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अनय

अरविंद गोखले

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :250
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1236
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह.....

Anay a hindi book by Arvind Gokhale - अनय - अरविंद गोखले

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुति

सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन ने एक बार कहा था कि यद्यपि भारतीय साहित्य विभिन्न भारतीय भाषाओं में लिखा गया है, पर उसकी आत्मा एक ही है। यह सच है इस मूलभूत एकात्मकता के होते हुए भी समय-समय पर अलगाव का स्वर क्यों उठता रहता है ? उत्तर स्पष्ट हैं, राजनीतिक स्वार्थ और जनसाधारण की निरक्षरता एवं अज्ञान। इन बिखरती हुई विचारधाराओं को एक सूत्र में पिरोने के लिए मात्र एक साधन है-सृजनात्मक साहित्य, जो न केवल अपने आप में भावात्मक सृष्टि का निर्माण करके जीवन-मूल्यों को आयाम प्रदान करता है बल्कि उन्हें परिपुष्ट भी करता है। ऐसा समृद्ध साहित्य विभिन्न भारतीय भाषाओं में विद्यमान होते हुए भी अलग-अलग लिपियों का बन्धन होने के कारण, उसके साहित्यिक मूल्यों का आदान-प्रदान नहीं हो पाता। भारतीय ज्ञानपीठ ने इस खाई को पार करने के लिए एक सेतु की सक्रिय भूमिका निभाई है। एक ओर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार जैसे अखिल भारतीय अनुष्ठान से समग्र भारतीय भाषाओं के लेखकों को चयन हेतु एक ही मंच पर लाया जाता है तो दूसरी ओर ‘भारतीय उपन्यासकार’, ‘भारतीय कहानीकार’, ‘भारतीय कवि’ आदि साहित्यिक विधाओं के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करके भारतीय साहित्य को निश्चित रूप से एक सूत्र में पिरोने का पवित्र अनुष्ठान भी आरम्भ कर दिया है। भारतीय ज्ञानपीठ की न केवल यह एक साहित्यिक उपलब्धि है बल्कि एक राष्ट्रीय उपलब्धि भी है।

‘भारतीय कहानीकार’ श्रृंखला में प्रस्तुत है मराठी के सुविख्यात कहानीकार अरविन्द गोखले की कुछ चुनी हुई कहानियों का यह संकलन। अरविन्द गोखले न केवल मराठी के सिद्धहस्त कहानी लेखक है बल्कि अपने नारी पात्रों का बड़े ही मनोवैज्ञानिक शैली से मूल्यांकन एवं चित्रण उनकी अनूठी विशेषता है। कथा-साहित्य की विशेषता केवल उसका कथ्य नहीं होता अपितु महत्त्वपूर्ण यह होता है कि अपने विशाल अनुभव के आधार पर लेखक ने उसे किस कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है।

इसी विशेषता के कारण अरविन्द गोखले की कृतियों को अब तक अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं तथा वे अनेक साहित्यिक मंचों पर सम्मानित हुए हैं।
संकलन की कहानियों के हिन्दी अनुवाद के लिए श्रीमती अरुन्धती देवस्थले, सरोजिनी वर्मा, प्रकाश भारतम्ब्रेकर एवं तरनजीत के प्रति मैं अपना हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।
इसके प्रकाशन के लिए अपने सहयोगी गुलाबचन्द्र जैन तथा साज-सज्जा के लिए पुष्पकणा मुखर्जी का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ।
नयी दिल्ली

