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नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (पेपरबैक)

लहरों के राजहंस (पेपरबैक)

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11998
आईएसबीएन :9788126730582

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श्यामांग : काम ? काम नहीं था। आपने कहा था काम न करने के लिए। कमलताल के पास जो अँधेरा कोना है, कुछ देर के लिए वहाँ चला गया था। वहाँ देखा, ताल की लहरों पर वह छाया उतर रही है । लहरें उसमें गुम हुई जा रही हैं; कमलनाल, कमलपत्र सब उसमें खोए जा रहे हैं। मुझे लगा कि वह छाया धीरे-धीरे उन सबको लील जाएगी, ताल में तैरते हुए राजहंसों के जोड़े को भी। मुझे डर लगा | मैं छाया पर पत्थर फेंकने लगा।

सुंदरी : छाया को हटाने के लिए तुम उस पर पत्थर फेंकने लगे ? श्यामांग : हाँ, एक पत्थर फेंका, तो लगा छाया हिल रही है। वह हिली, परंतु हटी नहीं। तभी हंसों के जोड़े ने पंख फड़फड़ा दिए और जैसे छाया से बचने के लिए वे पुकार उठे । मैंने तब उस छाया पर कई पत्थर लगातार फेंके।

सुंदरी : (और भी आवेश में)
तुम समझते हो कि मैं इन बेसिर-पैर की बातों पर विश्वास कर लूँगी ?

श्यामांग : छाया कई टुकड़ों में बँट गई, मगर फिर ज्यों-की-त्यों हो गई।
तभी न जाने कैसे उसने राजहंसों को अपने में कस लिया जिससे वे चीत्कार कर उठे...।

अलका इस बीच कभी सुंदरी और कभी श्यामांग की ओर देखती रहती है। सहसा वह आगे आ जाती है।

अलका : तुम सच क्यों नहीं कह देते कि अनजाने में तुमसे अपराध हो गया है ? अपराध के लिए तुम क्षमा माँग लो, तो ।

श्यामांग : छाया को हटाना अपराध था क्या ? मैं नहीं जानता था।
अपराध था, तो उसके लिए ।

अलका : क्यों फिर वही बात किए जाते हो ? क्यों नहीं स्पष्ट कह देते कि तुम्हारा मन कहीं और था और तुम्हें पता नहीं चला कि कब तुमने पत्थर उठाए और कब फेंकने लगे ?

श्यामांग : मेरा मन कहीं और था ? पर ऐसा तो नहीं । मन कहीं और होता, तो मैं छाया को देखता किस तरह और..?
सुंदरी आगे आ जाती है।

सुंदरी : मुझे विश्वास है सचमुच तुमने छाया देखी है। जब तुम यहाँ काम कर रहे थे, तब भी वही छाया तुम्हारे सिर पर मँडरा रही थी । वही तुम्हें काम नहीं करने देती थी। आज कामोत्सव के आयोजन में वह छाया किसी को भी न घेरती, तो मुझे आश्चर्य होता। उपाय यही है कि कुछ समय के लिए तुम्हें दक्षिण के अंधकूप में उतार दिया जाए। वहाँ वह छाया तुम्हारे पास तक नहीं फटकेगी।

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