कहानी संग्रह >> पूर्वाशा पूर्वाशाराजेन्द्र प्रसाद मिश्र
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प्रस्तुत है उड़िया की पंद्रह श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कुछ बातें.....
‘पूर्वाशा’ का प्रकाशन न
केवल मेरा बल्कि
उड़िया लेखिकाओं का एक सपना था। इसे साकार होने में लगभग चार वर्ष लगे।
बहुत दिनों से मन में यह इच्छा थी कि उड़िया की कुछ प्रतिनिधि महिला
कथाकरों की कहानियों से हिंदी पाठकों को परिचित कराऊँ ताकि हिंदी पाठकों
को लेखिकाओं की बहुचर्चित कहानियों से परिचित होने का अवसर मिल सके। यह सच
है कि सृजनात्मक लेखन के लिए लेखक अथवा लेखिका में अन्तर करना सही नहीं है
फिर भी स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद की उड़िया लेखिकाओं के लेखन से हिंदी
पाठकों को अवगत कराने की अपनी इच्छा टाल न सका। इससे हमें दो बातों का पता
सहज ही चल जाता है। पहली बात तो यह कि उड़िया की महिला कथाकारों द्वारा
लिखी जा रही कहानियाँ अपने समकालीन पुरूष कथाकारों की कहानियों से किन
अर्थों में भिन्न हैं, और दूसरी यह कि इस संग्रह की महिला कथाकारों की
कहानियों का स्वाद एक-दूसरे से भिन्न है अथवा एक ही तरह का। यह सोचकर कि
इस संबंध में सुधी पाठक अपनी राय स्वयं बनाएँगे, मैं अपने विचार विस्तार
से नहीं रख रहा हूँ।
संग्रह में संगृहित इन पंद्रह लेखिकाओं के अलावा भी उड़िया में अनेक लेखिकाएँ हैं। किन्तु एक साथ सबको हिंदी पाठकों से परिचित कराना संभव न हो पाने के कारण प्रथम प्रयास के रूप में इन बहुचर्चित पंद्रह कथाकारों को मैंने पहले प्रस्तुत करना उचित समझा।
इसमें दो राय नहीं कि ‘पूर्वाशा’ को हिंदी में प्रकाशित करके निश्चित ही भारतीय ज्ञानपीठ ने मेरा उत्साह बढ़ाया है। इसके लिए मैं भारतीय ज्ञानपीठ का आभारी हूँ।
नंदिनी शतपथी
संग्रह में संगृहित इन पंद्रह लेखिकाओं के अलावा भी उड़िया में अनेक लेखिकाएँ हैं। किन्तु एक साथ सबको हिंदी पाठकों से परिचित कराना संभव न हो पाने के कारण प्रथम प्रयास के रूप में इन बहुचर्चित पंद्रह कथाकारों को मैंने पहले प्रस्तुत करना उचित समझा।
इसमें दो राय नहीं कि ‘पूर्वाशा’ को हिंदी में प्रकाशित करके निश्चित ही भारतीय ज्ञानपीठ ने मेरा उत्साह बढ़ाया है। इसके लिए मैं भारतीय ज्ञानपीठ का आभारी हूँ।
-राजेंद्र प्रसाद मिश्र
नंदिनी शतपथी
बहते बादल
राधा की कोमल-मुलायम हथेली धीरे-धीरे सख्त हो
गई है। कई
जगहों पर सख्त पड़ गई चमड़ी। नाखूनों में मिट्टी, हल्दी, मसाले के निशान।
आँखों के नीचे काला पड़ने लगा है। चेहरे पर भी कई दाग पड़ गए हैं। कई बार
सोचा है राधा ने, ट्रंक में सँभालकर रखा गमकौआ साबुन निकालकर कम-से-कम
हाथ-मुँह धो लेगी। ननद-जिठानी के साथ तो साबुन लेकर नदी जाने में लाज आती
है। तिस पर इतने लोगों के आगे नहाकर कपड़े बदलना तो मुश्किल काम है, भला
ऐसे में साबुन लगाना !
कुएँ पर तो हमेशा लोग रहते हैं। मर्द-औरत बार-बार आते-जाते रहते हैं। इतने बड़े टोले में उनके घर के पिछवाड़े ले-देकर एक ही बावड़ी है। कोई दतून करते हुए हाथ में लोटा लिए हुए आ जाती है तो किसी घर से गगरी-मटकी कमर पर धरे बहू-बेटियाँ आकर खड़ी हो जाती हैं; दोपहर में भी फाँका नहीं मिलता। उस दिन सारा काम खत्म करके साबुन लेकर खूब सहमी हुई-सी कुएँ पर गई थी राधा। कुछ देर खड़ी होकर चारों-ओर नजर दौड़ाई उसने। सहसा किसी ने पीछे से आवाज दी, ‘‘किसकी राह तक रही हो, भौजी ?‘‘
चौंकते हुए पीछे मुड़कर देखा राधा ने। छोटी खिड़की के उस ओर से खिलखिलाकर हँस पड़ी पड़ोस के घर की ननद-सी शैला। सिर का पल्लू ठीक करते हुए घर की ओर भागी राधा।
एक दृश्य समाप्त हो गया। राधा को लगता है, उसके जन्म से लेकर आज तक कैमरेवाला उसके पीछे-पीछे चलते हुए सारी घटनाओं का सिनेमा बनाता जा रहा है। कई बार बैठी-बैठी मन-ही-मन वही सिनेमा देख जाती राधा-जिस तरह बचपन में पिताजी के साथ जाकर सिनेमा देखा करती थी वह।
क्या आज की घटना की तसवीर खींच ली होगी उस अदृश्य कैमरेवाले ने अपने कैमरे से ? काफी आगे जो जोड़ना पड़ेगा उस फिल्म में। पर आज जैसा दृश्य फिर कभी मिलना उसके लिए संभव नहीं होगा। आज अमित आया था। अपनी पत्नी को साथ लेकर राधा को देखने। यदि सुपरिटेंडेंट साहब ने पहले से न बताया होता तो राधा उन्हें पहचान ही न पाती। पहचानती भी कैसे ? एक साल के छौने को छोड़कर आई थी वह। छोड़कर कहाँ आई थी, बल्कि उससे छीन लिया गया था।
उस दिन बहुत जोरों की गर्मी पड़ रही थी। घर का सारा काम खत्म करते-करते वह काफी थक चुकी थी। थोड़ी देर लेटकर आराम करने वह अपने कमरे में चली आई। बेटा अमित खा-पीकर सो रहा था। राधा बिस्तर पर बैठी ही थी कि उसकी नींद खुल गई। माँ का पल्लू पकड़कर खींच-खींचकर उसे उठाने लगा अमित। राधा उसे समझाने-बुझाने लगी, लड़ियाने लगी, तरह-तरह के गीत सुनाकर, सुलाने की कोशिश करने लगी। किंतु सब बेकार गया। गुस्से में एक थप्पड़ जड़ दिया राधा ने।
घर-द्वार कँपाकर दहाड़ें मार-मार कर रोने लगा अमित। दूसरे कमरे में दरवाजा अधखुला करके सो रही थीं सास, झटपट उठ बैठीं। उस समय राधा खाट से उठकर बेटे को मनाने की केशिश कर रही थी-और सास के डर से काँपती भी जा रही थी ! सास धम्म से कमरे में आईं और उसके हाथों से बेटे को छीन ले गईं।
ढं...........ढं.....करके बज उठा अस्पताल का घड़ियाल। राधा ने सुना सात। शाम के सात बज गए। बाहर रात का भोजन लेकर आनेवाली ट्रॉली की आवाज सुनाई दे रही है-परोसनेवालियों की बातचीत भी। मुलायम पनीले अँधेरे को ज्यादा देर तक पकड़ रखने को आतुर थी राधा। और थोड़ा-सा सिनेमा देखा जा सकता है निश्चिंत हो। उसने बत्ती नहीं जलाई। आकाश में यहाँ-वहाँ निकले नन्हें-नन्हें एकाकी तारे मानो उसे जरा-सी रोशनी देने के लिए धकियाकर बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हों।
अमित वैगरह गाड़ी में बैठ चुके होंगे। यहाँ के लोग कहते थे स्टेशन ज्यादा दूर नहीं है। हालाँकि कि कभी वह स्टेशन से ही यहाँ आई थी। लेकिन बहुत दिन पहले की बात है। आज कुछ ठीक-ठीक याद नहीं। उसी दिन इस चहारदीवारी से बाहर नहीं गई राधा।
उस दिन उसके हाथों से बेटे को छीनकर चिल्ला उठी थीं सास,’’राक्षसी, लगता है जान ही ले लेगी बच्चे की। दिन-भर रानी बनी खाट पर लेटी रहेगी। बच्चा जरा रो पड़ा तो मारने लगी। चल निकल जा, इस घर से ।’’
