गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
ब्रह्मा और विश्वेदेवोंके उद्देश्यसे घरके मध्यभागमें बलि (पूजोपहार) अर्पण करे। पूर्व और उत्तरके कोणमें मन्वन्तरके लिये बलि प्रस्तुत करे। पूर्व दिशामें इन्द्रको, दक्षिण दिशामें यमको, पश्चिममें वरुणको तथा उत्तरमें सोमको बलि दे। घरके दरवाजेपर धाता और विधाताके लिये बलि अर्पण करे। घरके बाहर चारों ओर अर्यमा देवताके निमित्त बलि प्रस्तुत करे। निशाचरों और भूतोंको आकाशमें बलि दे। गृहस्थ पुरुष एकाग्रचित्त हो दक्षिण दिशाकी ओर मुँह करके तत्परतापूर्वक पितरोंके उद्देश्यसे पिण्ड दे। तदनन्तर विद्वान् पुरुष जल लेकर उन्हीं-उन्हीं स्थानोंपर उन्हीं- उन्हीं देवताओंके उद्देश्यसे आचमनके लिये जल छोड़े। इस प्रकार गृहस्थ पुरुष घरमें पवित्रतापूर्वक गृह-देवताओंके उद्देश्यसे बलि देकर अन्य भूतोंकी तृप्तिके लिये आदरपूर्वक अन्नका त्याग करे। कुत्तों, चाण्डालों तथा पक्षियोंके लिये पृथ्वीपर अन्न रख दे। यह वैश्वदेव नामक कर्म है। इसे प्रातःकाल और सायंकाल आवश्यक बताया गया है।
इसके बाद बुद्धिमान् पुरुष आचमन करके कुछ कालतक अतिथिकी प्रतीक्षा करते हुए घरके दरवाजेकी ओर दृष्टि रखे। यदि कोई अतिथि वहाँ आ जाय तो यथाशक्ति अन्न, जल, गन्ध, पुष्प आदिके द्वारा उसका सत्कार करे। अपने ग्रामवासी पुरुषको या मित्रको अतिथि न बनाये। जिसके कुल और नाम आदिका ज्ञान न हो, जो उसी समय वहाँ उपस्थित हुआ हो, भोजनकी इच्छा रखता हो, थका-माँदा आया हो, अन्न माँगता हो, ऐसे अकिञ्चन ब्राह्मणको अतिथि कहते हैं। विद्वान् पुरुषोंको उचित है कि वे अपनी शक्तिके अनुसार उस अतिथिका पूजन करें। उसका गोत्र और शाखा न पूछे। उसने कहाँतक अध्ययन किया है, इसकी जिज्ञासा भी न करें। उसकी आकृति सुन्दर हो या असुन्दर, उसे साक्षात् प्रजापति समझें। वह नित्य स्थित नहीं रहता, इसीलिये उसे अतिथि कहते हैं। उसकी तृप्ति होनेपर गृहस्थ पुरुष मनुष्य-यज्ञके ऋणसे मुक्त हो जाता है। जो उस अतिथिको
अन्न दिये बिना ही स्वयं भोजन करता है, वह मनुष्य पापभोजी है; वह केवल पाप भोजन करता है और दूसरे जन्ममें उसे विष्ठा खानी पड़ती है। अतिथि जिसके घरसे निराश होकर लौटता है, उसको अपना पाप दे स्वयं उसका पुण्य लेकर चल देता है।*
*अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते।
स दत्त्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति ॥
(२९। ३१)
अतः मनुष्यको उचित है कि वह जल और साग देकर अथवा स्वयं जो कुछ खाता है, उसीसे अपनी शक्तिके अनुसार आदरपूर्वक अतिथिका पूजन करे।
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