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ये जीवन है

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1204
आईएसबीएन :81-263-0902-4

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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।


प्रथम और अन्तिम
कोई एक-आध दिन नहीं, पूरे साढ़े चार वर्ष। हाँ, पक्के साढ़े चार वर्ष। घुटन-सी महसूस होती, फिर भी हिसाब लगाया प्रवीर ने मन-ही-मन, ठीक साढ़े चार वर्ष।
मगर पूरे चार साल छ: महीने बाद अचानक रात के बारह बजे किसी रेलवे स्टेशन के  वेटिंगरूम में अनादि से मुलाक़ात हो जाएगी और होते ही अनादि उस पर झपटकर उसकी शर्ट  का कॉलर पकड़ लेगा, यह तो प्रवीर की कल्पना में भी नहीं था।

अगर प्रवीर ने अनादि को इतनी तीखी रोशनी में न देखा होता तो शायद डाकू या गुण्डा समझकर चीख उठता। मगर ऐसी नौबत नहीं आयी क्योंकि प्रवीर वेटिंगरूम के दरवाजे की तरफ मुँह करके बैठा था और उसके पीछे ही जल रही थी रेल कम्पनी की कृपाधन्य चमकदार रोशनी।
हाँ, आजकल प्रथम श्रेणी के यात्री की सुविधाओं में अनेक कटौती होने के बावजूद उनके लिए बने विश्राम-कक्ष आज भी पूर्व समारोह की थोड़ी बहुत साक्षी बनकर टिके हुए हैं।

खैर, अनादि के प्रविष्ट होते ही उसे स्पष्ट देख पाया था प्रवीर। पश्चिम बंगाल से बहुत दूर सीमान्त का स्टेशन था यह। आखिरी गाड़ी रात के ग्यारह बजे आ चुकी थी। अब पूरे स्टेशन में निस्तब्धता थी। देखकर कोई नहीं कह सकता था कि सिर्फ घण्टे-भर पहले भी यहाँ कितना शोरगुल मच गया था। ऐसी निस्तब्धता छायी थी जैसे कोई निश्चल शव अन्तिम संस्कार की अपेक्षा में पड़ा हुआ हो।

फिर एक बार चंचलता उभरेगी रात के अन्तिम छोर पर। रात भर के सोये हुए इंजन को ठूँसकर भर दिया जाएगा कोयले और पानी से, देख लिया जाएगा सारे कल-पुर्जों को कि कहीं कोई गड़बड़ी न हो, प्वाइण्ट्समैन दौड़ेगा, गार्ड दौड़ेगा, स्टेशन मास्टर चहल-कदमी करेगा, कुली जमादार सब दौड़ेंगे, फिर सीटी देगा इंजन। अभी जो लोग बक्से-बिस्तर की तरह ही ढेर होकर वेटिंगरूम में या इधर-उधर खुले प्लेटफॉर्म पर सिर छुपाकर पड़े हैं, उनमे जाग उठेगी प्राण-चेतना। रात समाप्त होते ही सब दौड़ेंगे अपने गन्तव्य स्थल की ओर। कोई भागेगा बस पकड़ने के लिए तो कोई हवाई अड्डे की ओर दौड़ेगा और भी लम्बी यात्रा का संकल्प लेकर।
साफ-सुथरे, धुले रेल के डिब्बे फिर से भर जाएँगे नये सामान और नये लोगों से।