उसके बाद घूँसे, लात, चुटिया पकड़कर खींचना। बुखार में पड़ी-पड़ी कमजोर हो गई थी राधा। तिस पर दिन-भर का काम। सह न पाकर नीचे गिर पड़ी। ट्रंक का कोना लगकर सिर से खून बहने लगा। दादी माँ के गले से लिपटकर लगातार रोता जा रहा था अमित।
बहुत मुश्किल से खुद को सँभालकर खड़े होने की कोशिश की राधा ने। सास फिर दौड़ आईं हाथ उठाकर। अब धैर्य नहीं रहा। बदन में जितनी भी ताकत बची थी, सब लगाकर सास का हाथ जोर से पकड़ लिया राधा ने।
‘‘अरे, मुझे मार डाला रे ! दौड़ो रे, कहाँ हैं सब ?’’ सास की चीत्कार से टोला-पड़ोस के लोगों की दोपहर की पतली नींद उड़ गई। पूरा कमरा भर गया लोगों से। सास ने सुबकते हुए कहा, ‘‘दो अक्षर पढ़ गई है तो क्या मेरी जान ले लेगी। बच्चा जिद कर रहा था तो उसे मारे डाल रही थी। मैं समझाने आई तो मेरा हाथ मोड़कर मारने को झपट पड़ी। तुम सब न आये होते तो अब तक मार चुकी होती। आज यह राक्षसी यहाँ से न गई तो मैं इस घर का पानी तक नहीं छूऊँगी।’’
राधा हतप्रध-सी खड़ी थी। सिर की चोट से खून बह रहा था। क्या किसी की नजर नहीं पड़ रही इस पर ? कहाँ, कोई तो नहीं पूछ रहा कि उसका सिर कैसे फटा ? क्रोध और अभिमान से उसकी आँखों से आँसू भी सूख गए। चुपचाप सुन गई तरह-तरह की गालियाँ। बाप-भाई से लेकर उस तक अश्राव्य भाषा में लगातार गालियाँ बरस गईं। बुद्धू-सी सिर्फ देखती ही रह गई वह।
राधा के कमरे की बत्ती सहसा जल उठी। सभी थाली लेकर खाने बैठ चुकी हैं। जैबुन नाम की जो मुसलमान लड़की हाल ही में यहाँ आई है, वह थाली की रोटी तोड़-तोड़कर चारों-ओर फेंकती रहती है, और कभी चिल्ला-चिल्लाकर तो कभी चुपचाप रोती रहती है। जिस दिन से वह लड़की आई है, कुछ खाना ही नहीं चाहती। साहब लोगों को और नर्सों को काफी परेशान कर चुकी है।
पास रखी थाली की ओर राधा ने। रोजाना की तरह रोटियाँ और मिलवा सब्जी। कटोरी में पनीली दाल थोड़ी-सी। इतनी सब्जी उसे मिली होती तो कितना स्वदिष्ट पकाती वह। भला-यहाँ कोई पागल-पागलियों के लिए मन से खाना क्यों पकाएगा। शुरू-शुरू में वह भी नहीं खाती थी। खाने को जी ही नहीं करता था। पर बिना खाये आखिर कितने दिनों तक रहा जा सकता है !
रात को आँखों के आगे से एक-एक करके सिनेमा का दृश्य बदलता जा रहा है। थाली को हाथ रखकर लौटा लाई वह। उस दिन शाम को घर लौटकर पति ने सारी बातें सास से सुनीं। सच-झूठ जानने को भी उनमें सब्र नहीं था। रसोई के सामने जो भी लकड़ी मिली, उसे उठाकर दहाड़ते हुए वे उसकी ओर लपके। डर से उसकी आँखें मुँद गईं। दो घंटे से वह एक ही जगह पर खड़ी है। लोगों की भीड़ के कारण हाथ-पैर काँपने पर भी वह बैठ नहीं पा रही है।
मार से राधा का सिर फट गया। हाथ-पैर से खून निकलने लगा। कुछ देर बाद वह बेहोश हो गई। बहुत मुश्किल से शायद किसी की खींचा खाँची से जब वह उठकर बैठी, उसका बक्सा और बिस्तर बाहर चबूतरे पर रखा था। बैलगाड़ी के पास खड़े पति ने कहा, ‘‘अब देर मत कर ! जा, जाकर बैठ गाड़ी में। तुझे छोड़कर आने पर ही शांति होगी इस घर में।’’
उसके बाद पिता का घर। पहले काफी दिनों तक रोती रही राधा। मन हमेशा अमित के लिए छटपटाता रहता। थोड़े दिनों के बाद कुछ याद नहीं रहा। कभी-कभी राधा मन-ही-मन रोती, और कभी गुमसुम बैठी रहती। सबने कहा उसका दिमाग खराब हो गया है। वह पागल हो गई है। उसका इलाज करवाओ।
बहुत विरोध किया राधा ने। उसका अंतस हाहाकार कर उठा-‘हे प्रभु ! क्या इस दुनियाँ में कोई भी समझदार आदमी नहीं है ? क्या मैं इसी तरह एक जगह से दूसरी जगह बहकर जीती रहूँगी ? और बहती-बहती कहाँ बिला जाऊँगी, कोई जानना भी नहीं चाहेगा ?’
उसके भाई ने थोड़ा-सा विरोध किया था। राँची गई तो वहाँ पागलों के बीच रहते-रहते वाकई पगला जाएगी। फिर ठीक नहीं हो सकेगी। किंतु राधा आ गई-उसे यहाँ ले आया गया। शुरू-शुरू में भैया आये थे एकाध बार देखने ! फिर वे भी नहीं आए। पति के पास, भैया के पास डॉक्टरों ने पत्र लिखा- ‘‘राधा अच्छी हो गई है। अब उसे ले जा सकते हैं।’’
कई साल बीत गए-अब तक कोई जवाब नहीं आया।
आज अमित के आने की खबर सुनकर राधा का मन नाच उठा था। इतने दिनों बाद प्रभु जगन्नाथ ने अपनी पुकार सुनी। आखिर है तो बेटा ही ! बड़ा होकर लोगों से सारी बातें सुनी होंगी। माँ पर हुए अत्याचार की बात सुनकर उसका दिल जरूर रोया होगा। आज वह अमित के साथ लौट जाएगी। ससुराल या मायके नहीं जाएगी।
अमित आश्चर्य और भय-मिली आँखों से माँ को देख रहा था। उसकी पत्नी भी। अमित को सिर से पैर तक एक बार सहला गयी राधा। बहू को लड़ प्यार किया। कुछ डर या घृणा से शायद पीछे सरक आई वह!
‘‘अब मेरा दिमाग बिलकुल ठीक है, बेटे ! डॉक्टर साहब कई चिट्ठियाँ लिख चुके हैं घर। कोई मुझे लेने नहीं आता। तू आज डॉक्टर से कहकर मुझे लिवा चल। मैं तेरे ही पास रहूँगी। तुम लोगों का सारा काम करूँगी। कुछ नहीं माँगूँगी तुमसे। भला मुझे अब जरूरत है ही किस चीज की ? तेरे ही खातिर रो-रोकर पागल हो गई थी। अब तो तू अपने पैरों पर खड़ा हो गया है प्रभु जगन्नाथ, तेरी खूब उन्नति करें। मुझे यहाँ से ले चल बेटे !’’
अमित के दोनों हाथ जोर से पकड़कर बच्चों की तरह मना कर रही थी राधा। अमित किंकर्तव्यविमूढ़-सा अपनी पत्नी इरा की ओर देख रहा था। उसने सुना था कि उसकी माँ काँके अस्पताल में बहुत सालों से है। जमशेदपुर से राँची ज्यादा दूर नहीं है। उसने सोचा कि छुट्टी के दिन पत्नी के साथ घूम आएगा और माँ को भी देख आएगा। कुछ फल-फूल खाने-पीने की चीजें लेकर। इस तरह अचानक आपदा आ जाएगी, इसकी तो आशंका तक उसने नहीं की थी। अब तो गाड़ी का समय भी हो चला है।
अमित को कमरे के एक कोने में बुला ले गई इरा और धीरे-धीरे बोली,‘‘तुम्हें देखकर शायद उसका पागलपन बढ़ गया है। समझाकर कह दो दुबारा लिवा ले जाऊँगा।’’ राधा ने सब कुछ सुन लिया। घर से बाहर निकलते समय जो आँखें सूख चुकी थीं, उनमें आँसुओं की बाढ़ उमड़ पड़ी। उन झिलमिलाती आँखों से राधा देख रही थी-अमित और इरा उसकी ओर पीठ किए चले जा रहे हैं दूर, और दूर।
आकाश में चाँद निकला है। सफेद बादलों के टुकड़े उसके नीचे-नीचे बहते जा रहे हैं। कहाँ जा रहे हैं ये ? कौन बहाए लिए जा रहा है उन्हें ? क्या उसी की तरह असहाय, अवांछित हैं ये ?
