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भारतीय कहानियाँ 1990-91

र श केलकर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1993
पृष्ठ :315
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1227
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह...

Bhartiya Kahaniyan 1990-91

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


इसमें 1990-91 की श्रेष्ठतम कहानियों पर प्रकाश डाला गया है।

प्रयास भर

अपने स्थापना काल से ही भारतीय ज्ञानपीठ का लक्ष्य भारतीय साहित्य के सतत अनुसन्धान और उन्नयन में योगदान करना रहा है। साहित्य प्रकाशन का शुभारम्भ हुआ था मूर्तिदेवी ग्रन्थिमाला की संयोजना से, जिसके अन्तर्गत ज्ञानपीठ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भारतीय भाषाओं की अप्राप्य एवं दुर्लभ सामग्री का अनुसंधान कर हिन्दी एवं अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से अब तक 150 से अधिक ग्रन्थ सुधी पाठकों और अध्येताओं को समर्पित कर चुका है, बाद में लोकोदय एवं राष्ट्रभारतीय ग्रन्थ मालाओं के अधीन क्रमशः हिन्दी की मौलिक रचनाओं और हिन्दी अनुवाद (जब कभी अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद) के माध्यम से विभिन्न भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियाँ सहृदय पाठकों तक पहुँचाता रहा। (लोकोदय/राष्ट्रभारती ग्रन्थमाला के अन्तर्गत अब तक 555 ग्रन्थ प्रकाशित किये जा चुके हैं)। इसी साहित्यिक अनुष्ठान को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए इसी ग्रन्थमाला के आधीन ज्ञानपीठ विगत दो तीन वर्षों से विभिन्न साहित्यक भाषाओं के अग्रणी लेखकों की उत्कृष्ट कृतियाँ ‘भारतीय कवि’ ‘भारतीय कहानीकार’, ‘उपन्यासकार’, ‘भारतीय व्यंग्यकार’ आदि श्रृंखलाओं के रूप में प्रकाशित कर रहा है।

संस्कृति की संवाहक भारतीय भाषाओं के साहित्य में पारस्परिक निकटता लाने के उक्त उद्देश्य को ध्यान रखते हुए, आज से ठीक दस वर्ष पहले भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रतिवर्ष विभिन्न भारतीय भाषाओं की कहानी और विद्या की प्रतिनिधी रचनाओं की अलग-अलग चयनिकाएँ ‘भारतीय कहानियाँ’ और ‘भारतीय कविताएँ’ प्रकाशित करने की योजना बनायी थी। इन श्रृंखलाओं का प्रारम्भ 1983 में प्रकाशित कहानियों और कविताओं की चयनिकाओं से हुआ। साहित्यिक क्षेत्र में इनका जोरदार स्वागत हुआ, जोशसे प्रोत्साहित होकर हम तभी से प्रतिवर्ष दोनों चयनिकाएँ प्रकाशित करते आ रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक ‘भारतीय कहानियाँ : 1990-91’ कहानी-श्रृंखला की सातवीं चयनिका है। इनके प्रकाशन में आरम्भ से चली आ रही विलम्बित कालावधि को पाटने के लिए दो वर्ष पहले हमने 1987-88 की तथा इस वर्ष 1990-91 की सम्मिलित चयनिकाएँ प्रकाशित की हैं। इस चयनिका में विभिन्न भारतीय भाषाओं की दो-दो प्रतिनिधि कहानियों का संकलन किया गया है। इस प्रकार इसमें चौदह भारतीय भाषाओं की कुल 28 कहानियाँ संकलित हैं। प्रयास करने पर भी हमें तमिल की कहानियाँ समय रहते प्राप्त नहीं हो सकीं, इसका हमें खेद है। लेकिन दूसरी ओर हमें इस बात की प्रसन्ना भी है कि इस चयनिका में संस्कृत भाषा की कहानियाँ पहली बार सम्मिलित की गयी हैं। इसके पहले ‘भारतीय कविताएँ’ चयनिका में ही संस्कृत की कविताओं का चयन कर उनका हिन्दी काव्य-रूपान्तर सम्मिलित किया जाता रहा है। भाई मधुर शास्त्री का आभार है कि उनके प्रयास से इस बार संस्कृत कहानियाँ भी हमें उपलब्ध हो सकीं।