र. श. केलकर, सचिव

भूमिका


कथा का कथन-श्रवण या फिर लेखन-वाचन यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। शायद इसी वज़ह से वह अति प्राचीन साहित्य विधा मानी जाती है। हमारी संस्कृति में कथा की यह परम्परा विविध उद्देश्यों से और उनमें निहित आशय-अभिव्यक्ति के वैविध्य से सम्पन्न है लेकिन बदलते समय के साथ पुराणों में लिखी जाने देवी-देवताओं की कहानियाँ सदियों से प्रचलित लोककथाएँ अपर्याप्त लगने लगीं, उनका रचनात्मक मूल्य भी घटता गया। समय के साथ-साथ हमारी स्थितियाँ दृष्टिकोण और अभिरुचि आदि में काफी परिवर्तन आया जो साहित्य की विभिन्न विधाओं में प्रतिबिम्बित हुआ।
मराठी लघु-कथा के इतिहास का सिंहावलोकन करने पर यह नज़र आता है कि आधुनिक कहानी की शुरुआत 1925 के आसपास हुई थी। दिवाकर कृष्ण, य. गो. जोशी और फिर ना. सी. फडके वि. स. खांडेकर तथा वामन चोरघडे उसके प्रमुख प्रवर्तक थे। तब कहानी विधा के सरोकार अधिकतर सामाजिक थे, ऐतिहासिक थे, उसमें कुछ हद तक रोमानी ध्येयवाद भी था। मनोरंजन और लोकप्रियता उसका प्रमुख उद्देश्य था। कहानी का स्वरूप योजनाबद्ध, कार्यकारण भाव एवं गति युक्त और घटना-प्रधान था। इस कार्यकारण या सोद्दोश्य मापदण्ड पर कथा की सफलता निर्भर करती थी। कथा को सोद्देश्यता का एक संक्षिप्त और सुयोजित साधन ही माना जाता था।

उसके बीस-पचीस साल बाद यानी दूसरे महायुद्ध के बाद और देश की स्वतन्त्रता के आसपास एक सफ़ेदपोश, मध्यवर्गीय लेखकों की पीढ़ी उभरी जिसे ध्येयवाद का खोखलापन, सामाजिक और नैतिक मूल्यों की अस्थिरता और आशा-वाद की व्यर्थता से युक्त परिवेश से उभरते यथार्थ का सामना करना था। उन्होंने भावनाशीलता और आदर्शवाद से गुज़रती कहानी का ‘नवकथा’ में रूपान्तरण किया। गंगाधर गाडगिल पु. भा. भावे, अरविन्द गोखले और व्यंकटेश माडगूलकर उस परिवर्तन प्रणाली के अग्रज थे। उन्होंने रसालंकार युक्त आख्यान-नुमा दास्तान का ज़माना ख़त्म कर दिया। नवकथाकारों ने कहानी को एक नयी पहचान दी, उससे एक अलग व्यक्तित्व का निर्माण कर एक तरह से उसके आयाम सुनिश्चित कर दिये।
संवेदनशीलता की नवीनता, आशय की परिधि और सटीक प्रस्तुति आदि गुणों से युक्त नवकथा रूप में संक्षिप्त तो थी ही लेकिन उसमें रंजक तत्त्वों का उचित उपयोग करते हुए भी परिष्कृत लोकरुचि का निर्माण करने का प्रयत्न भी था। अभिव्यक्ति में तरलता उसका प्रमुख रचनात्मक तेवर था। कम-से-कम शब्दों में ज़्यादा-से-ज़्यादा संमिश्र आशय का निर्माण करने की कोशिश थी। कथा की स्वयंपूर्णता के प्रति सजग संचेतना और अभिव्यक्ति के प्रति निष्ठा नवकथा की वे विशेषताएँ थीं जिन्होंने उसे पहले की अपेक्षा अधिक गतिशील सहज और संवेदनशील बनाया। बल्कि यों कहना चाहिए कि नवकथाकारों ने सोद्देश्य ध्येयवाद, नीतिपरक, समाजपरक आदि की पकड़ में छटपटाती कहानी को अनुभूति और अभिव्यक्ति के मुक्तांगन में खुले संचार के लिए छोड़ दिया।

