नई पुस्तकें >> अव्यक्त अव्यक्तनवीन मिश्र
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अभिव्यक्ति किसी भी कला को और उसकी ज्यादातर आपूर्ति उसके स्वयं के परिवेश की परिकल्पना से होती है। जो भी व्यक्ति के साथ होता है, उन सभी अनुभवों को कमोबेश क्रम से प्रस्तुत करता है और वह साहित्य हो जाता है। कई बार स्वयं को लगता है कि क्या यह सचमुच मैंने लिखा है ? एक मोड़ पर आकर वह दैवीय शक्ति से अनुग्रहित हो जाता है। मैंने स्वयं लिखा है कि कविता किसी सुदूर तारागणों के पास से उन्हीं की धूल से अटी धरती तक पहुँचती है फिर वह मुझमें बस जाती है कविता मेरी हो जाती है बस कविता हो जाती है। मेरा योगदान सिर्फ इतना है कि मैंने ईमानदारी से उन क्षणों का, उन सम्बन्धों का चित्राण किया। वहीं लिखा जो सत्य था, जो पवित्रा था और जो लेशमात्रा भी कृत्रिम न था।
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