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कविता संग्रह >> वह तान कहाँ से आई

वह तान कहाँ से आई

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12269
आईएसबीएन :9789350485606

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शास्त्रीजी के गीत गीत नहीं गीता है। वे शब्द नहीं मंत्र लिखते रहे।

जानकीवल्लभ शास्त्रीजी ने कविता की नई आत्मा गढ़ी है। इस आत्मा में प्रकाश और लय की भाषा निहित है। अमृत विचारों से अपने साहित्य को श्रीसंपन्न करते हुए आशा और विश्‍वास का सूर्य उगाने का काम इन्होंने लगातार किया। अडिग आस्था की स्थायी भाव-संपदा से भरी हुई इनकी कविताएँ पीढि़यों को सांस्कारित करने की अकूत क्षमता का हुनर, भाषा की तमीज और कहने का कौशल कैसे विकसित हो इसका ज्ञान कराती इनकी रचनाएँ सतत प्रवाहित एक सम्यक् सम्वादी की भूमका का निर्वाह करती है। कविता को कविता की दृ‌ष्‍ट‌ि से देखने और पढ़ने के बाद ही समझने का प्रयास बहुत दूर तक सफल होता है। शास्त्रीजी के शब्द ही नहीं चिहन भी बोलते हैं। संघटना ही नहीं संरचना भी संवाद करती है। कविता में अंतर्निहित लय का संस्पर्श अर्थ को विस्तार देता है। बिना लय से जुड़े हुए शास्त्रीजी की रचनाओं को पूरी इमानदारी और गहराई से नहीं समझा जा सकता है। शास्त्रीजी के गीत उनकी आत्मा की सृजनात्मक बेचैनी की तीव्र लयात्मक प्राण-चेतना है। उनका सृजन कोई उच्छवास नहीं कि अनछुआ रह जाए। वे तो गान में प्राण की झलक देखने के आग्रही हैं। सुप्रसिद्ध गीत ‘बाँसुरी’ की यह पंक्‍त‌ियाँ— ‘‘मसक-मसक रहता मर्म-स्थल/मर्मर करते प्राण/कैसे इतनी कठिन रागिनी/ कोमल सुर में गाई/किसने बाँसुरी बजाई?’’ शास्त्रीजी की रचना-प्रक्रिया को उजागर करती है। शास्त्रीजी के गीत गीत नहीं गीता है। वे शब्द नहीं मंत्र लिखते रहे।

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