प्रस्तुत संकलन की कहानियाँ समसामयिकता, शिल्प और कथ्य की दृष्टि से कितना महत्त्व रखती हैं यह तो सुधी पाठक और समीक्षक ही बताएँगे। हाँ, प्रत्येक भाषा के चयनकर्ता से सदा की भाँति हमारी यही अपेक्षा रही है कि वह अपनी भाषा से कहानियों का चयन करते समय उसके शिल्पांकन कथ्य के वैशिष्ट्य और उनकी सामयिकता का बहुत ध्यान रखेंगे। दूसरे शब्दों में, उनसे श्रेष्ठत्व के साथ-साथ प्रतिनिधित्व के चुनाव की विशेष अपेक्षा की जाती रही है। लेकिन कभी-कभी प्रतिनिधित्व के निर्वाह में श्रेष्ठत्व का चुनाव नहीं हो पाता है। फिर हम यह पहले भी निवेदन कर चुके हैं हर एक भाषा में ऐसी और भी अनेक कहानियाँ होगी जो उनसे से भी श्रेष्ठ और खरी उतर सकती हैं, लेकिन पुस्तक के कलेवर को ध्यान में रखते हुए जब प्रत्येक भाषा से प्राप्त हमें दो ही कहानियों का चयन अभिप्रेत हो तब एक चयनकर्ता के सामने स्वाभाविक रूप से समस्या खड़ी हो जाती है और तब उसे निर्धारित समय, स्थान और परिस्थितियों में उस वर्ष प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों से जो उपयुक्त सामग्री उपलब्ध होती है, उसी में वह चयन कर पाता है। संक्षेप में, भले ही हम इसे वर्ष-द्वय की श्रेष्ठतम कहानियों का संकलन न भी कह सकें एक अच्छे स्तर का प्रतिनिधि संकलन तो माना ही जा सकता है। ‘भारतीय कविताएँ’ : 1989-90-91’ की चयनिका के संदर्भ में भी उसके सम्पादकीय में हमने यही बात की है।
यह कि चयनिका में हिन्दी को छोड़ शेष सभी भाषाओं की कहानियाँ हिन्दी रूपान्तर हैं। कहानी लेखन में हर भाषा का अपना मुहावरा होता है जो कथ्य को शसक्त और स्वाभाविक बनाता है, उसमें रोचकता पैदा करता है। और यदि अनुवाद भी कथानक के मूल भाव को संप्रेषित करने की सामर्थ्य रखता है तो यह उस भाषा के अनुवादक की सफलता मानी जायेगी। कहना अनुचित न होगा कि कुछेक भाषा के अनुवाद इस दृष्टि से खरे नहीं उतर सके हैं। संपादक के समय मूल को न जानते हुए भी उसके भावबोध को सहज बनाने में हमें काफी प्राणायाम करना पड़ा है। अस्तु, ऐसी चयनिकाओं के प्रकाशन के पीछे सभी का सम्मिलित प्रयास होता है जिसका अपना एक महत्त्व है अतःसभी ऐसे प्रयासों के प्रति हमारा आदरभाव है। प्रस्तुत संकलन के अवलोकन से पाठक पाएँगे कि भाषागत एवं भौगोलिक भेद होते हुए भी पूरे राष्ट्र की चिन्तनधारा एक ही दिशा में प्रवहमान है। वह चाहे पंजाब की समस्या हो या कश्मीर की, पूर्वांचल की क्षेत्रीय समस्याएँ हों या दक्षिण भारत की, प्रायः सभी भाषाओं की कहानियों में एक जैसी पीड़ा, एक जैसे सोच की अभिव्यक्ति है, एक जैसा स्वर आन्दोलित हुआ है। राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक एवं पारिवारिक समस्याएँ भी इन कहानियों के अवलोकन से लगता है, लगभग एक जैसी हैं। किसी विशाल राष्ट्र के इस भाषागत या भौगोलिक वैविध्य के होते हुए भी समान चिन्तन की यह धारा ही एक ऐसा तथ्य है जो उस राष्ट्र को प्राणवन्त बनाये रखता है, और यही हमें अभिप्रेत है।

पुनश्च ऐसी चयकनिकाओं के सम्पादन प्रकाशन में सामग्री-संकलन संबंधी अनेक समस्याएँ आती हैं व्यवधान खड़े होते हैं जिनका उल्लेख अभी हमनें अपनी पिछली चयनिकाओं में भी प्रसंगवश समय-समय पर किया है, उन्हें दोहराने का यहाँ औचित्य नहीं लगता। बस, जो कुछ भी प्रयास भर उपलब्ध हो सका, उसे प्रायः उसी रूप में हम पाठक के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। साहित्य के मर्मज्ञ समीक्षकों सुधी-पाठकों, अनुसंधेत्सुओं के लिए ऐसे संकलन कितने उपयोगी सिद्ध होते हैं, यह उन्हें ही देखना है लेकिन इतना निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि कालान्तर में भारतीय साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण संगर्भ-निर्देशिका के रूप ले सकेंगे।
प्रस्तुत संकलन के लिए हमें अपने चयन-मण्डल के सदस्यों, मूल लेखकों और अनुवादकों से तथा अन्य स्रोतों से जो सहयोग मिला है, उसके लिए हम उन्हीं के बहुत आभारी हैं। मुद्रण-प्रकाशन आदि कार्य की पूरी तत्परता से निर्वाह करने के लिए हमारे सहयोगी डॉ. गुलाबचन्द्र जैन का साधुवाद। सुन्दर आवरण-शिल्प के लिए श्री सत्यसेवक मुखर्जी को हमारा धन्यावाद।