पारम्परिक कथा के कथ्य से मुँह मोड़ती नवकथा में सामाजिक यथार्थ का स्थान व्यक्तिगत यथार्थ ने ले लिया। और फिर मानव-मन और सम्बन्धों के कई दालान जो अब तक बन्द थे, खुल गये और फिर इस तरह से कहानी का कथ्य विविधता से समृद्ध हो गया। नवकथाकारों ने परिवेश की वास्तविकता और अनुभूति की प्रामाणिकता को अपना आधार बनाया। कहानी के स्रोतों में निहित विविधता और कथावस्तु के यथार्थ के विस्तृत होने से कहानी में अभिलक्षणीय परिवर्तन आ गया। आम आदमी के दुःखों और तकलीफ़ों को चित्रित करने वाली कहानी, आम आदमी के सचमुच करीब आ गयी। यथार्थ के व्यक्ति पर केन्द्रित होने का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि बदलते हालातों के मानवीय जीवन और सम्बन्धों के सूक्ष्म और गम्भीर मनोविश्लेषण ने नवकथा को अनायास ही सहज और सशक्त बना दिया। आधुनिक मराठी-कथा के विकास में बहुस्तरीय नागरी जीवन का विस्तार और गहराई अंकित करने वाली नवकथा का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है।

नवकथाकारों के प्रयोगों में एकता भी थी और विभिन्नता भी। हर कहानीकार में अनुभव और अभिव्यक्ति दोनों में विविधता होना स्वाभाविक था। गंगाधर गाडगिल ने मध्यवर्गीय, महानगरवासी आदमी को कथा का केन्द्र बनाकर कथा को अधिक अस्तित्ववादी बनाया था। पु. भावे ने मानव-सम्बन्ध अन्तर्मन का विश्लेषण और सौन्दर्यवाद से उसके आशय को सघनता से समृद्ध बनाया। अरविन्द गोखले ने उसे सूक्ष्म निरीक्षण और संवेदनशीलता से अत्यन्त सहज सुन्दर बनाया। माडगूकार ने उसे ग्रामीण जीवन के सम्मुख खड़ा करके उसमें आंचलिकता का पुट दिया और चित्रकार की कुशलता से एक नयी शैली की शुरुआत की। नवकथाओं में वैविध्य तो था ही लेकिन कुछ सामर्थ्य भी था। जैसे कि आशय की अन्तर्मुखता और विश्लेषणात्मकता। पहले कथा का रच-रचाव किसी घटना पर निर्धारित हुआ करता था, उसमें एक तरह की सुसंगति अपरिहार्य थी। लेकिन नवकथा ने अपना रुख अन्तर्मन, उसकी विभिन्न सतहों पर बनती मिटती विसंगति विरोध और उसके बाहरी सतह पर होने वाले प्रकटीकरण की तरफ़ कर लिया था। एक तरह से यह भी कहा जा सकता है। कि परम्परागत तन्त्रों से हटकर मन्थर लेकिन सुनिश्चित गति से संज्ञा प्रवाह की दिशा में ले जानेवाला परिवर्तन था। फ्रायड और युग की मनोविश्लेषणात्मक पद्धति का असर सारे विश्व के साहित्य पर हो रहा था, मराठी नवकथा भी उसे अपवाद नहीं थी। मनोविश्लेषण को लेकर कई दिशाओं में कई नये प्रयोग होते रहे।

व्रतस्थ निष्ठा से लघु-कहानी को अपनी चार सौ से ज़्यादा कहानियों से समृद्ध करने वाले गोखले जी नवकथा के अभिन्न प्रेमी हैं। उनके विशाल कथा-विश्व की विशेषता यह है कि उनके हाथों कहानी अपने रेखित रचना-विधान से हटकर ज़िन्दगी के विविध पहलुओं को विभिन्न स्तरों पर तलाशती, तराशती है और फिर एक सौन्दर्यवेधी आस्वादक की सहज सुन्दर रचना का रूप धारण कर लेती है। कहानी को प्रचलित बद्धता से मुक्त करते हुए भी गोखले का पैंतरा आक्रमक, क्रान्तिकारी या परम्परा को तहस-नहस करनेवाला नहीं रहा। बगैर किसी शोर-शराबे के उन्होंने अपना रास्ता खुद ढूँढ़ लिया और चुपचाप उस पर चलते रहे। रचनात्मकता को लेकर होने वाले किसी विवाद में अन्होंने अपने आपको नहीं डाला और न ही गर्मजोशी से किसी तात्त्विक वाद-प्रतिवाद में अपने आपको उलझाया।

