गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
इस प्रकार गृह- निर्माणके द्वारा शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंको दूर करके सब लोग जीविकाका उपाय सोचने लगे; क्योंकि उस समय समस्त कल्पवृक्ष मधुसहित नष्ट हो चुके थे। जब प्रजा भूख और प्याससे व्याकुल एवं शोकसे आतुर हो उठी तब त्रेताके आरम्भमें उनके अभीष्टकी सिद्धि हुई। उनकी इच्छाके अनुसार वर्षा हुई और वह वर्षाका जल नीची भूमिमं् बढ़कर एकत्र होने लगा। उससे स्रोत, पोखरे और नदियाँ बन गयीं। उस जलका पृथ्वीके साथ संयोग होनेसे बिना जोते-बोये ही ग्राम्य और आरण्य-सब मिलकर चौदह प्रकारके अन्न पैदा हुए। वृक्षों और लताओंमें ऋतुके अनुसार फूल और फल लगने लगे। त्रेतायुगमें पहले-पहल अन्नका प्रादुर्भाव हुआ। उसीसे उस युगमें सब प्रजाका जीवन-निर्वाह होने लगा। फिर अकस्मात् सब लोगोंके मनमें राग और लोभका प्राकट्य हुआ। इससे वे एक-दूसरेके प्रति ईर्ष्या रखने लगे और अपनी शक्तिके अनुसार नदी, खेत, पर्वत, वृक्ष और झाड़ियोंपर अधिकार जमाने लगे। उनके इस दोषसे सबके देखते- देखते सब अनाज नष्ट हो गये। पृथ्वीने एक साथ ही सब ओषधियोंको अपना ग्रास बना लिया। अनाजके नष्ट होनेसे प्रजा भूखसे व्याकुल होकर फिर इधर-उधर भटकने लगी और अन्तमें ब्रह्माजीकी शरणमें गयी। ब्रह्माजीने भी प्रजाका सारा समाचार ठीक-ठीक जानकर पृथ्वीको गायके रूपमें बाँधा और मेरु पर्वतको बछड़ा बनाकर उसका दूध दुहा। ब्रह्माजीने दूधके रूपमें सब प्रकारके अन्न दुह लिये थे, वे ही बीजरूपमें प्रकट हुए और उनसे ग्राम्य तथा आरण्य-सब प्रकारके अन्न पैदा हुए, जो फलके पक जानेपर काट लिये जाते हैं। धान, जौ, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, कँगनी, ज्वार, कोदो, तीना, उड़द, मूंग, मसूर, मटर, कुलथी, अरहर, चना और सन-ये सतरह ग्राम्य ओषधियोंकी जातियाँ हैं। यज्ञके काममें आनेवाली केवल चौदह ओषधियाँ हैं, जिनमें सात ग्राम्य और सात आरण्य हैं। उनके नाम ये हैं-धान, जौ, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, कँगनी, कुलथी, सावाँ, तीना, वनतिल, गवेधुक, कुरुविन्द, मकई और वेणुयव।
जब बोनेपर भी ये ओषधियाँ फिर न जम सकीं, तब भगवान् ब्रह्माजीने अन्नकी वृद्धिके लिये हाथसे काम करनेकी प्रणालीको ही जीविकाका उपाय बनाया। तबसे जोतने-बोनेपर अन्नकी उपज होने लगी। इस प्रकार जीविकाका प्रबन्ध हो जानेपर ब्रह्माजीने न्याय और गुणके अनुसार वर्णाश्रम- धर्मकी मर्यादा स्थापित की। अपने कर्मों में लगे हुए ब्राह्मणोंको ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है। युद्धमें पीठ न दिखानेवाले क्षत्रियोंको इन्द्रका पद प्राप्त होता है। स्वधर्मपरायण वैश्योंको मरुद्गणोंका लोक मिलता है। सेवामें संलग्न रहनेवाले शूद्र गन्धर्वलोकमें जाते हैं। जो लोग गुरुकुलमें रहकर ब्रह्मचर्य- पालनपूर्वक वेदाध्ययन करते हैं, उन्हें अट्ठासी हजार ऊर्ध्वरेता महर्षियोंको प्राप्त होनेवाला स्थान मिलता है। वानप्रस्थधर्मका पालन करनेवाले लोग सप्तर्षियोंके लोकमें जाते हैं। गृहस्थधर्मका विधिवत् पालन करनेवालोंको प्राजापत्य लोककी प्राप्ति होती है। संन्यासियोंको ब्रह्मपद और योगियोंको अमृतत्वकी उपलब्धि होती है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न वर्णधर्म और आश्रम धर्मोंका पालन करनेवाले लोगोंके लिये पृथक्-पृथक् लोकोंकी कल्पना की गयी है।
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- वपु को दुर्वासा का श्राप
- सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
- धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
- राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
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- अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
- पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
- तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
- ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
- मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
- मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
- श्राद्ध-कर्म का वर्णन
- श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
- त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
- सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
- योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
- योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
- अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
- मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
- एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
- प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
- स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
- दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
- जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
- श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
- भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
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- पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
- राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
- तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
- रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
- चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
- वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
- सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
- मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
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- सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
- इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
- देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
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- चण्ड और मुण्ड का वध
- रक्तबीज-वध
- निशुम्भ-वध
- शुम्भ-वध
- देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
- देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
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- नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
- रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
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- सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
- अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
- सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
- दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
- वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
- राजा खनित्रकी कथा
- क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
- राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
- श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य