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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


ब्राह्मणपत्नी! इसलिये तुम विषयों से मन को हटा लो और भक्तिभाव से भगवान् शंकर की इस परम पावन कथा को सुनो- परमात्मा शंकर की इस कथा को सुनने से तुम्हारे चित्त की शुद्धि होगी और इससे तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जायगी। जो निर्मल चित्त से भगवान् शिव के चरणारविन्दों का चिन्तन करता है, उसकी एक ही जन्म में मुक्ति हो जाती है - यह मैं तुमसे सत्य- सत्य कहता हूँ।

सूतजी कहते हैं- शौनक! इतना कहकर वे श्रेष्ठ शिवभक्त ब्राह्मण चुप हो गये। उनका हृदय करुणा से आर्द्र हो गया था। वे शुद्धचित्त महात्मा भगवान् शिव के ध्यान में मग्न हो गये। तदनन्तर बिन्दुग की पत्नी चंचुला मन-ही-मन प्रसन्न हो उठी। ब्राह्मण का उक्त उपदेश सुनकर उसके नेत्रों में आनन्द के आँसू छलक आये थे। वह ब्राह्मणपत्नी चंचुला हर्ष भरे हृदय से उन श्रेष्ठ ब्राह्मण के दोनों चरणों में गिर पड़ी और हाथ जोड़कर बोली-'मैं कृतार्थ हो गयी।' तत्पश्चात् उठकर वैराग्ययुक्त उत्तम बुद्धिवाली वह स्त्री, जो अपने पापों के कारण आतंकित थी, उन महान् शिवभक्त ब्राह्मण से हाथ जोड़कर गद् गद वाणी में बोली।

चंचुला ने कहा- ब्रह्मन्! शिवभक्तों में श्रेष्ठ! स्वामिन्! आप धन्य हैं, परमार्थदर्शी हैं और सदा परोपकार में लगे रहते हैं। इसलिये श्रेष्ठ साधु पुरुषों में प्रशंसा के योग्य हैं। साधो! मैं नरक के समुद्र में गिर रही हूँ। आप मेरा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये। पौराणिक अर्थतत्त्व से सम्पन्न जिस सुन्दर शिवपुराण की कथा को सुनकर मेरे मन में सम्पूर्ण विषयों से वैराग्य उत्पन्न हो गया, उसी इस शिवपुराण को सुनने के लिये इस समय मेरे मन में बड़ी श्रद्धा हो रही है।

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