और फिर भी एक सौम्य और संयमित कलाकार के रूप में उन्होंने अपनी स्वतन्त्रता अबाधित रखी। उन्होंने अपनी कहानी में घटनाओं और पात्रों को ढाँचे से हटाकर उनके आन्तरिक विश्व को उजागर किया, यही उनका मराठी कथा-रचना के इतिहास को महत्त्वपूर्ण योगदान है।

गोखले की कथाओं की विचार-वस्तु में आया परिवर्तन कथा के स्वाभाविक विकास-क्रम से सुसंगत ही कहा जा सकता है। इसीलिए शायद उन्हें दुर्बोधता, अवास्तव, कल्पनारंजन शब्दों का इन्द्रजाल या अश्लीलता जैसे तन्त्रों की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। दूसरी ओर उनकी कथा तत्त्वज्ञान के भँवर में फँसकर अमूर्त्त भी नहीं हुई। उसमें संयत सूचकता भले ही हो, अमूर्त्तता या दुर्बोधता से वह पूरी तरह मुक्त है। उनका कथा-लेखन एक प्रवाह है, जिसमें एकसूत्रता बनी रहती है। अनुभव उनकी कथा का केन्द्रबिन्दु है, जिसका मर्म रचनाकार के नाते वह बहुत अच्छी तरह समझते हैं, इसीलिए मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से उनकी कथाएँ अचूक होती हैं। उनकी कहानी आम आदमी के लिए है।

वह आम आदमी की कहानी है। जिसे वह पारदर्शी शैली में सुनाते हैं। उनकी कहानी मन को छू लेती है लेकिन मन की गहराई में उस हद तक नहीं धँस जाती कि उसका उद्देश्य ही भूल जाये। उसमें कोई गूढ़ फलसफा नहीं है और न किसी चिरंतन सत्य की खोज में किए वैचारिक मन्थन का कोई दावा। किसी कहानी के मूल्यांकन का सबसे आसान तरीका यह है कि वह किसी कदर एक आम सहृदय पाठक के मन पर अपनी छाप छोड़ देती है। पाठक उसे जितनी और जिस हद तक अपने करीब समझता है वहीं उसकी सफलता का प्रमाण मिल जाता है। ‘जटिलतर या क्रूर सामाजिक यथार्थ’ और ‘सामान्तर दुनिया’ जैसे थोथे बवण्डरों से सुदूर गोखले को जीवन से और सत्य शिव सुन्दर से जो प्रेम है उसने उन्हें जीवन की सच्चाइयों से कभी मुंह मोड़ने नहीं दिया, लेकिन उससे उनके लेखन में उपरोधात्मक कड़वाहट भी नहीं आने दी। रसात्मक दृष्टि से विचार किया जाय तो उनकी कथाओं से सात्त्विक रस का ही प्राबल्य रहा है। उन्हें घिनौनी विकृति या आदमी की पाशविकता में कोई दिलचस्पी नहीं है। उनका नज़रिया हमेशा परिवर्तनात्मक होने के साथ-साथ रचनात्मक रहा है-कथासूत्र की गति एक सुनश्चित गन्तव्य की तरफ़ शान्त रूप से बहने वाली स्रोतस्विनी है जिसमें अथाह समुन्दर में उठता रौरव तूफ़ान नहीं है बल्कि आम आदमी को जिससे उन्हें बहुत प्यार है, साथ ले चलने की मंशा है, एक ख़ास तरह की सकारात्मक दृष्टि है-जीवन के प्रति आस्थामूलक और आशावादी स्वर से पूरित।

