गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण शिवपुराणहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
लिंग, नाभि, जिह्वा, नासाग्रभाग और शिखा के क्रम से कटि, हृदय और मस्तक तीनों स्थानों में जो लिंग की भावना की गयी है उस आध्यात्मिक लिंग को ही चरलिंग कहते हैं। पर्वत को पौरुषलिंग बताया गया है और भूतल को विद्वान् पुरुष प्राकृतलिंग मानते हैं। वृक्ष आदि को पौरुषलिंग जानना चाहिये और गुल्म आदि को प्राकृतलिंग। साठी नामक धान्य को प्राकृतलिंग समझना चाहिये और शालि (अगहनी) एवं गेहूँ को पौरुषलिंग। अणिमा आदि आठों सिद्धियों को देनेवाला जो ऐश्वर्य है, उसे पौरुष ऐश्वर्य जानना चाहिये। सुन्दर स्त्री तथा धन आदि विषयों को आस्तिक पुरुष प्राकृत ऐश्वर्य कहते हैं। चरलिंगों में सबसे प्रथम रसलिंग का वर्णन किया जाता है। रसलिंग ब्राह्मणों को उनकी सारी अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला है। शुभकारक बाणलिंग क्षत्रियों को महान् राज्य की प्राप्ति करानेवाला है। सुवर्णलिंग वैश्यों को महाधनपति का पद प्रदान करनेवाला है तथा सुन्दर शिवलिंग शूद्रों को महाशुद्धि देनेवाला है। स्फटिकमय लिंग तथा बाणलिंग सब लोगों को उनकी समस्त कामनाएँ प्रदान करते हैं। अपना न हो तो दूसरे का स्फटिक या बाणलिंग भी पूजा के लिये निषिद्ध नहीं है। स्त्रियों, विशेषत: सधवाओं के लिये पार्थिव लिंग की पूजा का विधान है। प्रवृत्ति मार्ग में स्थित विधवाओं के लिये स्फटिक-लिंग की पूजा बतायी गयी है। परंतु विरक्त विधवाओं के लिये रसलिंग की पूजा को ही श्रेष्ठ कहा गया है। उत्तम व्रत का पालन करनेवाले महर्षियों! बचपन में, जवानी में और बुढ़ापे में भी शुद्ध स्फटिकमय शिवलिंग का पूजन स्त्रियों को समस्त भोग प्रदान करनेवाला है। गृहासक्त स्त्रियों के लिये पीठपूजा भूतल पर सम्पूर्ण अभीष्ट को देनेवाली है। प्रवृत्ति-मार्ग में चलनेवाला पुरुष सुपात्र गुरु के सहयोग से ही समस्त पूजाकर्म सम्पन्न करे। इष्टदेव का अभिषेक करने के पश्चात् अगहनी के चावल से बने हुए खीर आदि पकवानों द्वारा नैवेद्य अर्पण करे। पूजा के अन्त में शिवलिंग को समुद्र में पधराकर घर के भीतर पृथक् रख दे। जो निवृत्तिमार्गी पुरुष हैं, उनके लिये हाथ पर ही शिवलिंग-पूजा का विधान है। उन्हें भिक्षादि से प्राप्त हुए अपने भोजन को ही नैवेद्यरूप में निवेदित करना चाहिये। निवृत्त पुरुषों के लिये सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता है। वे विभूति के द्वारा पूजन करें और विभूति को ही नैवेद्यरूप से निवेदित भी करें। पूजा करके उस लिंग को सदा अपने मस्तक पर धारण करें।
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