गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
अलर्क बोले- वीर! तुम्हारा कथन ठीक है, पहले मेरे मनमें भी ऐसे ही विचार उठते थे; किन्तु अब मेरी विपरीत धारणा हो गयी है। इसका कारण सुनो। नरेश्वर! तुम्हारे भयसे अत्यन्त दुःख पाकर मैंने योगीश्वर दत्तात्रेयजीकी शरण ली और उनकी कृपासे अब मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है। समस्त इन्द्रियोंको जीतकर तथा सब ओरसे आसक्ति हटाकर मनको ब्रह्ममें लगाना और इस प्रकार मनको जीतना ही सबसे बड़ी विजय है; अतः अब मैं तुम्हारा शत्रु नहीं हूँ, तुम भी मेरे शत्रु नहीं हो तथा ये सुबाहु भी मेरे अपकारी नहीं हैं। मैंने इन सब बातोंको अच्छी तरह समझ लिया है। अत: राजन्! अब अपने लिये तुम कोई दूसरा शत्रु ढूँढ़ो।
अलर्क के यों कहनेपर राजा सुबाहु अत्यन्त प्रसन्न होकर उठे और 'धन्य! धन्य!' कहकर अपने भाई का अभिनन्दन करने के पश्चात् वे काशिराज से इस प्रकार बोले- 'नृपश्रेष्ठ! मैं जिस कार्यके लिये तुम्हारी शरणमें आया था, वह सब पूरा हो गया। अब मैं जाता हूँ। तुम सुखी रहो।'
काशिराजने कहा- सुबाहो! तुम किसलिये आये थे? और तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध हुआ? यह बताओ। मुझे तुम्हारी बातोंसे बड़ा कौतूहल हो रहा है। तुमने मेरे पास आकर कहा था कि 'मेरे बाप-दादोंका बहुत बड़ा राज्य अलर्कने हड़प लिया है। वह उनसे जीतकर मुझे दे दो।' तब मैंने तुम्हारे भाईपर आक्रमण करके यह राज्य अपने वशमें किया। यह तुम्हें कुलपरम्परासे प्राप्त है, अतः इसका उपभोग करो।
सुबाहु बोले- काशिराज! मैंने जिस उद्देश्यसे यह प्रयत्न किया था और जिसके लिये तुमसे भी महान् उद्योग कराया, वह बतलाता हूँ; सुनो। मेरा यह छोटा भाई तत्त्वज्ञ होकर भी सांसारिक भोगोंमें फँसा हुआ था। मेरे दो बड़े भाई परम ज्ञानी हैं। उन दोनोंको तथा मुझे भी हमारी माताने जब बचपन में दूध पिलाया, उसी समय कानोंमें तत्त्वज्ञान भी भर दिया। मनुष्यमात्र को जिनका ज्ञान होना चाहिये, वे सभी पदार्थ माताने हमारे सामने प्रकाशित कर दिये। किन्तु यह अलर्क उस ज्ञानसे वञ्चित रह गया था। राजन् ! जैसे एक साथ यात्रा करनेवालों में से एक को कष्टमें पड़ा देखकर साधु पुरुषोंके हृदयमें दुःख होता है, उसी प्रकार इस अलर्क को गृहस्थ-आश्रमके मोह में फँसकर कष्ट उठाते हुए देखकर हम तीनों भाइयों को कष्ट होता था। क्योंकि यह इस शरीर का सम्बन्धी है, और इसके साथ 'भाई' की कल्पना जुड़ी हुई है। तब मैंने सोचा, दुःख पड़नेपर ही इसके मनमें वैराग्यकी भावना जाग्रत् होगी; अत: युद्धोद्योगके लिये तुम्हारा आश्रय लिया। फिर इस दु:खसे इसको वैराग्य हुआ और वैराग्यसे ज्ञानकी प्राप्ति हुई। इस प्रकार जो कार्य मुझे अभीष्ट था, वह पूरा हो गया। अतः तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं जाता हूँ।
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- वपु को दुर्वासा का श्राप
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- अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
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- तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
- ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
- मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
- मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
- श्राद्ध-कर्म का वर्णन
- श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
- त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
- सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
- योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
- योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
- अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
- मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
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- प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
- स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
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- जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
- श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
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- निशुम्भ-वध
- शुम्भ-वध
- देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
- देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
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- सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
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- सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
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- वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
- राजा खनित्रकी कथा
- क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
- राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
- श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य