गोखले जी की कथाओं के बारे में प्रा. गाडगिल कहते हैं—‘‘गोखले जी कथाओं में जीवन से अधिक महत्त्व चमत्कृति को देते हैं।’’ (सत्य कथा जाने, 1950)। में खुद गोखले ने भी आत्मनिवेदन में इसकी पुष्टि की है। लेकिन गोखले की कथाओं में जो चमत्कृति है उसे रूढ़ अर्थ में चमत्कृति नहीं कहा जा सकता। वह उससे बढ़कर कुछ और भी है। गोखले जी की संवेदना को यथार्थ का वह पहलू नज़र आता है जो ऊपरी सतह पर दिखाई नहीं देता। इस में वस्तु तत्त्व उनके पात्रों के स्वभाव, उनका बर्ताव सब कुछ अलग ही होते हैं, जिनका रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से कोई सरोकार नहीं होता। उनका सुख-दुख दुनिया की सुख-दुख की कल्पनाओं से हटकर होता है, इसलिए हर आदमी खुद अपनी मिसाल आप होता है।

परम्परा विरोधी प्रेरणाओं से बनी एक भूल-भुलैया होती है। उसके अन्तर्मन से बाहर की ओर या फिर बाहर से अन्तर्मन की ओर जाते-जाते उसके मन की एक-एक पंखुड़ी खुलती जाती है, तब एक भरी पूरी तस्वीर उभरती है। जैसे कि ‘रिक्ता’ की बेनाम नायिका का दुःख है। कहने को तो यह एक मनस्वी कहानी है जिसमें किसी को किसी भी तरह से आकर्षित करने की क्षमता नहीं है। एक फक्कड़ कलन्दर कलाकार की दूसरी रूपहीन पत्नी, मृत सौतन के दो बच्चों की माँ—बस इतना ही उसका परिचय है लेकिन अपनी गरीबी और मुफ़लिसी के बावजूद वह अपना आत्मसम्मान बनाये रखती है। पति के मित्र से उऋण होने की एक अजीबोग़रीब तरकीब निकालकर वह अपने आप को मुक्त कर लेती है। अंग्रेज़ी साहित्य की ‘Mysterious She’ की कल्पना को उजागर करने वाली इस साधारण स्त्री का चित्रण कथा के नायक की तरह पाठकों को भी हिलाकर रख देता है। रुढ़ार्थ से अनाकर्षक होते हुए भी वह नायिका की तरह मन पर छा जाती है। इतना ही नही वह जिसकी ऋणी है वह आदमी भी अपने आपको बगैर कोई आपराध किये अपराधी मानने लगता है। एक अनोखे ढंग से यह कहानी नारी की प्रखरता और दीप्ति को रेखांकित करती है।

नवकथाकारों की प्रमुख विशेषता यही भी है कि उन्होंने महानगरीय मध्यम वर्ग को अपनी रचना की पार्श्वभूमि बनाया। जब आम आदमी कथा का विषय बना तो अभावों से भरा उसका दैनदिन यथार्थ-उसकी आर्थिक कठिनाइयाँ आवास और पानी की समस्याएँ मानवीय सम्बन्धों में कृत्रिमता, भीड़ से ख़चाखच भरी लोकल ट्रेन से रोज़ का यातायात पसीने से तर-बतर बदन और संत्रास से व्याप्त मन आदि से भरपूर था—उसमें उतर आया। सामान्य आदमी के सुख-दुःख सोच-विचार, कुण्ठाएँ जो कुछ हद तक सामाजिक और आर्थिक विषमता से उभरती हैं परिस्थितिजन्य हैं और कुछ-कुछ व्यक्तिगत स्वभाव से बनी हुई भी, उन्हें भी बारीकी से देखा और चित्राया गया। गाडगिल और गोखले दोनों ने इस जीवन को बड़ी आस्था से लेकर अपने-अपने नज़रिये से देखा और प्रस्तुत किया।