मगर अभी ऐसा कुछ लगता नहीं। अभी सब निश्चल, निस्तब्ध, निर्जीव।
केवल प्रवीर सजग बैठा था, साथ काफ़ी पैसे रखे थे, इसीलिए। व्यवसाय के काम से श्रीनगर जाना था उसे। सुबह होते ही हवाई अड्डा पहुँचना था। मगर अनादि अबतक कहाँ था, इसी ट्रेन से तो आया होगा?
आश्चर्य की बात थी। दोनों एक ही ट्रेन से आये थे-प्रवीर और अनादि। मगर एक बार भी मुलाकात नहीं हुई। पता नही क्यों, दो-दो बार प्रवीर ने जालन्धर और अमृतसर स्टेशन पर पूरे प्लेटफ़ॉर्म के चक्कर काटे थे उस एजेण्ट की खोज में, जो उससे मिलने वाला था। नहीं तो हवाई जहाज से ही जा सकता था।
अगर प्रवीर हमेशा की तरह आकाशमार्ग का ही चयन करता।
फिर तो कम-से-कम इतने रुपये लेकर सजग बैठे तो नहीं रहना पड़ता। इस भयंकर नाटकीय पल का सामना कभी भी नहीं करना पड़ता। दो-दो भरपूर जिन्दगी इस तरह हमेशा के लिए समाप्त तो न हो जाती।
प्रवीर अपने धन्धे पर निकल जाता अनादि अपने रास्ते पर। पिछले साढ़े चार वर्षों की तरह ही कट जाते और कितने ही अनगिनत वर्ष, शायद पूरी जिन्दगी ही कट जाती एक-दूसरे की सूरत बिना देखे-किसी ज़माने में जिनका दिन में कम-से-कम एक बार मिलना चाँद-सूरज निकलने के जैसे ही सुनिश्चित था। ऐसी ही दोस्ती थी किसी ज़माने में सुखी, गृहस्थ, रोजगारी अनादि और अविवाहित, बेकार युवक प्रवीर की।
अनादि शायद ही कभी प्रवीर के किराये के कमरे में मिलने जाता, प्रवीर ही अनादि की सुखी गृहस्थी का नित्य अतिथि था। यद्यपि आज के इस सूट-बूट, कीमती घड़ी और चश्मे से सुसज्जित प्रवीर को देखकर उस पुराने भावुक कवि प्रवीर को पहचानना मुश्किल है, जिसके अधमैले कुर्ते के बटन खुले रहते थे और पैरों मे होते थे सस्ते चप्पल।
अनादि को एक पल भी नहीं लगा उसे पहचानने में। और पहचानते ही साढ़े चार साल पहले की वह भयंकर स्मृति ताज़ा बनकर अनादि को डस गयी और उस जलन से होश-हवास खोकर प्रवीर की कमीज़ का कॉलर दबोच लिया अनादि ने।
एक झटके में प्रवीर ने छुड़ा लिया अपने-आप को ओर दबी आवाज़ में गरज कर बोला, ''अनादि भैया!''
बड़ी अजीब बात थी।
वही पुराना सम्बोधन उसके होठों पर आ गया ऐसे कठिन पल में भी,
अनादि एक बार फिर उसके कॉलर को दबोचने के लिए हाथ बढ़ाकर, क्रोधित आँखों से उसे घूरकर बोला, ''खबरदार! पुराने सम्बन्ध को खींचने की कोशिश मत करो। अपने भगवान को याद कर लो।''
प्रवीर का लम्बा, सुगठित शरीर एक झटके में फिर अनादि की पकड़ से बाहर आ गया। फिर जेब में हाथ डालकर प्रवीर ने भी ताव भरकर कहा, '' 'ईश्वर' को याद करने की ज़रूरत तुम्हें भी पड़ सकती है, अनादि भैया। मेरे पास कम्पनी के बहुत सारे रुपये हैं और उसके बचाव के लिए शस्त्र भी है जेब में।''
अनादि हाँफते हुए सामने पड़ी बेंत की आरामकुर्सी पर बैठ गया। घृणा और धिक्कार भरकर भयंकर स्वर में बोल उठा, ''कावेरी कहाँ है?''
''कावेरी!'' ऐसे चौंका प्रवीर जैसे बिजली का झटका लगा हो। ''क्या कहा तुमने? कावेरी कहां है? यह तुम पूछ रहे हो? मुझसे?''
अनादि फिर खड़ा हो गया, बोला, ''फिर किस शैतान से पूछूँ?'' प्रवीर एकाएक स्तब्ध हो गया। फिर बोला, ''तुम कावेरी की खबर नहीं रखते?''
अनादि फिर बैठ गया। वह हाँफने लगा, काँपने लगा। कड़वी आवाज़ में बोला, ''जो परायी स्त्री को भगाकर ले जा सकता है, उसके लिए ऐसा अभिनय स्वाभाविक है।'' उसके स्वर में वही कड़वाहट थी जिस कड़वाहट के साथ चार-पाँच साल पहले वह कावेरी से कहता था, ''जो औरत पर-पुरुप के प्रेम में रँगी हो, उसके लिए यह अभिनय स्वाभाविक है।''

हाँ, शुरू से ही कावेरी पर सन्देह था अनादि को। उसी दिन जब दुल्हन बनी कावेरी ने कहा था, ''ये ही प्रवीर राय हैं? कितनी खुशी की बात है।''
''क्यों, खुशी किस बात की?'' झट से भौंहें तानकर पूछा था अनादि ने। ''वाह! खुशी क्यों न हो? आपके इतने घनिष्ठ मित्र है और सुना दूर के रिश्ते में भाई भी लगते हैं। तब तो अकसर मुलाकात होगी उनसे। देख सकूँगी, बात कर सकूँगी और दिल हुआ तो उनकी नयी कविताएँ छपने से पहले ही मैं पढ़ लिया करूँगी। है न खुशी की बात? मेंरी सहेलियाँ सुनेंगी तो एकदम हैरान हो जाएगी।''
''ऐसी बात है? तो ये श्रीमान प्रवीर बाबू क्या रवि बाबू के समकक्ष हैं?'' व्यंग्य भरी हँसी बिखरी थी अनादि के होठों पर।
नयी दुल्हन, पति के प्यार में विभोर अचानक इस परिवर्तित स्वर को भाँप न सकी। बोली, ''अहा! टैगोर का समकक्ष न हो तो कोई कवि नहीं होगा क्या? सभी एक साँचे के कवि होंगे क्या? प्रवीर राय तो आधुनिक कवि है।''
''जो अभागे, नालायक लिखने की क्षमता नहीं रखते मगर लेखनी पकड़ने का शौक रखते हैं, वे ही आधुनिक कवि बन जाते है।" कहकर उस दिन बात वहीं समाप्त कर दी अनादि ने।