राधा इरा को एक कोने में बुला ले गई। अति आग्रह से उसका हाथ अपने हाथों में लेकर उसने उसका कुशलक्षेम पूछा। अमित उसे प्यार करता है या नहीं-उससे अच्छा सलूक करता है न ? पहले कुछ चकित हुई इरा ! उसके बाद समझ गई- शायद खुद से मेरी तुलना कर रही हैं सास। सिर हिलाकर एक तृप्ति-भरी मुस्कान छोड़ी इरा ने। राधा समझ गई-इरा सुखी है। उसके जीवन की पुनरावृत्ति शत्रु के जीवन में भी न हो ।
किंतु कौन सुनेगा उसकी बात ? बचपन में राधा ने देखा है कि घर का सारा काम वही करती रही है। पर घर में खाने की कोई अच्छी चीज आती तो माँ पहले भैया और छोटे भाई-बहनों को देतीं। पर्व-त्यौहारों में जब पिता जी कपड़े लाते तो छटा-छटाया कपड़ा उसी के हिस्से में पड़ता। उन दिनों कितना बुखार चढ़ा था राधा को। आँखें तक नहीं खुल रही थीं। प्यास से गला सूख गया था। बूँद-भर पानी पिलाने को कोई नजदीक नहीं आ रहा था-डॉ. बुलाने की बात कौन पूछता है ? पर भैया को कहीं खरोंच तक लग जाती तो घर-भर में हल्ला मच जाता। इतने कष्ट में भी राधा बच गई थी। और हैरान-सी सोचती थी, उसने क्या किया है ? उसका कसूर क्या है ? उसे दूसरों से हीन क्यों समझा जा रहा है ? फिर भी उसने कभी किसी पर अपना आक्रोश प्रकट नहीं किया। कभी दुःखी नहीं हुई-अनजाने ही नसीब को स्वीकार कर लिया था उसने।
कुंतला कुमारी आचार्य
उस रोज उसकी जिंदगी की घनघोर काली रात घिर आई थी, साथ ही घिर आई थीं
विषादमय दिनों की अनंत तरंगें उस टूटी-फूटी मानव-काया को और अधिक
छिन्न-भिन्न करके चूस लेने को, नोच-खसोट लेने को !
इसके साथ ही हर ओर का अँधेरा सुनीति की आँखों में अंधी पोटलियों-सा बँध चुका था।
उस वक्त शायद वह आठ-दस साल की बालिका रही होगी। बाप, दीन, दरिद्र खेतिहर मजदूर। दूसरे गाँव के क्लब में आँखों का कैंप लग रहा है। कई गाँवों के निकम्मे युवक आकर बता रहे हैं। नाम, गाँव लिखकर ले जा रहे हैं। किसी का मोतियाबिंद, किसी की रतौंधी और किसी का काला मोतिया सब ठीक हो जाएगा। बड़े-बड़े डॉक्टर आएँगे। रोटरी क्लब के लोग भी आएँगे। आस-पास के दस-पंद्रह गाँव के लोगों को आँखें मिल जाएँगी। सबकी आँखों की ज्योति लौटाने का यह एक अच्छा धर्मार्थ कार्य है। बुढ्ढे बहुत खुश हैं, तीन दिनों तक मुफ्त में खाना मिलेगा, मुफ्त में आँखों का ऑपरेशन होगा, चश्मा मिलेगा, वाह !
उस रोज सुनीति ने अपने पिता से खूब मिन्नत-भरी आवाज में कहा था, ‘‘पिता जी, मुझे वहाँ ले चलो, मुझे तो बिलकुल दिखाई नहीं देता।’’ जी-भरकर रोने की बजाय खूब जोरों से हँसा था नरिया उर्फ नारायन बेहेरा। ‘‘अरी पगली, यदि इसी तरह ये लोग अंधों की आँखें ठीक करने लगें तो इस देश में कोई अंधा रह ही नहीं जाएगा और यदि हम लोग चलें भी तो इस समय मेरे पास एक फूटी कौंड़ी भी नहीं है। तेरे इस मैले-कुचैले कुर्ते में क्या वे तुझे उस कैंप में भर्ती करेंगे ?’’
‘‘पिता जी ! हरि भाई कह गया है कि वहाँ जाने के लिए कपड़े-लत्ते नहीं चाहिए पैसे-वैसे भी नहीं चाहिए। हम नौटंकी या मेला देखने थोड़े ही जा रहे हैं।’’ नरिया को याद आ गया कि जब वह पाँच साल की थी, अपनी उस रानी बिटिया को नौटंकी दिखाने वह पाँच कोस तक कंधे पर बिठाकर पैदल जाया करता था।
नारायन, आँखों में आँसू भरे सिर्फ अंधी बेटी के बिखरे बालों को अति स्नेहपूर्वक सँवारने लगा। बेचारी ! हठात् चेचक का ऐसा प्रकोप हुआ कि मेरी प्यारी-सी बिटिया की आँखें चली गईं। पूजनीया माता होकर भी उसने ऐसा गुस्सा क्यों किया ? यह बच्ची उसकी भी तो है। तो फिर उसने ऐसे क्यों किया ? बिन माँ के बच्चे, एक लड़का और एक लड़की के साथ नरिया बेहेरा अपना परिवार ऐन-केन-प्रकारेण चला रहा है। बेटी अंधी होते हुए भी काफी समझदार और बुद्धिमती है। टोह-टोहकर जाकर वह पोखर से पानी भर लाती है। भाई को साथ लेकर हाट-बाजार करके अधिक नमकवाला अथवा फीका खाना पूरे परिवार के लिए पका लेती है। जब गाँव के योगी मास्टर किसी के चबूतरे पर बैठे मनबोध चौंतीसा या रामायण का अयोध्याकांड या उपेंद्र भंज के लावण्यवती की सुर लहरी बिखेरते, सुनीति अपने टूटे-फूटे चबूतरे पर बैठी वह सब चुपचाप मन-ही-मन गुनगुनाती, उनके सुर से सुर मिलाकर उन्हें दोहराती और उसे सबकुछ याद हो जाता। महाभारत की गांधारी के बारे में सुनकर वह जी-भरकर हँसती। इतनी बड़ी राजकुमारी होकर भी उसने अंधे धृतराष्ट्र से शादी की थी। आँखें काम न करने पर भी तो उसने सौ बच्चों को जन्म दिया।
गीत गाना मानो उसकी जन्मजात कला थी, इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता। उसने लोगों के ताने अपने कान से सुने हैं। अरे, एक तो अंधी, ऊपर से यह गाने का शौक पाल रखा है। छि:-छि:, यह कैसा युग आ गया ? सुनीति के कानों में ये सारी बातें पड़ती। परंतु वह उन्हें अनसुनी कर जाती। आखिर क्यों सुने ? क्या वह सबकी तरह है जो सुने ? हरिया हर समय टोह लेता रहता है। जब कभी नारायन किसी के खेत में पानी लगाने या किसी की बावड़ी खुदाई करने चला जाता, न जाने किस लालच में हरिया उस आठ-दस साल की लड़की सुनीति और उसके भाई की रखवाली उनके चबूतरे पर लाठी डालकर लेटे-लेटे करता रहता।
वही हरिया सुनीति को कह गया है- आँख के कैंप में जाने के लिए। उसे उसकी आँखें फिर मिल जाएँगी। उस गाँव में रेडियो बजते हैं। युवा संघ में कभी-कभी टी.वी. यंत्र भी चलता है, जिसमें छोटी-छोटी तसवीरें सिनेमा की तरह दिखलाई देती हैं। हरि भाई के मुँह से ऐसी बातें सुन-सुनकर उसकी आँखें फड़फड़ाने लगतीं, लेकिन उसके आगे तो एक बड़ी अँधेरी पृथ्वी है। कभी-कभी सुनीति अपने उन दिनों को याद करती हैं जब उसकी आँखें थीं। उम्र यही कोई पाँच या छह साल की रही होगी। उसे भला ठीक से याद कहाँ है ! परन्तु इतना जरूर याद है कि आसमान किसे कहते हैं। सूर्य, चंद्र, तारे, गाँव, तालाब का रास्ता, उनके घर के सबसे बाहरी द्वार पर छोटे झुके हुए फूस के छप्पर पर लौकी की बेलें आदि के बारे में उसकी माँ उससे बतियाया करती थी। सुबह होती है, शाम होती है, रात को अँधेरा होने पर चारों ओर काला-काला दिखाई देता है इत्यादि। बिसरी बातें सोचा करती नारायन बेहेरा की बेटी सुनीति बेहेरा, अर्थात्, सनी, सोनी न जाने कितने नाम थे उसके। किंतु गाँव के लोग कहते वह ‘अंधी हैं, इसलिए वह उसी नाम से जानी जाती। हे भगवान् ! एक मासूम लड़की को इस संकट में डालकर जिंदगी भर के लिए एक अनावश्यक मिट्टी का ढेर क्यों बना दिया ? इस सवाल का जवाब कभी कोई नहीं दे सका।
आँखों कै कैंप, आतुर, आकुल परिवेश। लोग एक कतार में लेटे हुए हैं। सुकुमार सेन घूम-घूमकर देख रहे हैं-वास्तव में किसके साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा है। कोई बुला रहा है बेटी, ऐ बेटी। हूँ ! पिता नारायन कह रहा है-अरी बेटी तेरे पास इस खुले में हम पड़े हैं, तू जल्दी ठीक हो जा। हम गाँव लौट चलेंगे। तुझे साहब बुला रहे हैं, तू सुन रही है ना ?
