(क्या ऐसे ही काले काजल मेघ, जेठ के महीने के साथ ही ईशान कोण पर नहीं घिर
आते? क्या ऐसे ही आषाढ़ में काली कोमल छाया तमाल-वन पर नहीं उतर आती? क्या ऐसे
ही काली श्रावणी रजनी के बीच हृदय आनन्द से पुलकित नहीं ह्मे उठता?
काली?
कितनी ही काली क्यों न हो-
मैंने उसकी हिरणी-सी काली आँखें देख ली हैं।)
यही गाना गाते-गाते भाव-विभोर हो प्रौढ़ दुलाल बाबू उसकी ओर एकटक ऐसे निहारने
लगते थे कि वह स्वयं ही सिहरकर आँचल ठीक करने लगती। आज वह उस भूखी दृष्टि का
अर्थ समझ सकी है।
''वाणी, मुझे लगता है, यह गाना तुम्हें ही देखकर लिखा गया है,'' उन्होंने
पहले दिन कहा तो वाणी ने लजाकर माथा झुका लिया था।
गोदी की नन्हीं बच्ची को निहारती वाणी मन-हीमन सोच रही थी, गाना मेरे लिए
नहीं, इसके लिए लिखा गया है। असीम लाड़ और दुलार के बीच पल रही कृष्णकली की
मलिन कान्ति को, माणिक के यूननिा उबटनों ने सचमुच ही उजला कर दिया था। ''छोटी
दी, तुम्हारी लड़की का नाम अब बदलना ही पड़ेगा। देखती नहीं, दिन-पर-दिन कैसा
रंग निखरता जा रहा है निगोड़ी का!''
वाणी समय पाते ही उसे गोदी में लेकर बैठ जाती। कभी-कभी रात को भी वह उसे संग
सुलाने उठा ले जाती। कली, कृष्णकली, अमार कालो चाँद, अमावस्या; कितने ही
अटपटे नामों से पुकारती वाणी पगला-सी जाती।
कली जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी, उसका साँवला रंग स्वयं ही गेहुँवन आभा की
कान्ति को स्पष्ट करता जा रहा था! ''बड़ी दी'' पन्ना कहती, ''पाँच साल की होते
ही इसे बोर्डिंग में डालना ही होगा।''
''क्यों री, क्या अभी से इतनी भारा हो गयी बिटिया?''
''नहीं बड़ी दी, वाणी ने इसे गोदी की ऐसी आदत डाल दी है कि गोदी से नीचे रखते
ही चीखने लगती है।''
पन्ना का काम इधर बहुत बढ़ गया था, कई बार तो उसे रिकार्डिंग करवाने कलकत्ता
भी जाना पड़ता था।
एक वाणी सेन ही नहीं, पूरी पीली कोठी की दुलारी थी कली। जब से उसने चलना और
तुतला-तुतलाकर बोलना सीख लिया था, वाणी सेन तो उस पर मरी-मिटी जाती थी। वाणी
से कहती थी, 'तानी', पन्ना से 'तन्ना', और बड़ी दी से 'तड़ी दी।'
''कहो, ककड़ी, केला'' वाणी उसे तोते-सा पढ़ाती।
''ततरी-तेला,'' चेहरे से भी बड़ी आँख घुमाकर कली कहती। हँसी का फव्वारा का
छूटने लगता। कभी-कभी सजी-सजायी गुड़िया-सी कली को मुखरा वाणी बड़ी दी के भरे
दरबार में लाकर दूध-सी धुली चाँदनी पर बैठा देती।
''अरी, करती क्या है?'' बड़ी दी हड़बड़ाकर उठाने लगती, ''गीला कर देगी...''
''तो क्या हुआ। गंगाजल उठा-उठाकर माथे पर धरेंगे तुम्हारे दरबारी, तो सब
पाप-कलुष धुल जाएगा-क्यों है ना री मेरी कली!''
सिखायी बन्दरिया-सी कली न जाने कैसे सब कुछ समझकर नन्हीं-सी नाक चढ़ाकर हँस
देती।
''तेरी माँ कौन है, बता दे तो मेरी सोना,'' वाणी चतुर नटिनी की भाँति आकर्षक
कली को अपने अनुशासन की रस्सी पर साधकर पूछती।
''तन्ना।''
''तेरा बाबा कौन है बेटी?'' वाणी फिर अपनी मुखरा चपल दृष्टि का डमरू बजाती।
''ये छब,'' कली अपनी तिनके-सी तर्जनी पूरे दरबारियों की ओर घुमा देती।
''अरे, वाह-वाह।''
''क्या दिमाग़ पाया है!''
''बिलकुल माँ पर पड़ी है।''
कुछ ही पलों में, पूरे दरबार को अपनी नन्ही मुट्ठी में बन्द कर कली वाणी की
गोदी में किलकती चली जाती।
यही कली का अक्षरारम्भ था क्या? क्या डॉ. पैद्रिक ने ऐसी ही शिक्षा देने उसे
सौंपा था?