ख़ाली सन्दूक

इतनी भोरहरि की बेला में साधारणतः कोई भी आदमी नींद तोड़ नहीं उठता। श्मशान के घाट के आस-पास जो अभी नये-नये आ बसे हैं उन आदमियों में से कोई इतने तड़के सोकर नहीं उठता।
तारादइ को झोंपड़ी के सामने वह जो छतनार1 पेड़ है, उसकी शाखाओं पर बैठे कुछ बुलबुल अपनी सुरीली आवाज में रह-रहकर चहक-चहक गा रहे हैं। अभी बस थोड़ी देर पहले ही पीली-पीली चोंच वाले छोटे-छोटे आकार के अनेक बगुलों की एक कतार कक्-कक् ध्वनि गूँजती हुई ब्रह्मपुत्र की पूरब दिशा की ओर उड़ गयी है।
श्मशान घाट पर जलाये मुर्दों की तीख़ी गन्ध के साथ, यहाँ से थोड़ी दूर पर उगे, गदराय़े काग़ज़ी नींबू के फूलों की गन्ध मिलकर एक अद्भुत प्रकार का वातावरण पैदा कर रही है।
अपनी झोपड़ी से बाहर निकलकर तारादइ ने लक्ष्य किया कि श्मशान घाट पर सूखी लकड़ियाँ बेचने वाला व्यापारी हयबर इतनी भोरहरि की वेला में आज भी उस हिज्जल की छाया में अविचल खड़ा है। काले रंग का जो हाफ़ पैण्ट वह पहने हुए है, उसके नीचे के ख़ाली भाग के खुले हिस्से में उसके दोनों पैर बिलकुल साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रहे हैं। उसके दांतो की दोनों पंक्तियाँ चूसी हुई ईख, रसविहीन सूखी खोइया के एक टुकड़े की भाँति झलमिला रही हैं।

उसे वहाँ खड़ा देखते ही तारादइ एक ही साँस में दौड़ती झटाक से अपनी झोंपड़ी के अन्दर समा गयी। मुँह-ही-मुँह में वह भुनभुना उठी :
‘‘क्या शेष रह गया है अब ? सूखी हुई हड्डियों को चाटने के लिए जो वह जो वहाँ खड़ा है।’’
1.इस प्रकार के पेड़ प्राय: निचली दलदली जमीन पर होते हैं।
उसके द्वारा कही गयी बातें बर्छी की चुभन की तरह रह-रहकर तारादइ के कानों में बजने लगी...
‘‘तुम्हारे उस महापियक्कड़ शाराबी ड्राइवर को जेल से छूटकर यहाँ आ पाने में अभी बहुत समय बाक़ी है, अभी जल्दी आने से तो रहा। और इसका भी क्या ठिकाना कि वहाँ से निकलकर आ पाएगा भी कि नहीं, बल्कि दो-दो आदमियों को उसने अपनी गाड़ी से धक्का देकर कुचलकर मार डाला है। शराब के नशे में चूर होकर की गयी यह हत्या प्रमाणित हो गयी है, ऐसा सभी बता रहे हैं। ऐसे में फिर और कौन है जो तुम्हारी सहायता करेगा ? हाँ, मैं ज़रूर तुम्हारी सहायता करूँगा। मैं हर सम्भव तुम्हारी सहायता करूँगा। बस केवल एक बार तू रात को अपना दरवाज़ा खुला छोड़ रखना। कम-से-कम इतना तो ख़याल रखना कि तु्म्हारे दोनों नन्हें-मुन्ने बेटे भूखों तो न मरें।’’
बस, इस दरवाज़े के खुला रखने की आशा में ही वह अँधेरे में, उजाले में, हर एक ऐसी वेला में जबकि उसे उसके खुले होने की उम्मीद रहती, आकर उस हिज्जल वृक्ष के नीचे दम साधे खड़ा रहता। और उसके सर के ठीक ऊपर हिज्जल की छतनार डालों पर बैठकर उसके फूलों का रस चखने वाले नाना प्रकार के पक्षी किचिर-मिचिर आवाज करते रहते हैं।
कुछ देर तक प्रतीक्षा कर चुकने के बाद तारादइ सावधानी से आगे बढ़ी और दरवाज़े के पास जाकर ध्यान से बाहर की ओर निहारा।