मगर जो काँटा दिल के बीचोंबीच चुभ गया उस दिन, निकला नहीं फिर कभी। नयी-नवेली दुल्हन की आनन्द उद्भासित मुखछवि भी इतनी पीड़ादायक हो सकती है, पल भर पहले भी अनादि को पता न था।
मगर प्रवीर से अनादि का लगाव आन्तरिक था। रिश्ता कितना भी दूर का हो, बचपन का यह मित्र, बचपन का सहपाठी अनादि के काव्य-रसहीन, रूखे-सूखे मरु-हृदय में एक स्नेह-सरिता बना गया था। उसके प्रति नव-विवाहिता पत्नी की मुग्ध प्रशंसा दिल पर काँटों का पौधा तो बो गयी फिर भी स्नेह-सरिता सूखी नहीं। मन की गति बड़ी विचित्र होती है। इसकी लीला भी अजीब है। अनादि के ही आग्रह से प्रवीर उसके घर नित्य-अतिथि बनने लगा।
अनादि के निकट सम्बन्धी कम ही थे। जो विवाह के उपलक्ष्य में आये थे वे भी बाढ़ के बाद उसके पानी की तरह ही विवाह के दूसरे दिन ही लौट गये। बचे केवल अनादि और उसकी नव-परिणीता वधू कावेरी।
अतः अनादि प्रवीर की शरण में आया निस्संग कावेरी को थोड़ा संगदान करने का आवेदन लेकर। ''तू तो आकर भाभी से कुछ गप-शप कर सकता है। बेचारी अकेली रहती है। खासकर शाम को। तू तो जानता है, मेरे घर लौटते रात के आठ-नौ बज जाते हैं।''
''तुम्हारे जैसे दफ्तर-प्रेमी लोगों को शादी नहीं करनी चाहिए।'' हँसकर प्रवीर बोला, ''तुम नौ बजे घर लोटोगे और तब तक मैं बकता रहूँगा? भाभी को इससे खुशी मिलेगी ऐसा लगता तो नहीं।''