सुनीति अपनी भावनाओं के हरे आसमान से नीचे इस माटी की पृथ्वी पर उतर आती। वह खाट पर लेटे-लेटे अंदर-ही-अंदर अपना वही रोजाना का गीत गुनगुना रही है। वह नहीं जानती कि उसके चारों-ओर कौन हैं और वह कहाँ है ! सभी कान लगाकर सुनते हैं क्योंकि कोई किसी को देख नहीं पाता, सबकी आँखों में अंधी पोटलियाँ बँधी हैं। सुकुमार सेन रोटरी गवर्नर बने हैं। वे देख रहे हैं इस धूल-माटी में लोटते जीवों को। उनका मन अंदर से हाहाकार कर उठता है, विशेषकर उस कोमल कली के लिए...क्या उसके लिए कुछ किया जा सकता है ? चेहरा देखते ही मोह होने लगता है, ममता से दिल भर उठता है....!
सुनी, तू शहर जाएगी, अंधों के स्कूल में पढ़ेगी, गाना सीखेगी ? तू तो बहुत अच्छा गा लेती है। इससे मुझे क्या मिलेगा साहब ? देख तो पाती नहीं, पढ़ूँगी कैसे ? मेरे पिता को खाना बनाकर कौन देगा ? अच्छा चलो, यदि तुम्हारे बाप-भाई को साथ ही ले चला जाए तो क्या तू पढ़ेगी ? उत्कंठा से सुनी का हाथ बेवश होने लगता। बचपन में सोचा करती थी-वह स्कूल जाएगी, सबकी तरह पढ़ेगी, लेकिन उसके सारे सपने गाँव के बाहर केवड़े की जड़ों में दफन गए, वह अंधी हो गई।
नरिया और बेटा सुभाष मंत्री जी की कोठी में माली का काम करते हैं। सुनीति ने खूब पढ़ाई की। अब वह संगीत महाविद्यालय की मेधावी छात्र है।
समय लंबे-लंबे डग भरता काफी आगे निकल चुका है। पीछे छूट गया है-सुनीति के झुके हुए घर का छप्पर, नरिया का मैला-कुचैला फटा अंगोछा और सुभाष के बिल्ली के बच्चे व खेल की लकड़िया। अतीत और भी अतीत हो गया है। वे लोग साफ धोती और बनियान पहनते हैं। हवाई चप्पल पहनते हैं। इस तरह काफी कुछ हो चुका है। सुनी हर रोज रिक्शे में बैठकर कॉलेज जाती है। रास्ते में कहीं से उसके लिए अशेष करुणा उमड़ पड़ती- वह देखो, अंधी लड़की जा रही है जैसी दबी-दबी सी आवाज उसके कानों में पड़ती। किया भी क्या जा सकता है। यह कोई गाँव का रास्ता तो है नहीं कि टोहते हुए पैदल जाया करे। आगे-पीछे से बड़ी-बड़ी मोटर-गाडि़याँ भूतों की तरह दौड़ आएँगी। इसके अलावा लोगों की जीभ भी भालू की तरह उसे चाटने की लपलपाने लगेगी। यह शहर जो है ! सुनी-सुनीति सुन-सुनकर अपने मानस-चक्षु से इतना तो देख ही सकती है। इस शहर की चकाचौंध होनी-अनहोनी का स्वर सुन सकती है...। बीच-बीच में हरि भाई शहर का चक्कर लगा जाता है। उसकी पार्टी के मंत्री उसे बहुत मानते हैं। सारी घटनाएँ जटायु पक्षी की तरह आकाश में धूप-छाँव-सी लंबी-लंबी लकीरें बनाकर उड़ रही हैं।
उनमें से किसी ने किसी का इंतजार नहीं किया, किसी ने किसी के लिए पीछे मुड़कर नहीं देखा।
हर रोज की तरह सूर्य निश्चित रूप से उस दिन भी पूर्वी आकाश में सीना तानकर फुदकते हुए ऊपर चढ़ा होगा।
नरिया-नारायन माली अब सोचता है कि कितना ही पढ़-लिख लेने, गाना गाने से क्या होगा ? सुनी को किसी के साथ अच्छी तरह बाँधे बगैर आखिर कब तक वह इस तरह रखवाली करता रहेगा ? कौन जाने किस क्षण क्या हो जाए- कुछ देख तो पाती नहीं। एक आँख से बहुत ही धुँधला-धुँधला सा दिखाई देता है, उस गाँव में ऑपरेशन के बाद उसकी बेटी को इतना ही फायदा हुआ है। लेकिन सुनी अंधी है। सुनी की शादी करने के लिए कोई भी काफी सोच-समझकर हाथ बढ़ाएगा। काश ! आज इसकी माँ होती तो वह अंधी बिटिया इस तरह व्याकुल-सी शहर की ओर न भागती। कौन जाने शहर आकर उसे कितना फायदा हुआ। उसका गाना सुनकर मंत्री, यंत्री, आफिसर, बड़े बाबू, भैया सबने वाह-वाह किया और उसका रूप देखकर...पिता होकर वह सोच नहीं पा रहा। छोटे-बड़े सभी ताकते रह जाते हैं। सुनी नहीं देख पाती, पर वह तो अपनी दोनों आँखों से देखता है, और मास्टर लोग वे तो गुरु हैं। छि:। कैसा घोर कलियुग आ गया। ये भला कैसे गुरु है ! कैसे देश के रक्षक, देश के चालक हैं वे लोग ! इसके अलावा न जाने सुनी को कहाँ-कहाँ बुलावा आता है। कहते क्या हैं कि प्रोग्राम है। हालाँकि नरिया इस शहर में दस वर्षों से माली का काम करता आया है, पर वह हरिया भाई के दबाव के कारण ही वरना उसका मन भला यहाँ-कहाँ लगता है। किंतु उसे हमेशा वही अदृश्य भूत दबोचे रहता है। सुनी का भाई सुभाष बड़ा हो गया है। थोड़ा-बहुत पढ़ने लगा है। बहन से बहुत घबराता है। अंधी होते हुए भी वह सुभाष की सारी गतिविधियाँ जान लेती है। इस तरह की कई चिंताओं से नरिया परेशान रहता। वह एक भी गाँठ नहीं खोल पाता। गाँठ और मजबूत होती जाती है।
उस दिन हरि आने को कह गया था। सुनी को किसी बड़े आदमी के पास ले जाएगा। नौकरी मिल जाएगी। सुनी कमाएगी तो उसे अच्छा वर मिलेगा। नरिया आकाश-पाताल, नीचे-ऊपर न जाने क्या-क्या सोच रहा था। यदि इतनी ही फिक्र है सुनी के भविष्य की, तो हरिया खुद ही शादी क्यों नहीं कर लेता सुनी से ? अंधी लड़की को एक सहारा मिल जाता, वह सुनी को लिए-लिए इसके-उसके दरवाजे क्यों डोलता है ? सारी बातें दूसरों को उपदेश देने के लिए ही हैं, खुद के लिए कुछ नहीं बचता ?
सुनी निर्धारित समय पर रिक्शा में बैठने निकल पड़ी। टोहते हुए जाकर पिता को पकड़कर बोली-बापू, आज बड़े बाबू के पास जाना है, हरि भाई ने कहा है- यह कहते हुए वह हकलाने लगी। सबकुछ सुनने के बाद नरिया ने केवल सुनी का सिर सहलाते हुए कहा, ‘‘जा बेटी, भगवान तेरी मदद करे। इस शहर में सिर्फ गिद्धों के झुंड मँडरा रहे हैं। अब ये मरे हुए सड़े-गले शव न खाकर मनुष्य का ताजा मांस खाते हैं, रे बेटी...। !’’
