गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
अर्जुनने पूछा- महर्षे! देवताओंने परम प्रतापी दत्तात्रेयजीकी आराधना किस प्रकार की थी? तथा दैत्योंद्वारा छीने हुए इन्द्रपदको देवराजने कैसे प्राप्त किया था?
गर्गने कहा- पूर्वकालमें देवताओं और दैत्योंमें बड़ा भयङ्कर युद्ध हुआ था। उस युद्ध में दैत्योंका नायक जम्भ था और देवताओंके स्वामी इन्द्र। उन्हें युद्ध करते एक दिव्य वर्ष व्यतीत हो गया। उसके बाद देवता हार गये और दैत्य विजयी हुए। विप्रचित्ति आदि दानवोंने जब देवताओंको परास्त कर दिया, तब वे युद्धसे भागने लगे, अब उनमें शत्रुओंको जीतनेका उत्साह न रह गया। फिर वे दैत्यसेनाके वधकी इच्छासे बृहस्पतिजीके पास आये और उनके तथा वालखिल्य आदि महर्षियोंके साथ बैठकर मन्त्रणा करने लगे।
बृहस्पतिजीने कहा- देवताओ! तुम अत्रिके तपस्वी पुत्र महात्मा दत्तात्रेयके पास जाओ और उन्हें भक्तिपूर्वक सन्तुष्ट करो। उनमें वर देनेकी शक्ति है। वे तुम्हें दैत्योंका नाश करनेके लिये वर देंगे। तत्पश्चात् तुम सब लोग मिलकर दैत्यों और दानवोंका वध कर सकोगे।
गर्गने कहा- उनके ऐसा कहनेपर देवगण दत्तात्रेयके आश्रमपर गये और वहाँ लक्ष्मीजीके साथ उन महात्माका दर्शन किया। सबसे पहले उन्होंने अपना कार्यसाधन करनेके लिये उन्हें प्रणाम किया, फिर स्तवन किया। भक्ष्य-भोज्य और माला आदि वस्तुएँ भेंट की। इस प्रकार वे आराधनामें लग गये। जब दत्तात्रेयजी चलते तो देवता भी उनके पीछे-पीछे जाते। जब वे खड़े होते तो देवता भी ठहर जाते और जब वे ऊँचे आसनपर बैठते तो देवता नीचे खड़े रहकर उनकी उपासना करते। एक दिन पैरोंपर पड़े हुए देवताओंसे दत्तात्रेयजीने पूछा-'तुमलोग क्या चाहते हो, जो मेरी इस प्रकार सेवा करते हो?'
देवता बोले- मुनिश्रेष्ठ! जम्भ आदि दानवोंने त्रिलोकीपर आक्रमण करके भूर्लोक, भुवर्लोक आदिपर अधिकार जमा लिया है और सम्पूर्ण यज्ञभाग भी हर लिये हैं; अतः आप हमारी रक्षाके लिये उनके वधका विचार कीजिये। आपकी कृपासे हम पुनः स्वर्गलोक प्राप्त करना चाहते हैं। जगन्नाथ! आप निष्पाप एवं निर्लेप हैं। विद्याके प्रभावसे शुद्ध हुए आपके अन्त:करणमें ज्ञानकी किरणें फैल रही हैं।
दत्तात्रेयजीने कहा- देवताओ! यह सत्य है कि मेरे पास विद्या है और मैं समदर्शी भी हूँ; तथापि इस नारीके सङ्गसे मैं दूषित हो रहा हूँ; क्योंकि स्त्रीका निरन्तर सहयोग दोषका ही कारण होता है।
उनके ऐसा कहनेपर देवता फिर बोले- द्विजश्रेष्ठ! ये साक्षात् जगन्माता लक्ष्मी हैं। इनमें पापका लेश भी नहीं है; अत: ये कभी दूषित नहीं होतीं। जैसे सूर्यकी किरणें ब्राह्मण और चाण्डाल दोनोंपर पड़ती हैं; किन्तु अपवित्र नहीं होती।
देवताओंके ऐसा कहनेपर दत्तात्रेयजीने हँसकर कहा- यदि तुमलोगोंका ऐसा ही विचार है तो समस्त असुरोंको युद्धके लिये यहीं मेरे सामने बुला लाओ, विलम्ब न करो। मेरे दृष्टिपातजनित अग्निसे उनके बल और तेज दोनों क्षीण हो जायँगे और इस प्रकार वे सब-के-सब मेरी दृष्टिमें पड़कर नष्ट हो जायेंगे।
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- वपु को दुर्वासा का श्राप
- सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
- धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
- राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
- पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीवकी मृत्यु तथा नरक-गति का वर्णन
- जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
- जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन
- पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपश्चित् के पुण्यदान से पापियों का उद्धार
- दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
- दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
- अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
- पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
- तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
- ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
- मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
- मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
- श्राद्ध-कर्म का वर्णन
- श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
- त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
- सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
- योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
- योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
- अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
- मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
- एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
- प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
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- दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
- जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
- श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
- भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
- भद्राश्व आदि वर्षोंका संक्षिप्त वर्णन
- स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
- पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
- राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
- तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
- रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
- चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
- वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
- सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
- मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
- देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
- सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
- इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
- देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
- धूम्रलोचन-वध
- चण्ड और मुण्ड का वध
- रक्तबीज-वध
- निशुम्भ-वध
- शुम्भ-वध
- देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
- देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
- सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
- नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
- रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
- भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
- सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
- अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
- सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
- दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
- वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
- राजा खनित्रकी कथा
- क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
- राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
- श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य