''नहीं लगता?'' अनादि हँसकर बोला, ''आज की बक-बक कल की गुटर-गूँ हो सकती है, कौन जाने।''
फिर दबी आवाज़ में बोला, ''दरअसल बात क्या है बताऊँ? तेरी भाभी सुनसान घर में अकेली रहती है और नगेन...मतलब वह नौकर, समझा न?''
''घर में गहने भी तो कम नहीं हैं। तेरी भाभी तो कहती है, शाम के समय काम के बहाने नगेन जब आस-पास चक्कर काटता है तो उसे डर-सा लगता है। बड़ी डरपोक स्वभाव की है, अब देख रहा हूँ।''
प्रवीर ने जोरदार विरोध किया, ''नहीं अनादि भैया, ऐसी हालत में भाभी को तुम कभी भी डरपोक नहीं कह सकते। भाभी तो अभी नयी दुल्हन हैं, कोई भी औरत इस हालत में ऐसे ही डर जाती और घबराती।''
''अच्छा?'' एक कठोर मुस्कान छा गयी अनादि के चेहरे पर। ''तब तो तुम्हारी भाभी ने सोच-समझकर एक अच्छा बहाना निकाला है, है न?''
प्रवीर ने इस 'बहाना' शब्द का दूसरा अर्थ किया। उसने सोचा इसी डर के बहाने पति को जल्दी घर बुलाना चाहती होगी। इसलिए हँसकर बोला, ''बहाना
बनाना ही स्वाभाविक है मगर कारण भी अनदेखी करने लायक नहीं है। मगर तुम एक काम कर सकते हो, ''नौकर छुड़ाकर दिन-रात के लिए एक नौकरानी रख लो।'' 
''सुन लो बात'' प्रवीर के सुझाव को सिगरेट के धुएँ की तरह उड़ा दिया अनादि ने। ''नौकरानी क्या काम कर लेगी? ज्यादा-से-ज्यादा बर्तन माँजना, कपड़े धोना, बस? बाहर के काम के लिए आदमी चाहिए कि नहीं? मुझसे तो कुछ होता ही नहीं। फिर नगेन है भी कितना एक्सपर्ट! उसके हाथ की बिरियानी, फिश-फ्राई, कटलेट खाने से लगता है, किसी बड़े होटल का खाना खा रहा हूँ। ऐसे काम का आदमी तो तपस्या करके भी नहीं मिलता है। आदमी दरअसल बुरा भी नहीं है। तेरी भाभी तो यूँ ही डरती है। बात दरअसल यह है कि वह चाहती है कि शाम को कोई साथ रहे।''
''कोई साथ रहे?'' हँसकर 'कोई' शब्द पर जोर देकर प्रवीर बोला, ''कोई भी रहने से चलेगा, ऐसा कहकर भाभी पर तुम अन्याय कर रहे हो, अनादि भैया।'' अचानक ही ठहाका लगाकर हँस पड़ा अनादि। ''अनादि सेन की राय कभी गलत नहीं होती। मगर तुझे क्या तकलीफ़ है? शाम को तेरे पास काम ही क्या होता है, कविता-लेखन? वह तो यहाँ बैठकर भी हो जाएगा। बल्कि यहाँ अधिक प्रेरणा मिलेगी तुझे।''
''नहीं, कविता लिखने के लिए मरा नहीं जा रहा हूँ मैं,'' हँसकर प्रवीर ने कहा, ''कवियों को तुमने समझ क्या रखा है?''
प्रवीर की अक्ल से जो शंका के बादल झाँक रहे थे, अनादि के निर्मल, उदार व्यवहार के आगे वे टिक न सके। बल्कि सोचकर स्वयं ही लज्जित और कुण्ठित महसूस करने लगा।...सोचा, इस सरल स्वभाव अनादि से कैसे कहूँ कि मुझपर भी इतना भरोसा क्यों? तुम्हारे उस नौकर से मैं कम खतरनाक हूँ क्या?
मगर कह नहीं सका। अत: प्रवीर की हर शाम कटने लगी अनादि के घर। परन्तु अनादि के हृदय के इस अनोखे रहस्य को जान पाना सम्भव था क्या? कम-से-कम कावेरी तो नहीं जान पायी थी। वह समझ नहीं पाती कि जिस प्रवीर को लेकर मन में इतनी ईर्ष्या है, इतना अविश्वास है, उसे ही क्यों इतना सादर निमन्त्रण, क्यों प्रतिदिन उसे नगेन के हाथ का फ़र्स्ट क्लास खाना खिलाने के बहाने हर शाम रुक जाने का हठ करना?
यह प्रश्न हज़ारों बार किया है कावेरी ने अपने-आप से, अनादि से, पर कोई ठीक-ठाक उत्तर नहीं मिला।
जवाब क्या दे, स्वयं अनादि भी जाने तब न, हो सकता है नौकर के बारे में मन में जो शंका थी उसी कारण या ऐसा सोचता होगा कि प्रवीर के द्वारा कोई बड़ा नुकसान नहीं हो सकता, या फिर सचमुच प्रवीर को घर बुलाकर चार स्वादिष्ट व्यंजन
खिलाये बिना नहीं रहा जाता होगा। क्या था अनादि के मन में कौन जाने।
बाहर से वह प्रवीर का उदार, उन्मुख स्नेही मित्र था। पर मन की सारी कालिमा उभर आती कावेरी के सामने।
हर बात में कड़वाहट, हर भाव से तीखे व्यंग्य कावेरी को जैसे आदत-सी पड़ गयी थी इनकी। इसे अनादि का एक शौक़ ही मान लिया था उसने।
शुरू-शुरू में तंग आकर यह सोचती थी कि अनादि की अनुपस्थिति में प्रवीर को मना कर देगी आने से। मगर उस भले आदमी के मुँह पर ऐसी बात न कह सकी। फिर ढील दे दी। उसने सोचा, 'बकने दो उन्हें, उल्टा-सीधा बकना ही उनका शौक है।'
मगर एक घटना ने मुन्ना के जन्म के बाद भयंकर मोड़ लिया। मुन्ने की शक्ल देखकर अचानक ही आग-बबूला हो गया अनादि। एक दिन तो उसने खुलकर बोल ही दिया, ''मेरे जैसे काले-कलूटे का ऐसा गोरा-चिट्टा बेटा कैसे हो सकता है?''
इशारा इतना स्थूल और भद्दा था कि सुनकर कावेरी पथरा गयी। पत्नी के हृदय को लेकर ईर्ष्या, ताने देना एक बात थी परन्तु यह कुछ और। क्या इतना बड़ा अपमान कावेरी सहन कर लेती केवल इसीलिए कि वह अनादि की विवाहिता पत्नी थी, फिर भी बड़ी मुश्किल से अपने-आप पर काबू पाया उसने और अपमान को नज़र-अन्दाज़ कर बोली, ''क्यों, मैं मुन्ना से कम गोरी हूँ क्या?''
''सिर्फ़ रंग ही क्यों'', ज़हरीली साँस छोड़कर दाँत पीसकर अनादि बोला, ''उसका नाक-नक्शा सब कुछ तुम्हारे विश्वासघात की साक्षी दे रहा है।''
उसी दिन कावेरी ने प्रवीर से कह दिया, ''तुम अब यहाँ नहीं आना।'' उसने कहा, ''तुम्हें लेकर तुम्हारे दोस्त के मन में गहरी ईर्ष्या है। उनकी धारणा में मैं तुमसे प्रेम करती हूँ। खैर, अब तो मुझे एक साथी मिल गया है। अब से वही बचाएगा मुझे अकेलेपन से, दुनिया की हर मुश्किल से...क्यों रे मुन्ना?''
हाँ, इससे गम्भीर होकर नहीं कहा जा सकता था। सम्मान को ठेस पहुँचती। प्रवीर दोस्त की ईर्ष्या की बात सुनकर चौंक उठा था क्या? नहीं, चौंका नहीं वह। एक पुरुष के हृदय से अनादि के अन्तर्दाह को प्रतिदिन अनुभव करता था वह। अनुभव करता था फिर भी जाता था उनके घर। जाता इसलिए था क्योंकि बिना गये रहा नहीं जाता था उससे। सब जान-बूझकर भी अनादि के चेहरे पर लगे नक़ाब का फायदा उठाता था वह। क्यों प्रवीर अपनी जानकारी उन पर ज़ाहिर करता जबकि एक दिन नहीं जाने से ही अनादि नौकर भेजकर उसकी खबर लेता था, ''कल क्यों नहीं आये,'' पूछता।
आखिर अनादि को कोई हानि तो नहीं पहुँचा रहा था वह? केवल थोड़ी-सी मधुर मुस्कान, थोड़ी बातचीत, थोड़ा-सा साथ-इतना ही तो चाहिए था प्रवीर को।

अपने विवेक के आगे निर्दोष था प्रवीर। मगर विपत्ति को बुलावा दिया कावेरी की सावधानी ने ही।
उसकी बात सुनकर प्रवीर चौंका नहीं। केवल अचानक बोल उठा, ''मित्र से ईर्ष्या मैं भी कम नही करता। उसे जब भी देखता हूँ तो 'बन्दर के गले में मोती की माला' की उपमा याद आ जाती है। और दिल करता है लूट कर ले जाऊँ उसके गले से इस माला को।''

