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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


(अब मैं कर्ममाया और ज्ञानमाया का तात्पर्य बता रहा हूँ) 'मा' का अर्थ है लक्ष्मी। उससे कर्मभोग यात - प्राप्त होता है। इसलिये वह माया अथवा कर्ममाया कहलाती है। इसी तरह मा अर्थात् लक्ष्मी से ज्ञानभोग यात अर्थात् प्राप्त होता है। इसलिये उसे माया या ज्ञानमाया कहा गया है। उपर्युक्त सीमा से नीचे नश्वर भोग हैं और ऊपर नित्य भोग। उससे नीचे ही तिरोधान अथवा लय है ऊपर नहीं। वहाँ से नीचे ही कर्ममय पाशों द्वारा बन्धन होता है। ऊपर बन्धन का सदा अभाव है। उससे नीचे ही जीव सकाम कर्मों का अनुसरण करते हुए विभिन्न लोकों और योनियों में चक्कर काटते हैं। उससे ऊपर के लोकों में निष्काम कर्म का ही भोग बताया गया है। बिन्दुपूजा में तत्पर रहनेवाले उपासक वहाँ से नीचे के लोकों में ही घूमते हैं। उसके ऊपर तो निष्कामभाव से शिवलिंग की पूजा करनेवाले उपासक ही जाते हैं। जो एकमात्र शिव की ही उपासना में तत्पर हैं, वे उससे ऊपर के लोकों में जाते हैं।

वहाँ से नीचे जीवकोटि है और ऊपर ईश्वरकोटि। नीचे संसारी जीव रहते हैं और ऊपर मुक्त पुरुष। नीचे कर्मलोक है और ऊपर ज्ञानलोक। ऊपर मद और अहंकार का नाश करनेवाली नम्रता है वहाँ जन्मजनित तिरोधान नहीं है। उसका निवारण किये बिना वहाँ किसी का प्रवेश सम्भव नहीं है। इस प्रकार तिरोधान का निवारण करने से वहाँ ज्ञानशब्द का अर्थ ही प्रकाशित होता है। आधिभौतिक पूजा करनेवाले लोग उससे नीचे के लोकों में ही चक्कर काटते हैं। जो आध्यात्मिक उपासना करनेवाले हैं वे ही उससे ऊपर को जाते हैं।

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