गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
पुत्र कहता है- पिताजी! मनुष्य स्त्री-सहवासके समय गर्भमें जो वीर्य स्थापित करता है, वह स्त्रीके रजमें मिल जाता है। नरक अथवा स्वर्गसे निकलकर आया हुआ जीव उसी रज-वीर्यका आश्रय लेता है। जीवसे व्याप्त होनेपर वे दोनों बीज (स्त्री और पुरुष दोनोंके रज-वीर्य) स्थिर हो जाते हैं। फिर वे क्रमश: कलल, बुद्बुद एवं मांसपिण्डके रूपमें परिणत होते हैं। जैसे बीजसे अंकुर उत्पन्न होता है, उसी प्रकार उस मांसपिण्डसे विभागपूर्वक पाँच अङ्ग प्रकट होते हैं। फिर उन अङ्गोंसे अंगुली, नेत्र, नासिका, मुख, कान आदि प्रकट होते हैं। इसी प्रकार अँगुली आदिसे नख आदिकी उत्पत्ति होती है। फिर त्वचामें रोम और मस्तकपर बाल उग आते हैं। जीवके शरीरकी वृद्धिके साथ ही स्त्रीका गर्भकोष भी बढ़ता है। जैसे नारियलका फल अपने आवरणकोषके साथ ही बढ़ता है, उसी प्रकार गर्भस्थ शिशु भी गर्भकोषके साथ ही वृद्धिको प्राप्त होता है। उसका मुख नीचेकी ओर होता है। दोनों हाथोंको घुटनों और पसलियोंके नीचे रखकर वह बढ़ता है। हाथके दोनों अँगूठे दोनों घुटनोंके ऊपर होते हैं और अँगुलियाँ उनके अग्रभागमें रहती हैं। उन घुटनोंके पृष्ठभागमें दोनों आँखें रहती हैं और नासिका उनके मध्यभागमें होती है। दोनों चूतड़ एड़ियोंपर टिके होते हैं। दोनों बाँहें और पिंडलियाँ बाहरी किनारेपर रहती हैं। इसी स्थितिमें स्त्रीके गर्भमें रहनेवाला जीव क्रमशः वृद्धिको प्राप्त होता है। गर्भस्थ शिशुकी नाभिमें एक नाल बँधी होती है, जिसे आप्यायनी नाड़ी कहते हैं। इसी प्रकार वह नाल स्त्रीकी आँतके छिद्रमें भी जुड़ी होती है। स्त्री जो कुछ खाती-पीती है, वह उस नाड़ीके ही मार्गसे गर्भस्थ शिशुके भी उदरमें पहुँचता है। उसीसे शरीरका पोषण होते रहनेसे जीव क्रमश: वृद्धिको प्राप्त होता है।
उस गर्भ में उसे अनेक जन्मोंकी बातें याद आती हैं, जिससे व्यथित होकर वह इधर-उधर फिरता और निर्वेद (खेद)- को प्राप्त होता है। अपने मनमें सोचता है, 'अब इस उदरसे छुटकारा पानेपर मैं फिर ऐसा कार्य नहीं करूँगा, बल्कि इस बातके लिये चेष्टा करूँगा कि मुझे फिर गर्भके भीतर न आना पड़े।' सैकड़ों जन्मोंके दु:खोंका स्मरण करके वह इसी प्रकार चिन्ता करता है। दैवकी प्रेरणासे पूर्वजन्मोंमें उसने जो-जो क्लेश भोगे होते हैं, वे सब उसे याद आ जाते हैं। तत्पश्चात् कालक्रमसे वह अधोमुख जीव जब नवें या दसवें महीनेका होता है, तब उसका जन्म हो जाता है। गर्भसे निकलते समय वह प्राजापत्य वायुसे पीड़ित होता है और मन- ही-मन दुःखसे व्यथित हो रोते हुए गर्भसे बाहर आता है। उदरसे निकलनेपर असह्य पीड़ाके कारण उसे मूर्छा आ जाती है। फिर वायुके स्पर्शसे वह सचेत होता है। तदनन्तर भगवान् विष्णुकी मोहिनी माया उसको अपने वशमें कर लेती है। उससे मोहित हो जानेके कारण उसका पूर्वज्ञान नष्ट हो जाता है। इस प्रकार ज्ञानभ्रष्ट हो जानेपर वह जीव पहले तो बाल्यावस्थाको प्राप्त होता है, फिर क्रमशः कौमारावस्था, यौवनावस्था और वृद्धावस्थामें प्रवेश करता है। इसके बाद मृत्युको प्राप्त होता और मृत्युके बाद फिर जन्म लेता है। इस प्रकार इस संसार-चक्रमें वह घटीयन्त्र (रहट) की भाँति घूमता रहता है। कभी स्वर्गमें जाता है, कभी नरकमें। कभी इस संसारमें पुनः जन्म लेकर अपने कर्मोंको भोगता है, कभी कर्मोंका भोग समाप्त होनेपर थोड़े ही समयमें मरकर परलोकमें चला जाता है। कभी स्वर्ग और नरकको प्रायः भोग चुकनेके बाद थोड़ेसे शुभाशुभ कर्म शेष रहनेपर इस संसारमें जन्म लेता है।
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