नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (पेपरबैक) लहरों के राजहंस (पेपरबैक)मोहन राकेश
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अंक 2
अँधेरा। अंधेरे में टहलती हुई नंद की आकृति प्रकाश होने तक एक छाया-सी नज़र
आती है। नेपथ्य से श्यामांग का ज्वर-प्रलाप सुनाई देता है, धीमा परंतु
स्पष्ट।
नेपथ्य : कोई स्वर नहीं है कोई किरण नहीं है सबकुछ सबकुछ इस अंधकूप में डूब
गया है। मुझे सुलझा लेने दो... सुलझा लेने दो... नहीं तो अपने हाथों का मैं
क्या करूँगा ! कोई उपाय नहीं है... कोई मार्ग नहीं है.. इन लहरों पर से...
लहरों पर से... यह छाया हटा दो... मुझसे मुझसे यह छाया नहीं ओढ़ी जाती |
नंद बोलता है, तो नेपथ्य का स्वर अपेक्षया मंद पड़ जाता है। स्पष्टता नंद के
स्वर में रहती है, परंतु दोनों स्वर एक-दूसरे को काटते चलते हैं।
नंद : (बड़े दीपाधार के पास से झूले की ओर आती हुई छायाकृति: स्वर दबा-दबा
स्वगत)
कितनी लंबी है यह रात, जैसे कि इसे बीतना ही न हो। बार-बार लगता है यह स्वर
रात पर पहरा दे रहा है यही इसे बीतने नहीं देता।
नेपथ्य : स्वर नहीं है... कहीं कोई स्वर नहीं है... इस अंधकूप में सबकुछ खो
गया है... मेरा स्वर... पानी की लहरों का स्वर... 'सबकुछ एक आवर्त में घूम
रहा है... एक चील ...एक चील सबकुछ झपटकर लिए जा रही है... इसे रोको
इसे...रोको
नंद : (झूले के पास से आगे के दीपाधार की ओर आती हुई आकृति)
आधी रात से अब तक यह स्वर नहीं रुका। किस आदेश से इसे रोकूँ ? सोचता था कि यह
रुके, तो कुछ देर सोने का प्रयत्न करूँ। अच्छा हुआ कि सुंदरी तब तक थककर सो
गई थी। वह जाग रही होती, तो जाने इस स्वर से उसे कैसा
लगता !
नेपथ्य : मुझमें साहस नहीं है... किसी में साहस नहीं है। यह चील मुझे लिए जा
रही है... जाने कहाँ नहीं, चील नहीं है ...एक छाया है... काले अंधेरे कूप में
भटकती हुई छाया ...अकेली (कराहकर) मुझे इस कूप से निकालो। इस कूप में पानी
नहीं है इसका पानी कहाँ गया ? इसका पानी कौन ले गया ?.... मुझे पानी दो,
पानी... ।
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