प्रवीर नही चौंका था पर कावेरी चौंक उठी। एक अजीब-सी स्थिर निष्पलक दृष्टि से देखती रही और हँसकर बोली, ''सिर्फ दिल करता है, हिम्मत तो नहीं होती?''
''है हिम्मत।'' अचानक उसका एक हाथ पकड़ लिया प्रवीर ने, ''तुम राजी हो? '
कावेरी खिलखिलाकर हँस पड़ी। फिर बोली, ''लड़कियाँ अपने मुँह से उसका जवाब देती हैं भला?''
कावेरी के चेहरे पर बिखरी गुलाब की छटा को पल-भर देखकर थोड़ी देर चुप रहा प्रवीर। फिर बोला, ''आज एक शुभ समाचार देने आया था तुम लोगों को। अचानक भाग्यदेवी की अनहोनी कृपा हो गयी, अच्छी नौकरी लग गयी। शायद चन्द दिनों में ही मुझे कोलकाता छोड़ना पड़ेगा।''

''यह तो और भी अच्छा है। अशोक वन से सीता का उद्धार और भी सरल हो जाएगा।''
पल-भर पहले के आवेग और उत्तेजना से लज्जित होकर भी चुप नही रहा प्रवीर। मुस्कुराकर बोला, ''तुलना तो उल्टी हो गयी?''
''क्या उल्टा और क्या सीधा?'' हँसकर कावेरी बोली, ''कौन रावण है और कौन राम इसका हिसाब लगाना आसान है क्या? मगर हाँ, देवर लक्ष्मण की भूमिका तुम्हें पसन्द नहीं, यह तो पता चल ही रहा है।''
प्रवीर गम्भीर भाव से बोला, ''तुम चाहे कितना भी मज़ाक कर लो कावेरी फिर भी सच कहूँगा कि जब भी अनादि भैया के साथ तुम्हें देखता हूँ वैसी ही इच्छा मन में जागती है। जी करता है तुम्हें छीनकर दूर, कहीं दूर ले जाऊँ, बहुत दूर।'' 
''इरादा निस्सन्देह नेक है मगर आजकल के वीर-पुरुषों की सारी वीरता इरादे तक ही रह जाती है। मेरा मुन्ना ऐसा नहीं होगा, है न मुन्ना?''
इसके दो दिन बाद ही तो आयी वह भयंकर रात। अपने नये काम के सिलसिले में प्रवीर को अमृतसर जाना था उस दिन। सुबह नगेन के हाथ से कावेरी की लिखी एक अजीब चिट्ठी मिली प्रवीर को। कावेरी की लिखावट थी।
''तुम्हारी गाड़ी कितने बजे है, पता कर लिया है। ठीक समय स्टेशन पर
उपस्थित रहूँगी। लेकर भागने की हिम्मत है न? आखिरी पल में पीछे तो न भागोगे? अब भी कह दो। औरत को जानते हो न? वह जब तक नाव पर पैर नहीं रखती, धरती से पैर कभी नहीं उठाती।''
एक साधारण खुले लिफाफे में नगेन के हाथ आयी थी यह चिट्ठी। उलट-पलटकर देखा प्रवीर ने लिफाफ़े को। खुला ही था या खोला गया?
मगर इस चिट्ठी का क्या जवाब था?
मूर्ख की भाँति नगेन से ही पूछ बैठा, ''कोई जवाब माँगा है?''
नगेन ने कहा, ''नहीं तो?''
रात की गाड़ी थी। सारा दिन एक भयंकर बेचैनी में कट गया। जीवन में जो परम आकांक्षित है, वह भी कभी भयंकर विपदा की मूर्ति में आ खड़ा हो सकता है, यह शायद उसी का प्रमाण था।
अब प्रवीर करे तो क्या?
क्या सचमुच हिम्मत करके वरमाला लेकर प्रतीक्षा करे उस परम आकांक्षित की? या कि रोक ले कावेरी को इस अकाल, इस सर्वनाश के रास्ते से?
कावेरी की उलाहना-भरी हँसी दिल में गूँजने लगी। गूँजने लगी उसकी कही वह बात, ''इस युग के वीर पुरुषों की सारी वीरता उनके इरादों तक ही रह जाती है।'' ठीक है। प्रवीर भी देखना चाहता है भाग्य उसके लिए क्या सौगात लेकर आया है। वैसे ही तो बोझिल से बेकार जीवन की परिसमाप्ति का एक अकल्पनीय अवसर बिना माँगे ही मिल गया। अब देखना यह है कि जीवन के अन्दर महल का रंग बदलता है या नहीं।
प्रवीर का इसमें क्या दोष है? उसने तो जानबूझकर कुछ नहीं किया? दोस्त की पत्नी को भगाकर ले जाने का दोष उसे क्यों लगे?
दिन-भर अपने विवेक को यही समझाता रहा प्रवीर।
मगर उस दिन के नाटक का अन्तिम दृश्य इतना भयंकर होगा किसे पता था? इन्तजार के पल गिनता रहा, दृष्टिबाण से सारे प्लेटफॉर्म को छलनी कर डाला प्रवीर ने। गाड़ी निकल गयी। वह मूर्ख-सा खड़ा देखता रहा। जब होश आया तो बाहर जाकर एक तार भेज दिया, ''गाड़ी छूट गयी। अगली गाड़ी से आ रहा हूँ। फिर लौट चला अनादि के घर की तरफ।
मगर क्यों गया प्रवीर?
आज तक यह बात कुछ समझ मे नहीं आयी? समझ में नहीं आया उसे किस उद्देश्य से गया था अनादि के घर?
केवल इतना याद है कि एक भयंकर अपमान की जलन अनुभव कर रहा था वह और क्षुब्ध आक्रोश से कावेरी को खूब जली-कटी सुनाने की इच्छा हुई थी।