हमेशा पिता की हताशभरी बातें सुनते-सुनते सुनी को आदत-सी हो गई है। उसे जीना होगा अपने लिए, अपने पैरों पर खड़ा होना होगा। वह तो अयोग्य है। वह तो अंधी है। उसे भला कौन अपनाएगा। मन के अँधेरे कोने में हरि भाई दिख जाता है। बचपन से ही परछाई की तरह साथ है। उसकी ममताभरी बातें अमृत-सी लगती हैं। कितना दर्द भरा होता है उनमें। उस दिन कह रहा था- सुनी, तुम्हें किसी के हाथों में सौंप देने को दिल नहीं करता। तुम जैसी लड़की करोड़ों में एक नहीं मिलेगी। लेकिन बातें मुँह में ही रुक जातीं। पेट में सारी यातनाएँ उतराती हैं। सुनी के सुंदर मक्खन-जैसे दोनों हाथ अपने रूखे चेहरे के चारों ओर फिर जाते हैं। उसकी दया का स्वर छलक उठता।
सुनी के दिल में आग की भभक उठती है। मन के वे अधजले कोयले फिर जल उठते हैं। पूरे शरीर में जो सिहरन, जो अपूर्व रोमांच उठता है वह अकथनीय है। काश ! हरि भाई उसके दोनों हाथ उसी तरह थामे रहता, युगों तक, उन्हें कभी न छोड़ता, लेकिन वह तो दूर होता जा रहा है। जाने दो। वह राजनेता है। वह कमेरू है। वह यह पत्थर गले में क्यों बाँधे ? किंतु सुनीति सोचती है, उसके भी शरीर में एक स्नेहभरा मुलायम दिल है। इस शरीर को इस तरह विकल-विवर्ण क्यों करे ? वह कोई पत्थर नहीं, बल्कि एक जीती-जागती नारी का प्राण है।
हरिहर शत-शत बाधा-बंधनों को छिन्न-भिन्न कर अंधी सुनी को अपनाने के लिए मानसिक तैयारी की राह में धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। सुनी के गले की मधुर झंकार से उसके दिल के हर तार बज उठते हैं। बस की रफ्तार बढ़ ही नहीं रही। सभी स्टॉप पर रुक-रुक कर चल रही है। सुनी से कह आया था। आज बड़े बाबू के पास ले जाएगा। सुनी के उज्जवल भविष्य के लिए उसका आशावान मन व्याकुल है। किंतु उसके माँ-बाप, रिश्तेदार और कुटुंब संभवत: अड़ जाएँ। क्यों इतना योग्य बेटा एक दरिद्र अंधी को ब्याह कर लाएगा। मनुष्य की तरह आँख, कान, नाक, वाली बहू आएगी तो सबकी देख-रेख करेगी, घर सँभालेगी, बोझ भर कूड़े-करकट की तरह एक अंधी लाकर घर के कोने में पटकने से क्या लाभ।
कुएँ पर तो हमेशा लोग रहते हैं। मर्द-औरत बार-बार आते-जाते रहते हैं। इतने बड़े टोले में उनके घर के पिछवाड़े ले-देकर एक ही बावड़ी है। कोई दतून करते हुए हाथ में लोटा लिए हुए आ जाती है तो किसी घर से गगरी-मटकी कमर पर धरे बहू-बेटियाँ आकर खड़ी हो जाती हैं; दोपहर में भी फाँका नहीं मिलता। उस दिन सारा काम खत्म करके साबुन लेकर खूब सहमी हुई-सी कुएँ पर गई थी राधा। कुछ देर खड़ी होकर चारों-ओर नजर दौड़ाई उसने। सहसा किसी ने पीछे से आवाज दी, ‘‘किसकी राह तक रही हो, भौजी ?‘‘
चौंकते हुए पीछे मुड़कर देखा राधा ने। छोटी खिड़की के उस ओर से खिलखिलाकर हँस पड़ी पड़ोस के घर की ननद-सी शैला। सिर का पल्लू ठीक करते हुए घर की ओर भागी राधा।
एक दृश्य समाप्त हो गया। राधा को लगता है, उसके जन्म से लेकर आज तक कैमरेवाला उसके पीछे-पीछे चलते हुए सारी घटनाओं का सिनेमा बनाता जा रहा है। कई बार बैठी-बैठी मन-ही-मन वही सिनेमा देख जाती राधा-जिस तरह बचपन में पिताजी के साथ जाकर सिनेमा देखा करती थी वह।
क्या आज की घटना की तसवीर खींच ली होगी उस अदृश्य कैमरेवाले ने अपने कैमरे से ? काफी आगे जो जोड़ना पड़ेगा उस फिल्म में। पर आज जैसा दृश्य फिर कभी मिलना उसके लिए संभव नहीं होगा। आज अमित आया था। अपनी पत्नी को साथ लेकर राधा को देखने। यदि सुपरिटेंडेंट साहब ने पहले से न बताया होता तो राधा उन्हें पहचान ही न पाती। पहचानती भी कैसे ? एक साल के छौने को छोड़कर आई थी वह। छोड़कर कहाँ आई थी, बल्कि उससे छीन लिया गया था।
उस दिन बहुत जोरों की गर्मी पड़ रही थी। घर का सारा काम खत्म करते-करते वह काफी थक चुकी थी। थोड़ी देर लेटकर आराम करने वह अपने कमरे में चली आई। बेटा अमित खा-पीकर सो रहा था। राधा बिस्तर पर बैठी ही थी कि उसकी नींद खुल गई। माँ का पल्लू पकड़कर खींच-खींचकर उसे उठाने लगा अमित। राधा उसे समझाने-बुझाने लगी, लड़ियाने लगी, तरह-तरह के गीत सुनाकर, सुलाने की कोशिश करने लगी। किंतु सब बेकार गया। गुस्से में एक थप्पड़ जड़ दिया राधा ने।
घर-द्वार कँपाकर दहाड़ें मार-मार कर रोने लगा अमित। दूसरे कमरे में दरवाजा अधखुला करके सो रही थीं सास, झटपट उठ बैठीं। उस समय राधा खाट से उठकर बेटे को मनाने की केशिश कर रही थी-और सास के डर से काँपती भी जा रही थी ! सास धम्म से कमरे में आईं और उसके हाथों से बेटे को छीन ले गईं।
ढं...........ढं.....करके बज उठा अस्पताल का घड़ियाल। राधा ने सुना सात। शाम के सात बज गए। बाहर रात का भोजन लेकर आनेवाली ट्रॉली की आवाज सुनाई दे रही है-परोसनेवालियों की बातचीत भी। मुलायम पनीले अँधेरे को ज्यादा देर तक पकड़ रखने को आतुर थी राधा। और थोड़ा-सा सिनेमा देखा जा सकता है निश्चिंत हो। उसने बत्ती नहीं जलाई। आकाश में यहाँ-वहाँ निकले नन्हें-नन्हें एकाकी तारे मानो उसे जरा-सी रोशनी देने के लिए धकियाकर बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हों।
अमित वैगरह गाड़ी में बैठ चुके होंगे। यहाँ के लोग कहते थे स्टेशन ज्यादा दूर नहीं है। हालाँकि कि कभी वह स्टेशन से ही यहाँ आई थी। लेकिन बहुत दिन पहले की बात है। आज कुछ ठीक-ठीक याद नहीं। उसी दिन इस चहारदीवारी से बाहर नहीं गई राधा।
उस दिन उसके हाथों से बेटे को छीनकर चिल्ला उठी थीं सास,’’राक्षसी, लगता है जान ही ले लेगी बच्चे की। दिन-भर रानी बनी खाट पर लेटी रहेगी। बच्चा जरा रो पड़ा तो मारने लगी। चल निकल जा, इस घर से ।’’
उसके बाद घूँसे, लात, चुटिया पकड़कर खींचना। बुखार में पड़ी-पड़ी कमजोर हो गई थी राधा। तिस पर दिन-भर का काम। सह न पाकर नीचे गिर पड़ी। ट्रंक का कोना लगकर सिर से खून बहने लगा। दादी माँ के गले से लिपटकर लगातार रोता जा रहा था अमित।
बहुत मुश्किल से खुद को सँभालकर खड़े होने की कोशिश की राधा ने। सास फिर दौड़ आईं हाथ उठाकर। अब धैर्य नहीं रहा। बदन में जितनी भी ताकत बची थी, सब लगाकर सास का हाथ जोर से पकड़ लिया राधा ने।
‘‘अरे, मुझे मार डाला रे ! दौड़ो रे, कहाँ हैं सब ?’’ सास की चीत्कार से टोला-पड़ोस के लोगों की दोपहर की पतली नींद उड़ गई। पूरा कमरा भर गया लोगों से। सास ने सुबकते हुए कहा, ‘‘दो अक्षर पढ़ गई है तो क्या मेरी जान ले लेगी। बच्चा जिद कर रहा था तो उसे मारे डाल रही थी। मैं समझाने आई तो मेरा हाथ मोड़कर मारने को झपट पड़ी। तुम सब न आये होते तो अब तक मार चुकी होती। आज यह राक्षसी यहाँ से न गई तो मैं इस घर का पानी तक नहीं छूऊँगी।’’
राधा हतप्रध-सी खड़ी थी। सिर की चोट से खून बह रहा था। क्या किसी की नजर नहीं पड़ रही इस पर ? कहाँ, कोई तो नहीं पूछ रहा कि उसका सिर कैसे फटा ? क्रोध और अभिमान से उसकी आँखों से आँसू भी सूख गए। चुपचाप सुन गई तरह-तरह की गालियाँ। बाप-भाई से लेकर उस तक अश्राव्य भाषा में लगातार गालियाँ बरस गईं। बुद्धू-सी सिर्फ देखती ही रह गई वह।
राधा के कमरे की बत्ती सहसा जल उठी। सभी थाली लेकर खाने बैठ चुकी हैं। जैबुन नाम की जो मुसलमान लड़की हाल ही में यहाँ आई है, वह थाली की रोटी तोड़-तोड़कर चारों-ओर फेंकती रहती है, और कभी चिल्ला-चिल्लाकर तो कभी चुपचाप रोती रहती है। जिस दिन से वह लड़की आई है, कुछ खाना ही नहीं चाहती। साहब लोगों को और नर्सों को काफी परेशान कर चुकी है।
पास रखी थाली की ओर राधा ने। रोजाना की तरह रोटियाँ और मिलवा सब्जी। कटोरी में पनीली दाल थोड़ी-सी। इतनी सब्जी उसे मिली होती तो कितना स्वदिष्ट पकाती वह। भला-यहाँ कोई पागल-पागलियों के लिए मन से खाना क्यों पकाएगा। शुरू-शुरू में वह भी नहीं खाती थी। खाने को जी ही नहीं करता था। पर बिना खाये आखिर कितने दिनों तक रहा जा सकता है !