मनो-विश्लेषण दोनों के अनुभव संसार का अविभाज्य अंग है जिसमें अति-सूक्ष्मता भी है और निःसगता भी। इन दो शीर्षस्थ कथाकारों का तुलनात्मक मूल्यांकन करते हुए प्रो. विजया राजाध्यक्ष कहती हैं, ‘‘गोखले जी का एक वैशिष्ट्य यह भी है कि वे आदमी के प्रकट मन को अपने चिन्तन का विषय बनाते हैं। सुप्त या अर्धसुप्त मन के व्यवहारों की तरफ वह सहसा रुख नहीं करते। उन्हें विसंगति ढूँढ़ने से भी ज़्यादा दिलचस्पी सुसंगति जोड़ने में है। लेकिन जवाब ढूँढ़ने के और संगति जोड़ने के उनके इस स्वभाव विशेष का फ़ायदा यह है कि गोखले जी की कथा उपसम्बद्ध नहीं लगती, उसे दुर्बोधता का भी ख़तरा नहीं है, शायद इस नज़रिये को लेकर ही गोखले की कहानियाँ गाडगिल से बिलकुल अलग हटकर मालूम होती हैं। गाडगिल और भावे की तुलना में गोखले जी में एक और विशेषता नज़र आती है। उनकी कहानियों के पात्र मानसिक रूप से स्वस्थ ‘नॉर्मल’ इन्सान हैं। उनमें कोई विकृति या कुण्ठा नहीं है। गोखले जी प्रेम के बारे में लिखते हैं कि ऐन्द्रिक विषय वस्तु के बारे में भी लिखते हैं लेकिन उस पर कभी किसी मनोविकृति का साया नहीं पड़ने देते। इसीलिए उनकी प्रेम कहानी ना. सी. फड़के की तरह सांचे या ढांचे में ‘फिट’ क़िस्म की प्रेम कहानी नहीं होती, वह बहुत गहराई में उतरती है। एक तरफ फड़के जी को नकारते हुए और दूसरी तरफ़ गाडगिल या भावे जैसे समकालीन से अलिप्तता बनाये रखते हुए गोखले खुद की अपनी कथा लिखते हैं।’’

गोखले जी की कथा के पात्र कुटुम्बप्रधान, सामान्य रूप से सुसंस्कृत, भाव-बन्धों से अपने माहौल से जुड़े हुए तर्क या बुद्धि के मुकाबले भावनाओं को ज़्यादा महत्त्व देने वाले हैं। गोखले जी बाहर से तटस्थ अवश्य दिखाई देते हैं लेकिन उन्हें आम आदमी से, ज़िन्दगी से बहुत प्यार है। इसलिए उनकी कथा भावनाशील, नैतिक मूल्यों को जीवन का आधार मानने वाले मध्यमवर्गीय वाचक को उसकी अपनी कहानी लगती है। ‘मंजुला’ में भी ऐसी एक महानगरीय मध्यवर्गीय स्त्री की प्रतिभा है जो बम्बई की यान्त्रिक ज़िन्दगी जीते हुए भी अपना प्रेम और उसके ऐन्द्रिकता और दैहिक अविष्कार की पवित्रता बनाये रखना चाहती है। आर्थिक विवशता से मजबूर होकर नौकरी करने वाली संवेदनशील पत्नी और उसके पति के बीच छोटी-बड़ी बातों से उभरने वाला मन मुटाव, उसका उनके कार्य जीवन पर दूरगामी परिणाम डालता है।

