जगमगाती अँगुलियों को सहलाकर कहा था, ''मैं तेरी जगह होती; तो पहले इन अँगुलियों को उस खुदा की बन्दगी में जोड़कर घुटने टेकती, जिसने इन्हें जोड़ने के लायक़ बना दिया और तुझे पहले इन्हें सजाने की ही पड़ी?''
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