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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय १३

सदाचार, शौचाचार, स्नान, भस्मधारण, संध्यावन्दन, प्रणव-जप, गायत्री-जप, दान, न्यायत: धनोपार्जन तथा अग्निहोत्र आदि की विधि एवं महिमा का वर्णन

ऋषियों ने कहा- सूतजी! अब आप शीघ्र ही हमें वह सदाचार सुनाइये, जिससे विद्वान् पुरुष पुण्यलोकों पर विजय पाता है। स्वर्ग प्रदान करनेवाले धर्ममय आचार तथा नरक का कष्ट देनेवाले अधर्ममय आचारों का भी वर्णन कीजिये।

सूतजी बोले- सदाचार का पालन करनेवाला विद्वान् ब्राह्मण ही वास्तव में  'ब्राह्मण' नाम धारण करनेका अधिकारी है। जो केवल वेदोक्त आचार का पालन करनेवाला एवं वेद का अभ्यासी है, उस ब्राह्मण की 'विप्र' संज्ञा होती है। सदाचार, वेदाचार तथा विद्या - इनमें से एक-एक गुण से ही युक्त होने पर उसे 'द्विज' कहते हैं। जिसमें स्वल्पमात्रा में ही आचार का पालन देखा जाता है, जिसने वेदाध्ययन भी बहुत कम किया है तथा जो राजा का सेवक  (पुरोहित, मन्त्री आदि) है, उसे 'क्षत्रिय- ब्राह्मण' कहते हैं। जो ब्राह्मण कृषि तथा वाणिज्य कर्म करनेवाला है और कुछ-कुछ ब्राह्मणोचित आचार का भी पालन करता है, वह 'वैश्य-ब्राह्मण' है तथा जो स्वयं ही खेत जोतता (हल चलाता) है, उसे 'शूद्र- ब्राह्मण' कहा गया है। जो दूसरों के दोष देखनेवाला और परद्रोही है, उसे 'चाण्डाल-द्विज' कहते हैं। इसी तरह क्षत्रियोंमें भी जो पृथ्वी का पालन करता है वह 'राजा' है। दूसरे लोग राजत्वहीन क्षत्रिय माने गये हैं। वैश्यों में भी जो धान्य आदि वस्तुओं का क्रय-विक्रय करता है वह 'वैश्य' कहलाता है। दूसरोंको 'वणिक्' कहते हैं। जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों की सेवा में लगा रहता है, वही वास्तव में 'शूद्र' कहलाता है। जो शूद्र हल जोतने का काम करता है उसे  'वृषल' समझना चाहिये। सेवा, शिल्प और कर्षण से भिन्न वृत्ति का आश्रय लेनेवाले शूद्र 'दस्यु' कहलाते हैं। इन सभी वर्णों के मनुष्यों को चाहिये कि वे ब्राह्ममुहूर्त में उठकर पूर्वाभिमुख हो सबसे पहले देवताओं का, फिर धर्म का, अर्थ का, उसकी प्राप्ति के लिये उठाये जानेवाले क्लेशों का तथा आय ओर व्यय का भी चिन्तन करे।

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