‘नहीं। अब इस समय हाफ़पैण्ट पहनने वाला वह आदमी हिज्जल के नीचे नहीं खड़ा है।’
श्मशान घाट के काठ के उस लम्बे-चौड़े भारी सन्दूक को जो वह उठा लायी थी, तो उसे लुक-छिपकर जो तमाम सारे लोग देखने-परखने उसकी झोपड़ी के इर्द-गिर्द आये थे, उन लोगों में मुर्दों को जलाने के लिए लकड़ियाँ देने वाला हयबर नाम का यह आदमी नहीं था।
झोंपड़ी की टाटी के विभिन्न छिद्रों से तारादइ ने उचक-उचककर बड़े ध्यान से आस-पास सर्वत्र बाहर की ओर देखा। कहीं अभी भी कोई छिद्रों के माध्यम से अन्दर देखने की कोशिश तो नहीं कर रहा ? किस किस़्म के आदमी हैं ये लोग ? ओह ! कैसे आदमी हैं ये ? कई-कई दिनों से कुछ भी खाने को न पाने वाले भुक्खड़ कुत्तों के झुण्ड-के-झुण्ड एक-दूसरे की देह को सूँघ-सूँघकर जहाँ कहीं मिले, पंजे की छाप मार देने की जुगाड़ खोजते रहते हैं। निर्लज्ज कहीं के ! देह पर बची लुगरी-चुथरी को नोच-खसोंटकर, चीर-फाड़कर, फेंक-फाँककर पूरी तरह से नंगा कर देने की फ़िराक में रहते हैं। अभी उस दिन चकरद इलाक़े के ज़मींदार साहब का निधन हो गया। अब उसके उपरान्त ज़मींदार साहब द्वारा व्यवहार में लाये गये सागौन के सुन्दर पलंग की जो प्राप्ति हो गयी तो उस सुन्दर-सुगन्धित काष्ठ के पलंग पर हलधर चौकीदार की वह पिशाचिनी-सी औरत क्या टाँग फैलाकर नहीं सोती ? लकड़ियाँ चीर-चीरकर किसी-किसी तरह मुँह का भात जुटा पाने वाले उस शुकुरा की बीवी इसी श्मशान घाट से खोज-बीन कर जो सुन्दर-सा हुक्का उठा ले गयी थी, क्या उसमें रखकर तम्बाकू नहीं पीती ? जल-जलकर राख हो चुके एक आदमी के शव की भस्म को कुरेद-कुरेदकर तो उसने सोने की दो अँगूठियाँ भी खोज ली हैं, और मजे़ से उनका इस्तेमाल कर रही है। अब उन सब चीज़ों को देखने तो कोई गया नहीं। कोई भी उन्हें खरोंच-खरोंचकर, नोंच-नोंचकर अपनी पैनी नज़रों से देखने गया नहीं। चमड़ी-चमड़ी उधड़ चुकी, अतिहीन-मलीन भिखमंगे उस चौकीदार की भूतनी पिशाचिनी-सी औरत श्मशान घाट पर उस जमींदार के महामूल्यवान बिस्तरे पर कैसे टाँगे पसारे सो रही है ? सो वह सब दृश्य देखने भी तो कोई नहीं जाता।

इस श्मशान घाट के इर्द-गिर्द जो ढेर सारे फोड़े-फफोंलों से छोटे-छोटे घर, घास-फूस की छाजनों वाले छान-छप्पर, टिनों की चद्दरों को जोड़कर अथवा कनस्तर के टुकड़ों को जोड़-मरोड़कर बनाये गये मकान आदि हैं, उन सबके-सब में श्मशान घाट पर फूँकने को आये मरे हुए आदमियों की नाना प्रकार की चीज़ें भरी पड़ी हैं। हाय-हाय रे, बड़े-बड़े रईसों नवाबज़ादों की बेशक़ीमती एक-से-एक सुन्दर-सुन्दर, बड़ी-बड़ी शौक़ीन चीज़ें यहाँ महादरिद्र भिखारियों के घरों में दाँत-मुँह फाड़े पड़ी हुई हैं। उन सबकी ओर तो कोई नहीं ख़याल करता और इधर उसके इस काले-कलूटे सन्दूक की ओर सभी की नज़रें गड़ी हुई हैं।
अन्दर आकर तारादइ एक बार फिर अपने सोये हुए दोनों बच्चों की ओर चाव से निहारा। उन बेचारों की छातियों की हड्डियाँ ऐसी सूख-सूखकर बाहर उभर आयी थीं कि उन्हें बड़ी आसानी से एक-एककर गिना जा सकता है। उनकी नाभियों के नीचे तक सरक आये जाँघिये कसाई के घर लटकाकर रखी गयी बकरियों की खालों से ढीले-ढाले हो गये हैं। मगर हाय-हाय रे वह, वह जो बीच में पड़ा है लकड़ी का भारी सन्दूक। एक यौवन-ज्वार से चंचल शक्ति की भाँति बीच में पड़ा हुआ है।

