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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


पूर्वकाल में भगवान् शिव ने श्लोक संख्या की दृष्टि से सौ करोड़ श्लोकों का एक ही पुराणग्रन्थ ग्रथित किया था। सृष्टि के आदि में निर्मित हुआ वह पुराण-साहित्य अत्यन्त विस्तृत था। फिर द्वापर आदि युगों में द्वैपायन (व्यास) आदि महर्षियों ने जब पुराण का अठारह भागों में विभाजन कर दिया, उस समय सम्पूर्ण पुराणों का संक्षिप्त स्वरूप केवल चार लाख श्लोकों का रह गया। उस समय उन्होंने शिवपुराण का चौबीस हजार श्लोकों में प्रतिपादन किया। यही इसके श्लोकों की संख्या है। यह वेदतुल्य पुराण सात संहिताओं में बँटा हुआ है। इसकी पहली संहिता का नाम विद्येश्वरसंहिता है, दूसरी रुद्रसंहिता समझनी चाहिये, तीसरी का नाम शतरुद्रसंहिता, चौथी का कोटिरुद्रसंहिता, पाँचवीं का उमासंहिता, छठी का कैलाससंहिता और सातवीं का नाम वायवीयसंहिता है। इस प्रकार ये सात संहिताएँ मानी गयी हैं।

इन सात संहिताओं से युक्त दिव्य शिवपुराण वेद के तुल्य प्रामाणिक तथा सबसे उत्कृष्ट गति प्रदान करनेवाला है। यह निर्मल शिवपुराण भगवान् शिव के द्वारा ही प्रतिपादित है। इसे शैवशिरोमणि भगवान् व्यास ने संक्षेप से संकलित किया है। यह समस्त जीवसमुदाय के लिये उपकारक, त्रिविध तापों का नाश करनेवाला, तुलना- रहित एवं सत्पुरुषों को कल्याण प्रदान करनेवाला है। इसमें वेदान्त-विज्ञानमय, प्रधान तथा निष्कपट (निष्काम) धर्म का प्रतिपादन किया गया है। यह पुराण ईर्ष्यारहित अन्तःकरण वाले विद्वानों के लिये जानने की वस्तु है। इसमें श्रेष्ठ मन्त्र-समूहों का संकलन है तथा धर्म, अर्थ और काम - इस त्रिवर्ग की प्राप्ति के साधन का भी वर्णन है। यह उत्तम शिवपुराण समस्त पुराणों में श्रेष्ठ है। वेद- वेदान्त में वेद्यरूप से विलसित परम वस्तु- परमात्मा का इसमें गान किया गया है। जो बड़े आदर से इसे पढ़ता और सुनता है वह भगवान् शिव का प्रिय होकर परम गति को प्राप्त कर लेता है।

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