नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (पेपरबैक) लहरों के राजहंस (पेपरबैक)मोहन राकेश
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नेपथ्य : (पहले से शांत स्वर)
यह पानी.. हाँ है... बस नहीं ... प्यास नहीं ....और प्यास नहीं ...
स्वर शांत हो जाता है।
नंद : अलका !
अलका दाई ओर के द्वार से आती है। वस्त्र और भाव अस्तव्यस्त ।
अलका : कुमार !
नंद : कक्ष में अँधेरा है । दीपक जलाने के लिए अग्निकाष्ठ ला दो।
अलका वापस चली जाती है। नंद चबूतरे के पास जाकर सुंदरी के बालों को सहला देता
है। अलका अग्निकाष्ट लेकर आती है। नंद पास आकर अग्निकाष्ठ के लिए हाथ बढ़ा
देता है।
नंद : लाओ, मुझे दो।
अलका : मैं जला देती हूँ।
नंद: नहीं, मुझे दे दो।
अग्निकाष्ठ उसके हाथ से ले लेता है। लगता है श्यामांग रात-भर अर्द्धमूर्छित
रहा है।
अलका : (आँखें झुकाए हुए)
हाँ कुमार ! इसका अर्थ है कि आप भी रात-भर ।
नंद : मुझे नींद नहीं आई। जाओ, उसे देखभाल की आवश्यकता होगी।
अलका : प्रलाप रुक गया है। लगता है नींद आ गई है। देवी सुंदरी।
नंद : उसे नींद आ गई थी। जाओ, श्यामांग को फिर भी तुम्हारी आवश्यकता पड़ सकती
है।
अलका चली जाती है। नंद पीछे के दीपाधार के कुछ एक दीपक जला देता है। फिर
अग्निकाष्ठ बुझाकर दीपाधार के नीचे रख देता है। उजाला हो जाने से कक्ष की
धुंधली रेखाएँ स्पष्ट हो जाती हैं। चबूतरे पर बिछावन अस्तव्यस्त है, तकिए
अपने स्थानों से हटकर इधर-उधर पड़े हैं। चबूतरे पर और आसपास कुछ फूल और
पुष्पमालाएँ बिखरी हैं। मत्स्याकार आसन पर एक तकिया तिरछा पड़ा है।
मदिराकोष्ठ पर मदिरापात्र औंधा पड़ा है। जिससे एक-एक बूँद मदिरा अब भी टपक
रही है। दो-एक चषक श्रृंगारकोष्ठ और चबूतरे पर पड़े हैं। साधारणतया कक्ष का
रूप आवेशजनित अस्तव्यस्तता की गवाही देता है। सुंदरी आँखें खोलती है और
हल्की-सी अंगड़ाई लेकर तकिए से सिर उठाती है।
सुंदरी : अभी प्रभात नहीं हुआ ?
नंद : अभी नहीं । तुम उठ क्यों गईं ? कुछ देर और सो रहो।
सुंदरी एक तकिए से टेक लगाकर दो-एक तकिए गोद में रख लेती है।
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