तारादइ ने बड़े प्यार से हाथों से सहला-सहलाकर उस सन्दूक को देखा। काठ के इस सन्दूक के ऊपर काट-काटकर जो नक्क़ाशी की गयी है, उसमें उकेरी हुई मौलसिरी की डालों में झूमते पुष्पगुच्छ बिलकुल जीवन्त मौलश्री-से बन पड़े हैं।
उन फूलों की शोभा पर वह ऐसी लट्टू हो गयी कि उसने उस काठ के उस सन्दूक को अपने गालों से लगाकर उन फूलों का स्पर्श किया।
और फिर उसके बाद ! उसके बाद अन्यान्य दिनों की तरह ही उस दिन भी वह उस मुँह बाये पड़े विशाल आकार के सन्दूक में हाथ-पाँव समेटकर समा गयी।
कितना आश्चर्यजनक है ! सचमुच कैसी अजीब हैरानी की बात है कि वह उस अमांगलिक सन्दूक में, जिसमें कि एक मरे हुए आदमी का मुर्दा रखकर श्मशान लाया गया था और मुर्दे को जला-वलाकर जिसे लाने वाले लोग यहाँ फेंक-पवाँर गये थे, उसी सन्दूक में एक अलौकिक सुख का अनुभव करते-करते वह बहुत देर तक बड़े आराम से निढाल पड़ी रही ! जिस समय उस श्माशन घाट से उठाकर वह इस सन्दूक को घर ले आयी थी, उस समय उसके अन्दर शेष बचे-खुचे खू़न से लथपथ कुछ बर्फ़ के टुकड़ों को उसमें से निकाल-निकालकर उसे बाहर भी फेंकना पड़ा था। परन्तु आज इस वेला में, ऐसी अलौकिक सुखानुभूति का उपभोग करते हुए मानों वे सब बातें उसे बिलकुल याद ही नहीं रह गयी थीं।

कुछ ही क्षणों बाद उस सन्दूक के भीतर-भीतर से तारादइ की फफक-फफक-कर रोने की आवाज सुनाई पड़ी।
ऐसे ही समय बीतता जा रहा था कि थोड़ी देर बाद बड़े ज़ोर-शोर की आवाज़ें करती हुई पुलिस विभाग की एक मोटर उसकी झोंपड़ी के सामने की ओर से पार हो गयी। साधारणत: कोई भी मोटरगाड़ी इस ओर नहीं फटकती। बस, केवल पुलिस विभाग की गाड़ियाँ ही इधर-चक्कर लगाती रहती हैं। गोली-बारी में गोली की चोट लगने से जो आदमी मारा गया था, उसकी लाश को सौंपने के समय जो हैण्डओवर का सर्टिफिकेट दिया गया था, वह सर्टिफिकेट ठीक दुरुस्त तो था न ? चौकीदार ने थाने में जाकर जो ख़बर दी थी, उसके अनुसार अस्पताल से हैण्डओवर सर्टिफिकेट पाये बिना ही कोई अपनी जारज-सन्तान के शव को चुपके-चुपके गाड़ गया है। इस तरह की खोज-बीन करने के उद्देश्य से ही सम्भवतः पुलिस का गाड़ियाँ चक्कर लगा रही हैं।
अपने मांसल शरीर का व्यवसाय करने वाली सातगाँव की वेश्याओं का व्यवसाय भी यहाँ खूब गमगमा उठा है। उनके व्यापार के क्रमशः बढ़ते जाने को देखते हुए ऐसा लगता है जैसे श्मशान घाट पर जितनी ही अधिक मात्रा में मृतकों के शरीर जल रहे हैं, उतनी ही अधिक मात्रा में उनके मांस का उत्ताप अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है। और इन सबके अलावा वे सारे शव जिनका कि कहीं कोई लेखा-जोखा नहीं हुआ, रजिस्ट्री करने की आवश्यकता ही नहीं समझी गयी ? सो बहुत सारी बातें हैं। जो ऐसी बहुत सारी बातों के लिए पुलिस की जीपें आती-जाती रहती हैं। और इन्हीं सबके चलते श्मशान-घाट की कमेटी के सदस्यों के साथ उनका तर्क-वितर्क, झगड़ा-फ़साद भी होता रहता है।

