गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
धर्म बोले- राजन् ! तुम्हारे इस भावी संकटको जानकर मैंने ही मायासे अपनेको चाण्डालके रूपमें प्रकट किया तथा चाण्डालत्वका प्रदर्शन किया था।
इन्द्रने कहा- हरिश्चन्द्र! पृथ्वीके समस्त मनुष्य जिस परमधामके लिये प्रार्थना करते हैं,केवल पुण्यवान् मनुष्योंको प्राप्त होनेवाले उस धामको चलो।
हरिश्चन्द्र बोले- देवराज! आपको नमस्कार है। मेरा यह वचन सुनिये; आप मुझपर प्रसन्न हैं, अतएव मैं विनीतभावसे आपके सम्मुख कुछ निवेदन करता हूँ। अयोध्याके सब मनुष्य मेरे विरह-शोकमें मग्न हैं। आज उन्हें छोड़कर मैं दिव्यलोकको कैसे जाऊँगा? ब्राह्मणकी हत्या, गुरुकी हत्या, गौका वध और स्त्रीका वध - इन सबके समान ही भक्तोंका त्याग करने में भी महान् पाप बताया गया है। जो दोषरहित एवं त्यागनेके अयोग्य भक्त पुरुषको त्याग देता है, उसे इहलोक या परलोकमें कहीं भी सुखकी प्राप्ति नहीं दिखायी देती; इसलिये इन्द्र! आप स्वर्गको लौट जाइये। सुरेश्वर! यदि अयोध्यावासी पुरुष मेरे साथ ही स्वर्ग चल सकें तब तो मैं भी चलूँगा; अन्यथा उन्हींके साथ नरकमें भी जाना मुझे स्वीकार है।
इन्द्रने कहा- राजन्! उन सब लोगोंके पृथक्-पृथक् नाना प्रकारके बहुत-से पुण्य और पाप हैं। फिर तुम स्वर्गको सबका भोग्य बनाकर वहाँ कैसे चल सकोगे ?
हरिश्चन्द्र बोले-इन्द्र ! राजा अपने कुटुम्बियोंके ही प्रभावसे राज्य भोगता है। प्रजावर्ग भी राजाका कुटुम्बी ही है। उन्हींके सहयोगसे राजा बड़े-बड़े यज्ञ करता, पोखरे खुदवाता और बगीचे आदि लगवाता है। यह सब कुछ मैंने अयोध्यावासियोंके प्रभावसे किया है, अतः स्वर्गके लोभमें पड़कर मैं अपने उपकारियोंका त्याग नहीं कर सकता। देवेश! यदि मैंने कुछ भी पुण्य किया हो, दान, यज्ञ अथवा जपका अनुष्ठान मुझसे हुआ हो, उन सबका फल उन सबके साथ ही मुझे मिले। उसमें उनका समान अधिकार हो।*
* हरिश्चन्द्र उवाच
देवराज नमस्तुभ्यं वाक्यं चैतन्निबोध मे।
प्रसादसुमुखं यत् त्वां ब्रवीमि प्रश्रयान्वितः ॥
मच्छोकमग्नमनसः कोसलानगरे जनाः।
तिष्ठन्ति तानपोह्याद्य कथं यास्याम्यहं दिवम् ॥
ब्रह्महत्या गुरोर्घातो गोवधः स्त्रीवधस्तथा।
तुल्यमेभिर्महापापं भक्तत्यागेऽप्युदाहृतम्॥
भजन्तं भक्तमत्याज्यमदुष्टं त्यजतः सुखम्।
नेह नामुत्र पश्यामि तस्माच्छक दिवं व्रज॥
यदि ते सहिताः स्वर्गं मया यान्ति सुरेश्वर।
ततोऽहमपि यास्यामि नरकं वापि तैः सह।
इन्द्र उवाच
बहूनि पुण्यपापानि तेषां भिन्नानि वै पृथक्।
कथं सङ्घातभोग्यं त्वं भूयः स्वर्गमवाप्स्यसि॥
हरिश्चन्द्र उवाच
शक्र भुङ्क्ते नृपो राज्यं प्रभावेण कुटुम्बिनाम्।
यजते च महायज्ञैः कर्म पौर्तं करोति च॥
तेषां प्रभावेण मया सर्वमनुष्ठितम्।
उपकर्तृन् न सन्त्यक्ष्ये तानहं स्वर्गलिप्सया॥
तस्माद् यन्मम देवेश किञ्चिदस्ति सुचेष्टितम्।
दत्तमिष्टमथो जप्तं सामान्यं तैस्तदस्तु नः॥
(अ० ८। २५१-२५९)
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- वपु को दुर्वासा का श्राप
- सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
- धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
- राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
- पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीवकी मृत्यु तथा नरक-गति का वर्णन
- जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
- जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन
- पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपश्चित् के पुण्यदान से पापियों का उद्धार
- दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
- दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
- अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
- पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
- तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
- ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
- मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
- मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
- श्राद्ध-कर्म का वर्णन
- श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
- त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
- सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
- योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
- योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
- अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
- मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
- एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
- प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
- स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
- दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
- जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
- श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
- भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
- भद्राश्व आदि वर्षोंका संक्षिप्त वर्णन
- स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
- पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
- राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
- तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
- रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
- चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
- वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
- सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
- मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
- देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
- सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
- इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
- देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
- धूम्रलोचन-वध
- चण्ड और मुण्ड का वध
- रक्तबीज-वध
- निशुम्भ-वध
- शुम्भ-वध
- देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
- देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
- सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
- नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
- रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
- भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
- सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
- अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
- सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
- दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
- वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
- राजा खनित्रकी कथा
- क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
- राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
- श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य