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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश  - ये पाँच भूत तथा शब्द, स्पर्श आदि इनके पाँच विषय - ये सब मिलकर दस वस्तुएँ मनुष्यों की कामना के विषय हैं। इनकी आशा मन में लेकर जो कर्मों के अनुष्ठान में संलग्न होते हैं, वे दस प्रकार के पुरुष प्रवृत्त (अथवा प्रवृत्तिमार्गी) कहलाते हैं तथा जो निष्कामभाव से शास्त्रविहित कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, वे निवृत्त  (अथवा निवृत्तिमार्गी) कहे गये हैं। प्रवृत्त पुरुषों को ह्रस्व प्रणव का ही जप करना चाहिये और निवृत्त पुरुषों को दीर्घ प्रणव का। व्याहृतियों तथा अन्य मन्त्रों के आदि में इच्छानुसार शब्द और कला से युक्त प्रणव का उच्चारण करना चाहिये। वेद के आदि में और दोनों संध्याओं की उपासना के समय भी ओंकार का उच्चारण करना चाहिये। प्रणव का नौ करोड़ जप करने से मनुष्य शुद्ध हो जाता है। फिर नौ करोड़ का जप करने से वह पृथ्वी तत्त्व पर विजय पा लेता है। तत्पश्चात् पुन: नौ करोड़ का जय करके वह जल-तत्त्व को जीत लेता है। पुन: नौ करोड़ जप से अग्नितत्त्व फर विजय पाता है। तदनन्तर फिर नौ करोड़ का जप करके वह वायु-तत्त्व पर विजयी होता है। फिर नौ करोड़ के जप से आकाश को अपने अधिकार में कर लेता है। इसी प्रकार नौ-नौ करोड़ का जप करके वह क्रमश: गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द पर विजय पाता है, इसके बाद फिर नौ करोड़ का जप करके अहंकार को भी जीत लेता है। इस तरह एक सौ आठ करोड प्रणव का जप करके उत्कृष्ट बोध को प्राप्त हुआ पुरुष शुद्ध योग का लाभ करता है। शुद्ध योग से युक्त होनेपर वह जीवन्मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। सदा प्रणव का जप और प्रणवरूपी शिव का ध्यान करते-करते समाधि में स्थित हुआ महायोगी पुरुष साक्षात् शिव ही है, इसमें संशय नहीं है। पहले अपने शरीर में प्रणव के ऋषि, छन्द और देवता आदि का न्यास करके फिर जप आरम्भ करना चाहिये। अकारादि मातृका वर्णों से युक्त प्रणव का अपने अंगों में न्यास करके मनुष्य ऋषि हो जाता है। मन्त्रों के दशविध संस्कार१, मातृकान्यास तथा षडध्वशोधन२ आदि के साथ सम्पूर्ण न्यासफल उसे प्राप्त हो जाता है। प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति-निवृत्ति से मिश्रित भाववाले पुरुषों के लिये स्थूल प्रणव का जप ही अभीष्ट साधक होता है।

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