इसका अर्थ यह हुआ कि सब कुछ ही कावेरी का एक निष्ठुर परिहास था।

मगर इस प्रकार प्रवीर को भँवर में डालने की क्या आवश्यकता थी? ठीक उस समय, जब अभागे को थोड़े से प्रकाश की झलक मिली थी। अगर इस उधेड़बुन में निर्दिष्ट तारीख को न पहुँच पाने के अपराध में उसकी नौकरी हाथ से छूट जाए, तो? क्या दिलासा दे सकेगी कावेरी उसे?
मगर कावेरी ने ऐसा किया ही क्यों? क्या प्रवीर ने उसके चेहरे का रंग ठीक से पढ़ा नहीं था?
नहीं। शायद इसे ही कहते हैं, 'बड़ों की प्रीत रेत का बाँध।'
क्रोध में ऐसा भी लगा उसे कि अगर अनादि भी घर पर हो तो सारे रिश्ते तोड़ आएगा उसी के सामने। कावेरी की चिट्ठी दिखा देगा उसे।
फिर सोचा-क्या पता शायद अनादि ने देखी हो यह चिट्ठी। हो सकता है कावेरी और अनादि ने मिलकर खूब खिल्ली उड़ायी हो उसकी। हो सकता है अनादि ने ही कहा हो, ''पाठ पढ़ा दो उस प्रवीर को।'' क्या पता, अनादि ने ही लिखवायी हो वह चिट्ठी। नहीं तो नगेन के हाथ खुले लिफाफे में वह चिट्ठी। तभी समझ लेना चाहिए था प्रवीर को।
अपनी बेवकूफ़ी पर कोड़े बरसाते-बरसाते किस प्रकार अनादि के घर पहुँचा था वह, ईश्वर ही जाने।
मगर घर के दरवाजे तक पहुँचते ही सुन्न हो गया वह।
नहीं, कोई रोने की आवाज़ नहीं आ रही थी अन्दर से। न कोई शोरगुल, न दरवाजे पर भीड़। केवल उस ढलती शाम में ही सारा घर जैसे एक काली चादर में लिपटकर बुत की तरह खड़ा था। और उससे भी निस्तब्ध खड़ा था नगेन, दरवाजे के ठीक किनारे। खुला दरवाजा मुँहबाए खड़ा था।

प्रवीर भी थोड़ी देर के लिए बुत बन गया। फिर शान्त भाव से उसने पूछा, ''घर में कोई नहीं है क्या?''
नगेन चुप ही रहा। शायद सिर हिलाकर उसने अपना जवाब दे दिया।
थोड़ा झिझककर फिर पूछा प्रवीर ने ''कहाँ गये हैं, पता है?''
अचानक एक अस्वाभाविक स्वर में तेजी से बोल उठा नगेन, ''बाबू मुन्ना को लेकर श्मशान गये है और अभी-अभी माँ कहीं चली गयी, पता नहीं। मुझसे और कुछ न पूछिये।''
प्रवीर को शायद अन्तिम वाक्य सुनाई नहीं दिया। तभी अचानक चिल्लाकर बोला, ''मुन्ना को लेकर कहाँ गये बाबू?''
''कह तो दिया,'' थकी हुई आवाज में नगेन बोला, ''बार-बार मुझसे क्यों कहलवा रहे हैं? अब मुझे छुट्टी दीजिए आप लोग। इस घर का तमाशा देख कर...''।
फिर भी तसल्ली नहीं हुई प्रवीर को, फिर भी चीखकर बोला, ''क्या हुआ मुन्ना
को?''
''मालूम नहीं,'' रूखे स्वर में कहा नगेन ने।
अचानक प्रवीर को लगा यह सब कुछ उस आदमी की बनावटी कहानी है, शायद उसे भगाने का इरादा है। इसलिए अचानक नगेन को ढकेलकर वह अन्दर चला गया।
मगर कितने पल के लिए?
फिर भागकर बाहर आया जैसे भूत ने खदेड़ा हो। और फिर आगे देखा न पीछे, भागकर चला आया उस गली से।
मगर उस गली से भागकर भी क्या उस भयंकर दृश्य से भाग सका था वह?
आज तक भी?
सूना था सारा घर ऊपर से नीचे तक। कावेरी के सोने का कमरा सपाट खुला था। यहाँ तक कि अलमारी का पल्ला भी मुँहबाए खुला पड़ा था। और-और कमरे की ज़मीन पर गिरा पड़ा था मुन्ने का छोटा-सा तकिया और उस तकिये से सट कर काली पड़ रही लहू की रेखा।
तब से लेकर आज तक कितने परिर्वतन आये प्रवीर की जिन्दगी में, कितने देश-देशान्तर घूमे मगर जब कभी वह अकेला हुआ-वही भयानक दृश्य उसका पीछा करता रहा।
इन साढ़े चार वर्षों में हजारों बार आतंकित हुआ है प्रवीर इस भयानक दृश्य को याद कर और हज़ारों बार उसने सोचा कि शायद कावेरी ने मज़ाक नहीं किया था। शायद अनादि को पता चल गया था, तभी...
मगर कैसे क्या हो गया?
क्या पत्नी के विश्वासघात से पागल होकर अपनी सन्तान को...? मगर पत्नी को न मारकर बेटे को क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि पत्नी पर वार करते हुए अकस्मात् ही दुर्घटना घट गयी?