पुलिस की जुंगा जीप की आवाज से घबराकर तारादइ हड़बड़ाकर उठ बैठी। काठ के इस सन्दूक के साथ उसकी अपनी सत्ता का इस प्रकार ओत-प्रोत भाव से विजड़ित हो जाना ? अरे जाने भी दो इन सब बातों को, इन सब बातों को...। अरे यह क्या ? काठ के इस सन्दूक में सिन्दूर की छापें लग गयी हैं और केशों के खोंपे में जो फूल गूँथ रखे थे, वे अब मुरझाकर छूटे-छिटके यत्र-तत्र पड़े हैं ! अभी बीती रात की हो तो बात है। घर में चिथड़े-चिथड़े हो पड़ी कपड़ों लत्तों की ढेरी में से छाँट-छूटकर बड़ी मुश्किल से उसने अपने विवाह की वेला में पहने गये ब्लाउज को निकाला था। जिस ब्लाउज को पहनकर नयी-नवेली दुल्हन सजी थी, उसे ही छाँटकर पहना था। दरअसल उसकी गृहस्थी में जो ब्लाउज बचे थे उनमें से बस वही एकमात्र ब्लाउज था, जो फटा हुआ नहीं था, अन्यथा सारे-के-सारे फट-फुटकर चिन्दी-चिन्दी हो गये थे। केरासिन (मिट्टी) के तेल की ढिबरी के उजाले में, अपने घर के आइने में आँखें गड़ा-गड़ाकर निहारते हुए आज से दस वर्ष पहले जैसे अत्यन्त आग्रह से सजी-सँवरी थी, वस्त्र-आभूषण से सँवरकर आकुल-व्याकुल हो अपनी केशराशि का विन्यास किया था, ठीक वैसी ही व्याकुलता से उसने बीती रात को भी अपनी केशराशि कंघी से सँवारी थी। कंघी से बाल झाड़ते-झाड़ते उसे इस बात का तनिक भी होशो-हवाश नहीं था कि रह-रहकर कंघी की चोट उसके कन्धे पर और गर्दन की हड्डियों पर तड़ातड़ पड़ती जा रही है। सुकोमल बदन की सुचिक्कण और मुलायम माँसलता से ढँकी हुई किस विशेष जगह पर ये हड्डियाँ दबी पड़ी होती हैं, इस सम्बन्ध में इससे पहले कोई धारणा नहीं थी। माँस-पेशियाँ मांस-पेशियाँ ही झलकती थीं उसकी समूची देह यष्टि में। परन्तु अब, अब तो यहाँ रहने वाले लोग-बाग प्रायः ही यह कहते रहते हैं कि इस श्मशान क्षेत्र में रहने आये अन्य जीवन्त अस्थि-पंजरों के बीच वह भी एक अस्थि-पंजर के रूप में ही रूपान्तरित हो गयी है।

उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे आज की रात उसने अपने तन-मन के अतिशय अभिलषित प्रेमी प्राणेश्वर के साथ एक ही बिस्तरे पर सोकर बितायी हो। अरे हाय रे भगवान ! यह कितनी अजीब बात है, कैसा अद्भुत अचम्भा है यह कि काठ के इस सन्दूक में उसके सिर के बाल के गुच्छे, तेल, सिन्दूर..सभी कुछ के दाग़ बिलकुल साफ़-साफ़ लगे स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं !
अरे रे, अभी कोई और फिर ताँक-झाँक रहा है क्या ? बीते कुछ दिनों से इधर लगातार सब घात लगाकर दरवाज़े की दराज़ों की फाँक से, झरोखे-रोशनदान से, घर की टाटी में जगह-जगह कट-पिट जाने से बने छिद्रों से, जहाँ कहीं से भी बन पड़ता है वहीं से झुक-झुककर या उचक-उचककर बराबर पैनी निगाहों से ताक-झाँक करते ही रहते हैं। वहाँ उसके क़रीब में ही महाघोर निद्रा में सोये पड़े उसके दोनों बच्चे मानो हिचकी भर-भरकर, अत्यन्त डरे-डरे-से, सहमे-सहमे, दुखी हो-हो कह रहे थे-देखो-देखो, बाहरी आदमी बराबर हमारे घर के अन्दर ताकते-झाँकते ही रहते हैं।
आदमी की लाश जिस सन्दूक में रखकर लायी गयी थी, ऐसी टिकठी बनाये गये सन्दूक में सोती है...छिः-छिः-छिः। भला ऐसा भी कोई करता है ? फेंक दे अब भी फेंक दे इस अपवित्र कलंकित संदूक को...!

संदूक के भीतर सिमट-सिकुड़कर फिर लेट गयी तारादइ। आह, यह अनुभूति-एक अद्भुत प्रकार की, अन्यान्य अनुभूतियों से बिलकुल ही निराली एक अनन्य अनुभूति है यह...।
अचानक तभी किसी हष्टपुष्ट बलवान आदमी ने घर के दरवाज़े के बन्द किवाड़ो पर बड़े जोर से अपने पैरों से धक्का मारा। घबराकर तारादइ बड़-बड़ाकर उठ खड़ी हुई। फिर बड़े ध्यान से कान पारकर सुना और परखा—ओह...कोई बात नहीं..यह तो उसके उस बड़े भाई की पगचाप की आवाज़ है जो पुलिसविभाग में काम करता है।
‘‘तारादइ ! अरी ओ तारादइ।’’
तारादइ ने जैसे किवाड़ खोले कि वैसे ही पुलिस की साज-पोशाक में सजा-धजा एक जबरजंग हष्ट-पुष्ट नौजवान घर के अन्दर दाखिल हो गया। भरा-पूरा चेहरा, नाक के नीचे बड़ी-बड़ी मूँछों का मोटा गुच्छा, भारी-भारी जूते और हाथ में एक मजबूत बेंत का डण्डा। सोमेश्वर था वह। झोंपड़ी के अन्दर जाते ही, किसी भी प्रकार की भूमिका बाँधे उसने कहा-
‘‘तेरी खोज ख़बर लेने, कुशल क्षेम जाँचने-बूझने नहीं आ पाया। बुरा मत मानना, फुरसत ही नहीं मिली। अब आज इधर ड्यूटी पड़ी है। पता चला है कि सातगाँव की मशहूर वेश्याओं ने यहाँ बक़ायदा दफ़्तर ही खोल दिया है। बताओ भला, अब यहाँ भी उनकी दुकान चमक उठी है। धर्म नाम की तो अब कोई चीज़ बची ही नहीं रह गयी। एकदम से विला ही गया धर्म। अभी उस दिन की ही तो बात है। उस दिन इस इलाक़े के वे बड़े नामी गिरामी बरुआ साहब परलोक सिधार गये। उनके मृत शरीर को, अर्थी सजाकर उनके दोनों सुपुत्र फूँकने के लिए यहाँ, श्मशान पर ले आये। उनमें से एक बेटा जब नहाधोकर, शिरो मुण्डन कर, परम पवित्र हो, देह पर मात्र एक अंगौछा लपेटे, चिता पर रखे पिता के शव में मुखाग्नि देने में व्यस्त था, तभी उस भीड़-भाड़ में जाने कब घात लगाकर दूसरा बेटा चुपके से उस मशहूर वेश्या के कोठे में जा घुसा, इसका कोई अन्दाज़ भी नहीं लगा सका। ऐसा ज़माना आ गया है अब, समझी न, ऐसा ज़माना।’’

