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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


अग्नि के बिना देवयज्ञ कैसे सम्पन्न होता है, इसे तुमलोग श्रद्धा से और आदरपूर्वक सुनो। सृष्टि के आरम्भ में सर्वज्ञ, दयालु और सर्वसमर्थ महादेवजी ने समस्त लोकों के उपकार के लिये वारों की कल्पना की। वे भगवान् शिव संसाररूपी रोग को दूर करने के लिये वैद्य हैं। सबके ज्ञाता तथा समस्त औषधों के भी औषध हैं। उन भगवान्‌ ने पहले अपने वार की कल्पना की, जो आरोग्य प्रदान करनेवाला है। तत्पश्चात् अपनी मायाशक्ति का वार बनाया, जो सम्पत्ति प्रदान करनेवाला है। जन्मकाल में दुर्गतिग्रस्त बालक की रक्षा के लिये उन्होंने कुमार के वार की कल्पना की। तत्पश्चात् सर्वसमर्थ महादेवजी ने आलस्य और पाप की निवृत्ति तथा समस्त लोकों का हित करने की इच्छा से लोकरक्षक भगवान् विष्णु का वार बनाया। इसके बाद सबके स्वामी भगवान् शिव ने पुष्टि और रक्षा के लिये आयुकर्ता त्रिलोकस्रष्टा परमेष्ठी ब्रह्मा का आयुष्कारक वार बनाया, जिससे सम्पूर्ण जगत्‌ के आयुष्य की सिद्धि हो सके। इसके बाद तीनों लोकों की वृद्धि के लिये पहले पुण्य पाप की रचना हो जानेपर उनके करनेवाले लोगों को शुभाशुभ फल देने के लिये भगवान् शिव ने इन्द्र और यम के वारों का निर्माण किया। ये दोनों वार क्रमश. भोग देनेवाले तथा लोगों के मृत्युभय को दूर करनेवाले हैं। इसके बाद सूर्य आदि सात ग्रहों को, जो अपने ही स्वरूपभूत तथा प्राणियों के लिये सुख-दुःख के सूचक हैं, भगवान् शिव ने उपर्युक्त-सात वारों का स्वामी निश्चित किया। वे सब-के-सब ग्रह-नक्षत्रों के ज्योतिर्मय मण्डल में प्रतिष्ठित हैं। शिव के वार या दिन के स्वामी सूर्य हैं। शक्तिसम्बन्धी वार के स्वामी सोम हैं। कुमार सम्बन्धी दिन के अधिपति मंगल हैं। विष्णुवार के स्वामी बुध हैं। ब्रह्माजी के वार के अधिपति बृहस्पति हैं। इन्द्रवार के स्वामी शुक्र और यमवार के स्वामी शनैश्चर हैं। अपने-अपने वार में की हुई उन देवताओं की पूजा उनके अपने-अपने फल को देनेवाली होती है।

सूर्य आरोग्य के और चन्द्रमा सम्पत्ति के दाता हैं। मंगल व्याधियों का निवारण करते हैं? बुध पुष्टि देते हैं। बृहस्पति आयु की वृद्धि करते हैं। शुक्र भोग देते हैं और शनैश्चर मृत्यु का निवारण करते हैं। ये सात वारों के क्रमश: फल बताये गये हैं, जो उन-उन देवताओं की प्रीति से प्राप्त होते हैं। अन्य देवताओं की भी पूजा का फल देनेवाले भगवान् शिव ही हैं। देवताओं की प्रसन्नता के लिये पूजा की पाँच प्रकार की ही पद्धति बनायी गयी। उन-उन देवताओं के मन्त्रों का जप यह पहला प्रकार है। उनके लिये होम करना दूसरा, दान करना तीसरा तथा तप करना चौथा प्रकार है। किसी वेदी पर, प्रतिमा में, अग्नि में अथवा ब्राह्मण के शरीर में आराध्य देवता की भावना करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा या आराधना करना पाँचवाँ प्रकार है।

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