रात को आँखों के आगे से एक-एक करके सिनेमा का दृश्य बदलता जा रहा है। थाली को हाथ रखकर लौटा लाई वह। उस दिन शाम को घर लौटकर पति ने सारी बातें सास से सुनीं। सच-झूठ जानने को भी उनमें सब्र नहीं था। रसोई के सामने जो भी लकड़ी मिली, उसे उठाकर दहाड़ते हुए वे उसकी ओर लपके। डर से उसकी आँखें मुँद गईं। दो घंटे से वह एक ही जगह पर खड़ी है। लोगों की भीड़ के कारण हाथ-पैर काँपने पर भी वह बैठ नहीं पा रही है।
मार से राधा का सिर फट गया। हाथ-पैर से खून निकलने लगा। कुछ देर बाद वह बेहोश हो गई। बहुत मुश्किल से शायद किसी की खींचा खाँची से जब वह उठकर बैठी, उसका बक्सा और बिस्तर बाहर चबूतरे पर रखा था। बैलगाड़ी के पास खड़े पति ने कहा, ‘‘अब देर मत कर ! जा, जाकर बैठ गाड़ी में। तुझे छोड़कर आने पर ही शांति होगी इस घर में।’’
उसके बाद पिता का घर। पहले काफी दिनों तक रोती रही राधा। मन हमेशा अमित के लिए छटपटाता रहता। थोड़े दिनों के बाद कुछ याद नहीं रहा। कभी-कभी राधा मन-ही-मन रोती, और कभी गुमसुम बैठी रहती। सबने कहा उसका दिमाग खराब हो गया है। वह पागल हो गई है। उसका इलाज करवाओ।
बहुत विरोध किया राधा ने। उसका अंतस हाहाकार कर उठा-‘हे प्रभु ! क्या इस दुनियाँ में कोई भी समझदार आदमी नहीं है ? क्या मैं इसी तरह एक जगह से दूसरी जगह बहकर जीती रहूँगी ? और बहती-बहती कहाँ बिला जाऊँगी, कोई जानना भी नहीं चाहेगा ?’
उसके भाई ने थोड़ा-सा विरोध किया था। राँची गई तो वहाँ पागलों के बीच रहते-रहते वाकई पगला जाएगी। फिर ठीक नहीं हो सकेगी। किंतु राधा आ गई-उसे यहाँ ले आया गया। शुरू-शुरू में भैया आये थे एकाध बार देखने ! फिर वे भी नहीं आए। पति के पास, भैया के पास डॉक्टरों ने पत्र लिखा- ‘‘राधा अच्छी हो गई है। अब उसे ले जा सकते हैं।’’
कई साल बीत गए-अब तक कोई जवाब नहीं आया।
आज अमित के आने की खबर सुनकर राधा का मन नाच उठा था। इतने दिनों बाद प्रभु जगन्नाथ ने अपनी पुकार सुनी। आखिर है तो बेटा ही ! बड़ा होकर लोगों से सारी बातें सुनी होंगी। माँ पर हुए अत्याचार की बात सुनकर उसका दिल जरूर रोया होगा। आज वह अमित के साथ लौट जाएगी। ससुराल या मायके नहीं जाएगी।
अमित आश्चर्य और भय-मिली आँखों से माँ को देख रहा था। उसकी पत्नी भी। अमित को सिर से पैर तक एक बार सहला गयी राधा। बहू को लड़ प्यार किया। कुछ डर या घृणा से शायद पीछे सरक आई वह!
‘‘अब मेरा दिमाग बिलकुल ठीक है, बेटे ! डॉक्टर साहब कई चिट्ठियाँ लिख चुके हैं घर। कोई मुझे लेने नहीं आता। तू आज डॉक्टर से कहकर मुझे लिवा चल। मैं तेरे ही पास रहूँगी। तुम लोगों का सारा काम करूँगी। कुछ नहीं माँगूँगी तुमसे। भला मुझे अब जरूरत है ही किस चीज की ? तेरे ही खातिर रो-रोकर पागल हो गई थी। अब तो तू अपने पैरों पर खड़ा हो गया है प्रभु जगन्नाथ, तेरी खूब उन्नति करें। मुझे यहाँ से ले चल बेटे !’’
अमित के दोनों हाथ जोर से पकड़कर बच्चों की तरह मना कर रही थी राधा। अमित किंकर्तव्यविमूढ़-सा अपनी पत्नी इरा की ओर देख रहा था। उसने सुना था कि उसकी माँ काँके अस्पताल में बहुत सालों से है। जमशेदपुर से राँची ज्यादा दूर नहीं है। उसने सोचा कि छुट्टी के दिन पत्नी के साथ घूम आएगा और माँ को भी देख आएगा। कुछ फल-फूल खाने-पीने की चीजें लेकर। इस तरह अचानक आपदा आ जाएगी, इसकी तो आशंका तक उसने नहीं की थी। अब तो गाड़ी का समय भी हो चला है।
अमित को कमरे के एक कोने में बुला ले गई इरा और धीरे-धीरे बोली,‘‘तुम्हें देखकर शायद उसका पागलपन बढ़ गया है। समझाकर कह दो दुबारा लिवा ले जाऊँगा।’’ राधा ने सब कुछ सुन लिया। घर से बाहर निकलते समय जो आँखें सूख चुकी थीं, उनमें आँसुओं की बाढ़ उमड़ पड़ी। उन झिलमिलाती आँखों से राधा देख रही थी-अमित और इरा उसकी ओर पीठ किए चले जा रहे हैं दूर, और दूर।
आकाश में चाँद निकला है। सफेद बादलों के टुकड़े उसके नीचे-नीचे बहते जा रहे हैं। कहाँ जा रहे हैं ये ? कौन बहाए लिए जा रहा है उन्हें ? क्या उसी की तरह असहाय, अवांछित हैं ये ?
राधा इरा को एक कोने में बुला ले गई। अति आग्रह से उसका हाथ अपने हाथों में लेकर उसने उसका कुशलक्षेम पूछा। अमित उसे प्यार करता है या नहीं-उससे अच्छा सलूक करता है न ? पहले कुछ चकित हुई इरा ! उसके बाद समझ गई- शायद खुद से मेरी तुलना कर रही हैं सास। सिर हिलाकर एक तृप्ति-भरी मुस्कान छोड़ी इरा ने। राधा समझ गई-इरा सुखी है। उसके जीवन की पुनरावृत्ति शत्रु के जीवन में भी न हो ।
किंतु कौन सुनेगा उसकी बात ? बचपन में राधा ने देखा है कि घर का सारा काम वही करती रही है। पर घर में खाने की कोई अच्छी चीज आती तो माँ पहले भैया और छोटे भाई-बहनों को देतीं। पर्व-त्यौहारों में जब पिता जी कपड़े लाते तो छटा-छटाया कपड़ा उसी के हिस्से में पड़ता। उन दिनों कितना बुखार चढ़ा था राधा को। आँखें तक नहीं खुल रही थीं। प्यास से गला सूख गया था। बूँद-भर पानी पिलाने को कोई नजदीक नहीं आ रहा था-डॉ. बुलाने की बात कौन पूछता है ? पर भैया को कहीं खरोंच तक लग जाती तो घर-भर में हल्ला मच जाता। इतने कष्ट में भी राधा बच गई थी। और हैरान-सी सोचती थी, उसने क्या किया है ? उसका कसूर क्या है ? उसे दूसरों से हीन क्यों समझा जा रहा है ? फिर भी उसने कभी किसी पर अपना आक्रोश प्रकट नहीं किया। कभी दुःखी नहीं हुई-अनजाने ही नसीब को स्वीकार कर लिया था उसने।
कुंतला कुमारी आचार्य
विलाप
इसके साथ ही हर ओर का अँधेरा सुनीति की आँखों में अंधी पोटलियों-सा बँध चुका था।
उस वक्त शायद वह आठ-दस साल की बालिका रही होगी। बाप, दीन, दरिद्र खेतिहर मजदूर। दूसरे गाँव के क्लब में आँखों का कैंप लग रहा है। कई गाँवों के निकम्मे युवक आकर बता रहे हैं। नाम, गाँव लिखकर ले जा रहे हैं। किसी का मोतियाबिंद, किसी की रतौंधी और किसी का काला मोतिया सब ठीक हो जाएगा। बड़े-बड़े डॉक्टर आएँगे। रोटरी क्लब के लोग भी आएँगे। आस-पास के दस-पंद्रह गाँव के लोगों को आँखें मिल जाएँगी। सबकी आँखों की ज्योति लौटाने का यह एक अच्छा धर्मार्थ कार्य है। बुढ्ढे बहुत खुश हैं, तीन दिनों तक मुफ्त में खाना मिलेगा, मुफ्त में आँखों का ऑपरेशन होगा, चश्मा मिलेगा, वाह !
