गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
क्रौष्टुकिने पूछा-ब्रह्मन्! द्वीप, समुद्र, पर्वत और वर्ष कितने हैं तथा उनमें कौन-कौन-सी नदियाँ हैं ? महाभूत (पृथ्वी) और लोकालोकका प्रमाण क्या है? चन्द्रमा और सूर्यका व्यास, परिमाण तथा गति कितनी है? महामुने! ये सब बातें मुझे विस्तारपूर्वक बतलाइये।
मार्कण्डेयजी बोले-ब्रह्मन्! समूची पृथ्वीका विस्तार पचास करोड़ योजन है। अब उसके सब स्थानोंका वर्णन करता हूँ, सुनो। महाभाग! जम्बूद्वीपसे लेकर पुष्करद्वीपतक जितने द्वीपोंकी मैंने चर्चा की है, उन सबका विस्तार इस प्रकार है। क्रमशः एक द्वीपसे दूसरा द्वीप दुगुना बड़ा है; इसी क्रमसे जम्बूद्वीप, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौञ्च, शाक और पुष्करद्वीप स्थित हैं। ये क्रमश: लवण, इक्षु, सुरा, घृत, दही, दूध और जलके समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। ये समुद्र भी एककी अपेक्षा दूसरे दुगुने बड़े हैं।
अब मैं जम्बूद्वीपकी स्थितिका वर्णन करता हूँ। इसकी लंबाई-चौड़ाई एक लाख योजनकी है। इसमें हिमवान्, हेमकूट, निषध, मेरु, नील, श्वेत तथा श्रृङ्गी-ये सात वर्षपर्वत हैं। इनमें मेरु तो सबके बीच में है, उसके सिवा जो नील और निषध नामक दो और मध्यवर्ती पर्वत हैं, वे एक-एक लाख योजनतक फैले हुए हैं। निषधसे दक्षिणमें तथा नीलसे उत्तरमें जो दो-दो पर्वत हैं, उनका विस्तार क्रमश: दस-दस हजार योजन कम है। अर्थात् हेमकूट और श्वेत नब्बे-नब्बे हजार योजनतक तथा हिमवान् और श्रृङ्गी अस्सी-अस्सी हजार योजनतक फैले हुए हैं। वे सभी दो-दो हजार योजन ऊँचे और उतने ही चौड़े हैं। इस जम्बूद्वीपके छ: वर्षपर्वत समुद्रके भीतरतक प्रवेश किये हुए हैं। यह पृथ्वी दक्षिण और उत्तरमें नीची और बीचमें ऊँची तथा चौड़ी है। जम्बूद्वीपके तीन खण्ड दक्षिणमें हैं और तीन खण्ड उत्तरमें।
इनके मध्यभागमें इलावृत वर्ष है, जो आधे चन्द्रमाके आकारमें स्थित है। उसके पूर्वमें भद्राश्व और पश्चिममें केतुमाल वर्ष है। इलावृत वर्षके मध्यभागमें सुवर्णमय मेरुपर्वत है, जिसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है। वह सोलह हजार योजन नीचेतक पृथ्वीमें समाया हुआ है तथा उसकी चौड़ाई भी सोलह हजार योजन ही है। वह शराव (पुरवे)-की आकृतिका होनेके कारण चोटीकी ओर बत्तीस हजार योजन चौड़ा है। मेरुपर्वतका रंग पूर्वकी ओर सफेद, दक्षिणकी ओर पीला, पश्चिमकी ओर काला और उत्तरकी ओर लाल है। यह रंग क्रमश: ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र तथा क्षत्रियका है। मेरुपर्वतके ऊपर क्रमशः पूर्व आदि दिशाओंमें इन्द्रादि आठ लोकपालोंके निवासस्थान हैं। इनके बीचमें ब्रह्माजीकी सभा है। वह सभामण्डप चौदह हजार योजन ऊँचा है। उसके नीचे विष्कम्भ (आधार) रूपसे चार पर्वत हैं, जो दस-दस हजार योजन ऊँचे हैं। वे क्रमश: पूर्व आदि दिशाओंमें स्थित हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-मन्दर, गन्धमादन, विपुल और सुपार्श्व। इन चारों पर्वतोंके ऊपर चार बड़े-बड़े वृक्ष हैं, जो ध्वजाकी भाँति उनकी शोभा बढ़ाते हैं। मन्दराचलपर कदम्ब, गन्धमादन पर्वतपर जम्बू, विपुलपर पीपल तथा सुपार्श्वके ऊपर बरगदका महान् वृक्ष है। इन पर्वतोंका विस्तार ग्यारह-ग्यारह सौ योजनका है। मेरुके पूर्वभागमें जठर और देवकूट पर्वत हैं, जो नील और निषध पर्वततक फैले हुए हैं। निषध और पारियात्र-ये दो पर्वत मेरुके पश्चिम भागमें स्थित हैं। पूर्ववाले पर्वतोंकी भाँति ये भी नीलगिरितक फैले हुए हैं। हिमवान् और कैलासपर्वत मेरुके दक्षिण भागमें स्थित हैं। ये पूर्वसे पश्चिमकी ओर फैलते हुए समुद्रके भीतरतक चले गये हैं। इसी प्रकार उसके उत्तर भागमें श्रृङ्गवान् और जारुधि नामक पर्वत हैं। ये भी दक्षिण भागवाले पर्वतोंकी भाँति समुद्रके भीतरतक फैले हुए हैं।
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