गोखले के कथाविश्व का शायद सबसे सुन्दर और सशक्त पहलू है उनके नारी-पात्रों का स्वभाव चित्रण। ‘स्त्रियाष्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतोः मनुष्य:’ की असार्थकता को अभिजात नज़र से देखने वाले गोखले अपने लेखन में नारी जीवन और उसके स्वभाव की कई छोटी-बड़ी बारीकियों को सूक्ष्म नज़र से देखते हैं, उनके मन की गहराइयों में झांकने की कोशिश करते हैं, अपनी मर्यादाओं से सुपरिचित होते हुए भी उसे सृजनात्मक दृष्टिकोण से समझने का प्रयत्न करते हैं और फिर उतनी ही समर्थ कुशलता से पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं। प्रस्तुत संकलन में भी नारी के कई मनोहर रूप उभर कर सामने आते हैं। ये पात्र कहीं अपनी संवेदनशीलता से मन को छू लेते हैं तो कहीं हमें झिंझोड़ कर।

भूतकाल का बेदर्द वर्तमान से मेल जमाने की कोशिश करने वाली सविता देवी है, कुँवारे वैधव्य को अपनाने की अनोखी ज़िद करने वाली इरावती है, सामान्य होकर भी भावनाओं की उदात्ता को संजोकर रखने का प्रयास करने वाली मंजुला है, बेटी के कन्यादान के लिए अपने पूर्व पति को लिवा लाने वाली तिलोत्तमा है, रिक्त होकर भी सशक्त होने वाली ‘रिक्ता’ है। बलात्कार की कल्पना से मन-ही-मन बहसती सोनिया है और आधुनिक युग की मध्यमवर्गीय दुविधाओं का शिकार बनी ‘शकुन्तला’ है। इनमें से हर नारी-पात्र को गोखले ने बड़ी बहु-स्पर्शी सामर्थ्य से निखारा है जो पाठकों पर अपनी अमिट छाप छोड़कर जाता है।


जहाँ नारी-स्वभाव की नैसर्गिक और पारदर्शी संवेदनशीलता का मन्त्रमुग्ध कर लेने वाला चित्रण है वहाँ उसे एक पहेली बनाकर छोड़ने वाली मन की संदिग्धता भी है जैसे कि ‘थ्री-इन-वन’ या ‘त्रिमूर्ति’ में है। ‘त्रिमूर्ति’ में नारी की जो भाव-यात्रा है-एक चंचल अल्हड़ युवती से लेकर एक प्रौढ़ा पत्नी तक-उसका हर मुकाम मन को मोह लेने वाला है। एक स्त्री जिसमें नारी सुलभ बचपना है जिद है, मनस्वी प्यार है, प्रियतम पर अपने आपको लुटा देने वाला आवेग है, वह लाड़-दुलार को लाँघकर, वाद-प्रतिवाद से गुजरती हुई एक पुरन्ध्री बन जाती है। यह स्त्री की प्रेमभावना का सफ़र है जो सुदीर्घ सहवास के बाद उम्र के साथ आने वाली परिपक्वता और गहराई के साथ और भी मधुर बन जाता है।
नारी-मन की संदिग्धता का एक और प्रमाण है अम्बू (शपथ) वह अम्बू जो उसके जीते-जी अपने पति को उसकी पूर्व-प्रेमिका से मेलजोल रखने के लिए उदारता से स्वीकृति दे देती है। लेकिन असाध्य रोग से पीड़ित हो जाने पर मरने से पहले वह अपने पति से यह शपथ दिलाती है कि वह दूसरा ब्याह अवश्य करेगा लेकिन अपनी उस प्रेमिका से नहीं....