उस रोज सुनीति ने अपने पिता से खूब मिन्नत-भरी आवाज में कहा था, ‘‘पिता जी, मुझे वहाँ ले चलो, मुझे तो बिलकुल दिखाई नहीं देता।’’ जी-भरकर रोने की बजाय खूब जोरों से हँसा था नरिया उर्फ नारायन बेहेरा। ‘‘अरी पगली, यदि इसी तरह ये लोग अंधों की आँखें ठीक करने लगें तो इस देश में कोई अंधा रह ही नहीं जाएगा और यदि हम लोग चलें भी तो इस समय मेरे पास एक फूटी कौंड़ी भी नहीं है। तेरे इस मैले-कुचैले कुर्ते में क्या वे तुझे उस कैंप में भर्ती करेंगे ?’’
‘‘पिता जी ! हरि भाई कह गया है कि वहाँ जाने के लिए कपड़े-लत्ते नहीं चाहिए पैसे-वैसे भी नहीं चाहिए। हम नौटंकी या मेला देखने थोड़े ही जा रहे हैं।’’ नरिया को याद आ गया कि जब वह पाँच साल की थी, अपनी उस रानी बिटिया को नौटंकी दिखाने वह पाँच कोस तक कंधे पर बिठाकर पैदल जाया करता था।
नारायन, आँखों में आँसू भरे सिर्फ अंधी बेटी के बिखरे बालों को अति स्नेहपूर्वक सँवारने लगा। बेचारी ! हठात् चेचक का ऐसा प्रकोप हुआ कि मेरी प्यारी-सी बिटिया की आँखें चली गईं। पूजनीया माता होकर भी उसने ऐसा गुस्सा क्यों किया ? यह बच्ची उसकी भी तो है। तो फिर उसने ऐसे क्यों किया ? बिन माँ के बच्चे, एक लड़का और एक लड़की के साथ नरिया बेहेरा अपना परिवार ऐन-केन-प्रकारेण चला रहा है। बेटी अंधी होते हुए भी काफी समझदार और बुद्धिमती है। टोह-टोहकर जाकर वह पोखर से पानी भर लाती है। भाई को साथ लेकर हाट-बाजार करके अधिक नमकवाला अथवा फीका खाना पूरे परिवार के लिए पका लेती है। जब गाँव के योगी मास्टर किसी के चबूतरे पर बैठे मनबोध चौंतीसा या रामायण का अयोध्याकांड या उपेंद्र भंज के लावण्यवती की सुर लहरी बिखेरते, सुनीति अपने टूटे-फूटे चबूतरे पर बैठी वह सब चुपचाप मन-ही-मन गुनगुनाती, उनके सुर से सुर मिलाकर उन्हें दोहराती और उसे सबकुछ याद हो जाता। महाभारत की गांधारी के बारे में सुनकर वह जी-भरकर हँसती। इतनी बड़ी राजकुमारी होकर भी उसने अंधे धृतराष्ट्र से शादी की थी। आँखें काम न करने पर भी तो उसने सौ बच्चों को जन्म दिया।
गीत गाना मानो उसकी जन्मजात कला थी, इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता। उसने लोगों के ताने अपने कान से सुने हैं। अरे, एक तो अंधी, ऊपर से यह गाने का शौक पाल रखा है। छि:-छि:, यह कैसा युग आ गया ? सुनीति के कानों में ये सारी बातें पड़ती। परंतु वह उन्हें अनसुनी कर जाती। आखिर क्यों सुने ? क्या वह सबकी तरह है जो सुने ? हरिया हर समय टोह लेता रहता है। जब कभी नारायन किसी के खेत में पानी लगाने या किसी की बावड़ी खुदाई करने चला जाता, न जाने किस लालच में हरिया उस आठ-दस साल की लड़की सुनीति और उसके भाई की रखवाली उनके चबूतरे पर लाठी डालकर लेटे-लेटे करता रहता।
वही हरिया सुनीति को कह गया है- आँख के कैंप में जाने के लिए। उसे उसकी आँखें फिर मिल जाएँगी। उस गाँव में रेडियो बजते हैं। युवा संघ में कभी-कभी टी.वी. यंत्र भी चलता है, जिसमें छोटी-छोटी तसवीरें सिनेमा की तरह दिखलाई देती हैं। हरि भाई के मुँह से ऐसी बातें सुन-सुनकर उसकी आँखें फड़फड़ाने लगतीं, लेकिन उसके आगे तो एक बड़ी अँधेरी पृथ्वी है। कभी-कभी सुनीति अपने उन दिनों को याद करती हैं जब उसकी आँखें थीं। उम्र यही कोई पाँच या छह साल की रही होगी। उसे भला ठीक से याद कहाँ है ! परन्तु इतना जरूर याद है कि आसमान किसे कहते हैं। सूर्य, चंद्र, तारे, गाँव, तालाब का रास्ता, उनके घर के सबसे बाहरी द्वार पर छोटे झुके हुए फूस के छप्पर पर लौकी की बेलें आदि के बारे में उसकी माँ उससे बतियाया करती थी। सुबह होती है, शाम होती है, रात को अँधेरा होने पर चारों ओर काला-काला दिखाई देता है इत्यादि। बिसरी बातें सोचा करती नारायन बेहेरा की बेटी सुनीति बेहेरा, अर्थात्, सनी, सोनी न जाने कितने नाम थे उसके। किंतु गाँव के लोग कहते वह ‘अंधी हैं, इसलिए वह उसी नाम से जानी जाती। हे भगवान् ! एक मासूम लड़की को इस संकट में डालकर जिंदगी भर के लिए एक अनावश्यक मिट्टी का ढेर क्यों बना दिया ? इस सवाल का जवाब कभी कोई नहीं दे सका।
आँखों कै कैंप, आतुर, आकुल परिवेश। लोग एक कतार में लेटे हुए हैं। सुकुमार सेन घूम-घूमकर देख रहे हैं-वास्तव में किसके साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा है। कोई बुला रहा है बेटी, ऐ बेटी। हूँ ! पिता नारायन कह रहा है-अरी बेटी तेरे पास इस खुले में हम पड़े हैं, तू जल्दी ठीक हो जा। हम गाँव लौट चलेंगे। तुझे साहब बुला रहे हैं, तू सुन रही है ना ?
सुनीति अपनी भावनाओं के हरे आसमान से नीचे इस माटी की पृथ्वी पर उतर आती। वह खाट पर लेटे-लेटे अंदर-ही-अंदर अपना वही रोजाना का गीत गुनगुना रही है। वह नहीं जानती कि उसके चारों-ओर कौन हैं और वह कहाँ है ! सभी कान लगाकर सुनते हैं क्योंकि कोई किसी को देख नहीं पाता, सबकी आँखों में अंधी पोटलियाँ बँधी हैं। सुकुमार सेन रोटरी गवर्नर बने हैं। वे देख रहे हैं इस धूल-माटी में लोटते जीवों को। उनका मन अंदर से हाहाकार कर उठता है, विशेषकर उस कोमल कली के लिए...क्या उसके लिए कुछ किया जा सकता है ? चेहरा देखते ही मोह होने लगता है, ममता से दिल भर उठता है....!
