नई पुस्तकें >> साधो यह मुर्दों का गांव साधो यह मुर्दों का गांवराकेश कुमार सिंह
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘जस्टिस डिलेज इज़ जस्टिस डिनाएड…न्याय में विलंब अन्याय है।’ भारतीय न्यायालयों में महात्मा गांधी की तस्वीर के साथ यह भी लिखा होता है, ‘वादकारी का हित सर्वोच्च है’।
इन आप्तवाक्यों की विडंबना यह है कि आंख पर पट्टी बंधी न्यायप्रतिमा के नास्टेल्जिया में डूबी भारतीय न्याय व्यवस्था ने ही ‘रिमांड प्रिज़नर’, ‘अंडरट्रायल प्रिज़नर’ या ‘विचाराधीन कैदी’ नामक मनुष्य की एक ऐसी विशिष्ट प्रजाति को जन्म दिया है जो बिना किसी सुनवाई-फ़ैसले के जेल कही जाने वाली मानो किसी अंतहीन सुरंग में क़ैद है...कुछ लोग तो बीस-तीस वर्षों से और फ़िलवक़्त उन पर आरोप तक तय नहीं किये जा सके हैं।
विचाराधीन क़ैदियों की नारकीय जीवनस्थितियों और जटिल मनोविज्ञान को साहित्य में उपस्थित करने के प्रयास नगण्य हैं। लगभग बारह हज़ार भारतीय जेलों में न्यायिक अभिरक्षा के नाम पर बंद लगभग दो करोड चालीस लाख मामलों के तक़रीबन तीन लाख ऐसे प्राणी समाजशास्त्रीय अध्ययन, चिकित्सा मनोविज्ञान, शोध ग्रंथों या आंकड़ों के ‘सर्वे सैंपल’ मात्र बने जिये जा रहे हैं।
पत्रकारिता के उच्च मानदंडों के प्रति आस्थावान एक प्रतिबद्ध खोजी पत्रकार की डायरी के विरल शिल्प में लगभग अछूते विषय पर लिखा गया यह उपन्यास मात्र एक मामूली क़ैदी अवनी बाबू की वैयक्तिक त्रासदी और मनःस्थितियों का बयान भर नहीं है बल्कि पुलिसतंत्र की संदेहास्पद भूमिका, प्रशासनिक अव्यवस्था, भारतीय कारागारों की अमानवीय स्थितियों न्यायप्रणाली की विडंबनाओं तथा अपराध और दंड की मारक विसंगतियों को ग़ैरमामूली पड़ताल भी है, जिससे गुज़रते हुए दहशत सी होती है कि क्या सचमुच मानवीय मूल्यों का ऐसा महादुर्भिक्ष, ...संवेदनाओं का ऐसा भीषण महाअकाल व्याप्त हो चुका है कि हमारा संवेदनाहीन होता समाज मुर्दों के गांव में तबदील होता जा रहा है ?
इन आप्तवाक्यों की विडंबना यह है कि आंख पर पट्टी बंधी न्यायप्रतिमा के नास्टेल्जिया में डूबी भारतीय न्याय व्यवस्था ने ही ‘रिमांड प्रिज़नर’, ‘अंडरट्रायल प्रिज़नर’ या ‘विचाराधीन कैदी’ नामक मनुष्य की एक ऐसी विशिष्ट प्रजाति को जन्म दिया है जो बिना किसी सुनवाई-फ़ैसले के जेल कही जाने वाली मानो किसी अंतहीन सुरंग में क़ैद है...कुछ लोग तो बीस-तीस वर्षों से और फ़िलवक़्त उन पर आरोप तक तय नहीं किये जा सके हैं।
विचाराधीन क़ैदियों की नारकीय जीवनस्थितियों और जटिल मनोविज्ञान को साहित्य में उपस्थित करने के प्रयास नगण्य हैं। लगभग बारह हज़ार भारतीय जेलों में न्यायिक अभिरक्षा के नाम पर बंद लगभग दो करोड चालीस लाख मामलों के तक़रीबन तीन लाख ऐसे प्राणी समाजशास्त्रीय अध्ययन, चिकित्सा मनोविज्ञान, शोध ग्रंथों या आंकड़ों के ‘सर्वे सैंपल’ मात्र बने जिये जा रहे हैं।
पत्रकारिता के उच्च मानदंडों के प्रति आस्थावान एक प्रतिबद्ध खोजी पत्रकार की डायरी के विरल शिल्प में लगभग अछूते विषय पर लिखा गया यह उपन्यास मात्र एक मामूली क़ैदी अवनी बाबू की वैयक्तिक त्रासदी और मनःस्थितियों का बयान भर नहीं है बल्कि पुलिसतंत्र की संदेहास्पद भूमिका, प्रशासनिक अव्यवस्था, भारतीय कारागारों की अमानवीय स्थितियों न्यायप्रणाली की विडंबनाओं तथा अपराध और दंड की मारक विसंगतियों को ग़ैरमामूली पड़ताल भी है, जिससे गुज़रते हुए दहशत सी होती है कि क्या सचमुच मानवीय मूल्यों का ऐसा महादुर्भिक्ष, ...संवेदनाओं का ऐसा भीषण महाअकाल व्याप्त हो चुका है कि हमारा संवेदनाहीन होता समाज मुर्दों के गांव में तबदील होता जा रहा है ?
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