पन्ना कभी-कभी अपनी दुर्बलता पर स्वयं ही क्षुब्ध हो उठती। डॉ. पैद्रिक के
पत्र प्रायः ही आते रहते। अपने वायदे की पक्की निकली थी डॉ. पैद्रिक। कली के
छठे जन्म-दिवस पर उन्होंने पन्ना को एक कृतइाता पूर्ण लम्बा पत्र लिखा था।
कली की सुन्दर तसवीर को देखकर वे मुग्ध हो गयी थीं।
''इसकी सज्जा ही देखकर मैं समझ गयी हूँ कि तुम इसे कितने यल से पाल रही हो!
क्या यह मुझे बताना होगा कि मैं तुम्हारी आजन्म कृतज्ञ बनी रहूँगी?''
''पर मैं अपना वायदा नहीं भूली हूँ। मैंने तुमसे इसे केवल एक वर्ष पालने का
अनुरोध किया था, तुमने इसे पाँच वर्ष की बना लिया है! मेरी एक विधवा बहन, इसी
वर्ष नैनीताल आ गयी है। वहीं के कानवेण्ट में नन है, इसी से मुझे पूरी सुविधा
है। ऐसे पवित्र वातावरण में निश्चय ही इसके जन्म का इतिहास धुलकर उजला निखर
आएगा। यदि तुम्हें इसे नैनीताल पहुँचाने की सुविधा न हो तो मेरी बहन स्वयं
आकर ले जाएगी।
''पर हो सकता है पन्ना, तुम्हें इस छोटी-सी अवधि में इस अभागी के लिए ऐसा मोह
हो गया हो, जिसका बन्धन अब तुम्हें दिन-प्रतिदिन बाँधता जा रहा हो। यदि ऐसा
है तो मेरी डार्लिग पन्ना, ईश्वर के दिये इस उपहार को तुम मेरे अभिनन्दन सहित
स्वीकार करो।
तुम्हारी,
रोज़ी''
हड़बड़ाकर पन्ना ने चिट्ठी फाड़कर फेंक दी थी। अच्छा हुआ कमरे में बड़ी दी नहीं
थीं। शक्की माणिक उसे चिट्ठी पढ़ते देखती तो आफ़त कर देती। ''किसकी चिट्ठी है,
किसने लिखी है, क्या लिखा है, देखूँ?''
यह भी सम्भव था कि बड़ी दी अपने अधैर्य से उसके हाथ से चिट्ठी लेकर पढ़ भी
लेतीं। फिर क्या उस सूक्ष्म दृष्टि से पन्ना कुछ छिपा सकती थी? हो सकता था वह
स्वयं ही डॉ. पैद्रिक के पास जाकर कली के जन्म का पूरा इतिहास ही जान लेती।
उसी दिन, कमरा बन्द कर पन्ना ने चिट्ठी लिखकर स्वयं अपने हाथों से लेटर-बॉक्स
में डाल दी थी। कली को जब रोज़ी ने एक बार पन्ना की गोदी में डाल दिया है, तो
अब वह उसे नहीं जाने देगी। 'कली दिन-पर-दिन कितनी सुन्दर होती जा रही है
रोज़ी' उसने लिखा था। 'तुम शायद इसे देखने पर पहचान भी नहीं पाओगी। अब उस
साँवली मरघिन्नी-सी बच्ची पर जैसे विधाता ने जाटू की छड़ी फेर दी है। पाँच ही
वर्ष में यह सात-आठ वर्ष की हट-पुट बालिका लगने लगी है। मुझे तो कभी-कभी भय
होता है रोज़ी, यौवन कहीं असमय ही आकर इसे न दबोच ले।'
पत्र के उत्तर में रोज़ी ने स्वयं अपने आने की सूचना दी थी। अपनी बहन के साथ
क्रिसमस मनाकर वे कली को देखने आएँगी। कई वर्षों से कहीं नहीं गयी थीं। पैरों
का गठिया कब उन्हें एकदम ही पंगु बना दे, कुछ कहा नहीं जा सकता था। वैसे ही
बिना लाठी के सहारे वे एक पग भी नहीं चल पाती थीं।' तुम्हारे पास आकर और
उन्हें कली को देख लेने पर मैं निश्चय ही बहुत कुछ स्वस्थ हो उठूँगी। मेरी
दैनिक आवश्यकताएँ अत्यन्त सीमित हैं, अतः तुम्हें कोई विशेष असुविधा नहीं
होगी।'
पगली रोज़ी, उसकी आवश्यकताएँ कैसी ही क्यों न हों, पीली कोठी क्या एक से एक
ठसकेदार विदेशी अतिथियों की आवश्यकताओं को पहले नहीं निभा चुकी हे? पर वह
सर्वस्व-त्यागिनी तपस्विनी क्या इस परिवेश में एक रात भी रह पाएगी?
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