गोखले के प्रायः सभी नारी-पात्र उनके समकालीन मध्यवर्गीय भारतीय नारी की हू-ब-हू छवियाँ है। ऐसी सुघड़ तेजस्विनी, जो न दासी है, न स्वामिनी। घर-परिवार का कुशलमंगल और भावात्मक एकता के साथ-साथ अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा को बनाये रखना उसका स्वभाव धर्म है। मानसिक रूप से सशक्त होते हुए भी उसके सोच और आधुनिक मुक्त नारी के सोच में जमीन आसमान का फर्क है-शोषण, नारी-मुक्त आदि को लेकर वह बागी नहीं बनती तोड़-फोड़ करने वाले विध्वंस में वह विश्वास नहीं रखती। अँग्रेजी में कहा जाये तो हर तरह से ‘फेमिनाइन’ है। उसकी अपनी अलग पहचान होते हुए भी, अपनी आन्तरिक शक्ति का पूरा अहसास होते हुए भी, वह रच-रचाव में, व्यवहार में, अपने ‘स्त्रीत्व’ को नहीं भुलाती जैसे कि ‘गाँधी और गाँधी’ की प्रीति या ‘कुमारसम्भव’ की प्रियु। ‘अविधवा’ गोखले की बहुचर्चित कहानियों में से एक है, जिसमें भारतीय नारीत्व की शालीनता की प्रतीक डॉ. इरावती अपने आपको मृत प्रेमी की विधवा मानकर उसके परिवार की बहू बनकर जाना चाहती है और उनकी सारी जिम्मेवारियों का बोझ खुद पर लेना चाहती है। उनके प्रेम-सम्बन्धों से अनजान न होते हुए भी प्रेमी का परिवार उसे अपना नहीं पाता, उसके उद्देश्य को, भावनाओं को समझ नहीं पाता और इरावती विमुख होकर लौट आती है।

‘कैक्टस’ की अनुराधा और सुधा, ‘शपथ’ की अम्बिका और मालिनी, ‘अनाथ आत्मा’ की दमयन्ती, ‘टुकड़ा-टुकड़ा आदमी की मौत’ की अनुया वैसे देखा जाये तो दोयम दर्जे के पात्र हैं, लेकिन उन्हें भी गोखले ने इतने प्यारे ढंग से रचा-सिरजा है कि वह सिर्फ़ कहानी का हिस्सा बन कर नहीं रहते और भी कुछ बन जाते हैं। शक्ति के प्रतीक रूप में शायद गोखले को काली से दुर्गा अधिक पसन्द है। जो संवेदनाशील, बुद्धिमान, निष्ठावान और सृजनशील है। गोखले ने उसे बड़ी नज़ाकत से उभारा है। बम्बई की तेज़ रफ्तार ज़िन्दगी में अपने झुलसते भाव जीवन की करुण कहानी से उठती घुटन अपने प्रिय पति को बताते हुए मंजुला कहती है, ‘कैसे समझाएँ तुम्हें, शरद। मेरा मन न जाने कैसा है। मेरी सारी कल्पनाएँ बहुत अलग हैं...बहुत अलग। मन में खुशी हो, उल्लास हो, स्वच्छ, सुन्दर वातावरण हो तभी मेरे मन में भी उत्साह आता है। यहाँ सब तरफ अगल-बगल में भीड़-भाड़, शोर-गुल है। हर वक्त रोना-धोना, गाली-गलौज, लड़ाई-झगड़ा, चीख-पुकार सुन-सुनकर मन न जाने कैसा-कैसा होने लगता है। देह पसीने से चिपचिप करती रहती है। मच्छर काटते रहते हैं सिर दुखता रहता है। वही ब्रेड के बासी टुकड़े, वही लोकल में घूरती आँखें, वही सारे दिन टाइप-रायटर की खटर-पटर मन ऊब जाता है इस एकरसता से। फिर शरीर में किसी तरह का उत्साह नहीं रहता....शरद, मुझे जानवरों की तरह जीना अच्छा नहीं लगता। अपनी वासना को, अपनी भावना को, मैं बहुत प्यार करती हूँ। शरद, बहुत पवित्र मानती हूँ। कम-से-कम उतना मुझे बनाये रहने दो। मेरी भावनाओं को ठेस न पहुँचाओ। मैं तुमसे विनती करती हूँ।


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