था ही कितना बड़ा वह। छः-सात महीने का। हो सकता है असावधानी से...। या फिर कावेरी ने ही रास्ते का काँटा समझकर उसे...छिः छिः! अपने ही मन पर कोड़े लगाता प्रवीर। मगर फिर वही सन्देह उसे पागल कर देता, नहीं तो कावेरी गयी कहाँ? कहीं क्रोध से पागल अनादि श्मशान से लौटकर प्रतिहिंसा की आग में अपना बाकी काम खत्म तो नहीं कर गया?...नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है?
उस तूफान के बाद शान्त होकर दोनों ने फिर वह घर बसा लिया हो शायद।
यह सोचकर भी प्रवीर का शरीर घृणा से संकुचित हो गया। मगर सब कुछ समाप्त हो चुका यह मानने को भी दिल तैयार कहाँ? जीवन में एक बार तो कभी कावेरी से मुलाक़ात हो ताकि वह पूछ सके-'कावेरी, क्या हुआ था? क्यों इतनी निष्ठुर बनीं तुम?'


इन साढे चार वर्षों में अनगिनत बार कोलकाता गया प्रवीर। शहर के इस कोने से उस कोने तक छान मारा, मगर कहीं पल-भर के लिए भी कावेरी की झलक तक दिखाई नहीं दी। नहीं मिल सकी उसकी कोई खबर।
खबर तो अनादि की भी नहीं मिली। अनादि के घर में अब कोई और किरायेदार रहने लगा है। मन-ही-मन न जाने कितनी बार अनादि से मुठभेड़ हुई है उसकी और गरजकर जो प्रश्न किया है उसने, आज मौका मिल गया वही प्रश्न पूछने का। मगर यह कभी नहीं सोचा था प्रवीर ने कि वही प्रश्न अनादि भी करेगा...
''कावेरी कहाँ है?''
इसका जवाब प्रवीर से माँग रहा है अनादि?
प्रवीर की हैरत को नाटक समझ रहा है?
अचानक प्रवीर ने अनादि को दोनो हाथों से पकड़कर जोर का झटका दिया और बोला, ''और भी स्वाभाविक है उसके लिए जो शैतान अपनी सन्तान की हत्या कर सके।''
एकदम बुझ गया अनादि। मुर्दे की तरह निर्जीव हो गया उसका चेहरा। निराश स्वर में बोला, ''तुम ने भी यही कहा। मगर ईश्वर की सौगन्ध...नहीं, ईश्वर का नाम नहीं लूँगा, दुनिया में अगर कहीं कुछ भी महान और पवित्र है, तो उसकी सौगन्ध प्रवीर, मुन्ने को मैंने नहीं मारा। भले अपनी सन्तान न हो, फिर भी था तो एक कोमल शिशु ही। उसे मैं...? तुम्हीं कहो प्रवीर, मैं राक्षस हूँ क्या?''
तब तक प्रवीर ने उसे एक और झटका दिया, ''अपनी सन्तान न हो इसका मतलब? पागल हो गये हो या नशा कर लिया है?''
''पागल हो जाता तो ठीक ही होता, नशा भी करता तो अच्छा ही होता।'' निराश बुझे-बुझे स्वर में बोला अनादि, ''मगर ऐसा नहीं है। वह मेरा बेटा नहीं था। मैं जानता था और अन्त में कावेरी ने भी यह बात स्पष्ट स्वीकार की थी। स्वीकार किया था उसने कि वह तेरा बेटा था। मगर फिर भी मेरी बात मानो प्रवीर, एक अबोध शिशु को मैं।''
अब प्रवीर के निराश होने की बारी थी। जरूर अनादि के दिमाग में गड़बड़ी हो गयी है। कोई शक नहीं इसमें। इसलिए निराश होकर बोला, ''तुम्हारी कोई बात समझ पाना मेरे बस की बात नहीं है।''
मगर अनादि ने जैसे प्रवीर की बात सुनी ही नहीं। इस तरह अपनी ही धुन में कहता गया, ''विधाता ने पुरुषों के साथ यह एक निष्ठुर व्यंग्य किया है। वह स्वयं नही जान सकता कि उसकी पत्नी की सन्तान उसकी अपनी है या नहीं। इससे बड़ा विधाता का परिहास आदमी के साथ और क्या हो सकता है?''
''जब कावेरी ने अपने मुँह से स्वीकार किया तब मेरी धारणा सत्य में बदल गयी। फिर भी-विश्वास करो मेरा-दिन-रात सन्देह की आग में जलते रहने पर भी मैंने जानबूझकर उसे पलँग से नहीं गिराया। मेरी असावधानी से गिर गया था। उफ कितना भयकर था वह दृश्य!''
फिर एक बार प्रवीर की आँखों के आगे उस भयंकर शाम का दृश्य घूम गया। फिर धीरे से पूछा उसने, ''मगर कावेरी?''