अभी इतनी अपनी बात कह पाया था कि अचानक ही, जैसे सामने विषैला नाग आ जाने पर आदमी एक धक्का खाकर पीछे हट जाता है, ठीक उसी तरह, वह उछल कर पीछे आ खड़ा हुआ। और फिर उसके बाद तो कुछ देर तक सोमेशेवर नक्क़ाशीदार उस लम्बे-चौड़े प्रकाण्ड सन्दूक की ओर आश्चर्यचकित हो लगातार एकटक निहारता रह गया।
सन्दूक के बिलकुल पास सट कर खड़े होकर उसने अपने बेंत के डण्डे से जगह-जगह कुछ समय तक उस सन्दूक को ठोंका-उठाया, निरखा-परखा। फिर प्रदक्षिणा करने के अंदाज़ में उसने उसके चारों ओर चक्कर लगा-लगाकर भी गौर से देखा-भाला। और फिर उसके बाद तो आलथी-पालथी मारकर वह उसी सन्दूक पर जा बैठा। अपनी पतलून की जेब से रुमाल निकालकर सोमेश्वर ने अपनी दोनों आँखें रगड़-रगड़ कर साफ़ की। अभी थोड़ी देर पहले जो आदमी बड़ी ऐंठ के साथ बिना किसी चीज़ की परवाह किये धड़-धड़ाकर घर के अन्दर घुस आया था, अब उसी आदमी की दशा लड़ाई के मैदान में हारे हुए सैनिक जैसी हो गयी। बिलकुल हारा-थका, आस-पास की स्थितियों से एकदम अनजान। तारादइ की ओर बड़ी मासूमियत से देखते हुए उसने हिचकाते हुए कहा, ‘‘घर में कुछ पानी-वानी लाकर रखा हुआ है या नहीं ? अब लाओ दो भी तो, मुझे एक गिलास पानी तो पिला दो।’’

गिलास का पानी वह आनन-फानन में गटागट पी गया। और फिर उसके बाद अपने सिर को और नीचे की ओर झुकाकर उसने कहा, ‘‘मैं जो सोच रहा था, अन्ततः वही बात सच निकली। छोटे मालिक का शव ठीक इसी काठ के सन्दूक में रखकर ले आया गया था। हवाई अड्डे से उतरकर उनके परिवार के लोग जब इधर आ रहे थे, तो उन लोगों के साथ-साथ थोड़ी दूर मैं भी आया था। हाँ, हाँ, यही तो है, यही है वह सन्दूक।’’ इतना कहकर अचानक सोमेश्वर तारादइ की ओर मुड़ा और उसकी ओर बिलकुल सीधी नज़रों से देखते हुए पूछ बैठा, ‘‘तू तो उन लोगों के घर में घरेलू नौकरानी के रूप में काम करती रह रही थी न ? छोटे मालिक के पिता जी जब भयंकर रूप से बीमार हुए तो तुमने उनके खून से लथपथ कपड़ों को धो-धोकर कितनी मेहनत से सेवा की थी-यह क्या किसी से छिपा है ? हर कोई जानता है इन बातों को। और छोटे मालिक ? हाय-हाय रे..’
इतना कहते-कहते वह महाविशालकाय, अतिशय कठोर दीखने वाला पुलिस का सिपाही एक प्रकार से जैसे फफक-फफक कर रोने लगा। भावविह्वल हो हिचकते-हिचकते कहने लगा-
‘‘तेरे साथ तो बड़ी घनिष्ठ प्रीति थी छोटे मालिक की। तुमसे ही शादी करवाने के लिए वे इस कदर व्याकुल हो गये थे कि उसके लिए हर क़िस्म के बाधा-विरोध का सामना करने के लिए उन्होंने कमर कस ली थी। किसी भी परिस्थिति में वे अपने फैसले से टस से मस नहीं हो रहे थे। उनकी इस जिद के चलते मालिक के घर-परिवार में कोई कम झगड़ा-बखेड़ा मचा था। बात क्रमशः बिगड़ती ही चली गयी और उसी के चलते अन्ततः उनका स्थानान्तरण असम के उत्तरी सीमान्त क्षेत्र में हो गया। और फिर यह दुर्घटना घटित हो गयी।’’

