नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (पेपरबैक) लहरों के राजहंस (पेपरबैक)मोहन राकेश
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अलका : (पल-भर चुप रहकर)
तो आप यह कहना चाहती हैं कि ।
सुंदरी : कहना चाहने की बात नहीं, अलका ! मैं एक छोटी-सी सचाई तुझे बतला रही
हूँ। लोग कहते हैं कि गौतम बुद्ध ने बोध प्राप्त किया है, कामनाओं को जीता
है। पर मैं कहती हूँ कि कामनाओं को जीता जाए, यह भी क्या मन की एक कामना नहीं
है ? और ऐसी कामना किसी के मन में क्यों जागती है ?
अलका : धृष्टता के लिए क्षमा चाहती हूँ, देवि ! परंतु ।
सुंदरी : क्षमा चाहने की आवश्यकता नहीं । बात कहने में धृष्टता नहीं होती।
मैं तेरी बात सुनना चाहती हूँ।
अलका : देवी यशोधरा की बात आप जानें । परंतु प्रजा के बच्चों-बूढों तक में
क्यों इतना उत्साह है ? वे संध्या होते ही क्यों नदी-तट की ओर उमड़ पड़ते हैं
? क्या इसका अर्थ यही नहीं है कि ?
सुंदरी : इसका अर्थ इतना ही है अलका, कि बहुत दिन एकतार जीवन बिताकर लोग अपने
से ऊब जाते हैं। तब जहाँ कुछ भी नवीनता दिखाई दे, वे उसी ओर उमड़ पड़ते हैं।
यह उत्साह दूधफेन का उबाल है | चार दिन रहेगा, फिर शांत हो जाएगा।
बाहर उद्यान से हंसों का कलरव और पंखों की फड़फड़ाहट सुनाई देती है।
अलका : पर पहले आज तक कभी...।
सुंदरी : ठहर, सुन । उतरती रात में राजहंसों का कलरव कैसे मन को खींचता है !
अलका : आपने ठीक से सुना नहीं, देवि ! मुझे ऐसे लगा जैसे...।
सुंदरी : बोल नहीं ! चुपचाप सुन !
कलरव धीरे-धीरे शांत पड़ जाता है।
इस स्वर की कहीं तुलना है ? कह नहीं सकती क्या अधिक सुंदर है-ओस से लदे कमलों
के बीच राजहंसों के इस जोड़े की किलोल या इस झुटपुटे अँधेरे में दूर से सुनाई
देता इनका कूजन ! आज पहली बार इन्हें इस समय बोलते सुना है । (जरो हँसकर) कोई
गौतम बुद्ध से कहे कि कभी कमलताल के पास आकर इनसे भी वे निर्वाण और अमरत्व की
बात कहें। ये एक बार चकित दृष्टि से उनकी ओर देखेंगे, फिर काँपती हुई लहरें
जिधर ले जाएँगी, उधर को तैर जाएँगे । शायद उस दिन एक बार गौतम बुद्ध का मन
नदी-तट पर जाकर उपदेश देने को नहीं होगा। मैं चाहूँगी कि उस दिन...।
इस बीच एकाध बार पानी में पत्थर फेंकने का शब्द सुनाई देता है। फिर एक साथ कई
एक पत्थर फेंकने का और उसमें मिला-जुला पंखों की तेज फड़फड़ाहट और हंसों के
आहत क्रंदन का शब्द सुनाई देता है। सुंदरी बोलते-बोलते रुक जाती है और
उद्विग्न दृष्टि से उद्यान की ओर देखती है।
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