''अब और नाटक मत करो, प्रवीर।'' बुझे स्वर में कहा अनादि ने, ''जब से यह चिट्ठी देकर कावेरी तुम्हारे पास चली गयी है, मैं एकदम पत्थर-सा हो गया हूँ। सिर्फ इतने दिनों बाद प्लेटफॉर्म पर अचानक तुम्हें देखकर पता नहीं क्या हो गया, शरीर का सारा खून खौलने लगा। सोचा था, कावेरी तुम्हारे साथ ही होगी, इसीलिए...।''
अजीब शान्त स्वर मे प्रवीर बोला, ''एक बहुत बड़ी भूल के पीछे तुम भी दौडते रहे अनादि भैया और मैं भी। मगर क्या लिखा था कावेरी ने उस पत्र में?''
अब अचानक अनादि ने अपनी 'अटैची' खोलकर उसके अन्दर की जेब से एक तह किया हुआ कागज निकाला। प्रवीर की तरफ बढ़ाकर बोला, ''यह पत्र मेरे साथ ही है और आजीवन रहेगा। इसे फाड़ नहीं सका। जानते हो क्यों?''
तब तक चिट्ठी प्रवीर के हाथ जा चुकी थी। खौलने से पहले आँखों में प्रश्न लिए अनादि की ओर देखा उसने।
एक क्षुब्ध हँसी छा गयी अनादि के चेहरे पर। बोला, ''यही तेरी भाभी की एकमात्र चिट्ठी है मेरे पास। यही प्रथम और यही अन्तिम। शादी के बाद से मेरे ही पास तो रहती थी।''
तब तक चिट्ठी खोलकर पढ़ चुका था प्रवीर। मुँह से एक हल्की चीख निकल पड़ी। बोला, ''इस चिट्ठी को सच मान लिया तुमने? यही अर्थ निकाला तुमने इस चट्ठी का?''
''गलत भी क्या सोचा मैंने और अविश्वास भी कैसे करता?'' कडवे स्वर में अनादि बोला।
''गलत या सही यह मेरी आँखों में देखकर बताओ।'' गम्भीर हो बोला प्रवीर। 
''ठीक से देखो आँखों में आँखें डालकर। फिर कहों इसमें अविश्वास की कोई बात है या नहीं।''
अनादि देखने लगा। देखकर काँप उठा वह। चिट्ठी पड़ी थी मेज पर, एक भयंकर झूठ का साक्षर लेकर। लिखा था, ''आपका शक ही ठीक था। अब तक जो सोचते रहे, सब सही था। मुन्ना आपका बेटा नहीं है।
शायद आपके घर में रहकर अधिक दिनों तक उसकी रक्षा नहीं कर पाती। अच्छा हुआ, ईश्वर ने ही मुक्त कर दिया। इस मुक्ति का आदेश लेकर निश्चिन्त हो कर जा रही हूँ उसके पास जो मुन्ना का असली पिता है। ईश्वर आपको सुखी
रखें, शाति दें।''
अनादि घबराकर बोला, ''मैंने गलत समझा था क्या? मगर इसका अर्थ और क्या हो सकता है?''
''बहुत कुछ हो सकता है सिर्फ तुम्हारा शक सच नहीं हो सकता। इतनी बड़ी गलती क्यों की तुमने अनादि भैया? इतना नीच कैसे मान लिया कावेरी को? सच कहता हूँ तुमसे, कावेरी कभी भी मेरे पास नहीं आयी।''
''नहीं आयी?''
''नहीं।''
''फिर कहाँ गयी?''
''पता नहीं। जिस ईश्वर ने उसे मुक्ति दी, शायद उन्हें पता होगा।''
कावेरी की लिखी प्रथम और अन्तिम एक चिट्ठी प्रवीर के पास भी थी, मगर उसे बाहर नहीं निकाला प्रवीर ने।
एक रहस्य रहस्य ही रहे तो क्या बुरा है?...वही रहस्य तो प्रवीर की शान्ति और सान्त्वना है।
मेज के दोनों ओर बैठे हैं दोनों-निश्चल होकर। अचानक एक हाथ बढ़ाकर प्रवीर का हाथ पकड़ लिया अनादि ने और फूट-फूटकर रो पड़ा।
''सच कहता हूँ प्रवीर, मैंने उस छोटे बच्चे को...''
''मानता हूँ अनादि भैया।''
अपने दूसरे हाथ से अनादि के हाथ को थाम लिया प्रवीर ने। फिर चुपचाप सर झुकाकर बैठे रहे दोनों, जैसे अभी-अभी प्राप्त मृत्यु-शोकग्रस्त दो व्यक्ति अपने अत्यन्त प्रियजन के शव को स्पर्श कर सिर झुकाये बेठे हों।
शोक-संवाद ताज़ा ही तो था।
अभी-अभी तो मौत हुई थी कावेरी की।
अब तक कावेरी उन दोनों की जिन्दगी में ही जिन्दा थी। शायद विश्वास-घातिनी बनकर या निष्ठुर रहस्यमयी बनकर-फिर भी थी तो!
ऐसे समाप्त तो नहीं हो गयी थी।
और कावेरी के सहारे ही ये दोनों भी जिन्दा थे।
कावेरी की मौत के साथ-साथ ये भी समाप्त हो गये। अब उसकी स्मृति के शव को स्पर्श कर चुपचाप बैठे रहने के सिवा और करना ही क्या है उन्हें?

***

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