तारादइ यकायक पूछ बैठी, ‘‘किस चीज़ ने धक्के देकर उन्हें इस तरह मार डाला ?’’
‘‘एक जीप गाड़ी ने। ओह, कैसा चमचमाता हुआ सुन्दर मुख-मण्डल था उनका ! दुर्घटना में घायल हो अकाल मृत्यु होने के अनन्तर जब उनका शव यहाँ लाया गया तो उनके शव को बर्फ़ के जिन टुकड़े से ढँके रखा गया था, वे ख़ून के थक्कों से लथपथ हो गये थे। ख़ून सने उन बर्फ से टुकड़ों को हटा-हटाकर मैंने खुद अपने इन दोनों हाथों से शव को उठाकर चिता पर रखने में सहायता की थी। हे भगवान, एक सुन्दर और बलिष्ठ युवक का ख़ून था वह, मेरे इन दोनों हाथों को पूरी तरह से...’’ तभी उसकी निगाह मिट्टी की मूर्ति सी अविचल-स्तम्भित खड़ी तारादइ की ओर पड़ी और फिर वह अपना वाक्य पूरा न कर सका। यकायक घोर शान्ति छा गई। उन दोनों के बीच एक दुर्लध्य रहस्यमय खाई की तरह वह विशाल काला सन्दूक पड़ा हुआ था उस गहरी खाई में धँस कर...वे दोनों के दोनों परस्पर एक-दूसरे से बिलकुल अनजान-अनचीन्हे हो गये।
सोमेश्वर उठकर खड़ा हो गया। फिर एक नाटकीय भंगिमा बदलते हुए गुरु गम्भीर आवाज में गरजकर बोला, ‘‘अरे, ओ तारादइ ! चाय बगीचे के एक कुली की बेटी से चाय बागान के साहब द्वारा शादी-ब्याह करने का ज़माना तो तभी समाप्त हो गया। चाय बागान के कुली की बेटी से जिस अंग्रेज साहब जानकिन्स साहब ने विवाह किया था, उन जानकिन्स साहब की दफ़नाई गयी हड्डियों पर तो अब जंगल-झाड़ जम चुके हैं। बड़े मालिक साहब का बेटा वह छोटा मालिक तुमसे विवाह करने के लिए प्रतिश्रुत हुआ था। साथ-साथ जीने की क़समें खाई थीं। तुम्हें हृदय से प्यार करता था। परन्तु कर पाया वह सब ? जो-जो सब्जबाग़ दिखाये थे, उसे यथार्थ रूप दे पाया वह ? तुम्हें इस झोपड़ी से उठाकर टीन-सीमेण्ट-ईट-पत्थर से बने उस महाप्रासाद में जगह दे पाया वह ?’’

तारादइ की छाती चीरकर जैसे एक करुण आवाज बरबस बाहर निकल आयी-‘‘मुझसे विवाह कर पाने में असफल रह जाने से वह इतना आहत हुआ था, कि आज इतने वर्ष बीत जाने पर भी उसने आज तक अपना विवाह करवाया ही नहीं। और मुझे तो ऐसा लगता है कि अगर वह जीवित होता तो भी जीवन भर वह और कहीं विवाह की बात भी नहीं करता।’’
...अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट वह पुलिस का सिपाही तारादइ के मुख की ओर एकटक निहारता रह गया। परन्तु उसके तुरन्त बाद ही वह अपने कठोर डण्डे को जमीन से ज़ोर-ज़ोर से पटक-पटककर एक भीषण हुंकार भरते हुए खड़ा हो गया। और फिर तो तारादइ को धिक्कारते हुए उसकी नादानी पर खीझते हुए वह बेरोक-टोक उस पर व्यंग्य वर्षा करने लगा, ‘‘मालिक ठाकुर के उस बेटे के समक्ष स्त्री जाति के अपने सर्वस्व का समर्पण कर देने के समय तू जैसी मूर्खा था, अभी इतना समय बीत जाने पर भी, आज की इस घड़ी में भी तू ठीक वैसी ही महामूर्खा बनी हुई है, बिलकुल जस-की-तस। तुम्हारी बुद्धि में तनिक भी सुधार नहीं हुआ।...परन्तु मैं तो पुलिस विभाग में काम करने वाला, सर्वथा सजग रहने वाला एक चतुर सिपाही हूँ-इस घटना को सुनकर उसकी एक-एक बात की पक्की खोजबीन कर इस कहानी की भीतरी बातों की सही-सही जानकारी हासिल कर पूरी तरह से तैयार होकर ही आया हूँ।...’’

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