सुनी, तू शहर जाएगी, अंधों के स्कूल में पढ़ेगी, गाना सीखेगी ? तू तो बहुत अच्छा गा लेती है। इससे मुझे क्या मिलेगा साहब ? देख तो पाती नहीं, पढ़ूँगी कैसे ? मेरे पिता को खाना बनाकर कौन देगा ? अच्छा चलो, यदि तुम्हारे बाप-भाई को साथ ही ले चला जाए तो क्या तू पढ़ेगी ? उत्कंठा से सुनी का हाथ बेवश होने लगता। बचपन में सोचा करती थी-वह स्कूल जाएगी, सबकी तरह पढ़ेगी, लेकिन उसके सारे सपने गाँव के बाहर केवड़े की जड़ों में दफन गए, वह अंधी हो गई।
नरिया और बेटा सुभाष मंत्री जी की कोठी में माली का काम करते हैं। सुनीति ने खूब पढ़ाई की। अब वह संगीत महाविद्यालय की मेधावी छात्र है।
समय लंबे-लंबे डग भरता काफी आगे निकल चुका है। पीछे छूट गया है-सुनीति के झुके हुए घर का छप्पर, नरिया का मैला-कुचैला फटा अंगोछा और सुभाष के बिल्ली के बच्चे व खेल की लकड़िया। अतीत और भी अतीत हो गया है। वे लोग साफ धोती और बनियान पहनते हैं। हवाई चप्पल पहनते हैं। इस तरह काफी कुछ हो चुका है। सुनी हर रोज रिक्शे में बैठकर कॉलेज जाती है। रास्ते में कहीं से उसके लिए अशेष करुणा उमड़ पड़ती- वह देखो, अंधी लड़की जा रही है जैसी दबी-दबी सी आवाज उसके कानों में पड़ती। किया भी क्या जा सकता है। यह कोई गाँव का रास्ता तो है नहीं कि टोहते हुए पैदल जाया करे। आगे-पीछे से बड़ी-बड़ी मोटर-गाडि़याँ भूतों की तरह दौड़ आएँगी। इसके अलावा लोगों की जीभ भी भालू की तरह उसे चाटने की लपलपाने लगेगी। यह शहर जो है ! सुनी-सुनीति सुन-सुनकर अपने मानस-चक्षु से इतना तो देख ही सकती है। इस शहर की चकाचौंध होनी-अनहोनी का स्वर सुन सकती है...। बीच-बीच में हरि भाई शहर का चक्कर लगा जाता है। उसकी पार्टी के मंत्री उसे बहुत मानते हैं। सारी घटनाएँ जटायु पक्षी की तरह आकाश में धूप-छाँव-सी लंबी-लंबी लकीरें बनाकर उड़ रही हैं।
उनमें से किसी ने किसी का इंतजार नहीं किया, किसी ने किसी के लिए पीछे मुड़कर नहीं देखा।
हर रोज की तरह सूर्य निश्चित रूप से उस दिन भी पूर्वी आकाश में सीना तानकर फुदकते हुए ऊपर चढ़ा होगा।
नरिया-नारायन माली अब सोचता है कि कितना ही पढ़-लिख लेने, गाना गाने से क्या होगा ? सुनी को किसी के साथ अच्छी तरह बाँधे बगैर आखिर कब तक वह इस तरह रखवाली करता रहेगा ? कौन जाने किस क्षण क्या हो जाए- कुछ देख तो पाती नहीं। एक आँख से बहुत ही धुँधला-धुँधला सा दिखाई देता है, उस गाँव में ऑपरेशन के बाद उसकी बेटी को इतना ही फायदा हुआ है। लेकिन सुनी अंधी है। सुनी की शादी करने के लिए कोई भी काफी सोच-समझकर हाथ बढ़ाएगा। काश ! आज इसकी माँ होती तो वह अंधी बिटिया इस तरह व्याकुल-सी शहर की ओर न भागती। कौन जाने शहर आकर उसे कितना फायदा हुआ। उसका गाना सुनकर मंत्री, यंत्री, आफिसर, बड़े बाबू, भैया सबने वाह-वाह किया और उसका रूप देखकर...पिता होकर वह सोच नहीं पा रहा। छोटे-बड़े सभी ताकते रह जाते हैं। सुनी नहीं देख पाती, पर वह तो अपनी दोनों आँखों से देखता है, और मास्टर लोग वे तो गुरु हैं। छि:। कैसा घोर कलियुग आ गया। ये भला कैसे गुरु है ! कैसे देश के रक्षक, देश के चालक हैं वे लोग ! इसके अलावा न जाने सुनी को कहाँ-कहाँ बुलावा आता है। कहते क्या हैं कि प्रोग्राम है। हालाँकि नरिया इस शहर में दस वर्षों से माली का काम करता आया है, पर वह हरिया भाई के दबाव के कारण ही वरना उसका मन भला यहाँ-कहाँ लगता है। किंतु उसे हमेशा वही अदृश्य भूत दबोचे रहता है। सुनी का भाई सुभाष बड़ा हो गया है। थोड़ा-बहुत पढ़ने लगा है। बहन से बहुत घबराता है। अंधी होते हुए भी वह सुभाष की सारी गतिविधियाँ जान लेती है। इस तरह की कई चिंताओं से नरिया परेशान रहता। वह एक भी गाँठ नहीं खोल पाता। गाँठ और मजबूत होती जाती है।
उस दिन हरि आने को कह गया था। सुनी को किसी बड़े आदमी के पास ले जाएगा। नौकरी मिल जाएगी। सुनी कमाएगी तो उसे अच्छा वर मिलेगा। नरिया आकाश-पाताल, नीचे-ऊपर न जाने क्या-क्या सोच रहा था। यदि इतनी ही फिक्र है सुनी के भविष्य की, तो हरिया खुद ही शादी क्यों नहीं कर लेता सुनी से ? अंधी लड़की को एक सहारा मिल जाता, वह सुनी को लिए-लिए इसके-उसके दरवाजे क्यों डोलता है ? सारी बातें दूसरों को उपदेश देने के लिए ही हैं, खुद के लिए कुछ नहीं बचता ?
सुनी निर्धारित समय पर रिक्शा में बैठने निकल पड़ी। टोहते हुए जाकर पिता को पकड़कर बोली-बापू, आज बड़े बाबू के पास जाना है, हरि भाई ने कहा है- यह कहते हुए वह हकलाने लगी। सबकुछ सुनने के बाद नरिया ने केवल सुनी का सिर सहलाते हुए कहा, ‘‘जा बेटी, भगवान तेरी मदद करे। इस शहर में सिर्फ गिद्धों के झुंड मँडरा रहे हैं। अब ये मरे हुए सड़े-गले शव न खाकर मनुष्य का ताजा मांस खाते हैं, रे बेटी...। !’’
हमेशा पिता की हताशभरी बातें सुनते-सुनते सुनी को आदत-सी हो गई है। उसे जीना होगा अपने लिए, अपने पैरों पर खड़ा होना होगा। वह तो अयोग्य है। वह तो अंधी है। उसे भला कौन अपनाएगा। मन के अँधेरे कोने में हरि भाई दिख जाता है। बचपन से ही परछाई की तरह साथ है। उसकी ममताभरी बातें अमृत-सी लगती हैं। कितना दर्द भरा होता है उनमें। उस दिन कह रहा था- सुनी, तुम्हें किसी के हाथों में सौंप देने को दिल नहीं करता। तुम जैसी लड़की करोड़ों में एक नहीं मिलेगी। लेकिन बातें मुँह में ही रुक जातीं। पेट में सारी यातनाएँ उतराती हैं। सुनी के सुंदर मक्खन-जैसे दोनों हाथ अपने रूखे चेहरे के चारों ओर फिर जाते हैं। उसकी दया का स्वर छलक उठता।
सुनी के दिल में आग की भभक उठती है। मन के वे अधजले कोयले फिर जल उठते हैं। पूरे शरीर में जो सिहरन, जो अपूर्व रोमांच उठता है वह अकथनीय है। काश ! हरि भाई उसके दोनों हाथ उसी तरह थामे रहता, युगों तक, उन्हें कभी न छोड़ता, लेकिन वह तो दूर होता जा रहा है। जाने दो। वह राजनेता है। वह कमेरू है। वह यह पत्थर गले में क्यों बाँधे ? किंतु सुनीति सोचती है, उसके भी शरीर में एक स्नेहभरा मुलायम दिल है। इस शरीर को इस तरह विकल-विवर्ण क्यों करे ? वह कोई पत्थर नहीं, बल्कि एक जीती-जागती नारी का प्राण है।
हरिहर शत-शत बाधा-बंधनों को छिन्न-भिन्न कर अंधी सुनी को अपनाने के लिए मानसिक तैयारी की राह में धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। सुनी के गले की मधुर झंकार से उसके दिल के हर तार बज उठते हैं। बस की रफ्तार बढ़ ही नहीं रही। सभी स्टॉप पर रुक-रुक कर चल रही है। सुनी से कह आया था। आज बड़े बाबू के पास ले जाएगा। सुनी के उज्जवल भविष्य के लिए उसका आशावान मन व्याकुल है। किंतु उसके माँ-बाप, रिश्तेदार और कुटुंब संभवत: अड़ जाएँ। क्यों इतना योग्य बेटा एक दरिद्र अंधी को ब्याह कर लाएगा। मनुष्य की तरह आँख, कान, नाक, वाली बहू आएगी तो सबकी देख-रेख करेगी, घर सँभालेगी, बोझ भर कूड़े-करकट की तरह एक अंधी लाकर घर के कोने में पटकने से क्या लाभ।
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